सत्य के प्रयोग/ घरमें सत्याग्रह

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
[ ३५२ ]
३३२
 

त्-था : भाग ४ थे । अंतको कस्तुरबाईने यह कहकर इस बहसको बंद कर दिया--- “स्वामीजी, आप कुछ भी कहिए, मैं मांसका शोरबा खाकर चंगी होना नहीं चाहती । अब बड़ी दया होगी, अगर आप मेरा सिर न खपावें। मैंने तो अपना निश्चय आपसे कह दिया । अब और बातें रह गई हों तो श्राप इन लड़कोंक बापसे जाकर कीजिएगा ।" | २६ घरमें सत्याग्रह ( १९०८म मुझे पहली बार जेलका अनुभव हुआ । उस समय मुझे यह बात मालूम हुई कि जेलमें जो कितने ही नियम कैदियोंसे पालन कराये जाते हैं, दे एक संयमीको अथवा ब्रह्मचारीको स्वेच्छा-पूर्वक पालन करना चाहिए।' जैसे कि कैदियोंको सूर्यास्तके पहले पांच बजेतक भोजन कर लेना चाहिए। उन्हेंफिर वे हब्शी हों या हिंदुस्तानी---- चाय या काफी न दी जाय, नमक खाना हो तो. अलहदा लें, स्वादके लिए कोई चीज न खिलाई जाय । जब मैंने जेलके डाक्टरसे हिंदुस्तानी कैदियोंके लिए ‘करी पाउडर' मांगा और नमक रसोई पकाते वक्त ही डालनेके लिए कहा तब उन्होंने जवाब दिया कि “आप लोग यहां स्वादिष्ट चीजें खानेके लिए नहीं आये है। आरोग्यके लिए ‘करी पाउडर'की बिलकुल जरूरत नहीं है आरोग्यके लिए नमक चाहे ऊपरसे लिया जाय, चाहे पकाते वक्त डाल दिया जाय, एक ही बात है ।। खैर, बहां तो बड़ी मुश्किल से हम लोग भोजनमें आवश्यक परिवर्तन करा पाये थे, परंतु संयमकी दृष्टिसे जब उनपर विचार करते हैं तो मालूम होता. कि ये दोनों प्रतिबंध अच्छे ही थे। किसीकी जबरदस्तीसे नियमोंका पालन करनेसे उसका फल नहीं मिलता। परंतु स्वेच्छासे ऐसे प्रतिबंधका पालन | | ये अनुभव हिन्दीमें 'मेरे ओलके अनुभव के नामसे प्रताप-प्रेस, कानपुर, से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं । १९१६-१७ में मैंने इनका अनुवाद प्रताप-जैसके लिए किया था }----अनुवादक । [ ३५३ ]________________

अध्याय २९ : घरमें सत्याग्रह किया जाय तो वह बहुत उपयोगी हो सकता है । अतएव जेल से निकलनेके बाद मैने तुरंत इन बातोंका पालन शद कर दिया। जहांतक हो सके चाय पीना बंद कर दिया और शामके पहले भोजन करनेकी अदित डाली, जो आज स्वाभाविक हो बैठी हैं । परंतु ऐसी भी एक घटना घटी, जिसकी बदौलत मैंने जनक भी छोड़ दिया था । वह क्रम लगभग दस बरसतक नियमित रूपले जारी रहा। अन्नाहारसंबंधी कुछ पुस्तकों में मैंने पढ़ा था कि मनुष्यके लिए नमक खाना आवश्यक नहीं है। जो नमक नहीं खाता है आरोग्यकी दृष्टि उसे लाभ ही होता है और मेरी तो यह भी कल्पना दौड़ गई थी कि ब्रह्मचारीको भी उससे लाभ होगा ! जिसका शरीर निर्बल हो उसे दाल न खानी चाहिए, यह मैंने पढ़ा था और अनुभव भी किया था। परंतु में उसी समय उन्हें छोड़ न सका था; क्योंकि दोनों चीजें मुझे प्रिय थीं ।। नश्तर लगाने के बाद यद्यपि कस्तूरबाईक रक्तस्त्राचे कुछ समयके लिए बंद हो गया था, तथापि अदको वह फिर जारी हो गया । अबकी बह किती तरह मिटाये ३ मिटा । पानीके इलाज बेकार साबित हुए। मेरे इन उपचारोंपर पत्नी की बहुत श्रद्धा न थी; पर साथ ही तिरस्कार भी न था। दूसरा इलाज करने का भी उसे अाग्रह न था; इसलिए जब मेरे दूसरे उपचारोंमें लता न मिनी तब मैंने उसको समझाया कि दाल और नमक छोड़ दो। मैंने उसे समझानेकी हद कर दी, अपनी बातके समर्थनमें कुछ साहित्य भी पढ़कर सुनाया, पर वह नहीं मानती थी ! अँतको उसने झुंझलाकर कहा--- "दाल और नमक छोड़नेके लिए तो आपसे भी कोई कहे तो आप भी न छोड़ेंगे ।” इस जवाबको सुनकर, एक ओर जहां मुझे दुःख हुए तहां दूसरी और हर्ष भी हुआ; क्योंकि इससे मुझे अपने प्रेमको परिचय देनेका अवसर मिला। उस र्ष से मैंने तुरंत कहा, “तुम्हारा खयाल गलत है, मैं यदि बीमार होऊं और मुझे यदि वैद्य इन चीजोंको छोड़नेके लिए कहें तो जरूर छोड़ दू । पर ऐसा क्यों ? लो, तुम्हारे लिए मैं आज हीसे दाल और नमक एक सालतक छोड़ देता हूं । तुम छोड़ो या न छोड़ो, मैंने तो छोड़ दिया ।" यह देखकर पत्नीको बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह कह उठी----"माफ़ [ ३५४ ]________________

-कथा : भाग ४ करो, आपका मिजाज जानते हुए भी यह बात मेरे मुंहसे निकल गई । अब ६ तो दाल और नमक न खाऊं, पर झाप अपना वचन वापस ले लीजिए। यह तो मुझे भारी सजा दे दी । मैंने कहा---- “तुम दाल और नमक छोड़ दो तो बहुत ही अच्छा होगा। मुझे विश्वास है कि उससे उन्हें लाभ ही होगा, परंतु मैं जो प्रतिज्ञा कर चुका हूं। वह नहीं टूट सकती है मुझे भी उससे लाभ ही होगा । हर किसी निमित्तले मनुष्य यदि संयमका पालन करता है तो इससे उसे लाभ ही होता है । इसलिए तुम इस बातपर जोर न दो; क्योंकि इससे मुझे भी अपनी आजमाइश कर लेने का मौका मिलेगा और दुमने जो इनको छोड़नेका निश्चिय किया है, उसपर दृढ़ रहनेमें भी तुम्हें मदद मिलेगी ।" इतना कहनेके बाद तो मुझे मनानेकी आवश्यकता रह नहीं गई थी । “आप तो बड़े ही हैं, किसीका कहा मानना अपने सीखा ही नहीं ।” यह कहकर वह झांसू बहाती हुई चुप हो रही । इसको में पाठको के सामने सत्याग्रहके तौरपर पेश करना चाहता हूं। और मैं कहना चाहता हूं कि मैं इसे अपने जीवनकी मीठी स्मृतियोंमें गिनता हूँ । इसके बाद तो कस्तूरबाईका स्वास्थ्य खूब सम्हलने लगा । अब यह नमक और दालके त्यागका फल है, या उस त्यागसे हुए भोजनके छोटे-बड़े परि बर्तनोंका फल था, या उसके बाद दूसरे नियमोंका पालन करानेकी मेरी जागरूकताका फल था, या इस घटनाके कारण जो मानसिक उल्लास हुआ उसका फल था, यह में नहीं कह सकता । परंतु यह बात जरूर हुई कि कस्तुरबाईक सूखा शरीर फिर पनपने लगा । रक्तस्राव बंद हो गया और वैद्यराज' के नामसे मेरी साख कुछ बड़ गई ।। खुद मुझपर भी इन दोनों चीजोंको छोड़ देनेका अच्छा ही असर हुआ । छोड़ देने के बाद तो नमक यो दाल खानेकी इच्छातक न रही। यों एक साल बीतते देर न लगी । इससे इंद्रियोंकी शांतिक अधिक अनुभव होने लगा और संयमकी - वृद्धि की तरफ मन अधिक दौड़ने लगः । एक वर्ष पूरा हो जानैपर भी दाल और नमकका त्याग तो ठेठ देशमें आनेतक जारी रहा। हां, बीचमें सिर्फ एक ही बार विलायतमे १९१४में, दाल और नमक खाया था; पर इस घटनाका तथा देश अनेके बाद इन चीजोंको शुरू करनेके कारणों का वर्णन पीछे करूंगा ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।