सत्य के प्रयोग/ 'कुली लोकेशन' या 'भंगी-टोला'

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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आत्म-कथा : भाग ४ कुली लोकेशन' या भगी-टोला ? हिंदुस्तान में हम उन लोगोंको जो सबसे बड़ी समाज-सेवा करते हैं, भंगी, मेहतर, देड़ आदि कहते हैं और उन्हें अछूत मानकर उनके मकान गांवके बाहर बनवाते हैं। उनके निवासस्थान को भंगी-टोला कहते हैं और उसका नाम लेते ही हमें घिन आने लगती है । इसी तरह ईसाइयोंके युरोपमें एक जमाना था जब यहूदी लोग अछूत माने जाते थे और उनके लिए जो अलग मुहल्ला बसाया जाता था उसे घेट' कहते थे । यह ८ अमंगल समझा जाता था। इसी प्रकार से दक्षिण कफीका हम हिंदुस्तानी लोग वहांके भंगी---अस्पृश्य-बन गये हैं। अब यह देखना है कि एंडज साहूबने हमारे लिए वहां जो त्याग किया है और शास्त्रीजी ने जो जाकी लकड़ी धुमाई है उसके फलस्वरूप हम वहां अछुत न रहकर सभ्य माने जायंगे या नहीं ? | हिंदुओंकी तरह यह भी अपनेको ईश्वरके लाड़ले मानते थे और दूसरोंको. है समझते थे । अपने इस अपराधकी सजा उन्हें विचित्र और अकल्पित रीति मिली । लगभग इसी तरह हिंदुओंने भी अपनेको संस्कृत अथवा आर्य समझकर खुद अपने ही एक अंको प्राकृत, अनार्य या अछुत भने रक्खा हैं। इस पापका : फल में विचित्र रीति--चाहे वह अनुचित रीति से क्यों न हो---दक्षिण अफ्रीका इत्यादि उपनिवेश में पा रहे हैं और मैं मानता हूं कि उसमें उनके पड़ौसी मुसलमान और पारसी भी, जोकि उन्हींके रंग और देशके हैं, उनके साथ दुःख भोग रहे हैं । अब पाठक कुछ समझ सकेंगे कि क्यों यह एक अध्याय जोहान्सबर्ग कूली लोकेशन पर लिखा जा रहा है। दक्षिण अफीकामें हम हिंदुस्तानी लोग ‘कुली के नामसे ‘प्रसिद्ध हैं । भारतमें तो 'कुली' शब्दको अर्थ है सिर्फ मजदूर; परंतु दक्षिण अफीका में वह तिरस्कारसूचक हैं और यह तिरस्कार भंग, चमार, पंचम इत्यादि शब्दोंके द्वारा ही व्यत्रत किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका जो स्थान ‘कुलियों के रहने के लिए अलग रखा जाता है उसे 'कुली लोकेशन' कहते हैं । ऐसा एक लोकेशन जोहान्सबर्ग था । दूसरी जगह तो जो लोकेशन [ ३११ ]________________

अध्याय १४ : 'कुली लोकेशन' या भंगी-टोला ? २९१ रख गये और अब भी हैं वहां हिंदुस्तानियोंको कोई हक-मिल्कियत नहीं है; परंतु जोहान्सबर्ग के इस लोकेशनमें जमीनका ९९ सालका पट्टा कर दिया गया था । इसमें हिंदुस्तानियोंकी बड़ी गिचपिच बस्ती श्री । अबदी तो बढ़ती जाती थी; किंतु लोकेशन जितनेका उतना ही बना था। उसके पाखाने तो ज्यों-यों करके साफ किये जाते थे; परंतु इसके अलावा म्युनिसिपैलिटीकी तरफसे और कोई देखभाल नहीं होती थी । ऐसी दशामें सड़क और रोशनीका तो पता ही कैसे चल सकता था ? इस तरह जहां लोगोंके पाखाने-पेशाबकी सफाईके विषयमें ही परवाह नहीं की जाती थी वहां दूसरी सफाईका तो पूछना ही क्या ? फिर जो हिंदुस्तानी वहां रहते थे वे नगर-सुधार, स्वच्छता, आरोग्य इत्यादि के नियमोंके जानकार सुशिक्षित अौर आदर्श भारतीय नहीं थे कि जिन्हें म्युनिसिपैलिटीकी सहायता की' अथवा उनकी रहन-सहनपर देखभाल करनेकी जरूरत न थी। हां, यदि वहां ऐसे भारतवासी जा बसे होते जो जंगल में मंगल कर सकते हैं, जो मिट्टीमेसे मेरा पैदा कर सकते हैं। तब तो उनका इतिहास' जुदा ही होता । ऐसे बह-संख्यक लोग दुनियामें कहीं भी देश छोड़कर विदेशों में मारे-मारे फिरते देखें ही नहीं जाते । आम तौरपर लोग धन और धंधे के लिए विदेशों में भटकते हैं; परंतु हिंदुस्तानसे तो वहां अधिकांशमें अपई, गरीब, दीन-दुखी' मजूर लोग ही गये थे । इन्हें तो कदम-कदमपर रहनुमाई और रक्षणकी आवश्यकता थी। हां, उनके पीछे वहां व्यापारी तथा दूसरी श्रेणियोंके स्वतंत्र भारतवासी' भी गये; परंतु वे तो उनके मुकाबिलेमें मुट्ठी-भर थे ।। इस तरह स्वच्छता-रक्षक विभागकी अक्षम्य गफलतले और भारतीय निवासियोंके अज्ञानसे लोकेशनकी स्थिति आरोग्यकी दृष्टिसे अवश्य बहुत खराब थी। उसे सुधारने की जरा भी उचित कोशिश सुधार-विभागने नहीं की ! इतना ही नहीं, बल्कि अपनी ही इस गलती से उत्पन्न खरबीका बहाना बनाकर उसने इस लोकेशनको मिटा देनेका निश्चय किया और उस जमीनपर कब्जा कर लेनेकी सत्ता वहाँकी धारा-सभासे प्राप्त कर ली। जन मैं जोहान्सबर्ग में रह्ने गया तब वहाँकी यह स्थिति हो रही श्री ।। । वहाँके निवासी अपनी-अपनी जमीनके मालिक थे। इसलिए उन्हें कुछ हर्जाना देना जरूरी था ! हृरजानेकी रकम तय करनेके लिए एक खांस [ ३१२ ]________________

२६२ आत्म-कथा : भाग ४ पंचायत बैंठाई गई थी। म्युनिसिपैलिटी जितना हरजाना देना चाहती उतनी रकम यदि मकान-मालिक लेदा मंजूर न करे तो उसका फैसला यह पंचायत करती और मालिकको वह मंजूर करना पड़ता है यदि पंचायत म्यूनिसिपैलिटीसे ज्यादा रकन देना तय करे तो मकान मालिकके वकीलका खर्च म्यूनिसिपैलिटीको चुकाना पड़ता था । ऐसे बहुतेरे दावोंमें मकान-मालिकोंने मुझे अपना वकील बनाया था । पर मैं इसके द्वारा रुपया पैदा करना नहीं चाहता था । मैंने उनसे पहले ही कृह दिया था--"यदि तुम्हारी जीत होगी तो म्यूनिसिपैलिटीकी प्रोरसे खर्चको जोकुछ रकम मिलेगी उसीपर मैं संतोष कर लूंगा । तुम तो मुझे फी पट्टा दस पौंड दे देना, बस। फिर तुम्हारी जीत हो या हार ।" इसमें से भी लगभग अावी रकम गरीबोंके लिए अस्पताल बनवाने या ऐसे ही किसी सार्वजनिक काममें लगानेका अपना इरादा मैने उनपर प्रकट कर दिया था । स्वभावतः ही इससे सब लोग बहुत खुश हुए । लगभग ७० दावों में सिर्फ एकमें मेरे मुवक्किलकी हार हुई । इससे फीसमें मुझे भारी रकम मिल गई। परंतु इसी समये 'इंडियन ओपीनियन' की मांग मेरे सिरपर सवार ही थी । इसलिए मुझे याद पड़ता है कि लगभग १६०० पडका चैक उसी काम आ गया था । इन दावोंकी पैरबीमें मैंने अपने खयालके अनुसार काफी परिश्रम किया था । भवक्किलोंकी तो मेरे आस-पास भीड़ ही लगी रहती थी। इनमेंसे लगभग सब या तो बिहार इत्यादि उत्तर तरफ़के या तामिल-तेलगू इत्यादि दक्षिण प्रदेशके लोग थे । वे पहली गिरमिटमें आये थे और अब मुक्त होकर स्वतंत्र पेश कर रहे थे। इन लोगोंने अपने दुःखोंको मिटानेके लिए, भारतीय व्यापारी-वर्गले अलग अपना एक मंडल बनाया था। उसमें कितने ही बड़े सच्चे दिलके, उदारभाव रखनेवाले और सच्चरित्र भारतवासी थे। उनके अध्यक्षका नाम था. श्री जेरामसिंह और अध्यक्ष न रहते हुए भी अध्यक्षके जैसे ही दूसरे सज्जन थे श्री बदरी । अब दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं। दोनोंकी तरफसे मुझे अतिशय सहायता मिली थी । श्री बदरीके परिचय में बहुत ज्यादा आया था और उन्होंने सत्याग्रहमें आगे बढ़कर हिस्सा लिया था। इन तथा ऐसे भाइयोंके द्वारा मैं उत्तर-दक्षिणके

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