सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ५९ से – ६२ तक

 

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जाति-बहिष्कार

माताजीकी आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर, कुछ महीनेका बच्चा पत्नीके साथ छोड़कर, मैं उमंग और उत्कंठाके साथ बंबई पहुंचा। पहुंच तो गया, पर
वहां मित्रोंने भाईसे कहा कि जून-जुलाई में हिंद महासागरमें तूफान रहता है। यह पहली बार समुद्र-यात्रा कर रहा है, इसलिए दिवालीके बाद अर्थात् नवंबर में इसको भेजना चाहिए। इतनेमें ही किसीने तूफानमें किसी जहाजके डूब जानेकी बात भी कह डाली। इससे बड़े भाई चिंतित हो गये। उन्होंने मुझे ऐसी जोखिम उठाकर उस समय भेजनेसे इन्कार कर दिया, और वहीं अपने एक मित्रके यहां मुझे छोड़कर खुद अपनी नौकरीपर राजकोट चले गये। अपने एक बहनोईके पास रुपये-पैसे रख गये और कुछ मित्रोंसे मेरी मदद करनेको भी कहते गये।

बंबईमें मेरा पड़ाव लंबा हो गया। वहां मुझे दिन-रात विलायतके ही सपने आते।

इसी बीच हमारी जातिमें खलबली मची। पंचायत इकट्ठी हुई। मोढ़ बनियोंमें अबतक कोई विलायत नहीं गया था और उन लोगोंका कहना था कि यदि मैं ऐसा साहस करता हूं तो मुझसे जवाब तलब होना चाहिए। मुझे जातिकी पंचायतमें हाजिर होनेका हुक्म हुआ। मैं गया। ईश्वर जाने मुझे एकाएक यह हिम्मत कहांसे आई। वहां जाते हुए न संकोच हुआ, न डर। जातिके मुखियाके साथ दूरका कुछ रिश्ता भी था, पिताजीके साथ उनका अच्छा संबंध था। उन्होंने मुझसे कहा-

"पंचोंका यह मत है कि तुम्हारा विलायत जानेका विचार ठीक नहीं है। अपने धर्ममें समुद्र-यात्रा मना है। फिर हमने सुना है कि विलायतमें धर्मका पालन नहीं हो सकता। वहां अंग्रेजोंके साथ खाना-पीना पड़ता है।"

मैने उत्तर दिया, "मैं तो समझता हूं, विलायत जाना किसी तरह अधर्म नहीं। मुझे तो वहां जाकर सिर्फ विद्याध्ययन ही करना है। फिर जिन बातों का भय आपको है उनसे दूर रहनेकी प्रतिज्ञा मैंने माताजीके सामने ले ली है और मैं उनसे दूर रह सकूंगा।"

"पर हम तुमसे कहते हैं कि वहां धर्म कायम नहीं रह सकता। तुम जानते हो कि तुम्हारे पिताजीके साथ मेरा कैसा संबंध था, तुम्हें मेरा कहना मान लेना चाहिए," मुखिया बोले।

"जी, आपका संबंध मुझे याद है। आप मेरे लिए पिताके समान हैं। परंतु इस बातमें मैं लाचार हूं। विलायत जानेका निश्चय मैं नहीं पलट सकता।
मेरे पिताजीके मित्र और सलाहकार, जो कि एक विद्वान् ब्राह्मण हैं, मानते हैं कि मेरे विलायत जानेमें कोई बुराई नहीं। माताजी और भाई साहबने भी इजाजत दे दी है।" मैंने उत्तर दिया।

"पर पंचोंका हुक्म तुम नहीं मानोगे?"

"मैं तो लाचार हूं, मैं समझता हूं पंचोंको इस मामलेमें न पड़ना चाहिए।"

इस जवाबसे उन मुखियाको गुस्सा आ गया। मुझे दो-चार भली-बुरी सुनाई। मैं चुप बैठ रहा। उन्होंने हुक्म दिया-

"यह लड़का आजसे जात बाहर समझा जाय। जो इसकी मदद करेगा अथवा पहुंचाने जायगा वह जातिका गुनहगार होगा और उससे सवा रुपया जुर्माना लिया जावेगा।"

इस प्रस्तावका मेरे दिलपर कुछ असर न हुआ। मैंने मुखियासे विदा मांगी। अब मुझे यह सोचना था कि इस प्रस्तावका असर भाई साहबपर क्या होगा। वह कहीं डर गये तो? पर सौभाग्यसे वह दृढ़ रहे और मुझे उत्तरमें लिखा कि जातिके इस प्रस्तावके होते हुए भी मैं तुमको विलायत जानेसे नहीं रोकूंगा।

इस घटनाके बाद मैं अधिक चिंतातुर हुआ। भाई साहबपर दबाव डाला गया तो? अथवा कोई और विघ्न खड़ा हो गया तो? इस तरह चिंतासे मैं दिन बिता रहा था कि इतनेमें खबर मिली कि ४ सितंबरको छूटनेवाले जहाजमें जूनागढ़के एक वकील बैरिस्टर बननेके लिए विलायत जा रहे हैं। मैं भाई साहबके उन मित्रोंसे मिला, जिनसे वह मेरे लिए कह गये थे। उन्होंने सलाह दी कि इस साथको नहीं छोड़ना चाहिए। समय बहुत थोड़ा था। भाई साहबसे तार द्वारा आज्ञा मांगी। उन्होंने दे दी। मैंने बहनोई साहबसे रुपये मांगे। उन्होंने पंचोंकी आज्ञाका जिक्र किया। जाति-बाहर रहना उन्हें मंजूर न हो सकता था। तब अपने कुटुंबके एक मित्रके पास मैं पहुंचा, और किराये वगैराके लिए आवश्यक रकम मुझे देने और फिर भाई साहबसे वसूल कर लेनेका अनुरोध मैंने किया। उन्होंने न केवल इस बातको स्वीकार ही किया, बल्कि मुझे हिम्मत भी बंधाई। मैंने उनका अहसान मानकर रुपये लिये और टिकिट खरीदा।

विलायत-यात्राका सारा सामान तैयार करना था। एक दूसरे अनुभवी
मित्रने साज-सामान तैयार करवाया। मुझे वह सब बड़ा विचित्र मालूम हुआ। कुछ बातें अच्छी लगीं, कुछ बिलकुल नहीं। नेकटाई तो बिलकुल अच्छी न लगी- हालांकि आगे जाकर मैं उसे बड़े शौकसे पहनने लगा था। छोटा-सा जाकेट नंगा पहनावा मालूम हुआ। परंतु विलायत जानेकी धुनमें इस नापसंदीके लिए जगह नहीं थी। साथमें खानेका सामान भी काफी बांध लिया था।

मेरे लिए स्थान भी मित्रोंने त्रंबकराय मजूमदार (जूनागढ़वाले वकील) की केबिनमें रिजर्व कराया। उनसे मेरे लिए उन्होंने कह भी दिया। वह तो थे अधेड़, अनुभवी आदमी। मैं ठहरा अठारह बरसका नौजवान, दुनियाके अनुभवोंसे बेखबर। मजूमदारने मित्रोंको मेरी तरफसे निश्चिंत रहनेका आश्वासन दिया।

इस तरह ४ सितंबर १८८८ ई० को मैंने बंबई बंदर छोड़ा।