सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ १७६ से – १७८ तक

 


सुंदरम् ने सोचा कि मेरे सामने भी इसी तरह जाया जाता होगा । बालासुंदरम् का यह दृस्य मेरे लिए पहला अनुभव था । मैं शरमिंदा हुआ। मैने बालासुंदरम् से कहा, "पहले फैंटा सिरपर बांध लो ।” बड़े संकोच से उसने फैंटा बांधा; पर मैंने देखा कि इससे उसे बड़ी खुशी हुई। मैं अब तक यह गुत्थी न सुलझा सका कि दूसरों को नीचे झुकाकर लोग उसने अपना सम्मान किस तरह मान सकते होंगे ।

२९
तीन पौंड का कर

बालासुंदरम् वाली घटना ने साथ मेरा संबंध जोड़ दिया; परंतु उनकी स्थिति का गहरा अध्ययन तो मुझे उनपर कर बैठाने की जो हलचल जल्दी उसके फलस्वरूप करना पड़ा।


१८९४ नेटाल-सर्कार ने गिरमिटिया हिंदुस्तानियों पर प्रतिवर्ष २५ पौंड अथात् ३७५) का कर बिठाने का बिल तैयार किया ! इस मसविने को पढ़कर मैं तो भौचक्का रह गया। मैंने उसे स्थानिक कांग्रेस में पेश किया और कांग्रेस ने उसके लिए आवश्यक हलचल करने को प्रस्ताव स्वीकार किया ।

इस करका ब्योरा थोड़ा सुन लीजिए--

१८६० ईस्वी के लगभग, जबकि नेटाल गोरों ने देखा कि यहां ईख की खेती अच्छी हो सकती हैं, उन्होंने मजूरों की खोज करनी शुरू की । यदि मजूर न मिलें तो न गन्ने की फसल हो सकती थी, न गुड़-शक्कर बन सकता थ! ! नेटाल के हवशी इस काम को नहीं कर सकते थे। इसलिए नेटाला गोरो ने भारतसरकार से लिखा-पट्टी करके हिंदुस्तानी मजूरों को नेटाल ले जाने की इजाजत हासिल कर ली। उन्हें लालच दिया गया था कि तुम्हें पांच साल तो बंधकर हमारे यहां काम करना पड़ेगा, फिर आजाद हो, शौक से नेटाल रहो। उन्हें जमीन का हक माल्कियत भी पूरा दिया गया था। उस समय गोरें की यह इच्छा थी कि हिंदुस्तानी मजदूर पांच साल की गिरमिट पूरी करने के बाद खुशी से जमीन जोते और अपनी मेहनत का लाभ नेटाल को पहुंचायें ।

भारतीय कुलियों ने नेटाल को यह लाभ अशा से अधिक दिया । तरह
तरह की भाग-तरकारियां बोईं। हिंदुस्तान की कितनी ही मीठी तरकारियां बोई ? जो साग-तरकारी वहां पहले मिलती थीं उन्हें सस्ता कर दिया। हिंदुस्तान से आम लाकर लगाया; पर इसके साथ ही वे व्यापार भी करने लगे । घर बनाने के लिए जमीने खरीदी ओर मजूर से अच्छे जमींदार और मालिक बनने लगे । मजूर की दशासे मालिक की दशा को पहुँचने वाले लोगों के पीछे स्वतंत्र व्यापारी वहां आये। स्वर्गीय सेठ अदुवकर आदम सबसे पहले व्यापारी थे, जो वहां गये। उन्होंने अपना कारबार खूब जमाया ।

इससे गोरे व्यापारी चौंके । जब उन्होंने भारतीय कुलियों को बुलाया और उनका स्वागत किया तब उन्हें उनकी व्यापार-क्षमता का अंदाज न हुआ था । उनके किसान बनकर आजादी के साथ रहने में तो उस समय तक उन्हें आपत्ति न थी, परंतु व्यापार में उनकी प्रतिस्पर्धा उन्हें नागवार हो गई।

यह हैं हिंदुस्तानियों के खिलाफ आवाज उठाने का मूल कारण ।।

अब इसमें और बात भी शामिल हो गई। हमारी भिन्न और विशिष्ट रहन-सहन, हमारी सादगी, हमें थोड़े मुनाफे से होनेवाली संतोष, आरोग्य के नियमों के विषयों हमारी लापरवाही, घर-आंगन को साफ रखने का आलस्य, उसे साफ सुथरा रखने में कंजूसी, हमारे जुदे-जुदे धर्म---ये सब बातें इस विधि को बढ़ानेवाली थीं ।

यह विरोध एक तो उस मताधिकार को छीन लेने के रूप में और दूसरा गिरमिटियों पर कर बैठाने के रूप में सामने झाया । कानून के अलावा भी तरह तरह की खुचरपट्टी चल रही थी सो अलग ।

पहली तजवीज यह पेश हुई थी कि पांच साल पूरे होने पर गिरमिटिया जबरदस्ती वापस लौटा दिया जाय । वह इस तरह कि उसकी गिरमिट हिंदुस्तान में जाकर पूरी हो; पर इस तजवीज को भारत-सरकार मन्जूर न कर सकती थी। तब ऐसी तजवीज़ हुई कि-----

१----मजदूरी का इकरार पूरा होने पर गिरमिटिया वापस हिंदुस्तान चला जाय । अथवा---

२-बो-दो वर्ष की गिरमिट नये सिरे से ज्ञात रहे और ऐसी हर गिरमिट के समय उसके वेतन में कुछ वृद्धि होती रहे । ३----यदि वापस न जाय और फिर से मजदूरी का इकरार भी न करे तो उसे हर साल ३३ पौंड कर देना चाहिए ।

इस तजवीज को मंजूर कराने के लिए सर हेनरी बैन् तथा मि० मेसन का शिष्ट-मंडल हिंदुस्तान भेजा गया। उस समय लार्ड एल्गिन वायसराय थे। उन्होंने पच्चीस पौंड का कर नामंजूर कर दिया; पर यह मान लिया कि सिर्फ तीन पौंड कर लिया जाय । मुझे उस समय भी लगा और आज भी लगता है कि वायसराय ने यह जबरदस्त भूल की थी। उन्होंने इस बात में हिंदुस्तान के हित का बिलकुल खयाल न किया। उनका यह धर्म कतई न था कि वह नेटाल के गोरो को इतनी सुविधा कर दें। यह भी तय हुआ कि तीन-चार वर्ष बाद ऐसे हिंदुस्तानी की स्त्री से, उनके हर १६ वर्ष तथा उससे अधिक उम्र के प्रत्येक पुत्र से और १३ वर्ष तथा उससे अधिक उमृवाली लड़की की कर लिया जाय। इस तरह पति-पत्नी और दो बच्चों के परिवार से, जिसमें पति को मुश्किल से बहुत-से-बहुत १४ शिलिंग मासिक मिलते हों, १२ पौंड अत् १८०) कर लेना महान् अत्याचार है। दुनिया में कहीं भी ऐसा कर ऐसी स्थितिवाले लोगों से नहीं लिया जाता था।

इस कर के विरोध में घोर लड़ाई छिड़ी। यदि नेटाल-इंडियन कांग्रेस की ओर से बिलकुल आवाज न उठी होती तो वायसराय शायद २५ पौंड भी मंजूर कर लेते। २५ पौंड के ३ पौंड होना भी, बिलकुल संभव है, कांग्रेस के आंदोलन का ही परिणाम हो। पर मेरे इस अंदाज में भूल होना संभव है। संभव है, भारतसरकार ने आपन-आप ही २५ पौंड को अस्वीकार कर दिया हो और बिना कांग्रेस के विरोध ३ पौंड का कर स्वीकार कर लिया हो। फिर भी वह हिंदुस्तान के हित का तो भंग था ही। हिंदुस्तान के हित-रक्षक को हैसियत से ऐसा अमानुष कर वायसराय को हरगिज ने बैठाना चाहिए था।

पच्चीस से तीन पौंड (३७५ रु० से ४५ रु०) होने के लिए कांग्रेस भला श्रेय भी क्या ले ? कांग्रेस को तो यही बात खली कि वह गिरमिटियों के हित की पूरी-पूरी रक्षा न कर सकी, और कांग्रेस ने अपना यह निश्चय कि तीन पौंड का कर तो अवश्य रद्द हो जाना चाहिए, कभी ढीला न किया था। इस निश्चय को पूरा हुए आज २० वर्ष हो गए ! उसमें अकेले नेटाल के ही नहीं, वरन् सारे दक्षिण अफ्रिका के भारतवासियों को जूझना पड़ा था। इसमें गोखले को भी निमित्त बनना

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