सत्य के प्रयोग/ एक पुस्तकका चमत्कारी प्रभाव

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय १६ : एक पुस्तकका बयकारी प्रभाव जहांतक मुझे याद है, लोकेशन जिस दिन खाली कराया गया, या तो उसी दिन या उसके दूसरे दिन उसमें आग लगा दी गई । एक भी चीजको वहां से बचा लानेका लोभ म्यूनिसिपैलिटीने नहीं किया । इन्हीं दिनों और इसी कारण म्यूनिसिपैलिटीने अपने मार्केटकी सारी लकड़ीकी इमारतें भी जला डालीं, जिससे उसे कोई १० हजार पौंडकी हानि सहनी पड़ी। मार्केटमें मरे चूहे पाये गये थे—इसलिए म्यूनिसिपैलिटीको इतने साहसका काम करना पड़ा। इसमें नुकसान तो बहुत बरदाश्त करना पड़ा, किंतु यह फल जरूर हुआ कि प्लेग आगे न वढ़ पाया और नगरवासी निःशंक हो गये । एक पुस्तकका चमत्कारी प्रभाव इस प्लेगके बदौलत गरीब भारतवासियोंपर मेरा प्रभाव बढ़ा और इसके साथ मेरी वकालत और मेरी जिम्मेदारी भी बहुत बढ़ गई। फिर यूरोपियन लोगो जो मेरा परिचय था वह भी इतना निकट होता गया कि उससे भी मेरी नैतिक जवाबदेही बढ़ने लगी । जिस तरह वेस्टसे मेरी मुलाकात निरामिष भोजनालयमें हुई, उसी तरह पोलकसे भी हो गई । एक दिन मेरे खानेकी मेजसे दूरकी मेजपर एक नवयुवक भोजन कर रहा था। उसने मुझसे मिलनेकी इच्छासे अपना नाम मुझतक पहुंचाया। मैंने उन्हें अपनी मेज़पर खानेके लिए बुलाया और वह आये ।। “मैं ‘क्रिटिक'का उप-संपादक हैं। प्लेग-संबंधी आपका पत्र पढ़नेके बाद आपसे मिलनेकी मुझे बड़ी उत्कंठा हुई। आज अापसे मिलनेका अवसर मिला है । मि० पौलककै शुद्ध भावने मुझे उनकी ओर खींचा । उस रातको हमारा एक-दूसरेसे परिचय हो गया और जीवन-संबंधी अपने विचारों में हम दोनों को बहुत साम्य दिखाई दिया। सादा जीवन उन्हें पसंद था। किसी बात पट जाने के वाद तुरंत उसपर अमल करनेकी उनकी शक्ति आश्चर्यजनक मालूम हुई। उन्होंने अपने जीवनमें कितने ही परिवर्तन तो एकदम कर डाले ! [ ३२२ ]________________

अत्म-कथा : भाग ४ ‘इंडियन ओपीनियनका खर्च बढ़ता जाता था । बेस्टने जो विवरण वहांको पहली ही बार भेजा उसने मेरे कान खड़े कर दिये । उन्होंने लिखा कि जैसा अपने कहा था वैसा मुनाफा इस काम नहीं है । मुझे तो उल्टा नुकसान दिखाई पड़ता है। हिसाब-किताजकी व्यवस्था ठीक नहीं है। लेना बहुत है, और वह बेसिर-पैरका है ! बहुतेरा रद्दोबदल करना होगा । परंतु यह हाल पढ़कर आप चिंता न करें; मुझसे जितना हो सकेगा अच्छा प्रबंध करूंगा । मुनाफा न होने के कारण मैं इस कामको छोड़ न दूंगा । जबकि मुनाफा नहीं दिखाई नहीं दिया था तब वेस्ट चाहते तो वहां के कामको छोड़ सकते थे और मैं उन्हें किसी तरह दोष नहीं दे सकता था। इतना ही नहीं, उल्टा उन्हें अधिकार था कि वह मुझे बिना पूछ-ताछ किये उस काम मुनाफा बताने का दोष-भागी टहराते । इतना होते हुए भी उन्होंने मुझे कभी इसका उलना तक न दिया; पर मैं समझता हूं कि इस बात के मालूम होनेपर बेस्टकी नजर में एक जल्दी में विश्वास कर लेने वाला आदमी जंचा होऊंगा । मदनजीतकी रायको मानकर बिना पूछ-ताछ किये ही मैंने वेस्टसे मुनाफेका जिक्र किया था। पर मेरी यह राय है कि सार्वजनिक कार्यकर्ताको वही बात दूसरेसे कहनी चाहिए, जिसकी खुद उन्होंने जांच कर ली हो । सत्यके पुजारीको तो बहुत सावधानी रखनेकी आवश्यकता है। बिना अपना इत्मीनान किथे किसीके दिलपर आवश्यकतासे अधिक असर डालना भी सत्यको दाग लगाना है । मुझे यह कहते हुए बहुत दुःख होता है कि इस बातको जानते हुए भी जल्दी में विश्वास रखकर काम लेनेकी अपनी प्रकृतिको मैं पूरा-पूरा सुधार नहीं सका । इसका कारण है शक्तिसे अधिक काम करनेका लोभ । यह दोष है । इस लोभसे कई बार मुझे दुःख हुआ है और मेरे साथियोंको तो मुझसे भी अधिक' मनःक्लेश सहना । • वेस्टक ऐसा पत्र पाकर मैं नेटाके लिए रवाना हश्रा । पालकमरी सब बातों को जान गये थे। स्टेशनपर मुझे पहुंचाने आये और स्किन-रचित ‘अं दिस लास्ट' नामक पुस्तक मेरे हाथों में रखकर कहा--" यह पुस्तक रास्ते में _पढ़ने लायक है। आपको जरूर पसंद आयेगी ।" पुस्तकको जो मैंने एक बार पढ़ना शुरू किया तो खत्म किये बिना न छोड़ [ ३२३ ]________________

अध्याय १८ एक तकक चमत्कारी प्रभाव

मका । उसने तो बस मुझे पकड़ ही लिया । जोहान्सबर्गसे नेटाल २४ घंटेका रास्ता है। ट्रेन शामको डरबन पहुंचती थी । यहुंचनेके बाद रात-भर नींद न आई। इस पुस्तके विचारोंके अनुसार जीवन बनानेकी धुन लग रही थी । । . इससे पहले मैंने रस्किनकी एक भी पुस्तक नहीं पड़ी थी । विद्यार्थीजीवनमें पाठ्य-पुस्तकोंके अलावा भेर दाचन नहीके बराबर समझना चाहिए और कर्मभुमिमें प्रवेश करनेके बाद तो मय ही वहन ए ना है। इस कारण आजतक भी मेरा पुस्तक-ज्ञान बहुत ही थे हैं। मैं मानता हूं कि इस अनायासके अथवा जबर्दस्ती संयमसे मुझे कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचा हैं । पर, हां, यह कह सकता हूं कि जो-कुछ थोड़ी पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं उन्हें ठीक तौरपर हजम करनेकी कोशिश अलबत्ता मैने की है । और मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तकने तत्काल महत्त्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला हो तो वह यही पुस्तक है। बादको मैंने इसका गजराती में अनुवाद किया था और वह सवाँदय के नामसे प्रकाशित । भी हुआ हैं । | मेरी यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अंतरतमें बसी हुई थी उसका स्पष्ट प्रतिबिंब मैंने रस्किनके इस ग्रंथ-रत्नम देखा और इस कारण उसने मुझपर अपना साम्राज्य जमा लिया एवं अपने विचारोंके अनुसार मुझसे झारण करवाया। हमारी अन्तस्थ सुप्त भावना जाग्रत करने का सामर्थ्य जिसमें होता है. वह कवि है। सब कविका प्रभाव सदपर एकसा नहीं होता; क्योंकि सद लोगोंमें सभी अच्छी भावनाएं एक मात्रामें नहीं होती ‘सर्वोदय के सिद्धांतको मैं इस प्रकार समक्षा१---सबके भलेमें अपना भला हैं । २---कील श्री नाई दोनों के कामकी कीमत एकही होनी चाहिए, क्योंकि आजीविकाका हक दोनोंको एक है। ...." ३-सादा..मजदुर और किसानको जीवन ही सच्चा जीवन है । . पहली बात तो मैं जानता था । दूभरीका मुझे आभास हुआ करना था। पर तिसरी तो मेरे विचार-क्षेत्र में ग्राई तक न थी। पहली बातमें पिछली दोनों बातें समाविष्ट हैं, यह बात सर्वोदय से मुझे सूर्य-प्रकाशकी तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। सुबह होते ही मैं उसके अनुसार अपने जीवनको नानेकी चितामें लगा। - - -- -- -- =

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