सत्य के प्रयोग/ चोरी और प्रायश्चित

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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जरूर मालूम हुआ कि केवल धुआं फूंकनेमें ही कुछ आनंद है। मेरे चाचाजीको सिगरेट पीनेकी आदत थी। और उनको तथा औरोंको धुंआ उड़ाते देखकर हमें भी फूंक लगानेकी इच्छा हुआ करती। पैसे थे ही नहीं, इसलिए चाचाजीके पीकर फेंके हुए सिगरेटके टुकड़े चुरा-चुराकर हम लोग पीने लगे।

परंतु ये टुकड़े भी हर वक्त नहीं मिल सकते थे और उनसे बहुत धुआं भी नहीं निकलता था। इसलिए हम नौकरके पैसोंमेंसे एक-एक दो-दो पैसे चुराने और बीड़ी खरीदने लगे। पर यह दिक्कत थी कि उन्हें रक्खें कहां? यह तो जानते थे ही कि बड़े-बूढ़ोंके सामने बीड़ी-सिगरेट पी नहीं सकते। ज्यों-त्यों करके दो-चार पैसे चुराकर कुछ सप्ताह काम चलाया। इसी बीच सुना कि एक किस्मके पौधे (उसका नाम भूल गया) के डंठल बीड़ीकी तरह सुलगते हैं, और पी सकते हैं। हम उन्हें ला-लाकर पीने लगे।

पर हमें संतोष न हुआ। यह पराधीनता हमें खलने लगी। बड़े-बूढ़ों की आज्ञाके बिना कुछ भी नहीं कर सकते, यह दिन-दिन नागवार होने लगा। अंतको उकताकर हमने आत्म-हत्या करनेका निश्चय किया।

परंतु आत्म-हत्या करें किस तरह? जहर लावें कहां से? हमने सुना था कि धतूरेके बीज खानेसे आदमी मर जाता है। जंगलमें घूम-फिरकर बीज लाये। शामका समय ठीक किया। केदारजीके मंदिरमें जाकर दीपकमें घी डाला, दर्शन किया, और एकांत ढूंढा, पर जहर खानेकी हिम्मत न होती थी। 'तुरंत ही प्राण न निकलें तो? मरनेसे आखिर क्या लाभ? पराधीनतामेंही क्यों न पड़े रहें?' ये विचार मनमें आने लगे। फिर दो-चार बीज खा ही डाले। ज्यादा खानेकी हिम्मत न चली। दोनों मौतसे डर गये; और यह तय किया कि रामजीके मंदिर में जाकर दर्शन करके खामोश हो रहें और आत्म-हत्याके खयाल को दिलसे निकाल डालें।

तब मैं समझा कि आत्म-हत्याका विचार करना तो सहल है; पर आत्म-हत्या करना सहल नहीं। अतएव जब कोई आत्म-हत्या करनेकी धमकी देता है तब मुझपर उसका बहुत कम असर होता है, अथवा यह कहूं कि बिलकुल ही नहीं होता तो हर्ज नहीं।

आत्म-हत्याके विचारका एक परिणाम यह निकला कि हमारी जूठी [ ४६ ]
सिगरेट चुराकर पीनेकी, नौकरके पैसे चुरानेकी और उसकी बीड़ी लाकर पीनेकी टेव छुट गई। बड़ा होनेपर भी मुझे कभी बीड़ी पीनेकी इच्छातक न हुई। और मैंने सदा इस टेवको जंगली, हानिकारक और गंदी माना है। पर अबतक मैं यह नहीं समझ पाया कि बीड़ी-सिगरेट पीनेका इतना जबर्दस्त शौक दुनियाको आखिर क्यों है? रेलके जिस डिब्बेमें बहुतेरी बीड़ियां फूंकी जाती हों, वहां बैठना मेरे लिए मुश्किल हो पड़ता है और उसके धुएंसे मेरा दम घुटने लगता है।

सिगरेटके टुकड़े चुराने तथा उसके लिए नौकरके पैसे चुरानेसे बढ़कर चोरीका एक दोष मुझसे हुआ है, और उसे मैं इससे ज़्यादा गंभीर समझता हूं। बीड़ीका चस्का तब लगा जब मेरी उम्र १२-१३ सालकी होगी। शायद इससे भी कम हो। दूसरी चोरीके समय १५ वर्षकी रही होगी। यह चोरी थी मेरे मांसाहारी भाईके सोनेके कड़ेके टुकड़ेकी। उन्होंने २५) के लगभग कर्जा कर रक्खा था। हम दोनों भाई इस सोचमें पड़े कि यह चुकावें किस तरह। मेरे भाईके हाथमें सोनेका एक ठोस कड़ा था। उसमेंसे एक तोला सोना काटना कठिन न था।

कड़ा कटा। कर्ज चुका, पर मेरे लिए यह घटना असह्य हो गई। आगेसे कदापि चोरी न करने का मैंने निश्चय किया। मनमें आया कि पिताजीके सामने जाकर चोरी कबूल करलूं। पर उनके सामने मुंह खुलना मुश्किल था। यह डर तो न था कि पिताजी खुद मुझे पीटने लगेंगे, क्योंकि मुझे नहीं याद पड़ता कि उन्होंने हम भाइयोंमेंसे कभी किसीको पीटा हो। पर यह खटका जरूर था कि वह खुद बड़ा संताप करेंगे, शायद अपना सिर भी पीट लें। तथापि मैंने मनमें कहा— "यह जोखिम उठाकर भी अपनी बुराई कबूल कर लेनी चाहिए, इसके बिना शुद्धि नहीं हो सकती।"

अंतमें यह निश्चय किया कि चिट्ठी लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लूं। मैंने चिट्ठी लिखकर खुद ही उन्हें दी। चिट्ठीमें सारा दोष कबूल किया था और उसके लिए सजा चाही थी। आजिजीके साथ यह प्रार्थना की थी कि आप किसी तरह अपनेको दुःखी न बनावें और प्रतिज्ञा की थी कि आगे मैं कभी ऐसा न करूंगा।

पिताजीको चिट्ठी देते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे। उस समय वह भगंदरकी बीमारीसे पीड़ित थे। अतः खटियाके बजाय लकड़ीके तख्तोंपर उनका बिछौना [ ४७ ]
रहता था। उनके सामने जाकर बैठ गया।

उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखोंसे मोतीके बूंद टपकने लगे। चिट्ठी भीग गई। थोड़ी देरके लिए उन्होंने आंखें मूंद लीं। चिट्ठी फाड़ डाली। चिट्ठी पढ़नेको जो वह उठ बैठे थे सो फिर लेट गये।

मैं भी रोया। पिताजीके दु:खको अनुभव किया। यदि मैं चितेरा होता तो आज भी उस चित्रको हूबहू खींच सकता। मेरी आंखोंके सामने आज भी वह दृश्य ज्यों-का-त्यों दिखाई दे रहा है।

इस मोती-बिंदुके प्रेमबाणने मुझे बींध डाला। मैं शुद्ध हो गया। इस प्रेमको तो वही जान सकता है, जिसे उसका अनुभव हुआ है-

रामबाण वाग्यांरे होय ते जाणे[१]

मेरे लिए यह अहिंसाका पदार्थ-पाठ था। उस समय तो मुझे इसमें पितृ-वात्सल्यसे अधिक कुछ न दिखाई दिया, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसाके नामसे पहचान सका हूं। ऐसी अहिंसा जब व्यापक रूप ग्रहण करती है तब उसके स्पर्शसे कौन अलिप्त रह सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसाके बलको नापना असंभव है।

ऐसी शांतिमय क्षमा पिताजीके स्वभावके प्रतिकूल थी। मैने तो यह अंदाज किया था कि वह गुस्सा होंगे, सख्त-सुस्त कहेंगे शायद अपना सिर भी पीट लें। पर उन्होंने तो असीम शांतिका परिचय दिया। मैं मानता हूं कि यह अपने दोषको शुद्ध हृदयसे मंजूर कर लेने का परिणाम था।

जो मनुष्य अधिकारी व्यक्तिके सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदयसे कह देता है और फिर कभी न करनेकी प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है। मैं जानता हूं कि मेरी इस दोष-स्वीकृतिसे पिताजी मेरे संबंधमें नि:शंक हो गये और उनका महाप्रेम मेरे प्रति और भी बढ़ गया।

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  1. प्रेम-बाणसे जो बिंधा हो वही उसके प्रभावको जानता है-अनु०