वैशेषिक दर्शन
गंगानाथ झा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १९ से – २७ तक

 

लेही रहेगा और जो पीछे होगया वह पीछे। यह काल द्वारा आगे पीछे का सम्बन्ध सदा एकसा बना रहता है। दैशिक सम्बन्ध ऐसा नहीं होता। चार चीजें एक जगह रक्खी है, उनमें पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर का सम्बन्ध अभी एक तरह का है। उनके स्थान को उलट फेर कर देने से जो पूर्व था वह पश्चिम होजायगा जो दक्षिण था वह उत्तर॥

संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग देश के गुण हैं। यह भी विभु और परम महान् और नित्य है। इसका भी प्रत्यक्ष नहीं केवल अनुमान होता है। यद्यपि देश एकही है तथापि महर्षियों ने मेरु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर सूर्य के भ्रमण द्वारा दिशा के दश भेद माने हैं। और उनके नामभी सूर्यकी गति के अनुसार रक्खे हैं। जिधर सूर्य सबसे पहिले देख पड़ता है [प्रथम अंचति] उसका नाम है 'प्राची,' (पूर्व) जिधर सूर्य नीचे जाता है वह अवाची, (दक्षिण) इत्यादि।

आकाश और दिक् इन दोनों को अलग मानने के कई कारण हैं। आकाश केवल शब्द का समवायि कारण है। दिक् किसी वस्तु का समवायि कारण नहीं है। परन्तु सब कार्य्यों का निमित्त कारण है। आकाश का उसके शब्द गुण द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान भी माना जा सकता है दिक् का उसके कार्य्यों के द्वारा केवल अनुमान ही होता है।

आत्मा

आठवाँ द्रव्य आत्मा है। जिसमें ज्ञान उत्पन्न होता है, जो ज्ञान का समवायि कारण होता है—वही आत्मा है। काणादरहस्य में आत्मा को ज्ञान का अधिकरण कहा है। परन्तु यहां अधिकरण पद का समवायि कारण ही अर्थ है। आत्मा प्रत्यक्ष नहीं होता—क्योंकि यह अमूर्त पदार्थ है। मूर्त पदार्थ ही का प्रत्यक्ष हो सकता है। कई नैयायिकों ने इसको प्रत्यक्ष माना है। परंतु वैशेषिक मत में आत्मा का अनुमान ही हो सकता है। किसी हथियार का व्यापार बिना कर्ता के नहीं होता—इन्द्रियां एक प्रकार के हथियार हैं—इससे इनके व्यापार का कोई कर्ता अवश्य होगा—यही कर्ता आत्मा है। फिर श्वास, प्रश्वास, निमेष, उन्मेष, सुख- दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न का आधार कोई अवश्य होगा। यही आत्मा है। इसी से सूत्र ३-२-४ में सुख दुःख इत्यादि को आत्मा का 'लिंग' अर्थात् चिह्न कहा है। इसका तात्पर्य वर्णन करते हुए प्रशस्तपाद ने कई अनुमान दिखलाये हैं।

(१) हित पदार्थ के पाने का और अहित पदार्थ के छोड़ने का व्यापार जो मनुष्य में शरीर का होता है उससे शरीर में कोई चेतन पदार्थ है यह सूचित होता है। जैसे अच्छे मार्ग पर जाना और बुरे मार्ग को छोड़ना—इस रथ के व्यापार से रथ के भीतर सारथीरुप चेतन पदार्थ है—यह सूचित होता है।

(२) श्वास प्रश्वास से जो शरीर फूलता है और संकुचित होता है—इससे यह सूचित होता है कि यह किसी चैतन्य वाले पदार्थ द्वारा होता है—जैसे भाथी का फूलना और संकुचित होना भाथी फूंकने वाले के व्यापार से होता है।

(३) आँखों की पलकें गिरतीं हैं उठती हैं—इससे सूचित होता है कि जिस तरह कूएं में मोट का गिरना और उठना पानी खींचने वाले के व्यापार से होता है उसी तरह यहाँ भी कोई चेतन पदार्थ अवश्य है।

(४) शरीर में घाव लगता है और फिर भर जाता है। यह शरीर में स्थित आत्माही के द्वारा हो सकता है, जैसे घर में रहने वाला घर की मरम्मत करता है।

(५) जिस वस्तु के देखने की इच्छा होती है उसी वस्तु की ओर मन जाता है—यह व्यापार चेतन आत्माही का हो सकता है। यह व्यापार वैसाही है जैसे घर में बैठे हुए बालक का भिन्न भिन्न खिड़कियों की ओर ढेला फेंकना।

इन सब युक्तियों से मालूम होता है की वैशेषिकों के मत में प्रति शरीर भिन्न आत्मा है। आत्मा अनेक है यह सूत्र (३-२-१९-२१) में बतलाया है। भिन्न भिन्न शरीर की प्रवृत्ति सुख दुःख इत्यादि भिन्न होती है—इससे आत्मा एक नहीं हो सकती (सूत्र ३-२-२०)। और शास्त्रों में भी आत्मा को अनेक कहा है (३-२-२१)। प्रशस्तपाद भाष्य में जीवात्मा परमात्मा का भेद नहीं किया है। भेद किया भी क्योँ जाय? ज्ञानाधिकरण तो जैसे एक आत्मा से सब सुख दुःखादि जितने आत्मा के गुण हैं वे सब जैसे एक में वैसे सब में। और फिर वैशेषिक शास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में ईश्वर या परमात्मा की चर्चा नहीं पाई जाती। पर नवीन ग्रन्थों में आत्मा के दो विभाग पाये जाते हैं। काणादरहस्य में शंकर मिश्र लिखते हैँ—

'आत्मा' के दो प्रकार हैँ। एक तो 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् शरीरमात्र में उत्पन्न ज्ञान का ज्ञाता, और दूसरा 'सर्वज्ञ' सब जाननेवाला। [यही मुख्य भेद परमात्मा जीवात्मा में है। परमात्मा सर्वज्ञ है जीवात्मा अल्पज्ञ]'।

आत्मा के गुण—बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, प्रशस्तपाद भाष्य में वर्णित हैँ। जिन ग्रन्थकारों ने परमात्मा जीवात्मा का विभाग किया है उनके मत से ये सब गुण जीवात्मा ही के हैँ—इन में से दुःख धर्म अधर्म ये तीन परमात्मा में नहीं हो सकते। परमात्मा में सुख है या नहीं इसमें मत भेद पाया जाता है।

परमात्मा, ईश्वर, संसार के कर्ता हैँ इसका साधक आगमवेद, और अनुमान है। पृथिव्यादि चार महाभूत कार्य अवश्य हैँ, और जो कार्य है, जिसकी उत्पत्ति होती है, उसकी उत्पत्ति के पहिले उस का ज्ञान किसी को अवश्य होगा, घट का ज्ञान कुम्हार को होता है तब घट की उत्पत्ति होती है। इसी तरह पृथिव्यादि सकल पदार्थ का ज्ञान किसी आत्मा को अवश्य होगा। जिस आत्मा में यह ज्ञान होगा वही 'ईश्वर' परमात्मा है, इत्यादि न्यायकंदली में वर्णित है। (पृ॰ ५४)

महाभूतसृष्टि से पहिलें यदि ईश्वर थे तो उनका शरीर क्या था, किस वस्तु का था—इस विषय में मत भेद है। अधिक ग्रन्थकारों का मत है कि शरीर की उत्पत्ति में आत्मा ही का धर्म अधर्म कारण होता है। ईश्वर को धर्म अधर्म नहीं। अतएव इनका शरीर भी नहीं हो सकता। कर्ता होने में शरीर का होना आवश्यक नहीं है (न्यायकंदली पृ॰ ५६)। कई ग्रन्थकारों का मत है कि संसार के जीवों के धर्म अधर्म द्वारा ईश्वर शरीर ग्रहण करते हैँ—येही शरीर नाना प्रकार के अवतारों में कहे जाते हैँ। किसी के मत से परमाणु ही ईश्वर के शरीर हैँ। कुछ लोग आकाश को ईश्वर का शरीर कहते हैँ।

मन

नवम द्रव्य मन हैं। हम बहुधा ऐसा देखते हैं कि इन्द्रियों के व्यापार रहते हुए भी उस इन्द्रिय द्वारा ज्ञान नहीं होता है। जैसे मेरी आँखें खुली हुई हैं, घोड़ा भी मेरे सामने खड़ा है। पर मुझे घोड़े का ज्ञान नहीं होता—मैं घोड़े को नहीं देखता। इससे यह सूचित होता है कि वाह्य इन्द्रियों के अतिरिक्त कोई और भी पदार्थ है जिसके व्यापार बिना ज्ञान नहीं हो सकता। फिर जिस वस्तु को मैंने आज देखा उसका स्मरण मुझे कुछ दिन बाद होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस स्मरण का भी करण कोई दूसराही है। यह करण इन्द्रिय, वाह्य इन्द्रियों में से कोई नहीं हो सकता। इससे एक आभ्यन्तर करण—अन्तःकरण, मानना आवश्यक है। इसी अन्तःकरण का नाम 'मन' है। मन 'इन्द्रिय' है ऐसा सूत्रों में नहीं कहा है। पर मन को प्रशस्तपाद भाष्य में 'करण' कहा है।

मन के गुण हैं—संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, संस्कार। भिन्न भिन्न शरीर का व्यापार भिन्न भिन्न होता है इससे प्रति शरीर में एक एक भिन्न मन है। मन को वैशेषिकों ने अणु अति सूक्ष्म माना है। मनका संयोग सभी ज्ञान में आवश्यक होता है। यदि मन अणु न होता तो एक काल में अनेक ज्ञान एक आदमी को हो सकते। क्योंकि एकही काल में दो चार इन्द्रियों का संयोग मन से हो सकता। और इन संयोगों से इन सब इन्द्रियों द्वारा ज्ञान एकही क्षण में हो सकता। पर ऐसा होता नहीं है। एक क्षण में एकही ज्ञान होता है। इससे यह सूचित होता है कि एक क्षण में एकही इन्द्रिय का संयोग मन के साथ हो सकता है और यह तभी सम्भव है जब कि मन अणु है। इसी कारण से एक शरीर में एकही मन मानते हैं (सूत्र ३-२-३)।

मन नित्य है (सूत्र ३-२-२), मूर्त है, क्योंकि बिना मूर्ति के क्रिया नहीं हो सकती।  

दूसरा पदार्थ—'गुण'

जो द्रव्य में हो—जिसका अपना कोई गुण न हो—जो संयोग या विभाग का कारण न हो सके—वही गुण है (सूत्र १-१-१६)। जितने गुण हैं सभों में गुणत्व जाति है—वे सब द्रव्यों ही में पाये जाते हैं। उनके कोई गुण नहीं होते। उन में कोई क्रिया, चलनादि, नहीं पाई जाती (प्रशस्तपाद पृ॰ ९४)।

द्रव्य से गुण का मुख्य भेद यही है कि द्रव्य स्वयं आश्रय हो सकता है—गुण स्वयं आश्रय नहीं हो सकता और बिना किसी द्रव्य के आश्रय से रह भी नहीं सकता। गुण और कर्म का भेद इतना साफ नहीं है। सूत्रकार के लक्षणों से दोनों में इतनाही फरक मालूम होता है कि कर्म संयोग विभाग का कारण होता है, गुण नहीं। एक द्रव्य (घोड़ा) के चलन रूप कर्म से घोड़ा एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह जाता है, अर्थात् एक जगह से उसका विभाग और दूसरी जगह से उसका संयोग चलनकर्म द्वारा होता है। दूसरा भेद यह मालूम होता है कि कर्म जितना है सब क्षणिक है, कुछही काल तक एक द्रव्य में रहता है, पर द्रव्य के गुण उसमें जब तक द्रव्य रहता है, या जब तक कोई दूसरा विरोधी गुण न उत्पन्न होजाय, तब तक बने रहते हैं।

सूत्र में १७ गुण बताये हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न। (सूत्र १-१-६)। प्रशस्तपाद भाष्य में ६ और बतलाये हैं—गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट, शब्द। इन में 'अदृष्ट' शब्द से धर्म अधर्म ये दो विवक्षित हैं। इससे २४ गुण हुए। और जितने गुण हो सकते हैं वे सब इन्ही २४ के अन्तर्गत हैं।

गुण को निर्गुण बतलाया है (सूत्र १-१-१६)। फिर २४ गुण हैं—इसमें गुण की संख्या बतलाते हैं—संख्या एक गुण है, फिर गुण निर्गुण कैसे हुए? पर सूत्र में गुण १७ हैं ऐसा नहीं कहा है—केवल इतनाही कहा है कि थे ये गुण हैं। परन्तु भाष्य में स्पष्ट कहा है कि सूत्र में १७ गुण कहे हैं। इसका समाधान करने का प्रयत्न न्यायकंदली में किया गया है (पृ॰ ११)। "यद्यपि गुण निर्गुण हैं तथापि 'गुण चौबीस हैं' ऐसा कहा है—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गुण में संख्यारूप एक गुण हैं। तात्पर्य इतनाही है कि जितने गुण हैं उनमें असाधारण धर्म वाले, अर्थात् जो किसी और गुण में अन्तर्गत नहीं किए जा सकते, २४, हैं। इस व्याख्या से असल शंका का समाधान नहीं होता। जब गुण २४ हैं तो फिर संख्या गुण में कैसे नहीं हुई? जब गुणों का गिनाना आरम्भ हुआ तभी उनमें संख्या का होना आवश्यक हुआ।

जैसे द्रव्यों में साधर्म्य-समान धर्मवत्त्व-का निरूपण हुआ है वैसे ही वैशेषिकों ने गुणों में भी किया है। (१) जितने गुण हैं सभी में 'गुणत्व' जाति है। सब द्रव्यों में आश्रित रहते हैं—सभी निर्गुण हैं—सभी में कोई क्रिया नहीं है—अर्थात् किसी भी गुण में चलन रूप क्रिया नहीं पाई जाती। (२) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग—ये 'मूर्त' गुण कहलाते है। अर्थात् ये उन्हीं द्रव्यों में पाये जाते हैं जिनकी मूर्ति है—जिनका स्थूल रूप होता है—अर्थात् पृथ्वी जल वायु अग्नि और मनस इन्हीं में ये गुण पाये जाते हैं। (३) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म, संस्कार और शब्द—ये 'अमूर्त' गुण हैं। अर्थात् ये उन्हीं द्रव्यों में पाये जाते हैं जिनका स्थूल रूप नहीं है। ये केवल आत्मा और आकाश में पाये जाते हैं। (४) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग ये गुण मूर्त अमूर्त सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं। (५) संयोग, विभाग, द्वित्व, द्विपृथक्त्व, त्रिपृथक्त्व इत्यादि अनेक द्रव्यों में रहते हैं। अर्थात् ये कभी एकही द्रव्य में नहीं रह सकते। संयोग जब होगा तब दो या अधिक चीजों में। (६) इनके अतिरिक्त जितने गुण हैं, सब एक एक द्रव्य में पाये जाते हैं। (७) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, द्रवत्व (स्वाभाविक)—बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, शब्द ये 'वैशेषिक गुण' या 'विरोष गुण' कहलाते हैं। अर्थात् ये ऐसे गुण है जिनके द्वारा एक वस्तु दूसरी वस्तु से अलग समझी जाती है। इन्हीं गुणों के द्वारा द्रव्य एक दूसरे से अलग समझी जाते हैं। जैसे जब दो वस्तुओं में दो तरह का रूप, या रस या गन्ध इत्यादि पाया जाता है तभी एक का दूसरे से भेद समझा जाता है। इन्हीं गुणों के द्वारा वस्तुओ का विशेषण', 'व्यवच्छेद' होता है। इससे ये 'विशेष गुण' कहलाते हैं। (८) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व (नैमित्तिक) वेग—ये 'सामान्य गुण' हैं, ये अनेक द्रव्यों में रहते हैं। इनके द्वारा द्रव्य एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते, इन के द्वारा अनेक द्रव्य एक साथ समझे जाते हैँ, जैसे संयोग के द्वारा दो या अधिक संयुक्त द्रव्यों का ज्ञान होता है। (९) शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गन्ध—ये एक एक कर एक वाह्य इन्द्रियों से गृहीत होते हैँ। शब्द का ग्रहण केवल श्रवण इन्द्रिय से होता है, स्पर्श का त्वक् से, रुप का आँख से, गन्ध का घ्राणेन्द्रिय से। इनका ग्रहण दूसरी इन्द्रियों से नहीं हो सकता। (१०) संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग—इनका ग्रहण दो इन्द्रियों से होता है। इनका ग्रहण त्वचा और आँख से होता है। (११) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न—इनका ग्रहण अन्तःकरण मन से होता है। कुछ दार्शनिकों का मत है कि बुद्धि का प्रत्यक्ष नहीं होता, इसका अनुमान ही होता है। पर वैशेषिकों के मत में इसका प्रत्यक्ष ही होता है। (१२) गुरत्व, धर्म, अधर्म, संस्कार—ये अतीन्द्रिय हैँ, इनका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं होता, इनका अनुमान होता है। (१३) वे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श जो अग्नि संयोग से नहीं उत्पन्न होते, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, द्रवत्व, पृथक्त्व, स्नेह, वेग—ये 'कारणगुणपूर्वक' हैँ। जिस किसी वस्तु में ये गुण पाये जाते हैँ, उस वस्तु के कारण में, उनके परमाणुयों में, ये गुण रहते हैँ, उसी के अनुसार उन द्रव्यों में भी पाये जाते हैँ। जल के परमाणु में द्रवत्व है इसी से कुएँ के पानी में भी वह गुण पाया जाता हैँ। मिट्टी के ढेले में जो गन्ध है उसके परमाणुओं में ही वह हैँ। (१४) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म, संस्कार, और शब्द—ये 'अकारणगुणपूर्वक' हैँ, जिन द्रव्य में ये होते हैँ उनमें स्वयं रहते हैँ उसके कारण में नहीं। प्रात्मा में जो युद्धि उत्पन्न होती है वह आत्मा के कारण में नहीं है। इसका कारण यह है कि जिन द्रव्यों में ये गुण पाये जाते हैँ वे अमूर्त हैँ, केवल आत्मा और आकाश में ये गुण हैं, इन द्रव्यों का कारण नहीं होता, इस से इनके गुण इनके कारण में हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। (१५) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार शब्द जो परिमाण रुई के ढेर में पाया जाता है—एक संयोग से जो दूसरा संयोग उत्पन्न होता है, द्रवत्व [नैमित्तिक], परत्व, अपरत्व ये सब संयोगज हैं, दो द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होते है। बुद्धि से लेकर संस्कार तक जितने कहे गये हैं वे आत्मा—मन के संयोग से उत्पन्न होते हैं, शब्द आकाश और ढोल के संयोग से, इत्यादि। (१६) संयोग और विभाग कर्म, चलनक्रिया, से उत्पन्न होते हैं। (१७) शब्द और एक विभाग से उत्पन्न जो विभाग होता हैं—ये 'विभागज' कहलाते हैं, इनकी उत्पत्ति किसी तरह के विभाग ही से होती है। (१८) परत्व, अपरत्व, द्वित्व, पृथक्त्व, इत्यादि 'बुद्ध्यपेक्ष' हैं—ज्ञानही के द्वारा इनकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् जब दो चीजों को कोई आदमी एक दूसरे से अलग समझता है तब इसी ज्ञान से उन चीजों में 'परत्व' गुण उत्पन्न होता है। (१९) रूप, रस, गन्ध, जो स्पर्श गरम नहीं होता, शब्द, परिमाण एकत्व, एक पृथक्त्व, और स्नेह, ये अपने सदृश गुण उत्पन्न करते हैं। (२०) सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न—ये असदृश (अपने से दूसरी तरह के) गुण उत्पन्न करते हैं। कारण का रूप कार्य का रूप उत्पन्न करता है, मिट्टी में जो रूप रहता है उससे घट का रूप बनता है। पर सुख से सुख नहीं उत्पन्न होता है। सुख से इच्छा उत्पन्न होती है प्रयत्न से कर्म उत्पन्न होता है। (२१) संयोग, विभाग, संख्या, गुरुत्व, द्रवत्व, गरम स्पर्श, ज्ञान, धर्म, संस्कार—ये अपने सदृश और अपने असदृश दोनों तरह के गुण उत्पन्न करते हैँ। जैसे बांस के फटने से, उसके दलोंके विभाग से, शब्द उत्पन्न होता है और जब हम अपना हाथ किसी चीजपर से हटा लेते हैं तब हमारे हाथ के विभाग से हमारे शरीर का विभाग भी उत्पन्न होता है। धर्म से धर्म और सुख दोनों उत्पन्न होते हैं। (२२) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संस्कार, शब्द—ये उन्हीं गुणों को उत्पन्न करते है जो उनके अपने ही आश्रय में रहें। जैसे किसी आत्मा में सुख रहता है वह सुख उसी आत्मा में इच्छा उत्पन्न करता है। (२३) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, स्नेह, प्रयत्न—ये अपने आश्रय से दूसरी चीजों में गुण उत्पन्न करते हैं। जैसे मिट्टी के ढेले का गुण घट में रूप उत्पन्न करता है। (२४) संयोग, विभाग, संख्या, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, धर्म, अधर्म—ये अपने आश्रय में भी और दूसरी चीजों में भी गुण उत्पन्न करते हैँ। जैसे गाड़ी के अवयवों का वेग उन्हीं अवयवों में और वेग उत्पन्न करता है और गाड़ी में गमन क्रिया उत्पन्न करता है। (२५) गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संयोग—ये पतनादि क्रिया उत्पन्न करते हैँ। ऊपर से जब चीज गिरती है उस गिरने का कारण उस वस्तु का गुरुत्व है। (२६) रूप, रस, गन्ध, अनुष्णस्पर्श, संख्या, परिमाण, एक्पृथक्त्व, स्नेह शब्द—ये असमवायिकारण होते हैँ। जैसे सुख का समवायि कारण है आत्मा और उसका असमवायिकारण है आत्मा, मनस का संयोग। (२७) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म संस्कार—ये निमित्त कारण होते हैँ। (२८) संयोग, विभाग, उष्णस्पर्श, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग—ये असमवायि कारण भी होते हैं और निमित्त कारण भी। जैसे ढोल और लकड़ी का संयोग शब्द का निमित्त कारण और ढोल आकाश के संयोग का असमवायिकारण होता है। (२९) परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक—ये किसी तरह के कारण नहीं होते। (३०) संयोग, विभाग, शब्द, और आत्मा के विशेष गुण—ये अपने आश्रय के किसी एक भाग मेँ रहते हैँ। जैसे घड़ा और पृथिवी का संयोग घड़े की पेंदी में और पृथिवी के उसी छोटे हिस्से में रहता है। (३१) इनके अतिरिक्त जितने गुण हैँ वे अपने अपने आश्रय के समग्र भाग में रहते हैँ। (३२) जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श अग्नि के संयोग से नहीं उत्पन्न होते परिमाण–एकत्व–एक पृथक–स्वाभाविकद्रवत्व, गुरुत्व, स्नेह, ये जब तक इनके आश्रय रहते हैँ तब तक बराबर रहते हैँ। जब तक फूल रहता है तब तक उसका रंग रहता है। (३३) बाकी गुण आश्रयों के रहते भी नष्ट हो जाते हैँ। जैसे अग्नि के संयोग से जो लोहे में लाल रंग हो जाता है वह लोहे के रहते ही आग के हट जाने से नष्ट हो जाता है। (३४) जितने गुण हैँ सभी में परस्पर वैधर्म्य यही है कि अपना अपना उनका स्वभाव पृथक् पृथक् होता है इससे उनके नाम भी 'रूप' 'रस' इत्यादि अलग अलग होते हैँ।

प्रशस्तपादभाष्य में पृथक पृथक् गुणों का निरूपण किया है—

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।