सङ्कलन/२१ माइसोर में सोने की खानें

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ १३५ से – १४१ तक

 

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माइसोर में सोने की खानें

दक्षिणी भारतवर्ष में माइसोर नाम का एक बहुत बड़ा देशी राज्य है। वह अन्य देशी राज्यों की अपेक्षा अधिक उन्नत, सुशिक्षित और सुसभ्य समझा जाता है। उसमें सोने, चाँदी आदि बहुमूल्य धातुओं की कितनी ही खाने हैं। उनमें से वहाँ के कोलर ज़िले की सोने की ख़ाने बहुत प्रसिद्ध हैं। आज हम उन्हीं का वृत्तान्त पाठकों को सुनाते हैं।

मदरास से माइसोर को जो रेलवे लाइन गई है, उसमें बाइरिंग पेट नाम का एक स्टेशन है। इस स्टेशन से कोलर की खानों तक रेलवे की एक शाखा गई है। बाइरिंग पेट से खाने दस मील की दूरी पर हैं। कोलर की खानें पाँच मील के घेरे में फैली हुई हैं। इस स्थान पर बहुत सी खानें हैं। पर इनमें से माइसोर और चैम्पियन-रीफ़ नाम की खाने बहुत प्रसिद्ध हैं। इनसे लाभ भी खूब होता है। कोलर की खानों से सब मिला कर कोई तीस बत्तीस मन सोना प्रति मास निकलता है। माइसोर गवर्नमेंट इसमें से पाँच प्रति सैकड़ा राज-कर लेती है। इस मद से उसे कोई चौदह लाख रुपये प्रति
वर्ष प्राप्त होते हैं। माइसोर और चैम्पियन-रीफ़ नाम की खानों के हिस्सेदारों को प्रति सैकड़ा डेढ़ सौ वात्सरिक लाभ होता है। अर्थात् हिस्सेदारों को एक ही वर्ष में अपने मूल धन का ड्योढ़ा लाभ हो जाता है।

सोने के सिवा अन्य धातुओं में भिन्न भिन्न कई रासाय- निक पदार्थ मिले रहते हैं। परन्तु सोने में किसी चीज़ की मिलावट नहीं रहती। संसार की कितनी ही खानों में सोने के बड़े बड़े टुकड़े निकलते हैं; पर कोलर की खानों में सोने के बड़े बड़े टुकड़े नहीं पाये जाते। हाँ, छोटे छोटे टुकड़े, समय समय पर अवश्य मिलते हैं। पर अधिकांश सोना कणों के रूप में पत्थर की रेणु के साथ मिला हुआ रहता है। इन प्रस्तर- रेणु-मिश्रित कणों को अङ्गरेज़ी में क्वार्ट्ज (Quartz) कहते हैं। इन कणों को खानों के भीतर से निकालना और उन्हें पत्थर की रेणु से अलग करना खानवालों का मुख्य काम है। ये क्वार्ट्ज़ कोलर की खानों में तीन सौ से लेकर दो हज़ार फुट की गहराई तक पाये जाते हैं।

वहाँ की प्रत्येक खान में नीचे जाने के लिए चार पाँच कुवें हैं। इन कुओं में लोहे का एक सन्दूक़ रहता है। वह कल की सहायता से चलता है। उसी में बैठकर लोग ऊपर नीचे जाते आते हैं। इसके सिवा पत्थर मिले हुए सोने के कण भी इन्हीं में रख कर ऊपर भेजे जाते हैं।

खानों के भीतर दिन को भी अँधेरा रहता है। खान खोदने-

वाले अपने सिर में मोमवत्ती खोंस कर काम करते हैं। कोयले की खानों में गैसों के जल उठने का जैसा डर रहता है, वैसा सोने की खानों में नहीं। इसलिए उनमें सेफ्टी लैम्पों की कोई आवश्यकता नहीं। जिन लैम्पों से आग लग जाने का डर नहीं होता, उन्हें सेफ्टी लैम्प कहते हैं। सोने की खानों का नीचे का भाग लोहे की खानों की तरह बहुत लम्बा चौड़ा नहीं होता । खानों के जिस तरफ़ क्वार्टूज पाये जाते हैं, केवल उसी तरफ़ सुरङ्ग कर लिया जाता है।

जिन खानों के प्रस्तर-रेणु में कम से कम इतना सोना मिलने की आशा होती है कि सब ख़र्च निकाल कर कुछ लाभ हो, उन्हीं खानों से पत्थर की. बालू निकाली जाती है। बालू को बाहर निकाल कर कल-घर में भेजते हैं। वहाँ वह पीस कर मैदे की तरह बना दी जाती है। इस मैदे में सोने के कण भी मिले रहते हैं। सोने के इन कणों को पत्थर की रेणु से अलग करने के लिए पहले वह पानी में घोली जाती है। इसके बाद वह पानी बड़े बड़े बरतनों में रक्खे हुए पारे के ऊपर डाल दिया जाता है। इस समय एक अङ्गरेज़ कर्मचारी पानी और पारे को ख़ूब हिलाता मिलाता है। फल यह होता है कि सोने की रेणु पारे में मिल जाती है और पत्थर की बालू मिला हुआ पानी ऊपर उतराता रहता है। थोड़ी देर बाद वह पानी बाहर फेंक दिया जाता है। यह क्रिया कई बार दुहराई तिहराई जाती है। यहाँ तक कि पत्थर के मैदे का सम्पूर्ण सोना पारे में मिल

जाता है। इसलिए पारा खूब गाढ़ा हो जाता है। इस गाढ़े पारे को अङ्गरेज़ी में एमलगाम ( Amalgam ) कहते हैं। इस गाढ़े पारे में खूब सोना मिला रहता है। इस समय इस एमलगाम को रासायनिक गृह में ले जाते हैं। वहाँ पारे से सोना अलग किया जाता है। यदि सोने में कोई अन्य पदार्थ भी मिला होता है तो वह भी यहाँ अलग कर दिया जाता है। इसके बाद इस खरे सोने की छोटी छोटी ईंटें बनाई जाती हैं। इन ईटों पर उस खान का नाम और नम्बर अङ्कित किया जाता है जिनमें वे बनी हैं।

कोलर की खानों से निकला हुआ सोना ख़ास कोलर या भारतवर्ष के किसी स्थान में नहीं बिकता। वह सीधे इंगलैंड भेज दिया जाता है। कई साल हुए, एक बार प्रस्ताव किया गया था कि बम्बई की टकसाल ही में इस सोने के सावरेन सिक्के बना करें। यदि ऐसा हो जाता तो यह सोना बम्बई में ही खप जाता; पर इस प्रस्ताव पर सरकार ने कुछ ध्यान न दिया।

रेलवे की जिस गाड़ी में कोलर का सोना बम्बई तक जाता है, वह बड़ी चतुरता और मज़बूती से बनाई गई है। लोहे का सन्दूक, जिस में सोना रक्खा जाता है, गाड़ी के साथ जुड़ा होता है। इस गाड़ी पर पहरा देने के लिए दो शस्त्रधारी गार्ड सदा मौजूद रहते हैं।

कोलर की खानों में चोरियाँ खूब होती हैं। चोर ऐसी

सफ़ाई से चोरी करते हैं कि उनको सहसा पकड़ना कठिन है। परन्तु तब भी बहुधा चोर पकड़ लिए जाते हैं। यह न समझिए कि केवल भारतवासी कुली-मज़दूर ही इन खानों में चोरी करते हैं। खानों में काम करनेवाले बड़े बड़े विदेशी कर्मचारी भी चोरी करते हैं।

देशी राज्य में होने पर भी ये खानें अँगरेजों के अधीन हैं। उन्हीं के मूल धन से ये खानें खोदी जाती हैं और हानि-लाभ के भी वही मालिक हैं। इसलिए वहाँ पर कितने ही अँगरेज़ काम करते हैं। इनके कारण माइसोर दरबार, ब्रिटिश गवर्न- मेंट और मदरास हाई कोंर्ट को कभी कभी बड़े झंझट में पड़ना पड़ता है। किसी देशी राजा में यह शक्ति नहीं कि वह किसी अँगरेज़ का विचार कर सके। इसलिए कोलर की खानों के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट की ओर से एक ख़ास मैजि- स्ट्रेट नियुक्त है। उसे जस्टिस आव दी पीस (Justice of the Peace ) कहते हैं। ये लोग राजा के नौकर हैं। पर इस हैसियत से ये अङ्गरेज़ अपराधियों का विचार नहीं कर सकते। ब्रिटिश गवर्नमेंट के द्वारा नियुक्त जस्टिस आव् दी पीस होने के कारण ये अङ्गरेज़ों के छोटे छोटे अपराधों का विचार करते हैं। बड़े बड़े अपराधों का विचार मदरास हाई कोर्ट करती है। खान के मालिकों के अनुरोध से माईसोर गवर्नमेंट ने यह कानून बना दिया है कि खान के मालिक और कर्मचारियों के सिवा अन्य किसी मनुष्य के पास यदि कोई खनिज पदार्थ

हानि होती है। अतएव यह बालू बेकार पड़ी रहती थी, इससे सोना न निकलता था। परन्तु कुछ दिनों से एक ऐसी तरकीब निकली है कि पत्थर की इस बालू से भी सहज में सोना निकल आता है और ख़र्च भी बहुत कम पड़ता है। इससे अब कई साल से कोलर की खानों से लाभ बहुत कुछ बढ़ गया है। इस तरकीब से पत्थर की उस रेणु से भी सोना निकाला जा सकता है जो पारे के ऊपर उतरा आने पर पानी के साथ फेंक दी जाती थी।

यद्यपि आज-कल कोलर की खानों से मनों सोना नित्य निकलता है, तथापि यह व्यापार नया नहीं। यहाँ की खानों में ऐसे अनेक चिह्न पाये जाते हैं जिन से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में भी ये खानें खोदी जाती थीं। आज-कल ये खानें कल की सहायता से खोदी जाती हैं। पर प्राचीन काल के हिन्दुओं ने कल की सहायता के बिना ही इन्हें तीन सौ फुट की गहराई तक खोद डाला था।

आधुनिक काल में सब से पहले माइकेल लावेली नाम के एक अङ्गरेज ने इन खानों को खोदने का ठेका लिया था। इसके बाद कई अङ्गरेज़ी कम्पनियों ने इस काम को लिया; परन्तु वे दो सौ फुट से अधिक नहीं खोद सकी। इसलिए उनका दिवाला बहुत जल्द निकल गया। माईसोर नाम की केवल एक कम्पनी ने हिम्मत न हारी। उसका मैनेजर बड़ा चतुर आदमी था। उसने समझ लिया था कि कुछ और नीचे

सोना अवश्य मिलेगा। उस समय इस कम्पनी के १५ रुपये के हिस्से का मूल्य केवल दस आने रह गया था। अधिकांश हिस्सेदार कम्पनी को तोड़ देना चाहते थे। परन्तु मैनेजर के ज़ोर देने पर कुछ मूल-धन और बढ़ाया गया। खोदते खोदते कुछ दिनों बाद एक ऐसा स्थान मिला जहाँ खूब सोना था। बस फिर क्या था ! कम्पनीवाले खुशी से फूल उठे। मैनेजर ने आनन्द-मग्न होकर इस स्थान का नाम रक्खा -- चैम्पियन रीफ़। पन्द्रह रुपये के जिस हिस्से का दाम पहले केवल दस आने था, उसका मूल्य इस समय पूरे दो सौ रुपये है। इस स्थान से जो सोना निकलता है, वह बहुत ही खरा और चमक- दार होता है।

कोलर में जिस जगह सोने की ये खाने हैं, वह जगह बड़ी ही अनुर्वर है। उसे यदि प्रस्तरमय मरु-भूमि कहें तो कुछ अत्युक्ति नहीं। परन्तु आज-कल वहाँ रेलवे, टेलीग्राफ़, टेली- फ़ोन, बिजली की रोशनी, ट्रामवे, होटल, बाजार, दूकानें आदि सभी कुछ हैं। हज़ारों आदमी वहाँ पर नौकरी आदि के द्वारा जीविका चलाते हैं। इस पाँच मील लम्बी और एक मील चौड़ी मरु-भूमि से माइसोर गवर्नमेंट पूरे चौदह लाख रुपये राज-कर स्वरूप प्राप्त करती है। इसके सिवा गोल्ड-फील्ड रेलवे से भी उसे ख़ासी आमदनी होती है।

[ अप्रेल १९१५.
 

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