वैदेही वनवास/१२ नामकरण-संस्कार

वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १८० से – १९४ तक

 
द्वादश सर्ग
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नामकरण-संस्कार
तिलोकी

शान्ति - निकेतन के समीप ही सामने।
जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम ॥
आज सुसज्जित हो वह सुमन - समूह से ।
बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम ।।१।।

ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठकर ।
मधुर - कंठ से वेद - ध्वनि है कर रहा ।
तपस्विनी सव दिव्य - गान गा रही हैं।
जन - जन - मानस में विनोद है भर रहा ॥२॥

१८१
द्वादश सर्ग

एक कुशासन पर कुलपति हैं राजते।
सुतों के सहित पास लसी हैं महिसुता ।।
तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी सजग रह ।
वन वन पुलकित है बहु - आयोजन - रता ॥३॥

नामकरण - संस्कार क्रिया जब हो चुकी।
मुनिवर ने यह सादर महिजा से कहा।
पुत्रि जनकजे उन्हें प्राप्त वह हो गया।
रविकुल - रवि का चिरवांछित जो फल रहा ॥४॥

कोख आपकी वह लोकोत्तर - खानि है।
जिसने कुल को लाल अलौकिक दो दिये॥
वे होंगे आलोक तम - बलित - पंथ के ।
कुश - लव होंगे काल कश्मलों के लिये ॥५॥

सकुशल उनका जन्म तपोवन में हुआ।
आशा है संस्कार सभी होंगे यही॥
सकल - कलाओ - विद्याओं से हो कलित ।
विरहित होंगे वे अपूर्व - गुण से नहीं ॥६॥

रिपुसूदन जिस दिवस पधारे थे यहाँ।
उसी दिवस उनके सुप्रसव ने लोक को।
दी थी मंगलमय यह मंजुल - सूचना ।
मधुर करेगे वे अमधुर - मधु - ओक को॥७॥

१८२
वैदेही-वनवास

मुझे ज्ञात यह बात हुई है आज ही।
हुआ लवण - वध हुए शत्रु - सूदन जयी ॥
द्वंद्व युद्ध कर उसको मारा उन्होंने ।
पाकर अनुपम - कीर्ति परम - गौरवमयी ॥८॥

आशा है अब पूर्ण - शान्ति हो जायगी।
शीघ्र दूर होवेगी वाधाये - अपर ॥
हो जायेगा जन - जन - जीवन बहु - सुखित ।
जायेगा अब घर घर में आनन्द भर ॥९॥

दसकंधर का प्रिय - संबंधी लवण था।
अल्प - सहायक - सहकारी उसके न थे॥
कई जनपदों में भी उसकी धाक थी।
बड़े सबल थे उसके प्रति - पालित जथे ॥१०॥

इसीलिये रघु - पुंगव ने रिपु - दमन को।
दी थी वर - वाहिनी वाहिनी - पति सहित ।
यथा काल हो जिससे दानव - दल - दलन ।
हित करते हो सके नही• भव का अहित ॥११॥

किन्तु उन्हें जन - रक्तपात वांछित न था।
हुआ इसलिये वध दुरन्त - दनुजात का ॥
आशा है अव अन्य उठायेगे न शिर ।
यथातथ्य हो गया शमन उत्पात का ॥१२॥

१८३
द्वादश सर्ग

जो हलचल इन दिनों राज्य में थी मची।
उन्हे देख करके जितना ही था दुखित ॥
देवि विलोके अन्त दनुज - दौरात्म्य का।
आज हो गया हूँ मैं उतना ही सुखित ॥१३॥

यदि आहव होता अनर्थ होते बड़े।
हो जाता पविपात लोक की शान्ति पर ।
वृथा परम - पीड़ित होती कितनी प्रजा।
काल का कवल वनता मधुपुर सा नगर ।।१४।।

किन्तु नृप - शिरोमणि की संयत - नीति ने।
करवाई वह क्रिया युक्ति - सत्तामयी ॥
जिससे संकट टला अकंटक महि बनी।
हुई पूत - मानवता पशुता पर जयी ॥१५॥

मन का नियमन प्रति - पालन शुचि - नीति का।
प्रजा - पुंज - अनुरंजन भव - हित - साधना ॥
कौन कर सका भू मे रघुकुल - तिलक सा।
आत्म - सुखों को त्याग लोक - आराधना ॥१६॥

देवि अन्यतम - मूर्ति उन्ही की आपको।
युगल - सुअन के रूप में मिली है अतः -
अब होगी वह महा - साधना आपकी।
बने पूततम पूत पिता के सम यतः ॥१७॥

१८४
वैदेही-वनवास

आपके कलिततम - कर - कमलों की रची।
यह सामने लसी सुमूर्ति श्रीराम की।
जो है अनुपम, जिसकी देखे दिव्यता ।
कान्तिमती बन सकी विभा घनश्याम की ॥१८॥

इस महान - मन्दिर में जिसकी स्थापना।
हुई आपकी भावुकतामय - भक्ति से ॥
आज नितान्त अलंकृत जो है हो गई।
किसी कान्तकर की कुसुमित - अनुरक्ति से ॥१९॥

रात रात भर दिन दिन भर जिसके निकट ।
वैठ विताती आप हैं विरह के दिवस ॥
आकुलता में दे देता बहु - शान्ति है।
जिसके उज्वलतम - पुनीत - पग का परस ॥२०॥

जिसके लिये मनोहर - गजरे प्रति - दिवस ।
विरच आप होती रहती हैं बहु - सुखित ॥
जिसको अर्पण किये विना फल ग्रहण भी।
नही आपकी सुरुचि समझती है उचित ॥२१॥

राजकीय सब परिधानों से रहित कर।
शिशु - स्वरूप मे जो उसको परिणत करें।
तो वह कुश - लव मंजु - मृत्ति बन जायगी।
यह विलोक मम - नयन न क्यों मुद से भरें ॥२२॥

१८५
द्वादश सर्ग

देवि ! पति - परायणता तन्मयता तथा।
तदीयता ही है उदीयमाना हुई।
उभय सुतों की आकृति मे, कल - कान्ति में -
गात - श्यामता में कर अपनोदन दुई ॥२३॥

आशा है इनकी ही शुचि - अनुभूति से।
शिशुओं में वह बीज हुआ होगा वपित ॥
पितृ - चरण के अति - उदात्त - आचरण का ।
आप उसे ही कर सकती हैं अंकुरित ॥२४॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।
उसका पद है जीवन का भी जनयिता ।।
उसमें है वह शक्ति सुत - चरित सृजन की।
नही पा सका जिसे प्रकृति - कर से पिता ॥२५॥

इतनी बाते कह मुनिवर जब चुप हुए।
आता जल जब रोक रहे थे सिय - नयन ।।
तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी तव उठी।
और कहे ये बड़े - मनोमोहक - वचन ॥२६॥

था प्रिय - प्रातःकाल उपा की लालिमा।
रविकर - द्वारा आरंजित थी हो रही ॥
समय के मृदुलतम - अन्तस्तल में विहस ।
प्रकृति - सुन्दरी प्रणय - बीज थी वो रही ॥२७॥

१८६प
वैदेही-वनवास

मंद मंद मंजुल - गति से चल कर मरुत ।
वर उपवन को सौरभमय था कर रहा ॥
प्राणिमात्र मे तरुओं मे तृण - राजि में।
केलि - निलय वन बहु-विनोद था भर रहा ।।२८॥

धीरे धीरे धुमणि - कान्त - किरणावली।
ज्योतिर्मय थी धरा - धाम को कर रही ॥
खेल रही थी कञ्चन के कल - कलस से।
बहुत विलसती अमल - कमल - दल पर रही ॥२९॥

किसे नहीं करती विमुग्ध थी इस समय ।
बने ठने उपवन की फुलवारी लसी ॥
विकच - कुसुम के व्याज आज उत्फुल्लता।
उसमें आकर मूर्तिमती वन थी वसी ॥३०॥

वेले के अलवेलेपन में आज थी।
किसी बड़े - अलवेले की विलसी छटा ॥
श्याम - घटा - कुसुमावलि श्यामलता मिले।
बनी हुई थी सावन की सरसा घटा ॥३१॥

यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकाये कुन्द की।
मधुर हँसी हँस कर थी दॉत निकालती ॥
आशा कर कमनीयतम - कर - स्पर्श की।
फूली नही समाती थी तो मालती ॥३२॥

१८७
द्वादश सर्ग

बहु - कुसुमित हो बनी विकच - बदना रही।
यथातथ्य आमोदमयी हो यूथिका ॥
किसी समागत के शुभ - स्वागत के लिये।
मॅह मह मॅह मॅह महक रही थी मल्लिका ॥३३॥

रंग जमाता लोक - लोचनों पर रहा।
चपा का चपई रंग बन चारुतर ।।
अधिक लसित पाटल - प्रसून था हो गया।
किसी कुंवर अनुराग - राग से भूरि भर ॥३४॥

उल्लसिता दिखलाती थी शेफालिका।
कलिकाओं के बड़े - कान्त गहने पहन ॥
पथ किसी माधव का थी अवलोकती।
मधु - ऋतु जैसी मुग्धकरी माधवी बन ॥३५॥

पहन हरिततम अपने प्रिय परिधान को।
था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥
बना रही थी जपा - लालिमा को ललित ।
किसी लाल के अवलोकन की लालसा ॥३६॥

इसी बड़ी - सुन्दर - फुलवारी मे कुसुम -
चयन निरत दो - दिव्य मूर्तियाँ थी लसी॥
जिनकी चितवन में थी अनुपम - चारुता ।
सरस सुधा - रस से भी थी जिनकी हॅसी ॥३७॥।

१८८
वैदेही-वनवास

एक रहे उन्नत - ललाट वर - विधु - वदन ।
नव - नीरद - श्यामावदात नीरज - नयन ।।
पीन - वक्ष आजान - वाहु मांसल - वपुष ।
धीर - वीर अति - सौम्य सर्व - गौरव - सदन ॥३८॥

मणिमय - सुकुट - विमंडित कुण्डल - अलंकृत ।
बहु - विधि मंजुल - मुक्तावलि - माला लसित ॥
परमोत्तम - परिधान - वान सौंदर्य - धन ।
लोकोत्तर - कमनीय - कलादिक - आकलित ॥३९।।

थे द्वितीय नयनाभिराम विकसित - बदन ।
कनक - कान्ति माधुर्य - मूर्ति मन्मथ - मथन ॥
विविध - वर - वसन - लसित किरीटी- कुण्डली ।
कम - परायण परम - तीव्र साहस - सदन ॥४०॥

दोनों राजकुमार मुग्ध हो हो छुटा।
थे उत्फुल्ल - प्रसूनों की अवलोकते ॥
उनके कोमल - सरस - चित्त प्रायः उन्हें ।
विकच - कुसुम - चय चयन से रहे रोकते ॥४१॥

फिर भी पूजन के निमित्त गुरुदेव के।
उन लोगों ने थोड़े कुसुमों को चुना ॥
इसी समय उपवन में कुछ ही दूर पर।
उनके कानों ने कलरव होता सुना ॥४२॥

१८९
द्वादश सर्ग

राज - नन्दिनी गिरिजा - पूजन के लिये।
उपवन - पथ से मंदिर में थी जा रही ॥
साथ में रही सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थी गा रही ॥४३॥

यह दल पहुंचा जव फुलवारी के निकट ।
नियति ने नियत - समय - महत्ता दी दिखा ॥
प्रकृति - लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर - लेख ललिततम - भावों का लिखा ॥४४॥

राज - नन्दिनी तथा राज - नन्दन नयन ।
मिले अचानक विपुल - विकच - सरसिज बने ।
वीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन - रसमय - भावों मे सने ॥४५॥

एक बनी श्यामली - मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर - मध्य बसी गौरांगिनी ॥
दोनो की चित - वृत्ति अचाञ्चक - पूत रह ।
किसी छलकती छवि के द्वारा थी छिनी ॥४६॥

उपवन था इस समय बना आनन्द - वन ।
सुमनस - मानस हरते थे सारे सुमन ॥
अधिक - हरे हो गये सकल - तरु - पुंज थे।
चहक रहे थे विहग - वृन्द वहु - मुग्ध बन ॥४७॥

२९०
वैदेही-वनवास

राज - नन्दिनी के शुभ - परिणय के समय ।
रचा गया था एक - स्वयंवर - दिव्यतम ॥
रही प्रतिज्ञा उस भव - धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वन - सम ॥४८॥

धरणीतल के बड़े - धुरंधर वीर सव ।
जिसको उठा सके न अपार - प्रयत्न
तोड़ उसे कर राज - नन्दिनी का वरण ।
उपवन के अनुरक्त बने जव योग्य - वर ॥४९॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना ॥
है विशालता उसकी विश्व - विमोहिनी।
सुर - पादप सा है प्रशस्त उसका तना ॥५०॥

जनता - हित - रता लोक - उपकारिका ।
है नाना - संताप - समूह - विनाशिनी ॥
है सुखदा, वरदा, प्रमोद - उत्पादिका ।
उसकी छाया है क्षिति - तल छवि - वर्द्धिनी ॥५१।।

बड़े - भाग्य से उसी अलौकिक - विटप से।
दो लोकोत्तर - फल अब हैं भू को मिले ॥
देखे रविकुल - रवि के सुत के वर - बदन ।
उसका मानस क्यों न वनज - वन सा खिले ॥५२॥

१९१
द्वादश सर्ग

देवि वधाई मैं देती हूँ आपको।
और चाहती हूँ यह सच्चे - हृदय से ॥
चिरजीवी हों दिव्य - कोख के लाल ये।
और यशस्वी वने पिता - सम - समय से ॥५३॥

इतने ही में वर - वीणा बजने लगी।
मधुर - कण्ठ से मधुमय - देवालय बना ॥
प्रेम - उत्स होगया सरस - आलाप से।
जनक - नन्दिनी ऑखों से आंसू छना ॥५४॥

पद


बधाई देने आई हूँ।


गोद आपकी भरी विलोके फूली नहीं समाई हूँ।
लालों का मुख चूम बलाये लेने को ललचाई हूँ।
ललक - भरे - लोचन से देखे बहु - पुलकित हो पाई हूँ॥
जिनका कोमल - मुख अवलोके मुदिता बनी सवाई हूँ।
जुग जुग जिये लाल वे जिनकी ललके देख ललाई हूँ॥
विपुल - उमंग - भरे - भावों के चुने - फूल में लाई हूँ।
चाह यही है उन्हें चढ़ाऊँ जिनपर बहुत लुभाई हूँ ॥
रीझ रीझ कर विशद - गुणों पर मैं जिसकी कहलाई हूँ।
उसे वधाई दिये कुसुमिता - लता - सदृश लहराई हूँ ॥१॥५५॥

१९२
वैदेही-वनवास
जंगल में मंगल होता है।

भव-हित-रत के लिये गरल भी बनता सरस-सुधा सोता है।
कॉटे बनते हैं प्रसून - चय कुलिश मृदुलतम हो जाता है ।।
महा-भयंकर परम-गहन - वन उपमा उपवन की पाता है।
उसको ऋद्धि सिद्धि है मिलती साधे सभी काम सधता है।
पाहन पानी में तिरता है, सेतु वारिनिधि पर बंधता है।
दो बाहें हों किन्तु उसे लाखों बाहों का बल मिलता है ।।
उसीके खिलाये मानवता का बहु-म्लान-बदन खिलता है ।
तीन लोक कम्पितकारी अपकारी का मद वह ढाता है ।।
पाप-ताप से तप्त - धरा पर सरस - सुधा वह बरसाता है।
रघुकुल - पुंगव ऐसे ही हैं, वास्तव में वे रविकुल - रवि हैं।
वे प्रसून से भी कोमल हैं, पर पातक - पर्वत के पवि हैं।
सहधर्मिणी आप हैं उनकी देवि आप दिव्यतामयी हैं ।
इसीलिये बहु-प्रबल - बलाओं पर भी आप हुई बिजयी हैं।
आपकी प्रथित-सुकृति-लता के दोनों सुत दो उत्तम-फल हैं ।।
पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, शिव - शिर-गौरव गंगाजल है ।
पिता-पुण्य के प्रतिपादक हैं, जननी-सत्कृति के सम्बल हैं ।
रविकुल-मानस के मराल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।
मुनि-पुंगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोविद वन जावें ।
चिरजीवे कल-कीर्ति सुधा पी वसुधा के गौरव कहलावे ॥२॥५६॥

द्वादश सर्ग
तिलोकी

जब तपस्विनी - सत्यवती गाना , रुका।
जनकसुता ने सविनय मुनिवर से कहा ।।
देव ! आपकी आज्ञा शिरसा - धार्य है।
सदुपदेश कब नही लोक - हित - कर रहा ॥५७॥

जितनी मैं उपकृता हुई हूँ आपसे।
वैसे व्यापक शब्द न मेरे पास हैं।
जिनके द्वारा धन्यवाद दूं आपको।
होती कब गुरु - जन को इसकी प्यास है ॥५८॥

हॉ, यह आशीर्वाद कृपा कर दीजिये।
मेरे चित को चञ्चल - मति छू ले नहीं ।
विविध व्यथाये सहूँ किन्तु पति - वांछिता।
लोकाराधन - पूत - नीति भूले नही ॥५९।।

तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी आपकी।
जैसी अति - प्रिय - संज्ञा है मृदुभापिणी ।।
हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल ।
कहाँ मिलेगी ऐसी हित - अभिलाषिणी ॥६०॥

अति उदार हृदया है, हैं भवहित - रता।
आप धर्म - भावो की है अधिकारिणी ।।
है मेरी सुविधा - विधायिनी शान्तिदा।
मलिन - मनों मे हैं शुचिता - संचारिणी ॥६१॥

१३
१९४
वैदेही-वनवास

कभी बने जलविन्दु कभी मोती बने।
हुए ऑसुओं का आँखों से सामना ॥
अनुगृहीता हुई अति कृतज्ञा बनी।
सुने आपकी भावमयी शुभ कामना ॥६२॥

आप श्रीमती सत्यवती हैं सहृदया।
है कृपालुता आपकी प्रकृति में भरी॥
फिर भी देती धन्यवाद हूँ आपको।
है सद्वांछा आपकी परम - हित - करी ॥६३॥

दोहा


फैला आश्रम - ओक में परम - ललित - आलोक ।
मुनिवर उठे समण्डली सांग - क्रिया अवलोक ॥६४॥