सङ्कलन/२६ भारत के पहलवानों का विदेश में यशोविस्तार

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भारत के पहलवानों का विदेश में यशोविस्तार

गत पौष मास के "प्रवासी" नामक बँगला मासिक पत्र में भारतीय पहलवानों के विषय में एक अच्छा लेख निकला है। लन्दन में व्यायाम-सम्बन्धी एक सभा है। श्रीशचीन्द्रनाथ मजूमदार उसके मेम्बर हैं। उन्होंने, लन्दन से, यह लेख प्रकाशित कराया है। आपके लेख में भारतीय पहलवानों के विषय की अनेक बातें हैं। उनमें से कुछ का मतलब नीचे दिया जाता है --

कुश्ती में भारतवासियों ने बड़ा नाम पाया है। किसी समय यह कला भारत में बहुत उन्नति पर थी। पर अब दिन पर दिन इसका ह्रास हो रहा है। जो दो-चार पहलवान रह गये हैं, उनके मरने पर, डर लगता है, कि कहीं यह कला लुप्त-प्राय ही न हो जाय। युयुत्सु नामक जिस जापानी कसरत की इतनी प्रशंसा है, वह कोई नई चीज़ नहीं। वह हमारी व्यायाम-कला ही की एक शाखा है। बनेठी में और उसमें बहुत ही कम अन्तर है। इस कला को जीवित रखने और इसकी उन्नति करने की बड़ी आवश्यकता है। [ १७१ ]कुछ वर्ष हुए, पेरिस में एक प्रदर्शिनी हुई थी। उसमें इलाहाबाद के नामी वकील पण्डित मोतीलाल नेहरू गुलाम नामक पहलवान को अपने साथ ले गये थे। वहाँ विख्यात तुर्की पहलवान मादरअली के साथ गुलाम की कुश्ती हुई। गुलाम ने बात की बात में अपने प्रतिपक्षी को ज़मीन दिखा दी। योरपवालों की दृष्टि में गुलाम से बढ़कर और कोई पहलवान संसार में न दिखाई दिया।

१९०९-१० में बेंजामिन साहब तीन पहलवान भारत से विलायत ले गये -- गामा, गामू और इमामबख्श। अमेरिका के नामी पहलवान डाक्तर रोलर के साथ गामा की और स्विट्ज़रलैंड के प्रसिद्ध पहलवान लेम (Lemm) के साथ इमामबख्श की कुश्ती ठहरी। दो लाख रुपया जमा करके इक़रारनामे लिखे गये। रोलर और लेम को विलायतवाले अजेय समझते थे। २० मिनट में गामा ने रोलर को और १२ मिनट में इमामबख्श़ ने लेम को चित्त कर दिया। यह देखकर, सारे योरप ने दाँतों तले उँगली दबाई। गुलाम का नाम पञ्जाब-केसरी (The Lion of the Punjab) और इमामबख्श का पुरुष-व्याघ्र ( The Panther ) रक्खा गया। इस विजय के उपलक्ष्य में गुलाम को १५ हज़ार रुपया नक़द, और दर्शकों का टिकट बेचने से जो रुपया जमा हुआ था, उसमें से भी ७० फ़ी सदी उसे मिला। इमाम बख्श़ ने ७ हज़ार पाया। टिकट की बिक्री से प्राप्त रुपये में से ७० फ़ी सदी उसने भी पाया। [ १७२ ]इसके कुछ दिन बाद आस्ट्रिया के जगद्विजयी पहलवान बिस्को के साथ गामा की कुश्ती निश्चित हुई। गामाने इक़रार- नामे में लिखा कि एक घण्टे में मैं बिस्को की पीठ को ज़मीन, दिखा दूँगा। पर शरीर में बिस्को गामा से दूना था। इस कारण गामा अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण न कर सका। तथापि २३/४ घण्टे तक गामा ने उसे अपने नीचे रक्खा। कुश्ती न निपटी। इस कारण दूसरे दिन फिर लड़ने की ठहरी। पर बिस्को देवता दूसरे दिन वहाँ से चम्पत हो गये। तदनन्तर गुलाम के छोटे भाई इमामबख्श की कुश्ती आयरलैंड के पहलवान पैट कनोली (Pat Connolly) के साथ हुई। इमाम ने हाथ पकड़ते ही पकड़ते पैट को पटक दिया।

बहुत दिन की बात है। जगज्जयी पहलवान टाम केनन (Tom Cannon) दिग्विजय करने के इरादे से घूमते घामते कलकत्ते आया। कूच-बिहार के तत्कालीन महाराज नृपेन्द्र- नारायण भूप बहादुर ने गुलाम के पिता रहीम को टाम से लड़ाया। कुश्ती में रहीम ही की जीत रही। टाम दूसरे ही दिन कलकत्ते से रफू-चक्कर हो गया। रहीम से परास्त होने पर भी यह विख्यात अँगरेज़ पहलवान "अपराजित जगद्विजयी" (Undefeated World's Champion) माना जाता है।

भारत को लौट कर बेंजामिन साहब १९१२ ईसवी में, यहाँ से प्रोफेसर राममूर्ति को इँगलैंड ले गये। साथ ही अहमद- बख्श, रहीम और गुलाम मुहीउद्दीन आदि चुने चुने सोलह
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पहलवान और भी ले गये। जब से गामा विलायत गया, तब से विलायतवाले भारतीय पहलवानों से डर से गये थे। इस कारण वहाँ का कोई भी पहलवान इन लोगों से कुश्ती लड़ने पर राज़ी न हुआ। कुछ दिन बाद फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड का प्रसिद्ध पट्ठा, मारिस डिरियाज़, (Maurice Deriaz) लन्दन आया। अहमदबख्श़ से उसकी कुश्ती हुई। अहमदबख्श़ ने उसे पहली दफ़े ६६ सेकंड में और दूसरी दफ़े १ मिनट में ज़मीन दिखा दी। इस पर योरप भर में आतङ्क सा छा गया। तब डिरियाज़ के मैनेजर ने आर्मड कारपिलड (Armand Charpillod) नाम के एक बड़े ही बली पहलवान को बुलाया। पर अहमद बख्श ने उसे चार ही मिनट में पटक दिया। दुबारा लड़ने के लिए उसे लोगों ने बहुत उत्साहित- किया, पर आर्मड ने किसी की न मानी।

१९१३ ईसवी में मारिस डिरियाज़ के प्रयत्न से पेरिस में पहलवानों का एक सम्मिलन हुआ। उसमें डिरिसज़ को पदवी मिली -- "मध्यवर्ती वज़न का उस्ताद" (Middle Weight Champion)। इससे सिद्ध है कि योरपवालों की उस्ताद -- संज्ञा एक दुर्ज्ञेय वस्तु है।

इंगलैंड में जब कोई पहलवान कुश्ती लड़ने पर राज़ी न हुआ, तब निराश हो कर गुलाम मुहीउद्दीन इत्यादि पहलवान फ्रांस गये। वहाँ मारिस गाम्बिये (Maurice Gambier) इत्यादि कोई ५० पहलवानों को उन्होंने परास्त किया। वहाँ
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से वे सब अमेरिका गये। वहाँ कार्ला नामक, भारतीय पहल वान की कुश्ती विस्को के साथ हुई। बिस्को ने उसे दो दफे पछाड़ा । कार्ला ने वहाँ उस दुरपनेय कलङ्क से भारतीय पहलवानों का मुँह काला कर दिया। अहमद बख्श वगैरह इस आशा से अमेरिका गये थे कि संसार के सर्वश्रेष्ठ पहलवान फ्रांक गोच (Frank Gotch) के साथ कुश्ती खेलेंगे । किन्तु धूर्तराज गोच लड़ने पर राज़ी न हुआ । लोगो के बहुत समझाने बुझाने का भी कुछ फल न हुआ । तब सारे भारतीय पहलवान निराश होकर स्वदेश लौट आये।

कोई दो वर्ष का समय हुआ, श्रीयुक्त बाबू यतीन्द्रमोहन गुह उर्फ गोबर विलायत गये । इंगलैंड-वासी गोबर की व्यायाम-पद्धति देख कर आश्चर्यचकित हो गये। हेल्थ एंड स्ट्रग्थ ( Health and Strength ) नाम की पत्रिका न गोबर की बड़ी प्रशंसा की । लिखा-

"Gobar, for instance, who is in England now, swings clubs that no ordinary English man could lift, and carries a stone-collar of prodigious weight round his neck."

अर्थात् गोबर इतने वज़नी मुद्गर हिलाता है जितने कोई मामूली अंगरेज़ उठा भी नहीं सकता । वह अपनी गर्दन में पत्थर को एक बहुत वज़नी घेरा डाल कर मज़े में घूमता फिरता है।

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१२ [ १७५ ]गोबर ने पहले एडिनबरा में जिनी कैम्बेल और फिर जिमी इशन नामक पहलवानों को हराया। पहली कुश्ती में हार खा कर दूसरी में इशन ने गोबर को घूँसा मारा। ऐसा करना मना है। इस कारण पञ्चों ने कुश्ती बन्द करा दी और हार इशन के नाम लिखी गई। इस कुश्ती के उपलक्ष्य में गोबर को २२ हज़ार रुपया मिला। टिकटों की बिक्री से जो आमदनी हुई थी, उसमें से भी ७० फी सदी रुपया गोबर को मिला।

इसके बाद गोबर फ्रांस गये। वहाँ दो चार पहलवानों को पछाड़ कर वे गोच से लड़ने के इरादे से अमेरिका पहुँचे। परन्तु उनकी इच्छा-पूर्ति न हुई। गोच ने लड़ने से इनकार कर दिया।

गत वर्ष गोच ने अखाड़े से छुट्टी ले ली -- मल्लशाला से उसने इस्तेफा दे दिया। बात यह कि -- "बहुत यश कमाया; बहुत कुश्तियाँ मारी। हो चुका। बस अब न लड़ेंगे!" इस प्रकार अवसर ग्रहण करके गोच ने अमेरिकस (Americus) नामक पहलवान को अपनी जगह पर निर्वाचित किया। अर्थात् उसे पृथ्वी-मण्डल के पहलवानों में श्रेष्ठ स्वीकार किया। परन्तु इस सर्वश्रेष्ठ अमेरिकस को आयरिश पहलवान पैट कानली ने पछाड़ दिया। इस कारण कानली को "जगज्जयी उस्ताद" (World's Champion) की पदवी मिली। इसी कानली को इमामबख्श ने पछाड़ा था। वह योरप के भी कई पहलवानों
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से हार खा चुका था । तिस पर भी वह समन्त्र भूमण्डल का चक्रवर्ती पहलवान ! और बेचारा इमाम बख्श ? वह किस गिनती में !

तमाशा दिखानेवाले पहलवानों में हमारे यहाँ राममूर्ति, हिम्मतवख्श, कृष्णदास सील, भवानी शाह और जी० पी० गर्ग विशेष प्रसिद्ध हैं । राममूर्ति आदि कई पहलवान अपनी छाती पर हार्थी चढ़ा लेते हैं। राममूर्ति के पहले किसी ने भी यह करतब न दिखाया था। वे १०० मन वजनी पत्थर पीठ पर रख कर जमीन पर फेंक देते हैं; २२ घोड़े की ताकत की मोटर रोक लेते हैं; लोहे की मोटी जञ्जीर कलाई फुला कर तोड़ देते हैं; और आदमियों से लदी हुई दो बैल गाड़ियाँ अपनी छाती के ऊपर से निकाल देते हैं। भवानी उर्फ भवेन्द्र भी यह सब कर दिखाते हैं। उनका नाम भीम भवानी है। उनकी उम्र अभी केवल २६ वर्ष की है। १२ वर्ष की उम्र से वे कसरत करने लगे थे। उनकी छाती की माप ४२ इञ्च और राममूर्ति की छाती ४८ इञ्च है। फैलाने पर राममूर्ति की छाती ५७ और भीम भवानी की ४८ इञ्च हो जाती है । भीम भवानी बहुत दिनों तक प्रोफेसर राममूर्ति के सरकस में थे।

[ मार्च १९१६.

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