सीख सिखाय रह्यो अपनी सी।
दुरमति तें न टरे॥
मद माया बस भयो बांवरौ,
हरी जस नहीं उचरे॥
करि परपंच जगत के डहकै,
अपनौ उदर भरे॥
स्वान-पूंछ ज्यों होय न सूधौ,
कह्यो न कान धरै॥
कह 'नानक' भजु राम नाम नित,
जातें काज सरे॥
राग काफी
( ताल तीन मात्रा १६ )
स्थाई
समतालीखालीताली
x
धा धिं धिं धा
प — — —
रे — — —
ग॒ म ग॒ प
र ह्यो अ प
स — — —
रे — — —
२
धा धि धिं धा
ग॒ रे स ͢ऩी
य ह म न
ग॒ रे स नी॒
य ह म न
म ग॒ म —
नी — सी —
ग॒ रे स नी॒
य ह म न
०
धा तिंन तिंन ता
ने — क न
स — रे रे
रे नी॒ ध नी॒
सी — ख सि
रे ग॒ रे म
दु र म ति
३
ता धिं धिं धा
ग॒ — म म
कह्यिो — — क
प ध म प
खा — ये —
͢ग रे स ͢ऩी
तें — न ट
अन्तरा
रें ͢गं रें सं
भ यो — बां
सं — — —
रे — — —
ग॒ म ग॒ प
ग त के —
स — — —
रे — — —
रें नी॒ सं —
— व रौ —
संनी॒ धप मग॒ रे
ऐ — — —
म ग॒ म —
— ड ह कै
म म प —
म द मा —
सं सं सं रें
ह री ज स
रे नी॒ ध नी॒
क रि प र
रे ग॒ रे म
अ प नौ —
नी॒ — सं सं
या — ब स
नी॒ ध प ध
न हीं उ च
प ध म प
पं — च ज
ग॒ रे स ͢ऩी
उ द र भ
राग काफी
शब्द गुरु नानक(श्री गुरू ग्रन्थसाहब)
प्रीतम जान लेहु मन माहीं।
अपने सुख सों ही जग फांदियो , को काहू को नाहीं॥
सुख में आन बहुत मिल बैठत, रहत चहूँ दिस घेरे।
बिपत पड़ी सब ही संग छाड़त, कोऊ न आवत नेरे॥
घर की नार बहुत हित जा स्यों सदा रहत संग लागी।
जब ही हंस तजि एह काया, प्रेत-प्रेत कर भागी॥
एह बिधि को ब्योहार बनियो है ,जांसों नेहु लगायो।
अंत बार 'नानक' बिन हर जी,कोऊ काम न आयो॥
(ताल तीन मात्रा १६)
स्थाई
समतालीखालीताली
x
धा धिं धिं धा
प — प —
मा — हीं—
प — प —
मा — हीं —
रे — रे रे
ही — ज ग
प — प —
ना — हीं —
२
धा धिं धिं धा
नी॒ — ध प
प्री — त म
रे ग॒ रे स
प्री — त म
नी॒ — ध प
प्री — त म
ग॒ रे स —
फा — — दयो
नी॒ — ध प
प्री — त म
०
धा तिं तिं ता
म ध प ग॒
जा न ले हु
सऩी स रे रे
जा न ले हु
ग॒ — ग॒ ग॒
अ प ने —
प म ध प
को — — का
३
ता धिं धिं धा
रे — म म
ओ — म न
ग॒ — म म
ओ — म न
ग॒ ग॒ ग॒ —
सु ख सों —
ग॒ रे म म
हू — को —
अन्तरा
सं — रें ͢गं
हु त मि ल
— सं — —
—रे — —
म — ध प
ही — सं ग
प — प —
ने — रे —
रें — सं सं
बै — ठ त
ध नी॒ ध म
ऐ — — —
ग॒ ग॒ रे रे
छा — ड़ त
नी॒ — ध प
प्री — त म
म म प —
सु ख में —
सं सं रें नी॒
र ह त चहूँ
सं सं सं सं
बि प त प
म ध प —
को ऊ न —
नी॒ — नी॒ नी॒
आ — न ब
— ध प ध
— दि स घे
नी॒ — ध प
ड़ी — स ब
ग॒ रे म म
आ —व त
राग काफी
( ताल तीन मात्रा १६)
भजन कबीर
मन तोहे कहि विधि मैं समझाऊँ।
सोना होय तो सुहाग मँगाऊँ , वंक नाल रस लाऊँ ।
ज्ञान शब्द की फूंक चलाऊं, पानी कर पिंघलाऊँ ॥
घोड़ा होय तो लगाम लगाऊँ, ऊपर जीन कसाऊं।
होय सवार तेरे पर बैठूं , चाबुक देके चलाऊं ॥
हाथी होय तो जंजीर गढ़ाऊ चारों पैर बंधाऊ।
होय महावत तेरे पर बैठूं ,अंकुश लेके चलाऊं ॥
लोहा होय तो अहरण मंगाऊ, ऊपर धुवन धुवाऊं।
धूवन की घनघोर मचाऊं, जंतर तार खिचाऊं ॥
ज्ञानी न होय ज्ञान सिखलाऊं, सत्य की राह चलाऊं।
कहत 'कवीर' सुनों भई साधो, अमरा पुर पहुँचाऊं ॥
राग काफी
( ताल तीन मात्रा १६ )
स्थाई
समतालीखालीताली
x
धा धिं धिं धा
प — प —
झा — ऊँ —
२
धा धि धिं धा
रे ग॒ रे स
म न तो हे
०
धा तिं तिं ता
स स रे रे
क हि वि धि
३
ता धिं धिं धा
ग॒ — म म
मैं — स म
अन्तरा
सं — सं ͢गं
हा — ग मँ
सं — सं —
ला — ऊँ —
म — ध प
फूं — क ल
प — प —
ला — ऊँ —
रें — सं सं
गा — ऊँ —
नी॒ ध प —
— — — —
ग॒ — रे —
गा — ऊँ —
रे ग॒ रे स
म न तो हे
म — प —
सो — ना —
सं — रें नी॒
वं — क ना
सं सं सं नी॒
ज्ञा न श ब्द
स — रे —
पा — नी —
नी॒ — नी॒ नी॒
हो य तो सु
— ध प ध
— ल र स
ध प — —
की — — —
ग॒ ग॒ म म
क र पिं घ