संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३१७ ]


पांचवा दृश्य
(स्थान—स्वामी चेतनदासकी कुटी, समय—रात, चेतनदास गङ्गा-
तटपर बैठे हैं।)

चेतनदास—(आपही आप) मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ, धूर्त्त हूँ। मैंने सरल प्राणियों को ठगनेके लिये यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिये योगकी क्रियाएं सीखीं, इसीलिये हिप्नाटिज्म सीखा। मेरा लोग कितना सम्मान, कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरुष मुझसे धन मांगते हैं,स्त्रियां मुझसे सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर सकूं तिसपर भी लोग मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते।

मैंने कितने घर तबाह किये, कितनी सती स्त्रियोंको जालमें फंसाया, कितने निश्छल पुरुषोंको चकमा दिया। यह सब स्वांग केवल सुखभोगके लिये, मुझपर धिक्कार है!

पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था। मेरे आदर्श कितने ऊंचे थे। मैं संसारसे विरक्त होगया था। पर स्वार्थी संसारने [ ३१८ ]मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान-प्रतिष्ठा थी कि मैं पाखण्डी हो गया, नरसे पिशाच हो गया। हां,मैं पिशाच हो गया।

हा! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओरसे घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयङ्कर हैं। वह मुझे निगल जायंगे। भगवन् ,मुझे बचाओ। वह सब अपने मुँह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं।

(आखें बन्द कर लेते हैं)

ज्ञानी! ईश्वरके लिये मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुखसे ज्वाला निकल रही है। तेरी आँखोंसे आगकी लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊँगा, झुलस जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दरी थी। कैसी कोमलांगी थी! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं,वह कमलकीसी आंखें, वह पुष्पकेसे कपोल कहाँ हैं। नहीं, यह मेरे अधर्मों का, मेरे दुष्कर्मों का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मों ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापोंकी ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापोंकी आगमें जलूँगा? अपने ही बनाये हुए नर्कमें पड़ूंगा?

(आंखें बन्द करके हाथोंसे हटानेकी चेष्टा करके)

नहीं, मैं ईश्वरकी शपथ खाता हूँ, अब कभी ऐसे कर्म न करूँगा। मुझे प्राण दान दे। आह, कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वर मेरी क्या गति होगी। मैं इस पिशाचिनीके मुखका ग्रास [ ३१९ ]बना जा रहा हूँ। यह दयाशून्य, हृदयशून्य राक्षसी मुझे निगल जायगी। भगवन्! कहां जाऊँ, कहाँ भागूँ। अरे रे......जला

(दौड़कर नदी में कूद पड़ता है, और एक बार फिर ऊपर
आकर नीचे डूब जाता है)