सत्य के प्रयोग/ गोखलेके साथ एक मास-३

सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २५९ से – २६१ तक

 

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गोखलेके साथ एक मास----३

काली-माताके निमित्त यह जो विकराल यज्ञ जो रहा है, उसको देखकर बंगाली-जीवनका अध्ययन करनेकी मेरी इच्छा तीव्र हुई । उसमें ब्रह्म-समाजके विषयमे तो मैंने ठीक तौरपर साहित्य पढ़ा था और सुना भी था । प्रतापचंद्र मजूमदारके जीवन-वृत्तांतसे मैं थोड़ा-बहुत परिचित था। उनके व्याख्यान सुने थे। उनका लिखा केशवचंद्र सेनका जीवन-चरित्र लेकर बड़े चावसे पढ़ा और साधारण ब्रह्म-समाज तथा आदि ब्रह्म-समाजका भेद मालूम किया। पंडित शिवनाथ शास्त्रीके दर्शन किये। महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुरके दर्शन करने प्रो० काथवटे और मैं गये। पर उस समय वह किसीसे मिलते-जुलते न थे। अतएव हम उनके दर्शन न कर सके। उनके यहां ब्रह्मसमाजका उत्सव था। उसमें हम भी निमंत्रित किये गये थे ! वहां ऊंचे दर्जेका बंगाली संगीत सुना। तभीसे बंगाली संगीतसे मेरा अनुराग हो गया।

ब्रह्म-समाजका, जितना हो सकता था, अध्ययन करनेके बाद मला यह कैसे हो सकता था कि स्वामी विवेकानंदके दर्शन न करता ? बड़ी उत्सुकताके साथ बेलूर-मठ तक लगभग पैदल गया। कितना पैदल चला था, यह अव याद नहीं पड़ता है । मठका एकांत स्थान मुझे बड़ा सुहावना मालूम हुआ। वहां जानेपर मालूम हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं, उनसे मुलाकात नहीं हो सकती और वह अपने कलकत्तेवाले घरमें हैं। यह समाचार सुनकर में निराश हुआ। भगिनी निवेदिताके घरका पता पूछा । चौरंगीके एक महलमें उनके दर्शन हुए । उनकी शानको देखकर में भौंचक्का रह गया। बातचीत में भी हमारी पटरी ज्यादा न बैठी। मैंने गोखलसे इसका जिक्र किया तो उन्होंने कहा--' -"वह देवी बड़ी तेज है, तुम्हारी उनकी पटरी बैठनी मुश्किल है ।

एक बार और उनसे मेरी भेंट पेस्तनजी पादशाहके यहां हुई थी। जिस समय में वहां पहुंचा, वह पेस्तनजीकी वृद्धा माताको उपदेश दे रही थीं, इसलिए मैं अनायास उनका दुभाषिया बन गया। यद्यपि भगिनीका और मेरा मेल न बैठता था, तथापि मैं इतना अवश्य देख सका कि हिंदुधर्मके प्रति उनका प्रेम अगाध हैं। उनकी पुस्तकें मैने बादको पढ़ीं ।।

अपने दैनिक कार्यक्रम मैने दो विभाग किये थे । आधा दिन दक्षिण अफ्रीकाके कामके सिलसिले में कलकत्तेके नेताओं से मिलने में बिताता और आधा दिन कलकत्तेकी धार्मिक तथा दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखनेमें । एक दिन मैंने डा० मल्लिककी अध्यक्षतामें एक व्याख्यान दिया। उसमें मैंने यह बताया कि बोअर-युद्धके समय हिंदुस्तानियोंके परिचारक-दलने क्या काम किया था । 'इंग्लिशमैन' के साथ जो मेरा परिचय था, वह इस समय भी सहायक साबित हुआ । मि० सांडर्सका स्वास्थ्य इन दिनों खराब रहता था, फिर भी१८९६ की तरह इस समय भी उनसे मुझे उतनी ही मदद मिली । मेरा यह भाषण गोखले को पसंद आया और जब डा० रायने मेरे व्याख्यानकी तारीफ उनसे की तो उसे सुनकर वह बड़े प्रसन्न हुए थे ।

इस तरह गोखलेकी छत्रछाया रहनेके कारण बंगालों मेरा काम बहुत सरल हो गया । बंगालके अग्रणय परिवारोंसे मेरा परिचय आसानीसे हो गया, और बंगालके साथ मेरा निकट संबंध हआ। इस चिरस्मरणीय महीने के कितने ही संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उसी महीने में ब्रह्मदेशमें भी गोता लगा आया था । वहांके फुंगियोंसे मिला। उनके आलस्यको देखकर बड़ा दुःख हुआ । सुवर्ण पेगोड़के भी दर्शन किये । मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं, वे कुछ जंची नहीं । मंदिरके गर्भ-गृहमें चूहोंको दौड़ते हुए देखकर स्वामी दयानंदका अनुभव याद आया । ब्रह्मदेशकी महिलाओंकी स्वतंत्रता और उत्साहको देखकर मुग्ध हो गया और पुरुषोंकी मंदता देखकर दुःख हुआ । उसी समय मैंने देख लिया कि जैसे बंबई हिंदूस्तान नहीं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है; और जिस प्रकार हिंदुस्तानमें हम अंग्रेज व्यापारियोंके कमीशन-एजेंट बन गये है, उसी तरह ब्रह्मदेशमें अंग्रेजोंके साथ मिलकर हमने ब्रह्मदेश वासियोंको कमीशन एजेंट बनाया है ।

ब्रह्मदेशसे लौटकर मैंने गोखलेसे विदा मांगी। उनका वियोग मेरे लिए दुःसह था; परंतु मेरा बंगालको, अथवा सच पूछिए तो यहां कलकत्तेका, काम समाप्त हो गया था । मेरा यह विचार था कि काम लगने से पहले मैं थोड़ा-बहुत सफर तीसरे दर्जे में करू, जिसने तीसरे दर्ज के मुसाफिरोंकी हालतको में जान लें और दु:खों को समझ लूं । गोखलेके सामने मैंने अपना यह विचार रक्खा । पहले पहल तो उन्होंने इसे हंसीमें टाल दिया; पर जब मैंने यह बताया कि इसमें मैंने क्या-क्या बातें सोच रक्खी हैं तब उन्होंने खुशीसे मेरी योजनाको स्वीकार किया । सबसे पहले मैंने काशी जाकर विदुषी ऐनीवेसेंटके दर्शन करता तै किया । वह उस समय बीमार थीं ।

तीसरे दर्जे की यात्राके लिए मुझे नया साज-सामान जुटाना था। पीतलका एक डिब्बा गोखलेने खुद ही दिया और उसमें मेरे लिए मगदके लड्डू और पूरी रखवा दीं । बारह आनेका एक कैनवासका बैग खरीद । छाया (पोरबंदरके नजदीकके एक गांव) के ऊनका एक लंवा कोट बनवाया था। बैगमें यह कोट, तौलिया, कुरते और धोनी रक्खे । ओढ़नेके लिए एक कंबल साथ लिया। इसके अलावा एक लोटा भी साथ रक्खा था । इतना सामान लेकर मैं रवाना हुआ ।

गोखले और डा० राय मुझे स्टेशन पहुंचाने आये । मैंने दोनोंसे अनुरोध किया था कि वे न आवें; पर उन्होंने एक न सुनी । “तुम यदि पहले दर्जेमें सफर करते तो में नहीं आता; पर अब तो जरूर चलेगा ।" —गोखले बोले ।

प्लेटफार्मपर जाते हुए गोखलेको तो किसीने न रोका । उन्होंने सिरपुर अपनी रेशमी पगड़ी बांधी थी और धोती तथा कोट पहना था । डा० राय बंगाली लिबासमें थे, इसलिए टिकट बाबूने अंदर आते हुए पहले तो रोका; पर गोखलेंने कहा, “मेर मित्र हैं।" तब डा० राय भी अंदर आ सके। इस तरह दोनोंने मुझे विदा दी ।

२०

काशीमें

यह सफर कलकतेसे राजकोट तकका था । इसमें काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर होते हुए राजकोट जाना था । इन स्थानोको देख लेने के सिवा अधिक समय नहीं दे सकता था । एक जगह मैं एक-एक दिन रहा।

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