सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४५९ ]४४२ आत्म-कथा : भाग ५ यह है कि त्र्प्रगर खुशहाल लोग दे दें तो जो असमर्थ हैं वे घबराहटमें पड़कर त्र्प्रपनी चाहे जो वस्तु बेचकर या कर्ज करके लगान चुकावेंगे और दु:ख भोगेंगे । हम मानते हैं कि ऐसी हालतमें गरीबोंका बचाव करना समर्थोंका धर्म है ।” इस लड़ाईके वर्णनके लिए मैं त्र्प्रधिक प्रकरण नहीं दे सकता । इसलिए कितने ही मीठे संस्मरण छोड़ देने पड़ेंगे । जो इस महत्त्वपूर्ण लड़ाईका विशेष हाल जानना चाहें, उन्हें श्री शंकरलाल परीखका लिखा 'खेड़ाकी लड़ाईका सविस्तर और प्रामाणिक इतिहास' पढ़ जानेकी मेरी सलाह है ।' २४ 'प्याज-चोर' चंपारन हिंदुस्तानके एक ऐसे कोनेमें पड़ा था त्र्प्रौर वहांकी लड़ाईको अखबारोंसे इस तरह अलग रक्खा जा सका था कि वहां बाहरसे देखनेवाले नहीं त्र्प्राते थे । परंतु खेड़ाकी लड़ाईकी खबर अखबारोंमें छप चुकी थी । गुजरातियोंकी इस नई चीजमें खूब दिलचस्पी हो रही थी । वे धन लुटानेको तैयार थे । यह बात तुरंत ही उनकी समझमें नहीं त्र्प्राती थी कि सत्याग्रहकी लड़ाई धनसे नहीं चल सकती, उसे धन की जरूरत कम-से-कम रहती है । मना करनेपर भी बंबई-के सेठोंने जरूरतसे अधिक धन दिया था और लड़ाई के त्र्प्रंतमें उसमेंसे कुछ रकम बची भी थी । दूसरी त्र्प्रौर रात्याग्रही सेना को भी सादगीका नया पाठ सीखना बाकी था । यह तो नहीं कह सकते कि उन्होंने पूरा पाठ सीख लिया था; किंतु हां, त्र्प्रपने रहन-सहनमें उन्होंने बहुत कुछ-सुधार जरूर कर लिया था । पाटीदारोंके लिए भी इस प्रकारकी लड़ाई नई ही थी । गांव-गांवमें घूमकर उसका रहस्य समझाना पड़ता था । यह समझाकर लोगोंका भय दूर करना मुख्य काम था कि सरकारी अफसर प्रजाके मालिक नहीं किंतु नौकर हैं, उसके पैसेसे तनख्वाह पाने वाले हैं त्र्प्रौर निर्भय बनते हुए भी उन्हें विनयके पालन 'यह पुस्तक गुजराती में है ।--अनु० [ ४६० ]अध्याय २४ : ‘प्याज-चोर' ४४३ करनेका ढंग बतलाना त्र्प्रौर गले उतारना लगभग त्र्प्रशक्य-सा ही लगता था । त्र्प्रफसरोंका डर छोड़नेके बाद उनके किये अमानोंका बदला लेनेकी इच्छा किसे न होती ? मगर फिर भी सत्याग्रहीके लिए त्र्प्रविनयी होना तो दूधमें जहर पड़नेके समान है। पीछेसे मैंने यह और अधिक समझा कि पाटीदार त्र्प्रभी विनयका पूरा पाठ नहीं पढ़ सके थे । त्र्प्रनुभवसे देखता हूं कि विनय सत्याग्रहका सबसे कठिन त्र्प्रंश है । विनयका अर्थ यहांपर केवल मानके साथ वचन बोलनाभर ही नहीं हैं । विनय है विरोधीके प्रति भी मनमें आदर रखना, सरल भाव, उसके हितकी इच्छा और उसीके त्र्प्रनुसार बर्ताव रखना । शुरूके दिनोंमें लोगोंमें खूब हिम्मत दिखाई पड़ती थी । शुरू-शुरूमें सरकारी कार्रवाइयां भी नर्म होती थी; किंतु जैसे-जैसे लोगोंकी दृढ़ता बढ़ती हुई जान पड़ी, वैसे-वैसे सरकार भी त्र्प्रधिक उग्र उपाय करने लगी । जब्तीवालोंने लोगोंके ढोर बेच दिये, घरमेंसे मनचाहा माल उठा ले गये । चौथाई जुरमानेके नोटिस निकले । किसी-किसी गांवकी सारी फसल जव्त हो गई । त्र्प्रब लोग घबराये । कुछ लोगोंने लगान दे दिया । दूसरे यह चाहने लगे कि अगर सरकारी अफसर ही हमारा कुछ माल जब्त करके लगान त्र्प्रदा कर लें तो हम सस्ते ही छूटें । पर कितने ऐसे भी निकले, जो मरते दमतक टेकपर त्र्प्रड़े रहनेवाले थे । इतने हीमें शंकरलाल परीखकी जमीनपर रहनेवाले उनके त्र्प्रादमीने उनका लगान भर दिया । इससे हाहाकार हो गया । शंकरलाल परीखने वह जमीन देशको त्र्प्रर्पण करके त्र्प्रपने त्र्प्रादमीकी भूलका प्रायरिचत्त किया । उनकी प्रतिष्ठा त्र्प्रक्षत रही । दूसरोंके लिए यह उदाहरण हुआ। । एक त्र्प्रनुचित रूपसे जब्त किये गये खेतमें प्याजकी फसल तैयार थी । मैंने डरे हुए लोगोंको उत्साह देनेके लिए मोहनलाल पंडयाके नेतृत्वमें उस खेतकी फसल काट लेनेकी सलाह दी । मेरी दृष्टिमें उसमें कानूनका भंग नहीं होता था । मैंने समझाया, त्र्प्रगर होता भी हो तो भी जरासे लगानके लिए सारी खड़ी फसलकी जब्ती कानून-सम्मत होनेपर भी नीति-विरुद्ध है त्र्प्रौर सरासर लूट हँ तथा इस तरह की गई जब्तीका त्र्प्रनादर करना धर्म है । ऐसा करनेमें जेल जाने तथा सजा पानेकी जो जोखिम थी सो लोगोंको मैंने स्पष्ट रूपसे बतला दी थी । मोहनलाल पंड्याको तो यही चाहिए था । उन्हें यह रुचिकर नहीं लग रहा था कि सत्याग्रह

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