सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अब्ध ३४ ; अकिला का नहीं लगता था। जिस किसी दिन बाद ; अर्थ भी इस वजह ६ मंद न जा, व ३ ६ ३ ४ ३ , त ? ही र सुनाई बात याव : * * । ६- ॐ ॐ शंकाएं उनके आने की उॐ सु उ ::-... अंक न जा ! यदि कि विद्यार्थियों के शरीर ५ ३ नम ने ना पर सन डालने दुइ बहुत एरियर के पड़ा । उक आत्म दिन करने के लिए मैंने धार्मिक पुस्तक हुन र सश दिया था। मैं यह जादा था कि विद्यार्थियों को अपने-आने के भू क वा । बारि, - अपने धर्म-ग्रंथोंका लाथाय ज्ञान होना चाहिए । इसलिए उन्हें : इन झाप्त करने का यशनिल लुबि र ६ ; परंतु उसे में यदि शिक्षा अंग मानता हूं । अात्मक शिक्षा एक अलग है। न है और बहु ने उल्टआश्रम बालक को पाना शुरू करने से पहले ही जान ः । ॐ त्रि करने का अर्थ है चरित्र-निर्माण करना', ईश्वर ज्ञान केन', 'आत्मान संपादन करना । इस ज्ञानको प्राप्त करने में बालक हुः सहाथ की - वश्यकता है और मैं मानता था कि उसके अन्दर इस सब ज्ञान व्यर्थं हैं और हानिकारक भी है । है ।। हुन । एक इ । ॐ ॐ भ ने । चौथे अन बनीं ' ' है; प में से ज; हर थे अतः इस भय कई रोक ने हैं उन्हें न तो न লিলনা, ও কাকা, গ যে মুনম কী? মক্ষি হা-অন দণ प्राप्त करके, दे पृथ्वी पर भार-रूप होकर जाते हैं। ऐसा अनुभव सब जग पाया जाता हैं । १९११-१२में शायद इस विचाको में प्रदान न कर सकता; परंतु मुझे यह बात अच्छी तरहसे मालूम है कि उस समय मेरे विचार इसी तरह थे। अब सवाल यह है कि आत्मिक शिक्षा दी किस तरह जेय ? इसके [ ३६३ ]________________

अर-अ : भय ४ लिए में बालकोंसे भजन गवाता था, नीतिक पुस्तकें पढ़कर सुनाता "; परंतु उससे मनको संतोष नहीं होता था। ज्यों-ज्यों में उनके अधिक संपर्क में आता गया त्यों-त्यों मैंने देखा कि वह ज्ञान पुस्तकों द्वारा नहीं दिया जा सकता। शारीरिक शिक्षा शरीरकी कसरत द्वारा दी जा सकती है और बौद्धिक शिक्षा बुद्धिी कसरत द्वारा । उसी प्रकार आत्मिक शिक्षा अत्मा कसरतके द्वारा ही दी जा सकती है। और आत्माकी कसरत तो बालक शिक्षकके चरणसे ही सीखते हैं। अगर युवक विद्यार्थी चाहे हाजिर हों या न हों शिक्षकको तो रादा सावधान ही रहना चाहिए । लंकामें बैठा हुआ शिक्षक अपने आचरणके द्वारा अपने शिष्योंकी - को हिला सकता है। यदि मैं खुद तो झूठ बोलू, पर अपने शिष्योंको सच्चा मालेका प्रयत्न करूं तो वह फिजूल होगा । डरपोक शिक्षक अपने शिष्योंको वीरता रहीं सिज़ा सकता । व्यभिचारी शिक्षक शिष्योंको संयमक शिक्षा कैसे दे सकता है ? इसलिए मैंने देखा कि मुझे तो अपने साथ रहने वाले युवक-युवतियों के सावन एक पदार्थ-पाठ बन कर रहना चाहिए। इससे मेरे शिष्य ही मेरे शिक्षक बन गये । मैं यह समझा कि मुझे अपने लिए नहीं, बल्कि इनके लिए अच्छा बनना अौर रहना चाहिए और यह कहा जा सकता है कि टॉकटाय-श्रमके लमयका मेरा बहुतेरा संयम इन युवक और युवतियोंका कृतज्ञ है । आश्रममें एक ऐसा युवक था जो बहुत ऊधम करता था, झूठ बोलता था, किसीकी सुनता नहीं था, औरोंसे लड़ता था । एक दिन उसने बड़ा उपद्रव मचाया, मुझे बड़ी चिंता हुई; क्योंकि मैं विद्यार्थियोंको कभी सजा नहीं देता था, पर इस समय मुझे बहुत गुस्सा चढ़ रहा था। मैं उसके पास गया । किसी तरह वह समझाये नहीं समझता था। खुद मेरी आंख में भी धूल झोंकने की कोशिश की । मेरे पास रूल पड़ी हुई थी, उठाकर उसके हाथपर दे मारी; पर भारते हुए मेरा शरीर कांप रहा था। मेरा यह खयाल है कि उसने यह देख लिया होगा। इससे पहले विद्यार्थियों मेरी तरफसे ऐसा अनुभव कमी नहीं हुआ था । वह विधार्थी रो पड़ा, माफी मांगी; पर उसके रोने का कारण यह नहीं कि उसपर मार पड़ी थी। वह मेरा मुकाबला करना चाहता तो इतनी ताकत उसमें थी । उसकी उमर १७ सालकी होगी, शरीर हट्टा-कट्टा था; पर भेरे उस रूल चारलेनै मेरे दुःखका अनुभव उसे हो गया था। इस घटनाके बाद वह मेरे सामने कभी नहीं हुआ; परंतु मुझे

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