सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४४५ ]४२८ अत्मि-कथं? : भंग ५ बहुत अच्छी तरह चल निकला और उनका आत्म-विश्वास बढ़ा । उन्हें अपने काममें रस भी आने लगा । अवंतिका बाई की पाठशाला आदर्श बन गई । उन्होंने अपनी पाठशालामें जीवन दाल् दिया । वह इस कामको जानती भी खूब थीं । इन बहनोंकी माफर्त देहातके स्त्री-समाजमें भी हमारा प्रवेश हो गया था । परंतु मुझे पढ़ाई तक ही न रुक जाना था । गां वोंमें गंदगी बेहद थी । रास्तों और गलियों में कूड़े और कंकर का ढेर, कुओं के पास कीचड़ और बदबू, प्रांगन इतने गंदे कि देखा न जाता था । बड़े-बूढ़ोंको सफाई सिखानेकी जरूरत थी । चंपारनके लोग बीमारियोंके शिकार दिखाई पड़ते थे । इसलिए जहाँतक हो सके उनका सुधार करने और इस तरह लोगोंके जीवनके प्रत्येक विभागमें प्रवेश करनेकी इच्छा थी । इस काममें डाक्टर की सहायताकी जरूरत थी । इसलिए मैंने गोखलेकी समितिसे डाक्टर देवको भेजनेका अनुरोध किया । उनके साथ मेरा स्नेह तो पहले ही हो चुका था । छः महीनेके लिए उनकी सेवाका लाभ मिला । यह तय हुआ कि उनकी देख-रेखमें शिक्षक और शिक्षिका सुधारका काम करें । - इनके सबके साथ यह बात तय पाई थी कि इनमेंसे कोई भी निलहोंके शिकायतोंके झगड़े में न पड़े । राजनैतिक बातोंको न छुऍ । जो शिकायत लावें उनको सीधा मेरे पास भेज दें । कोई भी अपने क्षेत्र और कामको छोड़कर एक कदम इधर-उधर न हों । चंपारनके मेरे इन साथियोंका नियम-पालन अद्भुत था । मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं श्राता कि जब किसीन भी नियमों व हिदायतोंका उल्लंघन किया हो । - १८ । ग्राम-प्रवेश ।

बहुत करके हर पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्रीकी योजना की थी। उन्हींकी मार्फत दवा और सुधार के काम करने का निश्चय किया था । स्त्रियों के द्वारा स्त्री-समाज में प्रवेश करना था । दवाका कामं बहुत श्रासान कर दिया था । अंडीका तेल, कुनैन और मरह्म-- इतनी चीजें हर पाठशाला में रखी गई थीं । [ ४४६ ]अध्याय १८ : ग्राम-प्रवेश ४२९

जीभ मैली दिखाई दे और कब्जकी शिकायत हो तो अंडीका तेल पिला देना, बुखारकी शिकायत हो तो अंडीका तेल पिलानेके बाद कुनैन पिला देना और फोड़े-फुंसी हों तो उन्हें धोकर मरहम लगा देना, बस इतना ही काम था । खानेकी दवा या पिलानेकी दवा किसीको घर ले जाने के लिए शायद ही दी जाती थी । कोई ऐसी बीमारी हो जो समझमें नहीं आयी हो या जिसमें कुछ जोखिम हो, तो डा० देवको दिखा लिया जाता । डा० देव नियमित समयपर जगह-जगह जाते । इस सादी सुविधासे लोग ठीक-ठीक लाभ उठाते थे । आमतौरपर फैली हुई बीमारियों की संख्या कम ही होती हैं और उनके लिए बड़े विशारदोंकी जरूरत नहीं होती । यह बात अगर ध्यानमें रक्खी जाय तो पूर्वोक्त योजना किसी को हास्यजनक न मालूम होगी । वहांके लोगोंको तो नहीं मालूम हुई ।

परंतु सुधार-काम कठिन था । लोग गंदगी दूर करने के लिए तैयार नहीं होते थे । अपने हाथसे मैला साफ करने के लिए वे लोग भी तैयार न होते थे, जो रोज खेतपर मजदूरी करते थे; परंतु डा० देव झट निराश होने वाले जीव नहीं थे । उन्होंने खुद तथा स्वयं-सेवकोंने मिलकर एक गांवके रास्ते साफ किये, लोगोंके आँगनसे कूड़ा-करकट निकाला, कुएंके आसपासके गढ़े भरे, कीचड़ निकाली और गांवके लोगोंको प्रेमपूर्वक समझाते रहे कि इस कामके लिए स्वयं-सेवक दो । कहीं लोगोंने शरम खाकर काम करना शुरू भी किया और कहीं-कहीं तो लोगोंने मेरी मोटरके लिए रास्ता भी खुद ही ठीक कर दिया । इन मीठे अनुभवोंके साथ ही लोगोंकी लापरवाहीके कडुए अनुभव भी मिलते जाते थे । मुझे याद है कि यह सुधारकी बात सुनकर कितनी ही जगह लोगोंके मनमें अरुचि भी पैदा हुई थी । 
इस जगह एक अनुभवका वर्णन करना अनुचित न होगा, हालांकि उसका जिक्र मैंने स्त्रियोंकी कितनी ही सभाश्रोंमें किया है । भीतिहरवा नामक एक छोटा-सा गांव है । उसके पास उससे भी छोटा एक गांव है । वहां कितनी ही बहनोंके कपड़े बहुत मैले दिखाई दिये । मैंने कस्तूरबाईसे कहा कि इनको कपड़े धोने और बदलनेके लिए समझाओ । उसने उनसे बातचीत की तो एक बहन उसे अपने झोंपड़ेमें ले गई और बोली कि “ देखो, यहां कोई संदूक या आलमारी नहीं कि जिसमें कोई कपड़े रक्खे हों । मेरे पास सिर्फ यह एक ही धोती है, जिसे मैं पहने हूं । अब में इसको किस तरह धोऊं ? महात्माजीसे कहो कि हमें कपड़े 

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