सत्य के प्रयोग/ उपवास
अध्याय २२ : उपवास ४३७
समाज जब पचीस वर्ष तक बचा रहा तो इसे संयोग या आकस्मिक घटना माननेके बदले ईश्वर-कृपा मानना वहम हो तो, यह वहम भी अपनाने लायक है ।
जिस समय मजदूरों की हड़ताल हुई उस समय आश्रमका पाया चुना जा रहा था । आश्रमकी प्रधान प्रवृति बुनाई की थी । कताईकी तो मैं अभी खोज ही नहीं कर सका था । इसलिए निश्चय था कि पहले बुनाई-घर बनाया जाय । इस सभय उसकी नींव डाली जा रही थी । २२ उपवास
मजदूरोंने पहले दो हफ्ते बड़ी हिम्मत दिखलाई । शांति भी खूब रक्खी रोजकी सभाओंमें भी वे बड़ी संख्यामे आते थे । मैं उन्हें रोज ही प्रतिज्ञाका स्मरण कराता था । वे रोज पुकार-पुकार कर कहते थे, “हम मर जायंगे, पर अपनी टक कभी न छोड।”
किंतु अंतमें वे ढीले पड़ने लगे । और जैसे कि निर्बल आदमी हिंसक होता है, वैसे ही, वे निर्बल पड़ते ही मिलमें जानेवाले मजदूरोंसे द्वेष करने लगे और मुझे डर लगा कि शायद कहीं उनपर ये बलात्कार न कर बैठे। रोजकी सभामें आदमियोंकी हाजिरी कम हुई । जो प्राते भी उनके चेहरोंपर उदासी छाई हुई थी । मुझे खबर मिली कि मजदूर डिगने लगे हैं। में तरदुदुदमे पड़ा । मैं सोचने लगा कि ऐसे समयमें मेरा क्या कर्त्तव्य हो सकता हैं । दक्षिण अफ्रीकाकें मजदूरोंकी हड़तालका अनुभव मुझे था, मगर यह अनुभव मेरे लिए नया था । जिप प्रतिज्ञा कराने में मेरी प्रेरणा थी, जिसका साक्षी मैं रोज ही बनता था, वह प्रतिज्ञा कैसे टूटे? यह विचार या तो अभिमान कहा जा सकता है, या मजदूरोंके और सत्यके प्रति प्रेम समझा जा सकता है ।
सवेरेका समय था । मैं सभामें था । मुझे कुछ पता नहीं था कि क्या करना है, मगर सभामें ही मेरे मुंहसे निकल गया- “अगर मजदूर फिरसे तैयार न हो जायं और जबतक कोई फैसला न हो जाय तबतक हड़ताल न निभा सकें, तो तबतक मैं उपवास करूंगा ।" वहां पर जो मजदूर थे, वे हैरतमें आगये । ४३८ अात्म-कथा : भाग ५
अनसूयाबहनकी आंखोसे आंसू निकल पड़े । मजदूर बोल उठे-- "आप नहीं, हम उपवास करेंगे । आपको उपवास नहीं करने देंगे । हमें माफ कीजिए । हम अपनी टेकपर अड़े रहेंगे।”
मैंने कहा, “ तुम्हारे उपवास करनेकी कोई जरूरत नहीं है । तुम अपनी प्रतिज्ञाका ही पालन करो तो बस है । हमारे पास द्रव्य नहीं है । मजदूरोंको भिक्षान्न खिलाकर हमें हड़ताल नहीं करनी है । तुम कहीं कुछ मजदूरी करके अपना पेट भरने लायक कमा लो तो, चाहे हड़ताल कितनी ही लंबी क्यों न हो, तुम निश्चित रह सकते हो । और मेरा उपवास तो कुछ-न-कुछ फैसलेके पहले छूटनेवाला नहीं है । ”
वल्लभभाई मजदूरोंके लिए म्युनिसिपैलिटीमें काम ढूंढते थे; मगर वहांपर कुछ मिलने लायक नहीं था । आश्रमके बुनाई-घरमें बालू भरनी थी । मगनलालने सुझाया कि उसमें बहुतसे मजदूरोंको काम दिया जा सकता है । मजदूर काम करनेको तैयार हुए । अनसूया बहनने पहली टोकरी उठाई और नदीमेंसे बालूकी टोकरियां उठाकर लानेवाले मजदूरोंका ठठ लग गया । यह दृश्य देखने लायक था । मजदूरोंमें नया जोर आया; उन्हें पैसा चुकानेवाले चुकाते-चुकाते थक जाते थे ।
इस उपवासमें एक दोष था । मैं यह लिख चुका हूं कि मिल-मालिकोंके साथ मेरा मीठा संबंध था । इसलिए यह उपवास उन्हें स्पर्श किये बिना रह नहीं सकता था । मैं जानता था कि बतौर सत्याग्रहीके उनके विरुद्ध में उपवास नहीं कर सकता । उनके ऊपर जो-कुछ असर पड़े, वह मजदूरोंकी हड़तालका ही पड़ना चाहिए । मेरा प्रायश्चित्त उनके दोषके लिए न था; किंतु मजदूरोंके दोषके लिए था । में मजदूरोंका प्रतिनिधि था, इसलिए इनके दोषसे दोषित होता था । मालिकोंसे तो मै सिर्फ विनय ही कर सकता था । उनके विरुद्ध उपवास करना तो बलात्क्रार गिना जायगा । तो भी मैं जानता था कि मेरे उपवासका असर उनपर पड़े बिना नहीं रह सकता । पड़ा भी सही; किंतु मैं अपनेको रोक नहीं सकता था । मैंने ऐसा दोषमय उपवास करनेका अपना धर्म प्रत्यक्ष देखा ।
मालिकोंको मैने समझाया, “ मेरे उपवाससे आपको अपना मार्ग जरा भी छोड़नेकी जरूरत नहीं हैं । ” उन्होंने मुझे कडुए-मीठे ताने भी मारे । उन्हें अध्याय २२:उपवास ४३९
इसका त्र्प्रधिकार था । इस हड़ताल के विरुद्ध त्र्प्रचल रहनेमें सेठ त्र्प्रंबालाल त्र्प्रग्रसर थे । उनकी दृढ़ता आश्चर्यजनक थी । उनकी स्पष्ट-हृदयता भी मुझे उतनी ही रुची । उनके खिलाफ लड़ना मुझे प्रिय लगा । इनके-जैसे अग्रसर जहाँ विरोधी-पक्षमें हों, उपवासके द्वारा उनपर पड़नेवाला बुरा त्र्प्रसर मुझे खटका । फिर मेरे ऊपर उनकी पत्नी सरलादेवीका सगी बहनके समान स्नेह था । मेरे उपवाससे होनेवाली उनकी व्यग्रता मुझसे देखी नहीं जाती थी । मेरे पहले उपवासमें तो अनसूया बहन और दूसरे कई मित्र तथा कुछ मजदूर शामिल हुए और अधिक उपवास न करनेकी जरूरत मैं उन्हें मुश्किलसे समझा सका । इस तरह चारों औरका वातावरण प्रेममय बन गया । मिलमालिक तो केवल दयाकी ही खातिर समझौता करनेके रास्ते ढूंढ़ने लगे । अनसूया बहनके यहां उनकी बातचीत होने लगी । श्री त्र्प्रानंदशंकर ध्रुब भी बीचमें पड़े। ग्रन्तमें वह पंच चुने गये और हड़ताल छूटी । मुझे तीन ही दिन उपवास करना पड़ा । मालिकोंने मजदूरोंको मिठाई बांटी । इक्कीसवें दिन समझौता हुआ । समझौते का सम्मेलन हुआ। उसमें मिलमालिक त्र्प्रौर उत्तर विभागके कमिशनर आये थे । कमिशनरने मजदूरोंको सलाह दी थी-- “ तुम्हें हमेशा मि. गांधी की बात माननी चाहिए । ” इन्हीं कमिशनर साहबके खिलाफ इस घटनाके कुछ दिनों बाद तुरंत ही मुझे लड़ना पड़ा था ! समय बदला, इसलिए वह भी और खेड़ाके पाटीदारोंको मेरी सलाह न माननेके लिए कहने लगे । एक मजेदार मगर उतनी ही करुणाजनक घटनाका भी यहां उल्लेख करना उचित है । मालिकोंकी तैयार कराई मिठाई बहुत और् सवाल यह हो पड़ा था कि हजारों मजदूरोंमें वह बांटी किस तरह जाय ? यह समझकर कि जिस पेड़के आश्रयमें मजदूरोंने प्रतिज्ञा की थी वहींपर बांटना उचित होगा, त्र्प्रौर दूसरी किसी जगह हजारों मजदूरोंको इकटठा करना भी असुविधाकी बात थी, उसके आसपासके खुले मैदानमें मिठाई बांटनेकी बात तय पाई थी । मैंने त्र्प्रपने भोलेपनमें मान लिया कि इक्कीस दिनों तक अनुशासनमें रहे मजदूर बिना किसी प्रयत्न के ही पंक्तिमें खड़े होकर मिठाई ले लेंगे और त्र्प्रधीर होकर मिठाई पर हमला नहीं कर बैठेंगे; किन्तु मैदानमें बांटनेके दो-तीन तरीके आजमाये
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