वैशेषिक दर्शन
गंगानाथ झा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २८ से – ३७ तक

 

इसका संक्षेप से कुछ हाल लिखना यहां पर आवश्यक है—

रूप (रंग)

गुणों में रुप का प्रत्यक्ष चक्षुरिन्द्रिय (आंख) से होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि इन्हीं तीनों द्रव्यों के देखने में रूप आंख का सहकारी होता है। रूप के देखे आने में चार बातों की आवश्यकता है। (१) जिस वस्तु का वह रूप है उसका परिमाण महत् हो। इसी कारण से सूक्ष्म परमाणु का रूप नहीं देखा जाता। (२) रूप व्यक्त होना चाहिये। चक्षुरिन्द्रिय तैजस (अग्नि की बनी हुई) है इससे इसका रूप श्वेत अवश्य है परन्तु व्यक्त न होने के कारण दिखाई नहीं पड़ता। (३) रूप अनभिभूत रहना चाहिये। अर्थात् यह किसी प्रबल गुणान्तर से दबा न हो। जैसे मामूली अग्नि का श्वेत रंग उसमें मिले हुए पृथिवी अंश के रूपान्तर से ऐसा दबा रहता है कि हम उसे उजले के बदले लाल देखते हैं। (४) रूपत्व जाति। शब्द स्पर्श इत्यादि गुण आंख से नहीं देखे जाते, इसमें कारण यदि पूछा जाय तो यही कहा जा सकता है कि इनमें रूपत्व जाति नहीं है।

रंग कै प्रकार का है सो प्राचीन ग्रन्थों में नहीं गिनाया है। शुक्ल आदि अनेक प्रकार के रंग हैं—प्रशस्तपाद ने इतना ही कहा है। तर्कसंग्रह में सात गिनाये हैं—शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, और चित्र। कुछ लोग चित्र रूप को एक रूप नहीं मानते क्यों कि रूप व्याप्यवृत्ति गुण है। अर्थात् जिस वस्तु में रहता है वह चीज समूची उसी रंग की रहती है। और चित्र रूप वाली वस्तु में कोई भी एक रंग समूची वस्तु में नहीं रहता।

और गुणों की तरह रूप भी नित्य द्रव्य में नित्य और अनित्य द्रव्य में अनित्य रहता है। ऐसा सूत्र ७।१।२-३ में कहा है। पर सूत्र ४ में कहा है कि नित्य जल, अग्नि, परमाणु का रूप नित्य है। परन्तु नित्य पृथ्वी परमाणु का भी रूप अनित्य होता है—ऐसा सूत्र ६ में कहा है। इस का कारण यह है कि पार्थिव जितनी वस्तुएं हैं उनका रंग अग्नि संयोग से बदलता है। इसी से पृथ्वी का रूप "पाकज" कहलाता है। घट का दृष्टान्त ले कर तो यह समझना सहज है। क्यों कि कच्चा घट काला रहता है और पकाने पर लाल हो जाता है। परन्तु पृथ्वी मात्र के रूप को पाकज मानना उतना सहज नहीं है। खेत में जो ढेला पड़ा है उसका भी रंग पाकज है सो कैसे कहा जा सकता है। यदि कहें कि सूर्य की किरण में जो अग्नि है उसी अग्नि के संयोग से उस ढेले में भी रंग उत्पन्न हो गया है तो ऐसा तो जल वायु सभी के रंग के प्रसङ्ग में कहा जा सकता है।

जितने कार्य्यद्रव्य हैं उनका रूप कारणगुणपूर्वक माना गया है। अर्थात् घड़े में जो लाल रंग उत्पन्न होता है सो उसके परमाणुओं में उत्पन्न होने ही से उत्पन्न होता है। इस प्रसङ्ग में दो मत पाए जाते हैं। एक है 'पीलु पाक' दर्शन जिसका सिद्धान्त है कि कच्चा घड़ा जब आग में डाला जाता है तब उसका एक रंग नाश हो जाता है अग्नि के व्यपार से परमाणु सब विलग विलग हो जाते हैं और फिर केवल कच्चे पृथ्वी परमाणु रह जाते हैं। तब इन परमाणुओं में अग्नि के संयोग से काले रंग का नाश हो जाता है और दूसरा लाल रंग उत्पन्न होता है और ये परमाणु परस्पर मिलते हैं जिसमें द्वयणुकादिक्रम से फिर एक लाल रंग का घट उत्पन्न हो जाता है। 'पीलु' कहते हैं परमाणु को और इस मत में परमाणुओं ही का पाक माना गया है इससे इसको 'पीलु पाक मत' में कहा है। (प्रशस्तपाद १०६)। दूसरा 'पिठर पाक' मत है। इसमें घट का नाश नहीं माना गया है। अग्निसंयोग से भी घट ज्यों का त्यों बना रहता है केवल उसके छिद्रों के द्वारा गरमी प्रवेश कर के परमाणुओं के रंग को बदल देती है। इस मत वालों का यह कहना है कि यदि कच्चा घट नष्ट होकर दूसरा घट उत्पन्न हुआ माना जाय तो यह 'घट वही है जिसको मैंने कच्चा देखा था' यह बुद्धि जो होती है सो अशुद्ध होती है, ऐसा मानना पड़ेगा। प्रशस्तपादभाष्य (पृ॰ १०४) में कहा कि रूप का नाश कार्य द्रव्यों में आश्रय के नाश ही से होता है। इसके अनुसार 'पीलु पाक' ही मत सत्य है। क्योंकि जब तक कच्चे घट का नाश नहीं होगा तब तक उसके काले रंग का नाश कैसे हो सकता है। जब तक काले रंग का नाश नहीं होगा तब तक उसी द्रव्य में लाल रंग की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।

वैशेषिकों ने पीलुपाक ही मत को स्वीकार किया है। प्रशस्तपादः भाष्य (पृ॰ १०७) में पिठरपाक मत का निराकरण किया है। जब तक समूचा घट बना है तब तक उसके कुल अंश में आग का जोर नहीं पहुँच सकता, और जब तक कुल परमाणु आग से स्पृष्ट न होंगे तब तक उनका रंग नहीं बदल सकता। यदि परमाणुओं के बीच में आग का प्रवेश माना जाय तो परमाणु जब तक एक दूसरे से पृथक् न हो जांय तब तक उनके बीच में आग का पहुँचना सम्भव नहीं है। और जब परमाणु परस्पर विभक्त हो गये तब समूचे घट का रहना असम्भव है। परमाणुओं के विलग होने ही से घट चूर चूर हो जाता है।

पिठर-पाक-वादी नैयायिक हैं। यही एक प्रधान विषय है जिससे न्याय और वैशेषिक पृथक् माने गये हैं। इनका कहना है कि यदि कच्चे घट का एक दम नाश हो गया तो जब घट पक कर लाल हो जाता है तब हम यह कैसे कह सकते हैं कि 'यह वही घट है जिसको मैंने आग में डाला था'। क्योंकि जिसको आग में डाला वह तो नष्ट हो गया, उसके स्थान में दूसरा लाल रंग का घट उत्पन्न हो गया। पर इसका समाधान यह है कि दूसरा घट जो उत्पन्न हुआ सो पहिले से इतना मिलता हुआ पैदा हुआ कि इन दोनों का भेद मालूम नहीं होता इसीसे 'यह वही घट है' ऐसा भान होता है।

पीलुपाक वाद का मानना वैशेषिकमतावलम्बी का एक प्रधान चिह्न कहा गया है।

द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे
यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः।

रस (दूसरा गुण)

रस का ज्ञान रसनेन्द्रिय जिह्वा से होता है, यह पृथ्वी जल इन द्रव्यों में रहता है, जिह्वा की मदद करता है, प्राणधारण, बल, आरोग्य पुष्टि इनका कारण है। मधुर (चीनी में) अम्ल (खट्टा) (नीबू में), लवण (नमक का), तिक्त (तीता) (नीम में), कटु (कडुआ) (मिर्चा में), और कषाय (आवला में) छ प्रकार का रस होता है। यह भी रूप की तरह नित्य अनित्य दोनों है। जल परमाणु का रस नित्य और पृथ्वी परमाणु में अनित्य है, क्योंकि पार्थिव चीज़ का रस अग्नि संयोग से बदल जाता है। इसमें भी पीलु पाक ही का भ्रम है। परमाणुओं से अतिरिक्त स्थूल द्रव्यों का रस अनित्य है क्योंकि उन द्रव्यों के नाश से इनके रस का भी नाश हो जाता है।

गन्ध (३)

गन्ध का शान घ्राणेन्द्रिय से होता है। यह पृथ्वी ही में रहता है। घ्राणेन्द्रिय की उसके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होने में मदद करता है। गन्ध नित्य नहीं होता, क्योंकि पृथ्वी परमाणु ही इसका नित्य आश्रय है, तिस में भी यह अग्नि संयोग से नष्ट हो जाता है, फिर यह नित्य कहाँ रह सकता। इसी से रूप के सदृश नित्यानित्यत्व इसका भी है, सो प्रशस्तपाद ने नहीं कहा। केवल इतना ही कहा है कि इसकी 'उत्पत्त्यादि वैसी ही होती है'। अर्थात् जैसे पृथ्वी परमाणु में रूप अग्निसंयोग से नष्ट और उत्पन्न होता है उसी तरह गन्ध भी। (न्यायकंदली पृ॰ १०९)।

गन्ध दो प्रकार का है—सुगन्ध और दुर्गन्ध।

स्पर्श (४)

स्पर्श का ज्ञान त्वगिन्द्रिय से होता है। पृथ्वी जल अग्नि और वायु इन द्रव्यों में यह रहता है। त्वगिन्द्रिय द्वारा जितने प्रत्यक्ष ज्ञान होते हैं उन सभों में उस इन्द्रिय की मदद करता है। जिस जिस द्रव्य में रूप है वहाँ स्पर्श अवश्य है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ स्पर्श है वहाँ रूप अवश्य है। क्योंकि वायु में स्पर्श है पर रूप नहीं। वैशेषिकों ने तीन प्रकार का स्पर्श माना है—शीत (ठंढा) उष्ण (गरम) अनुष्णाशीत (न ठंढा न गरम)। महाभारत में १२ प्रकार का स्पर्श कहा है—

रुक्षः शीतस्तथैवोष्णः स्निग्धश्च विशदः खरः।
कठिनश्चिक्कणः श्लक्ष्णः पिच्छलो दारुणो मृदुः॥

स्पर्श को 'वायव्य' (वायु का) गुण इस लिये कहा है कि रूपादि जो प्रधान गुण हैं उनमें से स्पर्श ही एक गुण पाया जाता है जो वायु ही में है।

स्पर्श भी नित्य वस्तु में, जलादि परमाणु में, नित्य है, और सर्वत्र अनित्य है। आश्रय के नारा से इसका भी नाश होता है। पृथिवी के परमाणु में भी यह अनित्य है क्योंकि अग्निसंयोग से स्पर्श का उसमें नाश और उत्पत्ति होती है। नाश-उत्पत्ति इसमें भी पिलुपाक ही का क्रम है।

संख्या (५)

'एक दो तीन' इत्यादि व्यवहार जिसके द्वारा होता है उस गुण को 'संख्या' कहते हैं। पृथिव्यादि नवों द्रव्य में यह गुण रहता है। संख्या एक द्रव्य में भी रहती है और अनेक द्रव्य में भी। एकत्व संख्या नित्य वस्तुओं में नित्यं है और अनित्य कार्यद्रव्य की एकत्व संख्या अनित्य हैं। एक से आगे 'द्वित्व' से लेकर परार्ध तक सब संख्याएं अनित्य हैं।

संख्या 'सामान्य' गुणों में से एक है। अर्थात् रूप रस आदि की तरह ऐसा नहीं कि जो रूप एक द्रव्य में है वही रूप दूसरे द्रव्य में नहीं हो सकता। एक ही संख्या—एक, या दो, या तीन—एक ही काल में कई द्रव्यों में रह सकती है। संख्या परिमाण इत्यादि कई गुण ऐसे ही हैँ। इसका कारण यह है कि जिस तरह रूप रस गन्ध इत्यादि गुण की 'बाह्य' 'सत्ता' होती है—अर्थात् बाहर में पाये जाते हैँ वैसे ही संख्यादि नहीं पाये जाते। इन गुणों की सत्ता ज्ञाता की बुद्धि ही पर निर्भर है। इसी से वैशेषिकों ने द्वित्यादि संख्या को 'अपेक्षाबुद्धिजन्य बतलाया है। जब कोई चीज़ आंख के सामने आती है तब पहिले देखने वाले को सब का ज्ञान एक ही दम नहीं हो जाता है—पहिले एक एक का ज्ञान होता है—'यह एक है' 'वह एक है' इत्यादि—इसी कई एकत्त्व के ज्ञान को 'अपेक्षाबुद्धि' कहते हैँ। और जब दो एकत्व का ज्ञान होता है उसी ज्ञान से 'ये दो चीज़ें' ऐसा ज्ञान होता है। इसी से द्वित्व की उत्पत्ति अपेक्षाबुद्धि से मानी गई है। और जब अपेक्षाबुद्धि नष्ट हो जाती है—अर्थात् जब कि 'वह एक है—यह एक है' ऐसा ज्ञान दो चीज़ों के प्रसंग में नहीं रहता तब "ये दो चीज़ें हैं" यह ज्ञान भी नहीं रहता—अर्थात् द्वित्व नष्ट हो जाता है।

अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न होती है इसी से द्वित्वादि संख्या कुल अनित्य हैँ। जो जन्य है, जिसकी उत्पत्ति होती हैं, वह नित्य नहीं हो सकता।

यह भी नैयायिक वैशेषिक के मतभेद का एक स्थान है—

वैशेषिक में द्वित्यादि संख्या अपेक्षाबुद्धिजन्य है, अपेक्षाबुद्धि से इन की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों के मत से ये उत्पन्न नहीं होते, अपेक्षा बुद्धि से केवल इन संख्याओं का ज्ञान होता है इस से ये 'अपेक्षाबुद्धिज्ञाप्य' है। वैशेषिकों के मत से द्वित्यादि संख्याओं की एक स्वयं स्वतंत्र संज्ञा होती है, न्याय मत में इनकी स्वतंत्र पृथक् संज्ञा नहीं है। एकत्व ही के अन्तर्गत ये सब हैं। जब कई एकत्व का ज्ञान होता है तब द्वित्वादि संख्या का ज्ञान मात्र होता है, ये स्वयं नहीं उत्पन्न होते।

परिमाण (६)

नाप जिस गुण के द्वारा होती है उसको 'परिमाण' कहते हैं। यह गुण पृथ्वी आदि नवों द्रव्यों में रहता है। यह चार प्रकार का है—अणु [छोटा], महत् [बड़ा], दीर्घ [लम्बा], ह्रस्व [नाटा]। 'बड़ा' दो प्रकार का है—नित्य और अनित्य। आकाश कालदिक् आत्मा—ये सब 'बड़े' और नित्य हैं, इस से 'बड़ा' परिमाण नित्य है, इसी को 'उत्तम बड़ा' भी कहते हैं। अनित्य बड़ा परिमाण त्र्यणुक से लेकर और सब स्थूल द्रव्यों में है, इसी को 'मध्यम' बड़ा परिमाण भी कहते हैं। इसी तरह 'छोटे' परिमाण भी परमाणु में और मन में नित्य हैं, इसी नित्य 'छोटे' परिमाण को अणुपारिमाण, या 'पारिमंडल्य' भी कहा है। अनित्य या 'मध्यम' छोटा परिमाण केवल द्वयणुक द्रव्य में है। द्वयणुक का परिमाण 'छोटा' माना है क्योंकि द्वयणुक का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्ष उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनमें 'महत्' या 'बड़ा' परिमाण है। मामूली पदार्थों में, आम, बैर, कटहल इत्यादि में जो 'छोटा' परिमाण कहा जाता है सो ठीक नहीं। क्योंकि जिस में 'छोटा' परिमाण रहेगा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इससे 'बैर छोटा' है इसका तात्पर्य यह नहीं है कि बैर में 'छोटा' परिमाण है, अर्थ इतना ही है कि बैर में जो 'बड़ा' परिमाण है वह और बड़े बड़े फलों के सामने कुछ कम है। इसी तरह 'लम्बा' और 'नाटा' परिमाण भी समझना चाहिये।

परिमाण दो प्रकार का होता है—नित्य और अनित्य। नित्य की तो उत्पत्ति नहीं होती। अनित्य परिमाण की उत्पत्ति तीन तरह से होती है—(१) संख्या से—द्वयणुक में जो 'बड़ा' परिमाण उत्पन्न होता है सो द्वयणुकों की संख्याही से होता है। तीन द्वयणुकों के एकत्र होने से द्वयणुक बनता है। (२) परिमाण से—जैसे बड़े बड़े सूतों से बुना हुआ कपड़ा बड़ा होता है। यहां पर कपड़े का परिमाण सूतों के परिमाण से उत्पन्न हुआ। (३) प्रचय या ढेरी से उत्पन्न—जैसे रूई के ढेर के ऊपर ढेर रक्खे जाते हैँ तो थोड़ी देर में सब ढेर मिल कर एक बहुत बड़ा ढेर बन जाता है। इस बड़े ढेर का 'बड़ा' परिणाम कई ढेरों के मिलने से उत्पन्न हुआ।

उत्पन्न, अनित्य जितने परिमाण हैँ उनका नाश तभी होगा जब जिस द्रव्य में वे हैं उसका नाश हो।

पृथक्त्व (७)

इस वस्तु का स्वभाव उस वस्तु के स्वभाव से दूसरी तरह का है यह बुद्धि जिस गुण के द्वारा होती है उसको पृथक्त्व कहते हैँ। 'पृथक' और 'अन्योन्याभाव' में यह भेद है कि अन्योन्याभाव से 'घटपट नहीं है'—इससे घट क्या नहीं है इतनाही बोध होता है परन्तु पृथक्त्व के द्वारा जो वस्तु पृथक् कही जाती है उसके स्वभाव लक्षण का भी कुछ ज्ञान होता है। और अन्योन्याभाव से केवल बुद्धि गत भेद भासित होता है, पृथक्त्व से वाह्य शारीरिक भेद।

यह एक द्रव्य में और अनेक द्रव्यों में भी रहता है। इसकी नित्यता अनित्यता संख्या की तरह है।

संयोग (८)

दो वस्तुएं जो पहिले से अलग थीं यदि एक दूसरे से मिल जाँय तो इसी मिलने को संयोग कहते हैं। संयोग से द्रव्य उत्पन्न होते हैं जैसे परमाणुओं के संयोग से घटादि द्रव्य। संयोग से गुण भी उत्पन्न होते हैं। जैसे अग्नि के संयोग से घट में रूप गुण पैदा होता हैं। संयोग से कर्म भी उत्पन्न होता है। जैसे वृक्ष की पत्तियों का वायु से संयोग होता है तब उन पत्तियों में चलनक्रिया उत्पन्न होती है।

संयोग कभी भी नित्य नहीँ होता। इसीसे दो भिन्न नित्य पदार्थों का सम्बन्ध कभी संयोग नहीँ हो सकता। क्योंकि ये कभी अलग नहीँ रह सकते फिर इनके सम्बन्ध में संयोग का लक्षण नहीँ पाया जा सकता।

संयोग तीन प्रकार का है और तीन प्रकार से उत्पन्न होता है। (१) अन्यतरकर्मज—अर्थात् दो चीजों में से किसी एक की क्रिया से उत्पन्न—जैसे उड़ती हुई चिड़िया जब पेड़ पर आकर बैठ जाती हैं तब इन दोनों का संयोग चिड़िया की क्रिया से उत्पन्न हुआ। (२) उभयकर्मज—दोनों चीजों की क्रिया से उत्पन्न—जैसे दो भेड़ें दो तरफ़ से दौड़ कर आपस में टक्कर लड़ते हैं। इन दोनों का संयोग दोनों भेड़ों की क्रिया से उत्पन्न हुआ। (३) संयोगज—संयोग से उत्पन्न—जैसे कपड़ा जब बुना जाता है तब एक सूत बुनने वाले यंत्र में लगाया गया तब उस तन्तु से उस यंत्र का संयोग हुआ फिर जब दो ऐसे ऐसे सूत मिल कर 'दोसूती' पैदा हुई तब तक वे उस यंत्र में लगे ही रहे, तब उस 'दोसूती' का जो संयोग उस यंत्र से है सो पहिले वाले सूत का जो उस यंत्र के साथ संयोग था इसी संयोग से उत्पन्न हुआ।

संयोग का विनाश कभी तो संयुक्त वस्तुओं के अलग हो जानेसे होता है, जैसे जब लड़ते हुये भेड़े टक्कर लड़कर पीछे हट जाते हैं। और कभी संयुक्त वस्तुओं के नाश ही से, जैसे जब कपड़ा नष्ट हो, जाता है तो उसके अन्तर्गत सूत्रों का संयोग भी नष्ट हो जाता है।

संयोग अव्याप्य वृत्ति है। जिस वस्तु में रहता है उसके एकही अंश में रहता है, जैसे दो भेड़ों का संयोग केवल उनके सिरहीं पर रहता है, समस्त शरीर में नहीं।

विभाग (९)

जब दो वस्तु मिली हुई हैँ यदि वे अलग हो जायँ तो इसी अलग होने को विभाग कहते हैँ। केवल संयोग के अभाव ही को 'विभाग' नहीं कहते। यदि ऐसा कहते तो संसार में जितनी चीज़ें अलग अलग हैँ उन सभों में 'विभक्त' का व्यवहार होता, पर ऐसा नहीँ है। दो मिली हुई वस्तुओं ही के अलग होने को 'विभाग' कहा है। यह भी तीन प्रकार का है—(१)अन्यतर—कर्मज—पेड़ पर से जब चिड़िया उड़ जाती है तब पेड़ से चिड़िया का विभाग चिड़िया की क्रिया से होता है। (२) उभयकर्मज— लड़ते हुए भेड़े जब लड़ कर दोनों पीछे हटते हैँ तब इन दोनों का विभाग दोनों के कर्म से होता है। (३) विभागज विभाग—जैसे घड़े के परमाणुओं में जब चलन क्रिया उत्पन्न हुई तब एक परमाणु और परमाणुओं से अलग हो गया, फिर ये दोनों अलग हुये परमाणु जिस आकाश भाग से अलग हो जाते हैं, यह परमाणु का उस आकाश प्रदेश से विभाग दोनों परमाणुओं के परस्पर विभाग से उत्पन्न हुआ।

नैयायिकों ने इस विभागज विभाग को नहीं माना है। इसका कारण यह है कि अवयवों से अवयव का (परमाणु का घट से) विभाग यदि माना जाय तो इनके बीच जो समवाय रूप नित्य सम्बन्ध माना गया वह कैसे हो सकता है। समवाय तो उन्हीं दो वस्तुओं के बीच रह सकता है जो कभी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकती हैं।

इसका उत्तर प्रशास्तपादभाष्य (पृ॰ १५२) में दिया है कि 'कभी अलग नहीं' इसका अर्थ यह नहीं है कि अलग अलग चल न सकें, ऐसा समवाय तो केवल नित्य द्रव्यों ही में हो सकेगा।

अनित्य द्रव्यों का 'समवाय' कभी अलग नहीं होने का अर्थ यह है कि ये कभी भी भिन्न भिन्न आश्रय में नहीं पाये जाते, जब पाए जांयगे तब एक ही आश्रय में। इसी प्रकार त्वगिन्द्रिय और शरीर का सम्बन्ध यद्यपि ऐसा है कि शरीर से अलग त्वगिन्द्रिय चल नहीं सकता तथापि इनका सम्बन्ध समवाय नहीं माना गया है, क्योंकि इनका आश्रय अलग अलग है। त्वागिन्द्रिय का आश्रय शरीर है और शरीर का आश्रय आकाश हैं।

वैशेषिक सूत्र में तीनों माना है (७।२।१०)

परत्व अपरत्व (१०—११)

जिन गुणों के द्वारा 'आगे पीछे' का ज्ञान होता है उनको 'परत्व' 'अपरत्व' कहते हैं। 'आगे' के ज्ञान का कारण अपरत्व है और पीछे के ज्ञान का कारण परत्व है। ये गुण पृथिवी, जल, वायु, तेज, इन्हीं द्रव्यों में रहते हैं। क्योंकि ये ही द्रव्य परिमित प्रदेश में रहते हैं। नित्य विभु द्रव्यों में आगे पीछे का भेद नहीं हो सकता।

परत्व अपरत्व दो प्रकार के होते हैं। कालसम्बन्धी और देशसम्बन्धी। दो वस्तुओं में से जो मेरे नज़दीक होगीं, जिसके और मेरे बीच के देशका परिमाण मेरे और दूसरी वस्तु के बीच के देश से कम होगा तो वह वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा 'अपर' कहलायेगी और दूसरी वस्तु 'पर'। इसी तरह जिस वस्तु के उत्पन्न होने के काल से आज तक का समय दूसरी वस्तु की उत्पत्ति से आज तक के समय की अपेक्षा अधिक है तो वह वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा 'पर' (दूर) कहलावेगी और दूसरी वस्तु 'अपर' (नज़दीक) मानी जायगी।

देशसम्बन्धी परत्व अपरत्व के ज्ञान के द्वारा यह ज्ञान होता है कि कौन सी वस्तु किस दिशा में है। और कालसम्बन्धी परत्व अपरत्व के ज्ञान से यह ज्ञान होता है कि कौन सी वस्तु की क्या वय है।

परत्व अपरत्व के ज्ञान में भी अपेक्षाबुद्धि की अपेक्षा होती है। जब तक दो तीन वस्तुओं के प्रति ये पृथक् पृथक् एक एक वस्तु हैं, ऐसा ज्ञान नहीँ होता तब तक कौन सा पर है और कौन सा अपर सो ज्ञान नहीँ हो सकता। और इन गुणों की उत्पत्ति में देशसंयोग कालसंयोग की भी आवश्यकता है। इसीसे अपेक्षाबुद्धि के नाश से संयोग के नाश से और वस्तुओं ही के नाश से इन गुणों का नाश माना गया है (प्रशस्तपाद पृ॰ १६४)

सुख (१२)

(सूत्र और भाष्य में अपरत्व के बाद 'बुद्धि' कहा है। परन्तु बुद्धि के प्रकरण में प्रत्यक्षादि सकल प्रमाण का निरूपण होगा इससे सन्दर्भ में त्रुटि हो जायगी इससे बाकी सब गुणों का निरूपण करके अन्त में बुद्धि का विचार होगा।)

'सुख' का लक्षण सूत्र में कुछ नहीं पाया जाता। भाष्य में 'अनुग्रह लक्षणं सुखम्' ऐसा लक्षण कहा है, अर्थात् जिससे अनुभव करने वाले के ऊपर किसी की कृपा सूचित हो। ऐसा अर्थ कंदली में पाया जाता है। परंतु लक्षण न्यायवोधिनी का ठीक मालूम पड़ता है। जिसके पाने की इच्छा स्वतंत्र उसी के लिये होती है, वही सुख है। सुख की इच्छा किसी दूसरे वस्तु की इच्छा पर नहीं निर्भर है। संसार में जितनी चीज़ों के पाने की इच्छा हम करते हैँ, वह केवल उन वस्तुओं ही के पाने के लिये नहीं, किन्तु उन चीज़ों से जो कुछ सुख, हमें मिलेगा उसी सुख की इच्छा से उन चीज़ों की

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