सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २४१ से – २४३ तक

 

एक शर्त पर छुट्टी स्वीकार की। वह यह कि एक सालके अंदर लोगोको मेरी जरूरत मालूम हो तो मैं फिर दक्षिण अफ्रीका जाऊंगा । मुझे यह शर्त कठिन मालूम हुई, परंतु मैं तो प्रेम-पाशमें बंधा हुआ था।

काचे रे तांतणे मने हरजीए बांधी।
जेम ताणे तेम तेमनी रे
मने लागी कठारी प्रेमली।

मीरावाईकी यह उपमा न्यूनाधिक अंशमें मुझपर घटित होती थी। पंच भी परमेश्वर ही हैं। मित्रोंकी बातको टाल नहीं सकता था। मैंने वचन दिया । इजाजत मिली ।

इस समय मेरा निकट-संबंध प्रायः नेटालके ही साथ था। नेटालके हिंदुस्तानियोंने मुझे प्रेमामृतसे नहला डाला । स्थान-स्थानपर अभिनंदनपत्र दिये गये और हर जगहसे कीमती चीजें नजर की गई।

१८९६में जब मैं देस आया था, तब भी भेटें मिली थीं; पर इस बारकी भेटों और सभाअओंके दृश्योंसे मैं घबराया । भेटमें सोने-चांदीकी चीजें तो थी ही; पर हीरेकी चीजें भी थीं ।

इन सब चीजोंको स्वीकार करनेका मुझे क्या अधिकार हो सकता है ? यदि में इन्हें मंजूर कर लूं तो फिर अपने मनको यह कहकर कैसे मना सकता हूँ कि मैं पैसा लेकर लोगोंकी सेवा नहीं करता था ? मेरे मवक्किलोंकी कुछ रकमको छोड़कर बाकी सब चीजें मेरी लोक-सेवाके ही उपलक्ष्यमें दी गई थीं । पर मेरे मनमें तो मवक्किल और दूसरे साथियोंमें कुछ भेद न था । मुख्य-मुख्य मुवक्किल सब सार्वजनिक काममें भी सहायता देते थे ।

फिर उन भेंटोंमें एक पचास गिनीको हार कस्तूरवाईके लिए था। मगर उसे जो चीज मिली वह भी थी तो मेरी ही सेवाके उपलक्ष्यमें; अतएवं उसे पृथक् । नहीं मान सकते थे ।

जिस शामको इनमें से मुख्य-मुख्य भेटें मिलीं, वह रात मैंने एक पागलकी


प्रभुजीने मुझे कच्चेः सूतके प्रेम-धागे से बांध लिया है। ज्यों-ज्यों वह जसे तानते हैं त्यों-त्यों मैं उनको होती जाती हूं। रह जागकर काटी। कमरेमें यहां से वहां टहलता रहा । परंतु गुत्थी किसी तरह सुलझती न थी । सैकड़ों रुपयोंकी भेंटें न लेना भारी पड़ रहा था; पर ले लेना उसमें भी भारी मालूम होता था ।

मैं चाहे इन भेंटको पचा भी सकता; पर मेरे बालक और पत्नी ? उन्हें तालीम तो सेवाकी मिल रही थी । सेवाका दाम नहीं लिया जा सकता था, यह हमेशा समझाया जाता था । घरमें कीमती जेवर आदि में नहीं रखता था । सादगी बढ़ती जाती थी । ऐसी अवस्थामें सोनेकी घड़ियां कौन रक्खेगा ? सोनेकी कंठीं और हीरेकी अंगूठियां कौन पहनेगा ? गहनोंका मोह छोड़नेके लिए में उस समय भी औरोंसे कहता रहता था। अब इन गहनों और जवाहरातको लेकर मैं क्या करूंगा ?

मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि ये चीजें मैं हरगिज नहीं रख सकता । पारसी रुस्तमजी इत्यादि को इन गहनोंके ट्रस्टी बनाकर उनके नाम एक चिट्ठी तैयार की और सुबह स्त्री-पुत्रादिसे सलाह करके अपना बोझ हलका करनेका निश्चय किया ।

मैं जानता था कि धर्मपत्नीको समझाना मुश्किल पड़ेगा । मुझे विश्वास था कि बालकको समझानेमें जरा भी दिक्कत पेश न आवेगी, अतएव उन्हें वकील बनाने का विचार किया ।

बच्चे तो तुरंत समझ गये । वे बोले, “ हमें इन गहनोंसे कुछ मतलब नहीं; ये सब चीजें हमें लौटा देनी चाहिए और यदि जरूरत होगी तो क्या मैं खुद नहीं बना सकेंगे ?”

में प्रसन्न हुआ । “तों तुम बा को समझाओगे न ? मैंने पूछा ।

“जरूर-जरूर। वह कहां इन गहनोंको पहनने चली है ? वह रखना चाहेगी भी तो हमारे ही लिए न ? पर जब हमें ही इनकी जरूरत नहीं है जब फिर वह क्यों जिद करने लगीं ?”

परंतु काम अंदाजसे ज्यादा मुश्किल साबित हुआ ।

“तुम्हें चाहे जरूरत न हो और लड़कोंको भी न हो। बच्चोंको क्या ? जैसा समझादे समझ जाते हैं। मुझे न पहनने दो; पर मेरी बहुओंको तो जरूरत होगी? और कौन कह सकता है कि कल क्या होगा ? जो चीजें लोगोंने इतने प्रेमसे दी हैं उन्हें वापस लौटाना ठीक नहीं।" इस प्रकार वाग्धारा शुरू हुई और उनके साथ अश्रुधारा आ मिली। लड़के दृढ़ रहे और मैं भला क्यों डिगने लगा?

मैंने धीरेसे कहा-"पहले लड़कों की शादी तो हो लेने दो। हम बचपनमें तो इनके विवाह करना चाहते ही नहीं हैं। बड़े होनेपर जो इनका जी चाहे सो करें। फिर हमें क्या गहनों-कपड़ोंकी शौकीन बहुएं खोजनी हैं? फिर भी अगर कुछ बनवाना ही होगा तो मैं कहां चला गया हूं?"

"हां, जानती हूं तुमको। वही न हो, जिन्होंने मेरे भी गहने उतरवा लिये हैं। जब मुझे ही नहीं पहनने देते हो तो मेरी बहुओंको जरूर ला दोगे! लड़कोंको तो अभीसे बैरागी बना रहे हो। इन गहनोंको मैं वापस नहीं देने दूंगी। और फिर मेरे हारपर तुम्हारा क्या हक?"

"पर यह हार तुम्हारी सेवाकी खातिर मिला है या मेरी?" मैंने पूछा।

"जैसा भी हो। तुम्हारी सेवामें क्या मेरी सेवा नहीं है? मुझसे जो रात-दिन मजूरी कराते हो, क्या वह सेवा नहीं है? मुझे रुला-रुलाकर जो ऐरे-गैरोको घरमें रखा और मुझसे सेवा-टहल कराई, वह कुछ भी नहीं?"

"ये सब बाण तीखे थे। कितने ही तो मुझे चुभ रहे थे। पर गहने वापस लौटाने का मैं निश्चय ही कर चुका था। अंतको बहुतेरी बातों में जैसे-तैसे सम्मति प्राप्त कर सका। १८९६ और १९०१ में मिली भेंटें लौटाईं। उनका ट्रस्ट बनाया गया और लोक-सेवाके लिए उसका उपयोग मेरी अथवा ट्रस्टियोंकी इच्छाके अनुसार होनेकी शर्तपर वह रकम बैंक में रक्खी गई। इन चीजोंको बेचनेके निमित्तसे मैं बहुत बार रुपया एकत्र कर सका हूं। आपत्ति-कोषके रूप वह रकम आज मौजूद है और उसमें वृद्धि होती जाती है"।

इस बातके लिए मुझे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ। आगे चलकर कस्तुर वाईको भी उसका और औचित्य जंचने लगा। इस तरह हम अपने जीवनमें बहुतेरे लालचोंसे बच गये हैं।

मेरा यह निश्चित मत हो गया है कि लोक-सेवकको जो भेंटें मिलती हैं, वे उसकी निजी चीज कदापि नहीं हो सकतीं।

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