सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ १३५ से – १३९ तक

 

और कष्ट

चार्ल्सटाउन ट्रेन सुबह पहुंचती हैं। चार्ल्सटाउनसे जोहान्सबर्गतक पहुंचनेके लिए उस समय ट्रेन न थी। घोड़ागाड़ी थी और बीचमें एक रात स्टैंडरटनमें रहना पड़ता था। मेरे पास घोड़ागाड़ीका टिकट था। मेरे एक दिन पिछड़ जानेसे यह टिकट रद्द न होता था। फिर अब्दुल्ला सेठने चार्ल्सटाउनके घोड़ागाड़ीवालेको तार भी दे दिया था। पर उसे तो बहाना बनाना था। इसलिए मुझे एक अनजान आदमी समझकर उसने कहा—'तुम्हारा टिकट रद्द हो गया है।' मैंने उचित उत्तर दिया। यह कहनेका कि टिकट रद्द हो गया है, कारण तो और ही था। मुसाफिर सब घोड़ागाड़ीके अंदर बैठते हैं। पर मैं समझा जाता था 'कुली'; और अनजान मालूम होता था, इसलिए घोड़ागाड़ीवालेकी यह नीयत थी कि मुझे गोरे मुसाफिरोंके साथ न बैठाना पड़े तो अच्छा। घोड़ागाड़ीमें बाहरकी तरफ, अर्थात् हांकनेवालेके पास, दायें-बायें दो बैठकें थीं। उनमें से एक बैठक पर घोड़ागाड़ी कंपनीका एक अफसर गोरा बैठता। वह अंदर बैठा और मुझे हांकनेवालेके पास बैठाया। मैं समझ गया कि यह बिलकुल अन्याय है, अपमान है। परंतु मैंने इसे पी जाना उचित समझा। मैं जबरदस्ती तो अंदर बैठ नहीं सकता था। यदि झगड़ा छेड़ लूं तो घोड़ागाड़ी चल दे और फिर मुझे एक दिन देर हो, और दूसरे दिनका हाल परमात्मा ही जाने। इसलिए मैंने समझदारी से काम लिया और बाहर ही बैठ गया। मनमें तो बड़ा खीझ रहा था।

कोई तीन बजे घोड़ागाड़ी पारडीकोप पहुंची। उस वक्त गोरे अफसरको मेरी जगह बैठनेकी इच्छा हुई। उसे सिगरेट पीना था। शायद खुली हवा भी खानी हो। सो उसने एक मैला-सा बोरा हांकनेवालेके पाससे लिया और पैर रखनेके तख्तेपर बिछाकर मुझसे कहा—"सामी, तू यहां बैठ, मैं हांकनेवालेके पास बैठूंगा।" इस अपमानको सहन करना मेरे सामर्थ्यके बाहर था, इसलिए मैंने डरते-डरते उससे कहा—"तुमने मुझे जो यहां बैठाया, सो इस अपमानको तो मैंने सहन कर लिया। मेरी जगह तो थी अंदर; पर तुमने अंदर बैठ कर मुझे
यहां बैठाया; अब तुम्हारा दिल बाहर बैठनेको हुआ, तुम्हें सिगरेट पीना है, इसलिए तुम मुझे अपने पैरोंके पास बिठाना चाहते हो। मैं चाहे अंदर चला जाऊं; पर तुम्हारे पैरोंके पास बैठनेको तैयार नहीं।"

यह मैं किसी तरह कह ही रहा था कि मुझपर थप्पड़ोंकी वर्षा होने लगी और मेरे हाथ पकड़कर वह नीचे खींचने लगा। मैंने बैठकके पास लगे पीतलके सीखचोंको जोरसे पकड़े रक्खा, और निश्चय कर लिया कि कलाई टूट जातेपर भी सीखचें न छोडूंगा। मुझपर जो-कुछ बीत रही थी, वह अंदरवाले यात्री देख रहे थे। वह मुझे गालियां दे रहा था, खींच रहा था और मार भी रहा था; फिर भी मैं चुप था। वह तो था बलवान और मैं बलहीन। कुछ मुसाफिरोंको दया आई और किसीने कहा—"अजी, बेचारेको वहां बैठने क्यों नहीं देते? फिजूल उसे क्यों पीटते हो? वह ठीक तो कहता है। वहां नहीं तो उसे हमारे पास अंदर बैठने दो।" वह बोल उठा—"हरगिज नहीं।" पर जरा सिटपिटा जरूर गया। पीटना छोड़ दिया; मेरा हाथ भी छोड़ दिया। हां, दो चार गालियां अलबत्ता और दे डालीं। फिर एक हाटेंटाट नौकरको, जो दूसरी तरफ बैठा था, अपने पांवके पास बैठाया और आप खुद बाहर बैठा। मुसाफिर अंदर बैठे। सीटी बजी और घोड़ागाड़ी चली। मेरी छाती धक्-धक् कर रही थी। मुझे भय था कि मैं जीते-जी मुकाम पर पहुंच सकूंगा या नहीं। गोरा मेरी ओर त्योरी चढ़ाकर देखता रहता। अंगुलीका इशारा करके बकता रहा—'याद रख, स्टैंडरटन तो पहुंचने दे, फिर तुझे मजा चखाऊंगा।' मैं चुप साधकर बैठा रहा और ईश्वरसे सहायताके लिए प्रार्थना करता रहा।

रात हुई। स्टैंडरटन पहुंचे। कितने ही हिंदुस्तानियोंके चेहरे दीखे। कुछ तसल्ली हुई। नीचे उतरते ही हिंदुस्तानियोंने कहा—"हम आपको ईसा सेठकी दूकानपर ले जानेके लिए खड़े हैं। दादा अब्दुल्लाका तार आया था। मुझे बड़ा हर्ष हुआ। उनके साथ सेठ ईसा हाजी सुमारकी दुकान पर गया। सेठ तथा उनके गुमाश्ते मेरे आस-पास जमा हो गये। मुझपर जो-जो बीतीं, मैंने कह सुनाई। सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अपने कड़वे अनुभव सुना-सुनाकर मुझे आश्वासन देने लगे। मैं चाहता था कि घोड़ागाड़ी-कंपनीके एजेंटको अपनी बीती सुना दूं। मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी। उस गोरेने जो धमकी दी थी, सो भी
लिख दी और मैंने यह भी आश्वासन चाहा कि कल मुझे दूसरे यात्रियोंके साथ अंदर बिठाया जाय। एजेंटने मुझे संदेशा भेजा—'स्टैंडरटनसे बड़ी घोड़ागाड़ी जाती है, और हांकनेवाले आदिकी बदली होती है। जिस शख्सकी शिकायत आपने की है, वह कल उसपर न रहेगा। आपको दूसरे यात्रियोंके साथ ही जगह मिलेगी।' इस बातसे मुझे कुछ राहत मिली। उस गोरेपर दावा-फर्याद करनेकी तो मेरी इच्छा ही न थी, इसलिए वह पिटाईका प्रकरण यहीं खतम हो गया। सुबह ईसा सेठके आदमी मुझे घोड़ागाड़ीपर ले गये। अच्छी जगह मिली। बिना किसी दिक्कतके रातको जोहान्सबर्ग पहुंचा।

स्टैंडरटन छोटा-सा गांव था। जोहान्सबर्ग भारी शहर। वहां भी अब्दुल्ला सेठने तार तो दे दिया था। मुझे मुहम्मद कासिम कमरुद्दीनकी दुकानका पता-ठिकाना लिख दिया था। उनका आदमी घोड़ागाड़ीके ठहरनेकी जगह तो आया था; पर न मैंने उसे देखा, न वहीं मुझे पहचान सका। मैंने होटलमें जानेका इरादा किया। दो-चार होटलके नाम-पते पूछ लिये थे। गाड़ीको ग्रैंड नेशनल होटलमें ले चलनेके लिए कहा। वहां पहुंचते ही मैनेजर के पास गया। जगह मांगी। मैनेजरने मुझे नीचेसे ऊपरतक देखा। फिर शिष्टाचार और सौजन्यके साथ कहा—"मुझे अफसोस है, तमाम कमरे भरे हुए हैं।" और मुझे विदा किया। तब मैंने गाड़ीवालेसे कहा—"मुहम्मद कासिम कमरुद्दीनकी दुकानपर ले चलो।" वहां तो अब्दुलगनी सेठ मेरी राह ही देख रहे थे। उन्होंने मेरा स्वागत किया। मैंने होटलमें बीती कह सुनाई। वह एकबारगी हंस पड़े। "भला होटलमें वह हमें ठहरने देंगे।"

मैंने पूछा—"क्यों?"

"यह तो आप तब जानेंगे, जब कुछ दिन यहां रह लेंगे। इस देशमें तो हम हीं रह सकते हैं। क्योंकि हमें रुपया पैदा करना है, इसलिए बहुतेरे अपमान सहन करते हैं, और पड़े हुए हैं।" यह कहकर उन्होंने ट्रांसवालमें होनेवाले कष्टों और अन्यायोंका इतिहास कह सुनाया।

इन अब्दुलगनी सेठका परिचय हमें आगे चलकर अधिक करना पड़ेगा। उन्होंने कहा—"यह मुल्क आपके जैसे लोगोंके लिए नहीं है। देखिए न, आपको कल प्रिटोरिया जाना है। उसमें तो आपकों तीसरे ही दरजेमें जगह मिलेगी।
ट्रांसवालमें नेटालसे ज्यादा कष्ट है। यहां तो हमारे लोगोंको दूसरे और पहले दरजेके टिकट बिलकुल देते ही नहीं।"

मैंने कहा—"आप लोगोंने इसके लिए पूरी कोशिश न की होगी।"

अब्दुलगनी सेठ बोले—"हमने लिखा-पढ़ी तो शुरू की है; पर हमारे बहुतेरे लोग तो पहले-दूसरे दरजेमें बैठनेकी इच्छा भी क्यों करने लगे?"

मैंने रेलवेके कायदे-कानून मंगाकर देखे। उनमें कुछ गुंजाइश दिखाई दी। ट्रांसवालके पुराने कानून-कायदे बारीकीके साथ नहीं बनाये जाते थे। फिर रेलवेके कानूनोंका तो पूछना ही क्या?

मैंने सेठसे कहा—"मैं तो फर्स्ट क्लासमें ही जाऊंगा। और यदि इस तरह न जा सका तो फिर प्रिटोरिया यहांसे सैंतीस ही मील तो है। घोड़ागाड़ी करके चला जाऊंगा।"

अब्दुलगनी सेठने इस बात की ओर मेरा ध्यान खींचा कि उसमें कितना तो खर्च लगेगा और कितना समय जायगा। पर अंतको उन्होंने मेरी बात मान ली और स्टेशन-मास्टरको चिट्ठी लिखी। पत्रमें उन्होंने लिखा कि मैं बैरिस्टर हूं; हमेशा पहले दरजेमें सफर करता हूं। तुरंत प्रिटोरिया पहुंचनेकी ओर उनका ध्यान दिलाया और उन्हें लिखा कि पत्रके उत्तरकी राह देखनेके लिए समय न रह जायगा, अतएव मैं खुद ही स्टेशनपर इसका जवाब लेने आऊंगा और पहले दरजेका टिकट मिलनेकी आशा रक्खूंगा। ऐसी चिट्ठी लिखानेमें मेरी एक मसलहत थी। मैंने सोचा कि लिखित उत्तर स्टेशन-मास्टर 'ना' ही दे देगा। फिर उसको 'कुली' बैरिस्टरके रहन-सहनकी पूरी कल्पना न हो सकेगी। इसलिए यदि मैं सोलहों आना अंग्रेजी वेश-भूषामें उसके सामने जाकर खड़ा हो जाऊंगा और उससे बात करूंगा तो वह समझ जाएगा और मुझे टिकट दे देगा। इसलिए मैं फ्राक कोट, नेकटाई इत्यादि डाटकर स्टेशन पहुंचा। स्टेशन मास्टर के सामने गिन्नी निकालकर रक्खी और पहले दरजेका टिकट मांगा।

उसने कहा—"आपने ही वह चिट्ठी लिखी हैं?"

मैंने कहा—"जी हां। मैं बड़ा खुश होऊंगा, यदि आप मुझे टिकट दे देंगे। मुझे आज ही प्रिटोरिया पहुंच जाना चाहिए।"

स्टेशन मास्टर हंसा। उसे दया आई। बोला—"मैं ट्रांसवालर नहीं
हूं, हालैंडर हूं। आपके मनोभावको समझ सकता हूं। आपके साथ मेरी सहानुभूति है। मैं आपको टिकट दे देना चाहता हूं। पर एक शर्त है—यदि रास्तेमें आपको गार्ड उतार दे और तीसरे दरजेमें बिठा दे तो आप मुझे दिक न करें, अर्थात् रेलवेकंपनीपर दावा न करें। मैं चाहता हूं कि आपकी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो। मैं देख रहा हूं कि आप एक भले आदमी हैं।" यह कहकर उसने टिकट दे दिया। मैंने उसे धन्यवाद दिया और अपनी तरफसे निश्चिंत किया। अब्दुलगनी सेठ पहुंचाने आए थे। इस कौतुकको देखकर उन्हें हर्ष हुआ, आश्चर्य भी हुआ; पर मुझे चेताया—"प्रिटोरिया राजी-खुशी पहुंच गये तो समझना गंगा-पार हुए। मुझे डर है कि गार्ड आपको पहले दरजेमें आरामसे न बैठने देगा; और उसने बैठने दिया तो मुसाफिर न बैठने देंगे।"

मैं पहले दरजेके डिब्बेमें जा बैठा। ट्रेन चली। जर्मिस्टन पहुंचनेपर गार्ड टिकट देखनेके लिए निकला। मुझे देखते ही झल्ला उठा। अंगुलीसे इशारा करके कहा—"तीसरे दरजेमें जा बैठ।" मैंने अपना पहले दरजेका टिकट दिखाया। उसने कहा—"इसकी परवा नहीं, चला जा तीसरे दरजेमें।"

इस डिब्बेमें सिर्फ एक अंग्रेज यात्री था। उसने उस गार्डको डांटा—"तुम इनको क्यों सताते हो? देखते नहीं, इनके पास पहले दरजेका टिकट हैं? मुझे इनके बैठनेसे जरा भी कष्ट नहीं।" यह कहकर उसने मेरी ओर देखा और कहा—"आप तो आरामसे बैठे रहिए।"

गार्ड गुनगुनाया—'तुझे कुलीके पास बैठना हो तो बैठ, मेरा क्या बिगड़ता हैं।' और चलता बना।

रातको कोई ८ बजे ट्रेन प्रिटोरिया पहुंची।

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प्रिटोरियामें पहला दिन

मैंने आशा रक्खी थी कि प्रिटोरिया स्टेशनपर दादा अब्दुल्लाके वकीलकी तरफसे कोई-न-कोई आदमी मुझे मिलेगा। मैं यह तो जानता था कि कोई हिंदुस्तानी तो मुझे लिवाने आवेगा नहीं; क्योंकि किसी भी भारतीयके यहां न ठहरनेका

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