सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ १२७ ]की कल्पना सिर्फ मलाबारमें ही हो सकती है। वहांके विशाल वृक्ष, बड़े-बड़े फल इत्यादि देखकर मैं तो चकित रह गया।

जंजीबारसे मोजांबिक और वहांसे लगभग मईके अंतमें नेटाल पहुंचा।

कुछ अनुभव

नेटालका बंदर यों तो डरबन कहलाता है, पर नेटालको भी बंदर कहते हैं। मुझे बंदरपर लिवाने अब्दुल्ला सेठ आये थे। जहाज धक्केपर आया। नेटालके जो लोग जहाजपर अपने मित्रोंको लेने आये थे, उनके रंग-ढंगको देखकर मैं समझ गया कि यहां हिंदुस्तानियोंका विशेष आदर नहीं। अब्दुल्ला सेठकी जान-पहचानके लोग उनके साथ जैसा बरताव करते थे उसमें एक प्रकारकी क्षुद्रता दिखाई देती थी, और वह मुझे चुभ रही थी। अब्दुल्ला सेठ इस फजीहतके आदी हो गये थे। मुझपर जिनकी नजर पड़ती जाती वे मुझे कुतूहलसे देखते थे; क्योंकि मेरा लिबास ऐसा था कि मैं दूसरे भारतवासियोंसे कुछ निराला मालूम होता था। उस समय फ्राक कोट आदि पहने था और सिरपर बंगाली ढंगकी पगड़ी दिये था।

मुझे घर लिवा ले गये। वहां अब्दुल्ला सेठके कमरेके पासका कमरा मुझे दिया गया। अभी वह मुझे नहीं समझ पाये थे; मैं भी उन्हें नहीं समझ पाया था। उनके भाईकी दी हुई चिट्ठी उन्होंने पढ़ी और बेचारे पसोपेशमें पड़ गये। उन्होंने तो समझ लिया कि भाईने तो यह सफेद हाथी घर बंधवा दिया। मेरा साहबी ठाट-बाट उन्हें बड़ा खर्चीला मालूम हुआ; क्योंकि मेरे लिए उस समय उनके यहां कोई खास काम तो था नहीं। मामला उनका चल रहा था ट्रांसवालमें। सो तुरंत ही वहां भेजकर वह क्या करते? फिर यह भी एक सवाल था कि मेरी काबलियत और ईमानदारीका विश्वास भी किस हद तक किया जाय? और प्रिटोरियामें खुद मेरे साथ वह रह नहीं सकते थे। मुद्दाले प्रिटोरियामें रहते थे। कहीं उनका बुरा असर मुझपर होने लगे तो? और यदि वह मामलेका काम मुझे न दें तो और काम तो उनके कर्मचारी मुझसे भी अच्छा कर सकते थे। फिर कर्मचारीसे यदि भूल हो जाय, तो कुछ कह-सुन भी सकते थे; मुझे तो कहनेसे [ १२८ ]
भी रहे। काम या तो कारकुनीका था या मुकदमेका— तीसरा था नहीं। ऐसी हालतमें यदि मुकदमेका काम मुझे नहीं सौंपते हैं तो घर बैठे मेरा खर्च उठाना पड़ता था।

अब्दुल्ला सेठ पढ़े-लिखे बहुत कम थे। अक्षर-ज्ञान कम था; पर अनुभव-ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उनकी बुद्धि तेज थी; और वह खुद भी इस बातको जानते थे। रफ्तसे अंग्रेजी इतनी जान ली थी कि बोलचालका काम चला लेते। परंतु इतनी अंग्रेजी के बलपर वह अपना सारा काम निकाल लेते थे। बैंकमें मैनेजरोंसे बातें कर लेते, यूरोपियन व्यापारियोंसे सौदा कर लेते, वकीलोंको अपना मामला समझा देते। हिंदुस्तानियोंमें उनका काफी मान था। उनकी पेढ़ी उस समय हिंदुस्तानियोंमें सबसे बड़ी नहीं तो, बड़ी पेढ़ियोंमें अवश्य थी। उनका स्वभाव वहमी था।

वह इस्लामका बड़ा अभिमान रखते थे। तत्वज्ञानकी वार्ताके शौकीन थे। अरबी नहीं जानते थे। फिर भी कुरान-शरीफ तथा आमतौरपर इस्लामी-धर्म-साहित्यकी वाकफियत उन्हें अच्छी थी। दृष्टांत तो जबानपर हाजिर रहते थे। उनके सहवाससे मुझे इस्लामका अच्छा व्यावहारिक ज्ञान हुआ। जब हम एक-दूसरेको जान-पहचान गये, तब वह मेरे साथ बहुत धर्म-चर्चा किया करते।

दूसरे या तीसरे दिन मुझे डरबन अदालत दिखाने ले गये। यहां कितने ही लोगोंसे परिचय कराया। अदालतमें अपने वकीलके पास मुझे बिठाया। मजिस्ट्रेट मेरे मुंहकी ओर देखता रहा। उसने कहा— "अपनी पगड़ी उतार लो।" मैंने इन्कार किया और अदालतसे बाहर चला आया।

मेरे नसीबमें तो यहां भी लड़ाई लिखी थी।

पगड़ी उतरवानेका रहस्य मुझे अब्दुल्ला सेठने समझाया। मुसलमानी लिबास पहननेवाला अपनी मुसलमानी पगड़ी यहां पहन सकता है। दूसरे भारतवासियोंको अदालतमें जाते हुए अपनी पगड़ी उतार लेनी चाहिए।

इस सूक्ष्म-भेदको समझाने के लिए यहां कुछ बातें विस्तारके साथ लिखनी होंगी।

मैंने इन दो-तीन दिनमें ही यहां देख लिया था कि हिंदुस्तानियोंने यहां अपने-अपने गिरोह बना लिये थे। एक गिरोह था मुसलमान व्यापारियोंका— [ १२९ ]
वे अपनेको 'अरब' कहते थे। दूसरा गिरोह था हिंदू या पारसी कारकुन-पेशा लोगोंका। हिंदू-कारकुन अधरमें लटकता था। कोई अपनेको 'अरब'में शामिल कर लेता। पारसी अपनेको परशियन कहते। तीनों एक-दूसरेसे सामाजिक संबंध तो रखते थे। एक चौथा और बड़ा समूह था तामिल, तेलगू और उत्तरी भारतके गिरमिटिया अथवा गिरमिटयुक्त भारतीयोंका। गिरमिट 'एग्रिमेंट' का बिगड़ा हुआ रूप है। इसका अर्थ है इकरारनामा, जिसके द्वारा गरीब हिंदुस्तानी पांच सालकी मजूरी करनेकी शर्तपर नेटाल जाते थे। गिरमिटसे गिरमिटिया बना है। इस समुदायके साथ औरोंका व्यवहार काम-संबंधी ही रहता था। इन गिरमिटियोंको अंग्रेज कुली कहते। कुलीकी जगह 'सामी' भी कहते। सामी एक प्रत्यय है, जो बहुतेरे तामिल नामोंके अंतमें लगता है। 'सामी'का अर्थ है स्वामी। स्वामीका अर्थ हुआ पति। अतएव 'सामी' शब्दपर जब कोई भारतीय बिगड़ पड़ता, और यदि उसकी हिम्मत पड़ी, तो उस अंग्रेजसे कहता— 'तुम मुझे सामी तो कहते हो; पर जानते हो सामी के माने क्या होते हैं? सामी 'पति' को कहते हैं, क्या मैं तुम्हारा पति हूं?' यह सुनकर कोई अंग्रेज शरमिंदा हो जाता, कोई खीझ उठता और ज्यादा गालियां देने लगता और मौका पड़े तो मार भी बैठता; क्योंकि उनके नजदीक तो 'सामी' शब्द घृणा-सूचक होता था— उसका अर्थ 'पति' करना मानों उसका अपमान करना था।

इस कारण मुझे वे कुली-बैरिस्टर कहते। व्यापारी कुली-व्यापारी कहलाते। कुलीका मूल अर्थ 'मजूर' तो एक ओर रह गया। व्यापारी 'कुली' शब्दसे चिढ़कर कहता— 'मैं कुली नहीं, मैं तो अरब हूं;' अथवा 'मैं व्यापारी हूं।' कोई-कोई विनयशील अंग्रेज यह सुनकर माफी मांग लेते।

ऐसी स्थितिमें पगड़ी पहननेका सवाल विकट हो गया। पगड़ी उतार देनेका अर्थ था मान-भंग सहन करना। सो मैंने तो यह तरकीब सोची कि हिंदुस्तानी पगड़ीको उतारकर अंग्रेजी टोप पहना करूं, जिससे उसे उतारनेमें मान-भंगका भी सवाल न रह जाय और मैं इस झगड़ेसे भी बच जाऊं।

पर अब्दुल्ला सेठको यह तरकीब पसंद न हुई। उन्होंने कहा— "यदि आप इस समय ऐसा परिवर्तन करेंगे तो उसका उलटा अर्थ होगा। जो लोग देशी पगड़ी पहने रहना चाहते होंगे उनकी स्थिति विषम हो जायगी। फिर [ १३० ]
आपके सिरपर अपने ही देशकी पगड़ी शोभा देती है। आप यदि अंग्रेजी टोपी लगावेंगे तो लोग 'वेटर' समझेंगे।"

इन वचनोंमें दुनियावी समझदारी थी, देशाभिमान था, और कुछ संकुचितता भी थी। समझदारी तो स्पष्ट ही है। देशाभिमानके बिना पगड़ी पहननेका आग्रह नहीं हो सकता था। संकुचितताके बिना 'वेटर' की उपमा न सूझती। गिरमिटिया भारतीयोंमें हिंदू, मुसलमान और ईसाई तीन विभाग थे। जो गिरमिटिया ईसाई हो गये, उनकी संतति ईसाई थी। १८९३ ई॰ में भी उनकी संख्या बड़ी थी। वे सब अंग्रेजी लिबासमें रहते। उनका अच्छा हिस्सा होटलमें नौकरी करके जीविका उपार्जन करता। इसी समुदायको लक्ष्य करके अंग्रेजी टोपीपर अब्दुल्ला सेठने यह टीका की थी। उसके अंदर वह भाव था कि होटलमें 'वेटर' बनकर रहना हलका काम है। आज भी यह विश्वास बहुतोंके मनमें कायम है।

कुल मिलाकर अब्दुल्ला सेठकी बात मुझे अच्छी मालूम हुई। मैंने पगड़ी वाली घटनापर पगड़ीका तथा अपने पक्षका समर्थन अखबारोंमें किया। अखबारोंमें उसपर खूब चर्चा चली। 'अनवेलकम विजिटर'—अनचाहा अतिथि— के नामसे मेरा नाम अखबारोंमें आया, और तीन ही चार दिनके अंदर अनायास ही दक्षिण अफ्रीकामें मेरी ख्याति हो गई। किसीने मेरा पक्ष-समर्थन किया, किसीने मेरी गुस्ताखीकी भर पेट निंदा की।

मेरी पगड़ी तो लगभग अंततक कायम रही। वह कब उतरी, यह बात हमें अंतिम भागमें मालूम होगी।

प्रिटोरिया जाते हुए

डरबनमें रहनेवाले ईसाई भारतीयोंके संपर्कमें भी मैं तुरंत आ गया। वहांकी अदालतके दुभाषिया श्री पॉल रोमन कैथोलिक थे। उनसे परिचय किया और प्रोटेस्टेंट मिशनके शिक्षक स्वर्गीय श्री सुभान गाडफ्रे से भी मुलाकात की। उन्हींके पुत्र जेम्स गाडफ्रे पिछले साल यहांके दक्षिण अफ्रीकाके भारतीय प्रतिनिधि

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