सत्य के प्रयोग/ अंग्रेजोंसे परिचय (चालू)

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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२६४ आज-कथा : भाग ४ कोई हिंदुस्तानी वहां झा नहीं सकता था और अपनी सुविधाके लिए मैं राजकर्मचारियोंसे कृपा-भिक्षा मांगने को तैयार न था । इससे मैं सोचमें पड़ गया । काम इतना बढ़ गया कि पूरी-पूरी मेहनत करनेपर भी इधर वकालतका और उधर सार्वजनिक कामका भार सम्हाल नहीं पाता था । अंग्रेज कारकुन--फिर वह स्त्री हो या पुरुष-मिल जानेसे भी थे। काम चल सकता था; पर शंका यह थी कि ‘काले' आदमी के पास भला कोई गोरा कैसे नौकरी करेगा ? परंतु मैंने तय किया कि कम-से-कम कोशिश तो कर देखनी चाहिए। टाइप-राइटरोंके एजेंटसे मेरा कुछ परिचय था। मैं उससे मिली अर कहा कि चदि कई टाइपिस्ट भाई या बहन ऐसा हो जिसे काले' आदमीके यहां काम करने में कोई उ न हो तो मेरे लिए तलाश कर दें। दक्षिण-अफ्रीका में लघु-लेन (शर्टङ) अथवा टाइपिंगका काम करनेवाली अधिकांशमें स्त्रियां ही होती हैं। पूर्वोक्त एजेंटने मुझे अश्वासन दिया कि मैं एक शोर्टहैंड-टाइपिस्ट आपको खोज दूंगा । मिस डिक नामक एक स्कॉच कुमारी उसके हाथ लगी । वह हाल ही स्काटलैइसे आई थी । जहाँ भी कहीं प्रामाणिक नौकरी मिल जाय वहां कृरतेमें उसे कोई आपत्ति न थी। उसे कभमें लगनेकी भी जल्दी थी । उस एजेंटने उस कुमारिकाको मेरे पास भेजा । उसे देखते ही मेरी नजर उस पर ठहर गई । मैंने उससे पूछा--- " तुमको एक हिंदुस्तानीके यहां काम करनेमें आपत्ति तो नहीं है ? " उसने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया--- " बिलकुल नहीं।" “ क्या बेतन लोगी ?" * साढे सत्रह पौंड अधिक तो न होंगे ? " ।

  • तुमसे में जिस कामकी आशा रखता हूं वह ठीक-ठीक कर दोगी तो इतनी रकम बिलकुल ज्यादा नहीं है। तुम कब कामपर आ सकोगी ?"

| " आप चाहें तो अभी ।' | इस बहनको पाकर मैं बड़ा प्रसन्न हुश्रा और उसी समय उसे अपने सामने । बैठकर चिट्ठियां लिखवाने लगा । इस कुमारीने अकेले मेरे कारकुनका. ही। नहीं, बल्कि सगी लड़की या बहनका भी स्थान. मेरे नजदीक सहज ही प्राप्त . [ ३०५ ]________________

अध्याय १२ : अंग्रेजों से परिचय । चालू ) २८५ कर लिया। मुझे उसे कभी किसी बातपर डांटना-डरटन्ना नहीं पड़ा। शायद ही कभी उसके काममें गलती निकालनी पड़ी हो । हजारों पौंडके देन-लेनका काम एकवार उसके हाथमें था और उसका हिसाब-किताब भी वही रखती थी। वह हर तरहले मेरे विश्वासकी पात्र हो गई थी। यह तो ठीक; पर मैं उसकी गुह्यतम भावनाझको जानने योग्य उसका विश्वास प्राप्त कर सका था और यह मेरे नजदीक एक बई। बात थी । अपना जीवन-साथी पसंद करनेमें उसने मेरी सलाह ली थी । कन्यादान करने का सौभाग्य भी नुज्ञीको प्राप्त हुआ था । मिस डिक जद मिसेज मैकडॉनल्ड हो गई तब उन्हें मुझसे अलग होना आवश्यक था। फिर भी, विवाहके याद भी, जब-जब जरूरत होती, मुझे उनसे सहायता मिलती थी । परंतु दफ्तर एक शोर्टहँड-राइटरकी जरूरत तो थी ही ! वह भी पूरी हो गई। उस बहनका नाम था मिस इलेशिन् । मि० कैलनबेक उसे मेरे पास लाये थे । मि० कैलनकका परिचय पाठकोंको ने मिलेगा । यह बहन आज ट्रांसदालमें क्रिसी हाईस्कूल शिक्षिकाका काम करती हैं। जब मेरे पास यह आई थी तद उसकी उम् १७ वर्षकी होगी । उसकी कितनी ही विचित्रताके आगे में और मि० कैलनबेक हार खा जाते । बह नौकरी करने नहीं आई थी । उसे तो अनुभव प्राप्त करना था। उसके गोरेशे में कहीं रंग-द्वेषका नाम न था । न उसे किसीकी परवा ही थी । वह किसी का अपमान करनेसे भी नहीं हिचकती थी । अपने मनमें जिसके संबंधों जो विचार आते हों वह कह डालने में जो संकोच ३ रखती थी । अपने इस स्वभावके कारण वह कई बार मुझे कठिनाइयों डाल देती थी; परंतु उसका हृदय शुद्ध था, इससे कठिनाइयां दूर भी हो जाती थीं । उसका अंग्रेजी ज्ञान मैंने अपनेसे हमेशा अच्छा माना था, फिर उसकी बादारीपर भी मेरा पूर्ण विश्वास था । इससे उसके टाइप किये हुए कितने ही पत्रोंपर बिना दोहराये दस्तखत कर दिया करता था । उसके त्याग-भावकी सीमा न थी। बहुत समयतक तो उसने मुझसे सिर्फ ६ पौंड महीना ही लिया और अंतमें जाकर १० पौंडसे अधिक लेनेसे साफ इन्कार कर दिया । यदि मैं कहता कि ज्यादा ले लो तो मुझे डांट देती और कहती-- मैं यहां वेतन लेने नहीं आई हूं। मुझे तो आपके अादर्श प्रिय हैं। इस कारण मैं आपके साथ रह रही हूं। [ ३०६ ]________________

अत्म-कथा : भाग ४ | एक बार आवश्यकता पड़नेपर मुझसे उसने ४० पौंड उधार लिये थै-- और पिछले साल सारी रकम उसने मुझे लौटा दी ।। त्याग-भाव उसका जैसा तीव्र था वैसी ही उसकी हिम्मत भी जबरदस्त थी। मुझे स्फटिककी तरह पवित्र और वीरतामें क्षत्रियको झै लज्जित करनेवाली जिन महिलाओं से मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है उनमें मैं इस बालिकाकी गिनती करता हूँ। आज तो वह प्रौढ़ कुमारिका है। उसकी वर्तमान मानसिक स्थिति में परिचित नहीं हूं; परंतु इस बालिकाका अनुभव मेरे लिए-सदा एक पुण्यस्मरण रहेगा और यदि मैं उसके संबंधमें अपना अनुभव न प्रकाशित करू तो मैं सत्यका द्रोहीं बना ।। काम करने में वह न दिन देखती थी न रात । रातमें जब भी कभी हो अकेली चली जाती और यदि मैं किसीको साथ भेजना चाहता तो लाल-पीली अांखें दिखाती । हजारों जवांमर्द भारतीय उसे अदरकी दृष्टि से देखते थे और उसकी बात मानते थे । जब हम सब जेलमें थे, जबकि जिम्मेदार आदमी शायद ही कोई बाहर रहा था तब उस अकेली ने सारी लड़ाईका काम सम्हाल लिया था। लाखौंको हिसाब उसके हाथमें, सारा पत्र-व्यबहार उसके हाथमें और ‘इंडियन भोपिनियन' भी उसके हाथमें---ऐसी स्थिति आ पहुंची थी; पर वह थकना नहीं जानती थी । मिस श्लेशिनके बारेमें लिखते हुए मैं थक नहीं सकता; पर यहां तो सिर्फ गोखलेको प्रमाणपत्र देकर इस अध्यायको समाप्त करता हूं। गोखलेने मेरे तमाम साथियोंसे परिचय कर लिया था और इस परिचयसे उन्हें बहुतोंसे बहुत संतोष हुआ था। उन्हें सबके चरित्र के बारे में अंदाज लगानेका शौक था । मेरे तमाम भारतीय और यूरोपीय साथियोंमें उन्होंने मिस श्लेशिनको पहला नंबर दिया था । “इतना त्याग, इतनी पवित्रता, इतनी निर्भयता और इतनी कुशलता मैने बहुत कम लोगों में देखी है। मेरी नज़र में तो मिस इलेशिनका नंबर तुम्हारे । सव साथियों में पहला है ।

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