संग्राम/५.४
(स्थान—गुलाबीका मकान, समय—१० बजे रात।)
गुलाबी—अब किसके बलपर कूदूँ। पास जो जमा पूँजी थी चह निकल गई। तीन चार दिनके अन्दर क्यासे क्या हो गया। बना-बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रङ्क हो गये। जिस देवीकी बदौलत इतनी उम्र सुखसे कटी वह संसारसे उठ गयीं। अम वहाँ पेटकी रोटियोंके सिवा और क्या रखा है। न उधर ही कुछ रहा, न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोकसे गई। उस कलमुँहें साधुका कहीं पता नहीं। न जाने कहाँ लोप हो गया। रंगा हुआ सियार था। मैं भी उसके छल में आ गई। अब किसके बलपर कूदूं। बेटा-बहू योंही बात न पूछते थे, अब तो एक बूंद पानीको तरसूँगी। अब किस दावेसे कहूँगी, मेरे नहानेके लिये पानी रख दे, मेरी साड़ी छांट दे, मेरा बदन दाब दे। किस दाबेपर धौंस जमाऊँगी। सब रुपयेके मीत हैं। दोनों जानते थे अम्मांके पास धन है। इसीलिये डरते थे, मानते थे, जिस कल चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त्त साधुको पाऊँ तो सैकड़ों गालियाँ सुनाऊँ, मुँह नोच लूँ। अब तो मेरी दशा उस बिल्लीकी सी है जिसके पंजे कट गये हों, उस बिच्छूकीसी जिसका डङ्क टूट गया हो, उस रानीकी सी जिसे राजाने आँखोंसे गिरा दिया हो।
चम्पा—अम्माँ चलो, रसोई तैयार है।
गुलाबी—चलो बेटी, चलती हूं। आज मुझे ठाकुर साहबके घरसे आनेमें देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।
चम्पा—(मनमें) अम्माँ आज इतने प्यारसे क्यों बातें कर रही हैं; सीधी बात मुंहसे निकलती ही न थी। (प्रगट) कुछ कष्ट नहीं हुआ, अम्माँ, कौन अभी तो ९ बजे हैं।
गुलाबी—भृगुनाथने भोजन कर लिया है न?
चम्पा—(मनमें) कल तक तो अम्माँ पहले ही खा लेती थीं बेटेको पूछती तक न थीं, आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैं (प्रगट) तुम चलकर खालो, हम लोगोंको तो सारी रात पड़ी है।
(गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथोंसे पानी निकालती है।)
चम्पा—तुम बैठो अम्माँ, मैं पानी रखे देती हूं।
गुलाबी—नहीं बेटी, मटका भरा है, तुम्हारी आस्तीन भींग जायगी।
चम्पा—(पंखा झलने लगती है) नमक तो ज्यादा नहीं हो गया?
गुलाबी—पंखा रख दो बेटी, आज गरमी नहीं है। दालमें जरा नमक ज्यादा हो गया है, लाओ थोड़ा सा पानी मिलाकर खा लूँ।
चम्पा–मैं बहुत अन्दाजसे छोड़ती हूँ मगर कभी-कभी कम बेस हो ही जाता है।
गुलाबी-बेटी, नमकका अन्दाज बुढ़ापेतक ठीक नहीं होता, कभी-कभी धोखा हो ही जाता है।
(भृगु आता है)
आओ बेटा, खाना खा लो, देर हो रही है। क्या हुआ कञ्चन सिंहके यहां जवाब मिल गया?
भृगु—(मनमें) आज अम्मांकी बातोंमें कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता है। (प्रकट) नहीं अम्मां, सच पूछो तो आज ही मेरी नौकरी लगी है। ठाकुरद्वारा बनवानेके लिये मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।
गुलाबी—बेटा, यह घरमका काम है, हाथ-पांव संभाल कर रहना।
भृगु—दस्तूरी तो छोड़ता नहीं, और कहीं हाथ मारनेकी गुञ्जाइश नहीं। ठाकुरजी सीधे दे दें तो उङ्गली क्यों टेढ़ी करनी पड़े। (भोजन करने बैठता है)
चम्पा—(भृगुसे) कुछ और लेना हो तो लेलो, मैं जाती हूँ अम्माँका बिछावन बिछाने।
गुलाबी—रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।
भृगु—(चम्पासे) यह आज दालमें नमक क्यों झोंक दिया। नित्य यही काम करती हो फिर भी तमीज नहीं आती।
चम्पा—ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।
भृगु—शर्म नहीं आती ऊपरसे हेंकड़ी करती हो।
गुलाबी—जाने दो बेटा, अन्दाज न मिला होगा। मैं तो रसोई बनाते-बनाते बुड्ढी हो गई लेकिन कभी-कभी निमक घट बढ़ जाता ही है।
भृगु—(मनमें) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद ठाकुरोंका पतन देखके इनकी आँखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यारसे बातें करें तो हमलोग तो इनके चरण धो-धोकर पियें। (प्रगट) मैं तो किसी तरह खा लूंगा पर तुम तो न खा सकोगी।
गुलाबी—खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटी, खा-पीकर आरामसे सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक गई है।
चम्पा—(मनमें) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊं। इसी तरह रोज रहें तो फिर यह घर स्वर्ग हो जाय। (प्रगट) जरा बदन दबा देनेसे कौन बड़ी रात निकल जायगी।
गुलाबी—(मनमें) आज कितने प्रेमसे बहू मेरी सेवा कर रही है, नहीं तो ज़रा-ज़रा सी बातपर नाक-भौं सिकोड़ा करती थी। (प्रगट) जी चाहे तो थोड़ी देरके लिये आजाना, तुम्हें प्रेमसागर सुनाऊंगी।
(चेतनदासका प्रवेश)
गुलाबी—(आश्चर्यसे) महाराज! आप कहां चले गये थे? मैं दिनमें कई बार आपकी कुटीपर गई।
चेतनदास—आज मैं एक कार्य्यवश बाहर चला गया था। अब एक महान् तीर्थ पर जानेका विचार है। अपना धन ले लो, गिन लेना, कुछ न कुछ अधिक ही होगा। मैं वह मन्त्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।
गुलाबी—(चेतनदासके पैरोंपर गिरकर) महाराज, बैठ जाइये, आपने यहां तक आनेका कष्ट किया है, कुछ भोजन कर लीजिये। कृतार्थ हो जाऊंगी।
चेतन—नहीं माताजी, मुझे विलम्ब होगा। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह बात ध्यानसे सुनो। आगे किसी साधु महात्माको अपना धन दुना करनेके लिये मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदासके चरण छूते हैं)
माता, तेरे पुत्र और बधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि मेरे पास धन है। धनके बलसे नहीं, प्रेम के बलसे अपने घरमें शासन कर।
(चेतनदासका प्रस्थान)