वैदेही वनवास/१४ दाम्पत्य-दिव्यता

वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २१५ से – २४७ तक

 
चतुर्दश सर्ग
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दाम्पत्य-दिव्यता
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तिलोकी

प्रकृति - सुन्दरी रही दिव्य - वसना बनी।
कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था।
मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू ।
फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था ॥ १ ॥

मलयानिल वह मंद मंद सौरभ - वितर।
वसुधातल को बहु - विमुग्ध था कर रहा ॥
स्फूर्तिमयी - मत्तता - विकचता - रुचिरता।
प्राणि मात्र अन्तस्तल मे था भर रहा ॥२॥

शिशिर-शीत-शिथिलित-तन-शिरा-समूह में।
समय शक्ति - संचार के लिये लग्न था ।
परिवर्तन की परम - मनोहर - प्रगति पा।
तरु से तृण तक छवि - प्रवाह में मग्न था॥ ३ ॥

२१६
वैदेही-वनवास

कितने पादप लाल - लाल - कोंपल मिले।
ऋतु - पति के अनुराग - राग में थे रॅगे॥
बने मंजु - परिधानवान थे बहु - विटप।
शाखाओं में हरित - नवल - दल के लगे ॥ ४ ॥

कितने फल फूलों से थे ऐसे लसे।
जिन्हें देखने को लोचन थे तरसते॥
कितने थे इतने प्रफुल्ल इतने सरस ।
ललक - हगों में भी जो थे रस बरसते ॥ ५॥

रुचिर - रसाल हरे हग - रंजन - दलों में।
लिये मंजु - मंजरी भूरि - सौरभ भरी ॥
था सौरभित बनाता वातावरण को।
नचा मानसों में विमुग्धता की परी ॥ ६॥

लाल - लाल - दल - ललित - लालिमा से विलस ।
वर्णन कर मर्मर - ध्वनि से विरुदावली ॥
मधु - ऋतु के स्वागत करने में मत्त था।
मधु से भरित मधूक बरस सुमनावली ॥ ७ ॥

रख मुंह - लाली लाल - लाल - कुसुमालि से ।
लोक ललकते - लोचन में थे लस रहे।
देख अलौकिक - कला किसी छविकान्त की।
दाँत निकाले थे अनार - तरु हँस रहे ॥ ८॥

२१७
चतुर्दश सर्ग

करते थे विस्तार किसी की कीर्ति का।
कितनों में अनुरक्ति उसी की भर सके।
दिखा विकचता, उज्वलता, वर - अरुणिमा ।
श्वेत - रक्त कमनीय - कुसुम कचनार के ॥ ९ ॥

होता था यह ज्ञात भानुजा - अंक में ।
पीले - पीले - विकच बहु - बनज हैं लसे॥
हरित - दलों में पीताभा की छवि दिखा।
थे कदम्ब - तरु विलसित कुसुम - कदम्ब से ॥१०॥

कौन नयनवाला प्रफुल्ल बनता नही।
भला नही खिलती किसके जी की कली।
देखे प्रिय हरियाली, विशद - विशालता।
अवलोके सेमल - ललाम - सुमनावली ॥११॥

नाच नाच कर रीझ भर सहज - भाव में।
किसी समागत को थे बहुत रिझा रहे ।।
बार बार मलयानिल से मिल मिल गले।
चल - दल - दल थे गीत मनोहर गा रहे ॥१२॥

स्तंभ - राजि से सज कुसुमावलि से विलस ।
मिले सहज - शीतल - छबिमय - छाया भली ॥
हरित - नवल - दल से बन सघन जहाँ तहाँ।
तंबू तान रही थी बट - विटपावली ॥१३॥

२१८
वैदेही-वनवास

किसको नहीं बना देता है वह सरस ।
भला नही कैसे होते वे रस भरे ॥
नारंगी पर रंग उसी का है चढ़ा।
हैं बसंत के रंग में रंगे संतरे ॥१४॥

___ अंक विलसता कैसे कुसुम - समूह से।
हरे हरे दल उसे नहीं मिलते कही।
नीरसता होती न दूर जो मधु मिले।
तो होता जंबीर नीर - पूरित नहीं ॥१५॥

कंटकिता - वदरी तो कैसे विलसती ।
हो उदार सफला वन क्यों करती भला ।।
जो प्रफुल्लता मधु भरता भू में नही ।
कोविदार कैसे बनता फूला फला ॥१६॥

दिखा श्यामली - मूर्ति की मनोहर - छटा।
बन सकता था वह बहु - फलदाता नहीं।
पॉव न जो जमता महि में ऋतुराज का।
तो जम्बू निज - रंग जमा पाता नही ॥१७॥

कोमलतम किशलय से कान्त नितान्त बन ।
दिखा नील - जलधर जैसी अभिरामता ।।
कुसुमायुध की सी कमनीया - कान्ति पा।
मोहित करती थी तमाल - तरु - श्यामता ॥ १८॥

२१९
चतुर्दश सर्ग

मलयानिल की मंथर - गति पर मुग्ध हो।
करती रहती थीं बनठन अठखेलियाँ।
फूल व्याज से बार बार उत्फुल्ल हो।
विलस विलस कर बहु - अलवेली - वेलियाँ।।१९।।

हरे - दलों से हिल मिल खिलती थी बहुत ।
कभी थिरकती लहराती बनती कलित ॥
कभी कान्त - कुसुमावलि के गहने पहन ।
लतिकाये करती थी लीलायें ललित ॥२०॥

कभी मधु - मधुरिमा से बनती छविमयी।
कभी निछावर करती थी मुक्तावली ।।
सजी - साटिका पहनाती थी अवनि को।
विविध-कुसुम-कुल- कलिता हरित-तृणावली ॥२१॥

दिये हरित - दल उन्हें लाल जोड़े मिले।
या अनुरक्ति- अरुणिमा ऊपर आ गई।
लाल - लाल - फूलों से विपुल - पलाश के।
कानन मे थी ललित - लालिमा छा गई ।।२२।।

उन्हें बड़े - सुन्दर - लिबास थे मिल गये।
छटा छिटिक थी रही वॉस - खूटियों पर ।
आज वेल - बूटों से वे थी विलसती ।
टूटी पड़ती थी विभूति बूटियो पर ।। २३ ।।

२२०
वैदेही-वनवास

सब दिन जिस पलने पर प्यारा - तन पला।
देती थी उसकी महती - कृति का पता ॥
दिखा दिखा कर हरीतिमा की मधुर - छवि ।
नव - दूर्वा दे महि को मोहक - श्यामता ॥२४॥

कोकिल की काकली तितिलियों का नटन।
खग - कुल - कूजन रंग - बिरंगी वन - लता ।।
अजव - समा थो बाँध रही छवि पुंजता।
गुंजन - सहित मिलिन्द - वृन्द की मत्तता ॥२५॥

वर-वासर बरवस था मन को मोहता।
मलयानिल बहु- मुग्ध बना था परसता ॥
थी चौगुनी चमकती निशि में चॉदनी।
सरसतम - सुधा रहा सुधाकर बरसता ॥ २६॥

मधु - विकास में मूर्तिमान - सौंदर्य था।
वांछित - छवि से बनी छबीली थी मही ॥
· पत्ते पत्ते में प्रफुल्लता थी भरी।
वन में नर्तन विमुग्धता थी कर रही ॥२७॥

समय सुनाता वह उन्मादक - राग था।
जिसमें अभिमंत्रित - रसमय - स्वर थे भरे ॥
भव - हृत्तंत्री के छिड़ते वे तार थे।
जिनकी ध्वनि सुन होते सूखे - तरु हरे ॥२८॥

चतुर्दश सर्ग

सौरभ में थी ऐसी व्यापक-भूरिता।
तन वाले निज तन-सुधि जोते-भूल थे।
मोहकता - डाली हरियाली थी लिये।
फूले नहीं समाते फूले फूल थे॥२९॥

शान्ति - निकेतन के सुन्दर - उद्यान में।
जनक - नन्दिनी सुतों - सहित थी घूमती॥
उन्हे दिखाती थीं कुसुमावलि की छटा।
बार वार उनके मुख को थी चूमती॥३०॥

था प्रभात का समय दिवस-मणि-दिव्यता।
अवनीतल को ज्योतिर्मय थी कर रही।
आलिगन कर विटप, लता, तृण, आदि का।
कान्तिमय - किरण कानन में थी भर रही॥३१॥

युगल - सुअन थे पांच साल के हो चले।
उन्हें बनाती थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥
कभी तितिलियों के पीछे वे दौड़ते।
कभी किलकते सुन कोकिल की काकली॥३२॥

ठुमुक ठुमुक चल किसी फूल के पास जा।
विहॅस विहॅस थे तुतली - वाणी बोलते॥
टूटी फूटी निज पदावली मे उमग।
वार बार थे सरस - सुधारस घोलते॥३३॥

२२२
वैदेही-वनवास

दिखा दिखा कर श्याम-घटा की प्रिय - छटा।
दोनों - सुअनों से यह कहतीं महि - सुता ।।
ऐसे ही श्यामावदात कमनीय - तन ।
प्यारे पुत्रों तुम लोगों के हैं पिता ॥ ३४ ॥

कहतीं कभी विलोक गुलाव प्रसून की।
बहु - विमुग्ध - कारिणी विचित्र - प्रफुल्लता ।।
हैं ऐसे ही विकच - बदन रघुवंश - मणि ।
ऐसी ही है उनमें महा - मनोज्ञता ।। ३५ ॥

नाम बताकर कुन्द, यूथिका आदि का।
दिखा रुचिरता कुसुम श्वेत - अवदात की
कहतीं ऐसी ही है कीर्ति समुज्वला ।
तुम दोनों प्रिय - भ्राताओं के तात की ॥ ३६॥

लोक - रञ्जिनी ललामता से लालिता।
दिखा जपा सुमनावलि की प्रिय - लालिमा ।
कहती थी यह, तुम दोनों के जनक की।
ऐसी ही अनुरक्ति है रहित कालिमा ॥ ३७ ॥

हरित - नवल - दल में दिखला अंगजों को।
पीले पीले कुसुमों की वर विकचता ।।
कहती यह थी ऐसा ही पति - देव के।
श्यामल - तन पर पीताम्बर है विलसता ॥ ३८॥

२२३
चतुर्दश सर्ग

इस प्रकार जव जनक - नन्दिनी सुतों को।
आनन्दित कर पति - गुण - गण थी गा रही ।
रीझ रीझ कर उनके बाल - विनोद पर ।
निज - वचनों से जब थी उन्हें रिझा रही ॥ ३९ ॥

उसी समय विज्ञानवती आकर वहाँ।
शिशु - लीलाये अवलोकन करने लगी।
रमणी - सुलभ - स्वभाव के वशीभूत हो ।
उनके अनुरञ्जन के रगों में रॅगी ।। ४०॥

यह थी विदुषी - ब्रह्मचारिणी प्रायशः ।
मिलती रहती थी अवनी - नन्दिनी से ॥
तर्क वितर्क उठा बहु - वाते - हितकरी।
सीखा करती थी सत्पथ - सङ्गिनी से ॥ ४१ ॥

आया देख उसे सादर महिसुता ने।
बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा ॥
आप कृपा कर लव - कुश को अवलोकिये।
अब न मुझे अवसर बहलाने का रहा ॥४२॥

समागता के पास बैठकर जनकजा।
बोली' कैसे आज आप आई यहाँ।
मुसकाकर विज्ञानवती ने यह कहा।
उठने पर कुछ तर्क और जाऊँ कहाँ ।। ४३ ।।

२२४
वैदेही-वनवास

देवि! आत्म - सुख ही प्रधान है विश्व में ।
किसे आत्म - गौरव अतिशय प्यारा नही ।
स्वार्थ सर्व - जन - जीवन का सर्वस्व है।
है हित - ज्योति - रहित अन्तर तारा नही ॥४४॥

भिन्न - प्रकृति से कभी प्रकृति मिलती नहीं।
अहंभाव है परिपूरित संसार में ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, स्वर है भरा।
प्राणि मात्र के हृत्तंत्री के तार में ॥४५॥

है विवाह - बंधन ऐसा बंधन नही ।
स्वाभाविकता जिसे तोड़ पाती 'नहीं।
विविध - परिस्थितियाँ हैं ऐसी बलवती।
जिससे मुंह चितवृत्ति मोड़ पाती नही ॥४६॥

कृत्रिमता है उस कुज्झटिका - सदृश जो।
नहीं ठहर पाती विभेद - रविकर परस ॥
उससे कलुषित होती रहती है सुरुचि ।
असरस बनता रहता है मानस - सरस ॥४७॥

है सच्चा - व्यवहार शुचि - हृदय का विभव ।
प्रीति - प्रतीति - निकेत परस्परता - अयन ॥
उर की ग्रंथि विमोचन में समधिक - निपुण ।
परम - भव्य - मानस - सद्भावों का भवन ॥४८॥

२२५
चतुर्दश सर्ग

कृत्रिमता है कपट कुटिलता सहचरी।
मंजुल - मानसता की है अवमानना ।।
सहज - सदाशयता पद - पूजन त्यागकर ।
यह है करती प्रवंचना की अर्चना ॥४९॥

किन्तु देखती हूँ मैं यह बहु - घरों मे।
सदाचरण से अन्यथाचरण है अधिक ।।
कभी कभी सुख - लिप्सादिक से बलित चित ।
सत्प्रवृत्ति - हरिणी का बनता है बधिक ॥५०॥

भव - मंगल - कामना तथा स्थिति - हेतु से।
नर नारी का नियति ने किया है सृजन ।।
हैं अपूर्ण दोनों पर उनको पूर्णता ।
है प्रदान करता दोनों का सम्मिलन ॥५१॥

प्राणी में ही नही, तृणों तक में यही ।
अटल व्यवस्था दिखलाती है स्थापिता ।।
जो वतलाती है विधि - नियम - अवाधता ।
अनुल्लंघनीयता तथा कृतकार्यता ॥५२॥

यदि यथेच्छ आहार - विहार - उपेत हो।
नर नारी जीवन, तो होगी अधिकता -
पशु - प्रवृत्ति की, औ उच्छृखलता बढ़े।
होवेगी दुर्दशा - मर्दिता - मनुजता ॥५३॥

१५

२२६
दिदी-ननवास

पशु - पक्षी के जोड़े भी हैं दीखते।
वे भी हैं दाम्पत्य - बंधनों मे बँधे ।।
वाछनीय है नर • नारी की युग्मता।
मारे - मंत्र इमी मावन से ही सधे ॥५४॥

उसीलिये है विधि - विवाह की पृततम ।
निगमागम द्वारा है वह प्रतिपादिता ।।
है द्विविधा हरती कर मुविधा का सृजन ।
वह दे, वसुधा को दिव जैसी दिव्यता ॥५५॥

जिससे होते एक हैं मिले दो हृदय ।
सरस - सुधा - धाराये सदनों मे वही ॥
भूति - मान बनते हैं जिससे भुवन - जन ।
वह विधान अभिनन्दित होगा क्यों नहीं ॥५६॥

कुल, कुटुम्ब, गृह जिससे है वहु - गौरवित ।
सामाजिकता है जिससे सम्मानिता ।।
महनीया जिससे मानवता हो सकी।
क्यों न बनेगी प्रथित प्रथा वह आद्रिता ।। ५७॥

किन्तु प्रश्न यह है प्रायः जो विषमता।
होती रहती है मानसिक - प्रवृत्ति में ।।
भ्रम, प्रमाद अथवा सुख - लिप्सा आदि से।
कैसे वह न घुसे दम्पति - अनुरक्ति मे ॥५८॥

२२७
चतुर्दश सर्ग

पति - देवता हुई हैं होंगी और हैं।
किन्तु सदा उनकी संख्या थोड़ी रही।
मिली अधिकतर सांसारिकता में सधी।
कितनी करती हैं कृत्रिमता की कही ।। ५९ ॥

मुझे ज्ञात है, है गुण - दोषमयी - प्रकृति ।
किन्तु क्यों न उर में वे धाराये बहें ॥
सकल - विषमताओं को जिनसे दूरकर ।
होते भिन्न अभिन्न - हृद्य दम्पति रहे ॥६०॥

किसी काल मे क्या ऐसा होगा नहीं।
क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता ॥
सदन सदन जिससे बन जाये सुर - सदन ।
क्या बुध - वृन्द न देगे ऐसी विधि बता ॥ ६१ ॥

अति - पावन - बंधन में जो विधि से उधे ।
क्यों उनमें न प्रतीति - प्रीति भरपूर हो ।
देवि आप मर्मज्ञ हैं वताये मुझे।
क्यों दुर्भाव - दुरित दम्पति का दूर हो ।। ६२॥

कहा जनकजा ने मैं विवुधे आपको।
क्या बतलाऊँ आप क्या नहीं जानतीं ॥
यह उदारता, सहृदयता है आपकी।
जो स्वविषय - मर्मज्ञ मुझे है मानती ।। ६३ ॥

२२८
वैदेही-वनवास

देख प्रकृति की कुत्सित - कृतियों को दुखित ।
मैं भी वैसी ही हूँ जैसी आप हैं।
किसको रोमाञ्चित करते हैं वे नहीं ।
भव में भरे हुए जितने संताप हैं॥६४॥

इस प्रकार के भी कतिपय - मतिमान हैं।
जो दुख मे करते है सुख की कल्पना॥
अनहित में भी जो हित हैं अवलोकते ।
औरों के कहने को कहकर जल्पना ॥ ६५ ।।

जो हो, पर परिताप किसे हैं छोड़ते ।
है विडम्बना विधि की बड़ी - बलीयसी ॥
चिन्तित विचलित बार बार बहु आकुलित ।
किसे नही करती प्रवृत्ति - पापीयसी ।। ६६ ।।

विवुध - वृन्द ने क्या बतलाया है नही । -
निगमागम में सब विभूतियाँ हैं भरी ॥
किन्तु पड़ प्रकृति और परिस्थिति - लहर में।
कुमति - सरी में है डूबती सुमति - सरी॥६७॥

सारे - मनोविकार हृदय के भाव सब ।
इन्द्रिय के व्यापार आत्महित - भावना ॥
सुख - लिप्सा गौरव - ममता मानस्पृहा ।
स्वार्थ सिद्धि - रुचि इष्ट - प्राप्ति की कामना ॥ ६८॥

२२९
चतुर्दश सर्ग

वर नारी मे है समान, अनुभूति भी -
इसीलिये प्रायः उनकी है एक सी॥
कब किसका कैसा होता परिणाम है।
क्या वश मे है औ किसमे है वेबसी ॥ ६९॥

क्यों उलझी - बाते भी जाती हैं सुलझ ।
कैसे कव जी मे पड़ जाती गॉठ है।
हरा भरा कैसे रहता है हृदय - तरु ।
कैसे मन बन जाता उकठा - काठ है।। ७० ॥

कैसे अन्तस्तल - नभ मे उठ प्रेम धन ।
जीवन - दायक बनता है जीवन बरस ।।
मेल - जोल तन क्यो होता निर्जीव है।
मनोमलिनता रूपी चपला को परस ॥७१॥

कैसे, अमधुर कहलाता है मधुरतम ।
कैसे असरस बन जाता है सरस - चित ।
क्यों अकलित लगता है सोने का सदन ।
कुसुम - सेज कैसे होती है कंटकित ॥७२॥

अवगुण - तारक - चय - परिदर्शन के लिये।
क्यों मति बन जाती है नभतल - नीलिमा ।।
जाती है प्रतिकूल - कालिमा से बदल ।
क्यों अनुराग - रॅगी - आँखों की लालिमा ॥७३॥

२३०
वैदेही-वनवास

क्यों अप्रीति पा जाती है उसमें जगह ।
जो उर - प्रीति - निकेतन था जाना गया ।
कैसे कटु बनता है वह मधुमय - वचन ।
कर्ण - रसायन जिसको था माना गया ॥७४।।

जो होते यह वोध जानते मर्म सव ।
दम्पति को अन्यथाचरण से प्रीति हो।
तो यह है अति - मर्म - वेधिनी आपदा ।
क्या विचित्र ! दुर्नीति यदि भरित - भीति हो । ७५॥

जो नर नारी एक सूत्र में बद्ध हैं।
जिनका जीवन भर का प्रिय - सम्बन्ध है।
जो समाज के सम्मुख सद्विधि से बँधे ।
जिनका मिलन नियति का पूत - प्रबंध है ।। ७६।।

उन दोनों के हृदय न जो होवे मिले।
एक दूसरे पर न अगर उत्सर्ग हो ।
सुख मे दुख में जो हो प्रीति न एक सी।
स्वर्ग सा सुखद जो न युगल - ससर्ग हो । ७७ ॥

तो इससे बढ़कर दुष्कृति है कौन सी।
पड़ेगा कलेजा सत्कृति को थामना ।।
हुए सभ्यता - दुर्गति पशुना करों से।
होगी मानवता की अति - अवमानना ।। ८ ।।

२३१
चतुर्दश सर्ग

प्रकृति - भिन्नता करती है प्रतिकूलता।
भ्रम, प्रमादि आदिक विहीन मन है नही ।।
कही अज्ञता वहॅक बनाती है बिबश ।
मति - मलीनता है विपत्ति ढाती कही ॥७९॥

है प्रवृत्ति नर नारी की त्रिगुणात्मिका।
सब मे सत, रज, तम, सत्ता है सम नही ।।
उनकी मात्रा में होती है भिन्नता ।
देश काल औ पात्र - भेद है कम नही ।। ८०॥

अन्तराय ए साधन है ऐसे सवल ।
जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते ॥
पंच - भूत भी अल्प प्रपंची है नहीं।
वे भी कब हैं तम मे दीपक बालते ।। ८१॥

ऐसे अवसर पर प्राणी को वन प्रबल ।
आत्म - शक्ति की शक्ति दिखाना चाहिये ।।
सत्प्रवृत्ति से दुष्प्रवृत्तियों को दवा ।
तम मे अन्तर्योति - जगाना चाहिये ।। ८२।।

सत्य है, प्रकृति होती है अति - बलवती।
किन्तु आत्मिक - सत्ता है उससे सवल ।।
भौतिकता यदि करे भूतपन भूत बन ।
क्यों न उसे आध्यात्मिकता तो दे मसल ।। ८३॥

२३२
वैदेही-वनवास

जिसमें सारी - सुख - लिप्सायें हों भरी।
जो परमित होवे आहार - विहार तक ।
उस प्रसून के ऐसा है तो प्रेम वह ।
जिसमें मिले न रूप न रंग न तो महक ॥ ८४॥

जिसमें लाग नहीं लगती है लगन की।
जिसमें डटकर प्रेम ने न ऑचें सहीं॥
जिसमें सह सह सॉसते न स्थिरता रही।
कहते हैं दाम्पत्य - धर्म उसको नहीं ॥ ८५॥

जहाँ प्रेम सा दिव्य - दिवाकर है उदित ।
कैसे दिखलायेगा तामस - तम वही ।।
दम्पति को तो दम्पति कोई क्यों कहे ।
जिसमें है दाम्पत्य - दिव्यता ही नही ।। ८६ ।।

निज - प्रवाह में बहा अपावन - वृत्तियाँ।
जो न प्रेम धाराये उर में हों वही ।।
तो दम्पति की हित - विधायिनी वासना।
पायेगी सुर - सरिता - पावनता नही ।। ८७॥

जिसे तरंगित करता रहता है सदा।
मंजु सम्मिलन - शीतल - मृद्गामी अनिल ।।
खिले मिले जिसमें सद्भावों के कमल ।
है दम्पति का प्रेम वह सरोवर - सलिल ।। ८८॥

२३३
चतुर्दश सर्ग

उसमें है सात्विक - प्रवृत्ति - सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव - क्षेम है।
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख-सौरभ-भरित ।
नन्दन - वन सा अनुपम दम्पति - प्रेम है ।। ८९ ।

है सुन्दर - साधना कामना - पूर्ति की।
भरी हुई है उसमें शुचि - हितकारिता ॥
है विधायिनी विधि - संगत वर - भूति की।
कल्पलता सी दम्पति की सहकारिता ।। ९० ॥

है सद्भाव समूह धरातल के लिये ।
सर्व - काल सेचन - रत पावस का जलद ।।
फूला - फला मनोज्ञ कामप्रद कान्त - तन ।
है दम्पति का प्रेम कल्पतरु सा फलद ॥९१॥

है विभिन्नता की हरती उद्भावना।
रहने देती नही अकान्त - अनेकता ॥
है पयस्विनी - सदृश प्रकृत - प्रतिपालिका ।
कामधेनु - कामद है दम्पति - एकता ॥९२॥

पूत - कलेवर दिव्य - देवतों के सदृश ।
भूरि - भव्य - भावों का अनुपम - ओक है।
वर - विवेक से सुरगुरु जिसमे हैं लसे।
दम्पति - प्रेम परम - पुनीत सुरलोक है।९३॥
-

२३४
वैदेही-वनवास

मृदुल - उपादानों से वनिता है रचित ।
हैं उसके सब अंग बड़े - कोमल बने।
इसीलिये है कोमल उसका हृदय भी।
उसके कोमल - वचन सुधा में हैं सने ॥९४॥

पुरुप अकोमल - उपादान से है बना।
इसीलिये है उसे मिली दृढ़ - चित्तता।
बड़े - पुष्ट होते हैं उसके अंग भी।
उसमें बल की भी होती है अधिकता ।।९५॥

जैसी ही जननी की कोमल - हृदयता।
है अभिलषिता है जन - जीवनदायिनी ॥
वैसी ही पाता की बलवत्ता तथा।
बढ़ता है वांछित, है विभव - विधायिनी ॥९६।।

है दाम्पत्य - विधान इसी विघि में बँधा।
दोनों का सहयोग परस्पर है ग्रथित ।।
जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष ।
तो कुल - वाला मूर्ति - शान्ति की है कथित ॥ ९७।।

अपर - अंग करता है पीड़ित - अंग - हित ।
जो यह मति रह सकी नही चिर - संगिनी ।
कहाँ पुरुप मे तो पौरुप पाया गया।
कहाँ बन सकी वनिता तो अद्धांगिनी ।। ९८॥

२३५
चतुर्दश सर्ग

किसी समय अवलोक पुरुप की परुषता। '
कोमलता से काम न जो लेवे प्रिया ॥
कहाँ बनी तो स्वाभाविकता • सहचरी।
काम मृदुल - उर ने न मृदुलता से लिया ॥९९ ॥

रस - विहीन जिसको कहकर रसना बने।
ऐसी नीरस बातें क्यों जाये कही।
कान्त के लिये यदि वे कड़वे बन गये।
कान्त - वचन में तो कान्तता कहाँ रही ॥१००।।

कोमल से भी कोमल कलित - कुसुम बने ।
उसको किसी विशिख से वन वे क्यों लगे।
रहे वचन जो सदा सुधारस में सने ॥१०१॥

अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो।
बडी चूक है उसे नहीं जो रोकती ।।
कोई कोमल - हृदया प्रियतम को कभी।
कड़ी ऑख से कैसे है अवलोकती ॥१०२।।

जो न कंठ हो सकी पुनीत - गुणावली।
क्यो पाती न प्रवृत्ति कलहप्रियता पता ॥
जो कटूक्ति के लिये हुई उत्कण्ठ तो।
क्यों कलंकिता बनेगी न कल - कंठता ॥१०३।।

२३६
वैदेही-वनवास

पहचाने पति के पद को मुंह से कभी।
निकल नहीं पाती अपुनीत - पदावली ॥
सहज - मधुरता मानस के त्यागे बिना।
अमधुर बनती नहीं मधुर - वचनावली ॥१०४॥

है 'कठोरता, काठ शिला से भी कठिन ।
क्यों न प्रेम - धारायें ही उनमें बहें ॥
कोमल हैं तो बने अकोमल किसलिये।
क्यों न कलेजे बने कलेजे ही रहें ॥१०५॥

जिसमें है न सहानुभूति - मर्मज्ञता।
सदा नहीं होता जो यथा - समय - सदय ।।
जिसमें है न हृदय - धन की ममता भरी।
हृदय कहायेगा तो कैसे वह हृदय ॥१०६॥

क्या गरिमा है रूप, रंग, गुण आदि की।
क्या इस भूति - भरित - भूमध्य निजस्व है।
जो उत्सर्ग न उस पर जीवन हो सका।
जो इस जगती में जीवन - सर्वस्व है॥१०७।।

अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है।
सब से अधिक उसी पर जिसका प्यार है।
वह पतिता है जो उससे है उलझती ।
जिस पति का तन, मन, धन पर अधिकार है ॥१०८।।

२३७
चतुर्दश सर्ग

चूक उसीकी है जो वल्लभता दिखा।
हृदय - वल्लभा का पद पा जाती नहीं।
प्राणनाथ तो प्राणनाथ कैसे बने।
पति प्राणा यदि पत्नी बन पाती नही ॥१०९।।

पढ़ तदीयता - पाठ भेद को भूल कर ।
सत्य - भाव से पूत - प्रेम - प्याला पिये।
बन जाती हैं जीवितेश्वरी पत्नियाँ।
जीवनधन को जीवनधन अर्पित किये ॥११०॥

भाग्यवती वह है भर सात्विक - भूति से।
भक्ति - बीज जो प्रीति - भूमि मे बो सकी।
वह सहृदयता है सहृदयता ही नही ।
जो न समर्पित हृदयेश्वर को हो सकी ॥१११।।

पूजन कर सद्भाव - समूह - प्रसून से।
जगा आरती सत्कृति की बन सद्वता ॥
दिव्य भावना बल से पाकर दिव्यता।
देवी का पद पाती है पति - देवता ॥११२॥

वहन कर सरस - सौरभ संयत - भाव का।
जो सरोजिनी सी हो भव - सर में खिली ॥
वही सती है शुचि - प्रतीति से पूरिता ।
जिसे पति - परायणता पूरी हो मिली ॥११३॥

२३८
वैदेही-वनवास

उसका अधिकारी है सबसे अधिक पति ।
सोच यह स्वकृति की करती जो पूर्ति हो।
पतिव्रता का पद पा सकती है वही।
जीवितेश हित की जो जीवित मूर्ति हो ॥११४॥

सहज - सरलता, शुचिता, मृदुता सदयता -
आदि दिव्य गुण द्वारा जो हो ऊर्जिता ॥
प्रीति सहित जो पति - पद को है पूजती ।
भव में होती है वह पत्नी पूजिता ॥११५।।

लंका में मेरा जिन दिनों निवास था।
हाँ विलोकी जो दाम्पत्य - विडम्बना ।
उसका ही परिणाम राज्य - विध्वंस था।
भयंकरी है संयम की अवमानना ॥११६॥

होता है यह उचित कि जव दम्पति खिजें।
सूत्रपात जब अनबन का होने लग ॥
उसी समय हो सावधान संयत वनें।
कलह - वीज जब बिगड़ा मन वोने लगे ॥११७॥

यदि चंचलता पत्नी दिखलाये अधिक ।
पति तो कभी नही त्यागे गंभीरता ॥
उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने ।
हो अधीर कोई भी तजे न धीरता ॥११८॥

२३९
चतुर्दश सर्ग

तपे हुए की शीतलता है औषधी ।
सहनशीलता कुल कलहों की है दवा ।।
शान्त - चित्तता का अवलम्बन मिल गये ।
प्रकृति - भिन्नता भी हो जाती है हवा ॥११९।।

कोई प्राणी दोप - रहित होता नही।
कितनी दुर्वलताये उसमे है भरी ॥
किन्तु सुधारे सब बाते . है सुधरती ।
भलाइयों ने सब बुराइयाँ हैं हरी ॥१२०॥

सभी उलझने सुलझाये है सुलझती।
गॉठ डालने पर पड़ जाती गॉठ है॥
रस के रखने से ही रस रह सका है।
हरा भरा कब होता उकठा - काठ है ॥१२१॥

मर्यादा, कुल - शील, लोक - लज्जा तथा।
क्षमा, दया, सभ्यता, शिष्टता, सरलता ॥
कटु को मधुर सरसतम असरस को वना ।
है कठोर उर में भर देती तरलता ॥१२२॥

मधुर - भाव से कोमल - तम - व्यवहार से ।
पशु - पक्षी भी हो जाते आधीन हैं।
अनहित हित वनते स्वकीय परकीय है।
क्यों न मिलेगे दम्पति जो जलमीन है॥१२३॥

२४०
नदेही-नास

क्यों न दूर हो जायेगी मन मलिनता ।
क्यों न निकल जायेगी कुल जी की कसर ।।
क्यों न गांठ खुल जायेगी जी मे पड़ी।
पड़े अगर दम्पति का दम्पति पर असर ॥१२४॥

जिन दोनों का मबसे प्रिय - सम्बन्ध है।
जो दोनों है. एक दुमरे से मिले।
एक वृन्त के दो अति सुन्दर.- सुमन - सम ।
एक रंग में रंग जो दोनों हैं खिले ॥१५॥

ऐसा प्रिय - सम्बन्ध अल्प - अन्तर हुए।
भ्रंम - प्रमाद मे पड़े टूट पाता नहीं।
स्नेहकरों से जो बंधन है बॅधा, वह -
खांच - तान कुछ हुए छूट जाता नहीं ॥१२६॥

किन्तु रोग इन्द्रिय - लोलुपता का बढ़े।
पड़े आत्मसुख के प्रपच में अधिकतर ।।
होती है पशुता - प्रवृत्ति की प्रबलता।
जाती है उर मे भौतिकता - भूति भर ॥१२७॥

लंका में भौतिकता का साम्राज्य था।
था विवाह का बंधन, किन्तु अग्रीतिकर ॥
नित्य वहाँ होता स्वच्छंद - विहार था।
था विलासिता नग्न - नृत्य ही रुचिर तर ॥१२८॥

२४१
चतुर्दश सर्ग

कलह कपट - व्यवहार कु - कौशल करों से।
बहु- सदनों के सुख जाते थे छिन वहाँ ।
होता रहता था साधारण बात से।
पति - पत्नी का परित्याग प्रति - दिन वहाँ ॥१२९॥

अहंभाव दुर्भाव तथा दुर्वासना।
उसे तोड़ देती थी पतित - प्रवंचना ।।
ऐचा तानी हुई कि वह टूटा नहीं ।
कचा धागा था विवाह - बंधन बना ॥१३०॥

उस अभागिनी की अशान्ति को क्या कहें।
जिसे शान्ति पति - परिवर्तन ने भी न दी।
होती है वह विविध - यंत्रणाओं भरी।
इसीलिये तृष्णा है वैतरणी नदी ॥१३१॥

नरक ओर जाती थी पर वे सोचतीं।
उन्हें लग गया स्वर्ग - लोक का है पता ॥
दुराचार ही सदाचार था बन गया ।
स्वतंत्रता थी मिली तजे परतंत्रता ॥१३२॥

था वनाव - शृंगार उन्हें भाता बहुत ।
तन को सज उनका मन था रौरव बना ॥
उच्छंखलता की थी वे अति -प्रेमिका ।
उसी में चरम - सुख की थी प्रिय - कल्पना ।।१३३।।

१६
२४२
वैदेही-वनवास

इष्ट - प्राप्ति थी स्वार्थ - सिद्धि उनके लिये ।
थी कदर्थना से पूरिता - परार्थता ॥
पुण्य - कार्यों में थी बड़ी - विडम्बना ।
पाप - कमाना थी जीवन - चरितार्थता ॥१३४॥

बहु - वेशों में परिणत करती थी उन्हें ।
पुरुषों को वश में करने की कामना ।
पापीयसी - प्रवृत्ति - पूर्ति के लिये वे ।
करती थी विकराल - काल का सामना ।।१३५॥

थोड़ी भी परवाह कलंकों की न कर।
लगा कालिमा के मुंह में भी कालिमा।
लालन कर लालसामयी - कुप्रवृत्ति का ।
वे रखती थी अपने मुख की लालिमा ॥१३६॥

इन्द्रिय - लोलुपता थी रग रग में भरी ।
था विलास का भाव हृदय - तल में जमा ।
रोमांचितकर उनकी पाप - प्रवृत्ति थी।
मनमानापन रोम रोम में था रमा ॥१३७॥

पुरुष भी इन्हीं रंगों में ही थे रेंगे।
पर कठोरता की थी उनमें अधिकता ॥
जो प्रवंचना में प्रवीण थी रमणियाँ।
तो उनकी विधि - हीन - नीति थी बधिकता ॥१३८॥

२४३
चतुर्दश सर्ग

नही पाशविकता का ही आधिक्य था।
हिसा, प्रति - हिसा भी थी प्रबला बनी ।।
प्रायः पापाचार - बाधकों के लिये ।
पापाचारी की उठती थी तर्जनी ॥१३९॥

बने कलंकी कुल तो उनकी बला से।
लोक • लाज की परवा भी उनको न थी।
जैसा राजा था वैसी ही प्रजा थी।
ईश्वर की भी भीति कभी उनको न थी॥१४०॥

इन्ही पापमय कर्मों के अतिरेक से।
ध्वंस हुई कञ्चन - विरचित - लंकापुरी ॥
जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे।
धूल मे मिली प्रबल - शक्ति वह आसुरी ॥१४१॥

प्राणी के अयथा - आहार - विहार से।
उसकी प्रकृति कुपित होकर जैसे उसे -
देती है बहु - दण्ड रुजादिक - रूप में।
बैसे हो सब कहते हैं जनपद जिसे ॥१४२॥

वह चलकर प्रतिकूल नियति के नियम के।
भव - व्यापिनी प्रकृति के प्रवल - प्रकोप से ॥
कभी नही बचता होता विध्वंस है।
वैसे ही जैसे तम दिनकर ओप से ॥१४३॥

२४४
वैदेही-वनवास

लंका की दुर्गति दाम्पत्य - विडम्बना ।
मुझे आज भी करती रहती है व्यथित ॥
हुए याद उसकी होता रोमांच है।
पर वह है प्राकृतिक - गूढ़ता से ग्रथित ॥१४४॥

है अभिनन्दित नही सात्विकी - प्रकृति से।
है पति - पत्नी त्याग परम - निन्दित - क्रिया ॥
मिले दो हृदय कैसे होवेगे अलग ।
अप्रिय - कर्म करेगे कैसे प्रिय - प्रिया ॥१४५।।

वास्तवता यह है, जब पतित - प्रवृत्तियाँ।
कुत्सित - लिप्सा दुर्व्यसनों से हो प्रबल ।।
इन्द्रिय - लोलुपताओं के सहयोग से।
देती हैं सब - सात्विक भावों को कुचल ॥१४६॥

तभी समिष होता विरोध आरंभ है।
जो दम्पति हृदयों में करता छेद है॥
जिससे जीवन हो जाता है विषमतम ।
होता रहता पति - पत्नी विच्छेद है॥१४७॥

जिसमे होती है उच्छंखलता भरी।
जो पामरता कटुता का आधार हो॥
जिसमें हो हिसा प्रति - हिंसा अधमता ।
जिसमे प्यार बना रहता व्यापार हो ॥१४८॥

२४५
चतुर्दश सर्ग

क्या वह जीवन क्या उसका आनन्द है।
क्या उसका सुख क्या उसका आमोद है ॥
किन्तु प्रकृति भी तो है वैचित्र्यों भरी।
मल - कीटक मल ही मे पाता मोद है॥१४९।।

यह भौतिकता की है बड़ी विडम्बना ।
इससे होता प्राणि - पुंज का है पतन ॥
लंका से जनपद होते विध्वंस हैं।
___ मरु वन जाता है नन्दन सा दिव्य - वन ।।१५०॥

उदारता से भरी सदाशयता - रता।
सद्भावों से भौतिकता की वाधिका ।।
पुण्यमयी पावनता भरिता सद्ता।
आध्यात्मिकता ही है भव - हित - साधिका ॥१५१॥

यदि भौतिकता है अति - स्वार्थ - परायणा ।
आध्यात्मिकता 'आत्मत्याग की मूर्ति है।
यदि भौतिकता है विलासिता से भरी।
आव्यात्मिकता सदाचारिता पूर्ति है ॥१५२॥

यदि उसमें है पर - दुख - कातरता नही ।
तो इसमें है करुणा सरस प्रवाहिता॥
यदि उसमें है तामस - वृत्ति अमा - समा ।
तो इसकी है सत्प्रवृत्ति - राकासिता ॥१५३।।

२४६
वैदेही-वनवास

यदि भौतिकता दानवीय - संपत्ति है।
तो आध्यात्मिकता दैविक - सुविभूति है ॥
यदि उसमें है नारकीय - कटु - कल्पना ।
तो इसमें स्वर्गीय - सरस - अनुभूति है ॥१५४॥

यदि उसमें है लेश भी नहीं शील का।
तो इसका जन - सहानुभूति निजस्व है।
यदि उसमें है भरी हुई उइंडता ।
सहनशीलता । तो इसका सर्वस्व है॥१५५॥

यदि वह है कृत्रिमता कल छल से भरी।
तो यह है सात्विकता - शुचिता - पूरिता ॥
यदी उसमें दुर्गुण का ही अतिरेक है।
तो इसमें है दिव्य - गुणों की भूरिता ॥१५६॥

यदि उसमें पशुता की प्रबल - प्रवृत्ति है।
तो इसमें मानवता की अभिव्यक्ति है।
भौतिकता में यदि है जड़तावादिता।
आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी - शक्ति है ॥१५७।।

भौतिकता है भव के भावों में भरी।
और प्रपंची पंचभूत भी हैं न कम ॥
कहाँ किसी का कब छूटा इनसे गला ।
किन्तु श्रेय - पथ अवलम्बन है श्रेष्ठतम ॥१५८।।

चतुर्दश सर

नर - नारी निर्दोष हो सकेगे नहीं।
भौतिकता उनमें भरती ही रहेगी।
आपके सदृश , मैं भी इससे व्यथित हूँ।
किन्तु यही मानवता - ममता कहेगी ॥१५९।।

आध्यात्मिकता का प्रचार कर्तव्य है।
जिससे यथा - समय भव का हित हो सके।
आप इसी पथ की पथिका हैं, विनय है।
पॉव आप का कभी न इस पथ में थके ॥१६०॥

दोहा


विदा महि - सुता से हुई उन्हें मान महनीय ।
सुन विज्ञानवती सरुचि कथन - परम - कमनीय ॥१६॥
SA