शिवशम्भु के चिट्ठे/६-एक दुराशा
एक दुराशा
नारंगीके रसमें जाफरानी बसन्ती बूटी छानकर शिवशम्भु शर्म्मा खटियापर पड़े मौजोंका आनन्द ले रहे थे। खयाली घोड़ेकी बागें ढीली कर दी थीं। वह मनमानी जकन्दें भर रहा था। हाथ-पांवों को भी स्वाधीनता
दी गई थी। वह खटियाके तूलअरजकी सीमा उल्लंघन करके इधर-उधर निकल गये थे। कुछ देर इसी प्रकार शर्म्माजीका शरीर खटियापर था और खयाल दूसरी दुनिया में।
अचानक एक सुरीली गानेकी आवाजने चौंका दिया। कनरसिया शिवशम्भु खटियापर उठ बैठे। कान लगाकर सुनने लगे। कानों में यह मधुर गीत बार-बार अमृत ढालने लगा—
चलो चलो आज खेलें होली, कन्हैया घर।
कमरेसे निकलकर बरामदे में खड़े हुए। मालूम हुआ कि पड़ोसमें किसी अमीरके यहां गाने-बजाने की महफिल हो रही है। कोई सुरीली लयसे उक्त होली गा रहा है। साथ ही देखा, बादल घिरे हुए हैं, बिजली चमक रही है, रिमझिम झड़ी लगी हुई है। बसन्तमें सावन देखकर अक्ल जरा चक्कर में पड़ी। विचारने लगे कि गानेवालेको मलार गाना चाहिये था, न कि होली। साथ ही खयाल आया कि फाल्गुन सुदी है, वसन्तके विकासका समय है, वह होली क्यों न गावे? इसमें तो गानेवालेकी नहीं, विधिकी भूल है, जिसने वसन्तमें सावन बना दिया है। कहां तो चांदनी छिटकी होती, निर्मल वायु बहती, कोयलकी कूक सुनाई देती; कहां भादोंकी-सी अँधियारी है, वर्षा की झड़ी लगी हुई है! ओह! कैसा ऋतुविपर्यय है!
इस विचारको छोड़कर गीतके अर्थका विचार जीमें आया। होली खिलैया कहते हैं कि चलो आज कन्हैया के घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन? ब्रजके राजकुमार। और खेलनेवाले कौन? उनकी प्रजा ग्वालबाल। इस विचारने शिवशम्भु शर्म्माको और भी चौंका दिया कि ऐं, क्या भारतमें ऐसा समय भी था, जब प्रजाके लोग राजाके घर जाकर होली खेलते थे और राजा-प्रजा मिलकर आनन्द मनाते थे? क्या इसी भारत में राजा लोग प्रजाके आनन्दको किसी समय अपना आनन्द समझते थे? अच्छा, यदि आज शिवशम्भु शर्म्मा अपने मित्रवर्ग-सहित, अबीर-गुलालकी झोलियां भरे, रंग की पिचकारियां लिये, अपने राजाके घर होली खेलने जाये, तो कहां जाये? राजा दूर सात समुद्र पार है। राजाका केवल नाम सुना है। न राजाको शिवशम्भुने देखा, न राजा ने शिवशम्भुको। खैर राजा नहीं,
उसने अपना प्रतिनिधि भारत में भेजा है। कृष्ण द्वारिका ही में हैं, पर उद्धवको प्रतिनिधि बनाकर ब्रजवासियोंको सन्तोष देने के लिये ब्रजमें भेजा है। क्या उस राजप्रतिनिधिके घर जाकर शिवशम्भु होली नहीं खेल सकता?
ओफ्! यह विचार वैसा ही बेतुका है, जैसे अभी वर्षां में होली गाई जाती थी! पर इसमें गानेवाले का क्या दोष है, वह तो समय समझकर ही गा रहा था। यदि वसन्तमें वर्षाकी झड़ी लगे, तो गानेवालेको क्या मलार गाना चाहिये? सचमुच बड़ी कठिन समस्या है। कृष्ण है, उद्धव है; पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते! राजा है, राजप्रतिनिधि है; पर प्रजाकी उन तक रसाई नहीं! सूर्य है, धूप नहीं! चन्द्र है, चांदनी नहीं! माइ लार्ड! नगर ही में हैं; पर शिवशम्भु उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उनके घर चलकर होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। माइ लार्डके घर तक प्रजाकी बात नहीं पहुंच सकती। बातकी हवा नहीं पहुंच सकती। जहांगीरकी भांति उसने अपने शयनागार तक ऐसा कोई घण्टा नहीं लगाया, जिसकी जंजीर बाहर से हिलाकर प्रजा अपनी फरयाद उसे सुना सके। न आगेको लगानेकी आशा है। प्रजाकी बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। प्रजाके मनका भाव वह न समझता है, न समझना चाहता है। उनके मनका भाव न प्रजा समझ सकती है, न समझनेका कोई उपाय है। उसका दर्शन दुर्लभ है। द्वितीयाके चन्द्रकी भांति कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ानेसे उसका चन्द्रानन दिख जाता है, तो दिख जाता है। लोग उंगलियोंसे इशारे करते हैं कि वह है। किन्तु दूजके चांदके उदयका भी एक समय है। लोग उसे जान सकते हैं। माइ लार्डके मुखचन्द्र के उदयके लिये कोई समय भी नियत नहीं। अच्छा, जिस प्रकार इस देशका निवासी माइ लार्डका चन्द्रानन देखनेको टकटकी लगाये रहता हैं या जैसे शिवशम्भु शर्माके जीमें अपने देशके माइ लार्ड से होली खेलनेकी आई, इस प्रकार कभी माइ लार्डको भी इस देश के लोगों की सुध आती होगी? क्या कभी श्रीमान् का जी होता होगा कि अपनी प्रजामें, जिसके दण्डमुण्डके विधाता होकर आये हैं, किसी एक आदमीसे मिलकर उसके मनकी बात पूछे या कुछ आमोद-प्रमोदकी बातें
करके उसके मनको टटोलें? माइ लार्डको ड्यूटीका ध्यान दिलाना सूर्य को दीपक दिखाना है। वह स्वयं श्रीमुखसे कह चुके हैं कि ड्यूटी में बंधा हुआ मैं इस देशमें फिर आया। यह देश मुझे बहुत ही प्यारा है। इससे ड्यूटी और प्यारकी बात श्रीमान् के कथनसे ही तय हो जाती है। उसमें किसी प्रकारकी हुज्जत उठानेकी जरूरत नहीं। तथापि यह प्रश्न आपसे आप जीमें उठाता है कि इस देशकी प्रजासे प्रजाके माइ लार्डका निकट होना और प्रजाके लोगोंकी बात जानना भी उस ड्यूटीकी सीमा तक पहुंचा है या नहीं? यदि पहुंचा है, तो क्या श्रीमान् बता सकते हैं कि अपने छः सालके लम्बे शासन में इस देशकी प्रजाको क्या जाना और उससे क्या सम्बन्ध उत्पन्न किया? जो पहरेदार सिरपर फैटा बांधे, हाथमें संगीनदार बन्दूक लिये, काठ के पुतलोंकी भांति गवर्नमेण्ट-हाउसके द्वारपर दण्डायमान रहते हैं या छायाकी मूर्तिकी भांति ज़रा इधर-उधर हिलते-जुलते दिखाई देते हैं, कभी उनको भूले-भटके आपने पूछा है कि कैसी गुजरती है? किसी काले प्यादे-चपरासी या खानसामा आदिसे कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो? तुम्हारे देशकी क्या चाल-ढाल है? तुम्हारे देश के लोग हमारे देशको कैसा समझते हैं? क्या इन नीचे दरजेके नौकर-चाकरोंको कभी माइ लार्डके श्रीमुखसे निकले हुए अमृतरूपी वचनोंके सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ या खाली पेड़ोंपर बैठी चिड़ियोंका शब्द ही उनके कानों तक पहुंचकर रह गया? क्या कभी सैर-तमाशेमें टहलने के समय या किसी एकान्त स्थानमें इस देशके किसी आदमीसे कुछ बातें करने का अवसर मिला? अथवा इस देशके प्रतिष्ठित बेगरज आदमीको अपने घर पर बुलाकर इस देशके लोगोंके सच्चे विचार जाननेकी चेष्टा की? अथवा कभी विदेश या रियासतोंके दौरेमें उन लोगों के सिवा जो झुक-झुककर लम्बी सलामें करने आये हों, किसी सच्चे और बेपरवो आदमी से कुछ पूछने या कहनेका कष्ट किया। सुनते हैं कि कलकत्तेमें श्रीमान्ने कोना-कोना देख डाला। भारत में क्या भीतर और क्या सीमाओंपर कोई जगह देखे बिना नहीं छोड़ी। बहुतोंका ऐसा ही विचार था। पर कलकत्ता-यूनिवर्सिटीके परीक्षोत्तीर्ण छात्रोंकी सभामें चन्सलरका जामा पहनकर माइ लार्डने जो अभिज्ञता प्रगट की, उससे स्पष्ट हो गया कि जिन आंखों
से श्रीमान् ने देखा, उनमें इस देशकी बातें ठीक देखनेकी शक्ति न थी।
सारे भारतकी बात जाय, इस कलकत्ते ही में देखनेकी इतनी बातें हैं कि केवल उनको भलीभांति देख लेनेसे भारतवर्षकी बहुत-सी बातोंका ज्ञान हो सकता है। माइ लार्डके शासनके छः साल हालवेलके स्मारकमें लाठ बनवाने, ब्लैकहोलका पता लगाने, अखतरलौनीकी लाठ को मैदानसे उठवाकर वहां विक्टोरिया-मेमोरियल हाल बनवाने, गवर्नमेन्ट-हाउसके आसपास अच्छी रोशनी, अच्छे फुटपाथ और अच्छी सड़कोंका प्रबन्ध कराने में बीत गये। दूसरा दौरा भी वैसे ही कामों में बीत रहा है। सम्भव है कि उसमें भी श्रीमान् के दिलपसन्द अंगरेजी मुहल्लोंमें कुछ और बड़ी-बड़ी सड़कें निकल जायें और गवर्नमेण्ट हाऊसकी तरफके स्वर्गकी सीमा और बढ़ जावे। पर नगर जैसा अंधेरेमें था, वैसा ही रहा; क्योंकि उसकी असली दशा देखनेके लिए और ही प्रकारकी आंखोंकी जरूरत है। जब तक वह आंखें न होंगी, यह अंधेर योंही चला जावेगा। यदि किसी दिन शिवशम्भु शर्म्माके साथ माई लार्ड नगरकी दशा देखने चलते, तो वह देखते कि इस महानगरकी लाखों प्रजा भेड़ों और सूअरोंकी भांति सड़े-गंदे झोंपड़ोंमें पड़ी लोटती है। उनके आसपास सड़ी बदबू और मैले सड़े पानीके नाले बहते हैं। कीचड़ और कूड़े के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं। उनके शरीरोंपर मैले-कुचैले फटे चिथड़े लिपटे हुए हैं। उनमें से बहुतोंको आजीवन पेटभर अन्न और शरीर ढाँकनेको कपड़ा नहीं मिलता। जाड़ेंमें सर्दीसे अकड़कर रह जाते हैं। और गर्मीमें सड़कोंपर घूमते तथा जहां-तहां पड़ते फिरते हैं। बरसात में सड़े-सीले घरों में भीगे पड़े रहते हैं। सारांश यह है कि हरेक ऋतुकी तीव्रतामें सबसे आगे मृत्युके पथका वही अनुगमन करते हैं। मौत ही एक है, जो उनकी दशापर दया करके जल्द-जल्द उन्हें जीवनरूपी रोगके कष्ट से छुड़ाती है!
परन्तु क्या इनसे भी बढ़कर और दृश्य नहीं हैं? हां, हैं। पर जरा और स्थिरतासे देखनेके हैं। बालूमें बिखरी हुई चीनीको हाथी अपने सूंडसे नहीं उठा सकता, उसके लिये चिंवटीकी जिह्वा दरकार है। इसी कलकत्तेमें, इसी इमारतोंके नगरमें, माइ लार्डकी प्रजामें हजारों आदमी ऐसे हैं, जिनको रहनेको सड़ा झोंपड़ा भी नहीं है। गलियों और सड़कोंपर घूमते-घूमते जहां
जगह देखते हैं, वहीं पड़ रहते हैं। बीमार होते हैं, तो सड़कों ही पर पड़े पांव पीटकर मर जाते हैं। कभी आग जलाकर खुले मैदानमें पड़े रहते हैं। कभी-कभी हलवाइयोंकी भट्ठियोंसे चमटकर रात काट देते हैं। नित्य इनकी दो-चार लाशें जहाँ-तहांसे पड़ी हुई पुलिस उठाती है। भला माइ लार्ड तक उनकी बात कौन पहुंचावे? दिल्ली-दरबारमें भी, जहां सारे भारत का वैभव एकत्र था, सैंकड़ों ऐसे लोग दिल्लीकी सड़कोंपर पड़े दिखाई देते थे; परन्तु उनकी ओर देखनेवाला कोई न था। यदि माइ लार्ड एक बार इन लोगोंको देख पाते, तो पूछनेको जगह हो जाती कि वह लोग भी ब्रिटिश राज्यके सिटीजन हैं वा नहीं? यदि हैं, तो कृपापूर्वक पता लगाइये कि उनके रहनेके स्थान कहां हैं और ब्रिटिश राज्यसे उनका क्या नाता है? क्या कहकर वह अपने राजा और उसके प्रतिनिधिको सम्बोधन करें? किन शब्दोंमें ब्रिटिश राज्यको असीस दें? क्या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्यमें हम अपनी जन्मभूमिमें एक उंगल भूमिके अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीरको फटे चिथड़े भी नहीं जुड़े और न कभी पापी पेटको पूरा अन्न मिला, उस राज्यकी जय हो! उसका राजप्रतिनिधि हाथियोंका जुलूस निकालकर, सबसे बड़े हाथीपर चंवर-छत्र लगाकर निकले और स्वदेशमें जाकर प्रजाके सुखी होनेका डङ्का बजावे?
इस देशमें करोड़ों प्रजा ऐसी है, जिसके लोग जब संध्या-सबेरे किसी स्थानपर एकत्र होते हैं, तो महाराज विक्रमकी चर्चा करते हैं और उन राजा-महाराजाओंकी गुणावलीका वर्णन करते हैं, जो प्रजा का दुःख मिटाने और उनके अभावोंका पता लगानेके लिये रातको वेश बदलकर निकला करते थे। अकबरके प्रजापालन और बीरबलके लोकरञ्जनकी कहानियां कहकर वह जी बहलाते हैं और समझते हैं कि न्याय और सुखका समय बीत गया। अब वह राजा संसारमें उत्पन्न नहीं होते, जो प्रजाके सुख-दुःख की बातें उनके घरों में आकर पूछ जाते थे। महारानी विक्टोरियाको वह अवश्य जानते हैं कि वह महारानी थीं। अब उनके पुत्र उनकी जगह राजा और इस देश के प्रभु हुए हैं। उनको इस बात की खबर तक भी नहीं कि उनके प्रभुके कोई प्रतिनिधि हैं और वह इस देशके शासनके मालिक होते हैं तथा कभी-कभी इस देश की तीस करोड़ प्रजाका शासन करनेका घमण्ड भी
करते हैं। अथवा मन चाहे तो इस देशके साथ बिना कोई अच्छा बर्ताव किये भी यहांके लोगोंको झूठा, मक्कार कहकर अपनी बड़ाई करते हैं।
इन सब विचारोंने इतनी बात तो शिवशम्मुके जीमें भी पक्की कर दी कि अब राजा-प्रजाके मिलकर होली खेलनेका समय गया। जो बाकी था, वह काश्मीर-नरेश महाराज रणवीरसिंहके साथ समाप्त हो गया। इस देश में उस समयके फिर लौटने की जल्द आशा नहीं। इस देशकी प्रजाका अब वह भाग्य नहीं है। साथ ही राजपुरुष का भी ऐसा सौभाग्य नहीं है, जो यहां की प्रजाके अकिंचन प्रेमके प्राप्त करनेकी परवा करे। माइ लार्ड अपने शासन कालका सुन्दरसे सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं, वह प्रजाके प्रेमकी क्या परवा करेंगे। तो भी इतना संदेश भंगड़ शिवशम्भु शर्म्मा अपने प्रभु तक पहुंचा देना चाहता है कि आपके द्वारपर होली खेलनेकी आशा करनेवाले एक ब्राह्मणको कुछ नहीं तो कभी-कभी पागल समझकर ही स्मरण कर लेना। वह आपकी गूंगी प्रजाका एक वकील है, जिसके शिक्षित होकर मुंह खोलने तक आप कुछ करना नहीं चाहते।
बमुलाजिमाने सुलतां कै रसानद, ई दुआरा?
कि बशुक्रे बादशाही जे नजर भरां गदारा।
('भारतमित्र', १८ मार्च सन् १९०५)