विश्व प्रपंच
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, पृष्ठ १२२ से – १४० तक

 

नवाँ प्रकरण।

आत्मा का वर्गपरंपराक्रम से विकाश।

यह सिद्धांत अब पूर्णतया स्थिर हो गया है कि मनुष्य का शरीर अनेक पूर्वज जंतुओं के शरीर से परंपरानुसार परिवर्तित होते होते उत्पन्न हुआ है। अतः उसके मनोव्यापारो को हम उसके और शारीरिक व्यापारो से अलग नहीं कर सकते। हमे यह मानना पड़ता है कि शरीर और मन दोनो का विकाश क्रमशः हुआ है। अतः मनोविज्ञान मे यह देखना अत्यंत आवश्यक है कि किस प्रकार पशु की आत्मा से क्रमशः मनुष्य की आत्मा का विकाश हुआ है। आत्मा के जाति-परंपरागत विकाशक्रम का निरूपण मनस्तत्व विद्या का प्रधान अंग है। एक जाति के जंतु से विकाश द्वारा दूसरी जाति के जंतु की जो दीर्घपरंपरा चली आई है उसके अन्वेषण के द्वारा आत्मा के विकाशक्रम का भी बहुत कुछ पता चलता है।

मनुष्य के मनोव्यापारो का दूसरे जरायुज जंतुओं के मनोव्यापारों से यदि एक एक कर के मिलान करे तो पता लगेगा कि बनमानुस की आत्मा से ही कुछ और उन्नत अवस्था को प्राप्त मनुष्य की आत्मा है। समस्त रीढ़वाले जंतुओ में मनोव्यापारो का प्रधान करण मेरुरज्जु होता है। * यह मेरुरज्जु


• यह मेरुरज्जु भेजे की बत्ती के रूप का होता है और मस्तिक से ले कर पीछे की ओर मेरुदड के बीचोबीच से होता हुआ नीचे तक गया रहता है।
विना रीढ़वाले पूर्वज कीड़ो की उस खड़ी संवेदनसूत्रग्रंथि का प्रवर्द्धित रूप है जो चिपटे केचुओ की गर्भझिल्ली (अर्धात् घटको की परत) से उन्नत अवस्था को प्राप्त हो कर बनी है। चिपटे केचुओ के अंगविश्लेषण द्वारा इस बात का पता लग जाता हैं। इन आदिम जीवो के कोई अलग संवेदनसूत्रमय विज्ञानकोश नही होता, इनके ऊपर का सारा चमड़ा ही संवेदनग्राही और मनोव्यापारसाधक होता है। ये अनेकघटक कीट परस्पर गुछकर झिल्ली के रूप मे नियोजित होनेवाले अणुजीवों के उत्तरोत्तर विभाग द्वारा बने हैं। भिन्न भिन्न जंतुओ के गर्भविधान की परीक्षा करने से इनके योजनाक्रम का पता चलता है। परस्पर मिल केर झिल्ली या आवरण बनानेवाले ये कलात्मक अणुजीव आदिम एकघटक अणुजीवो से ही उत्पन्न हुए है। गर्भ के भीतर एक घटक वा अणुजीव से जिस प्रकार अनेक घटको के कलात्मक समवाय की सृष्टि होती है और फिर उससे उत्तरोत्तर उन्नत अवस्थाओ का क्रमशः विधान होता है यह खुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शक यंत्र) के द्वारा देखा जा सकता है। इस परीक्षा द्वारा आत्मा के विकाश का जो क्रम निर्धारित होता है। उसके अंनुसार आत्मा आठ मुख्य अवस्थाओ से होती हुई मनुष्य की आत्मा का उन्नत रूप प्राप्त करती है। इन पूर्वापर अवस्थाओ के सूचक आठ प्रकार के जो जीव पाए जाते हैं वे ये हैं--


एक प्रकार के चिपटे केचुए जानवरो के पेट या कलेजे मे भी उत्पन्न हो जाते हैं। (१) एकंघटक अणुजीव जिन्हे एक अत्यंत क्षुद्र कोटि की घटकात्मा मात्र होती है-—जैसे जल मे रहनेवाले रोईदार अणुजीव * ।

(२) समूहबद्ध अनेकघटक क्षुद्रजीव जो बहुत से मिलकर एक विशेष आकार के पिड बना कर रहते है, जैसे स्पंज। ये यद्यपि मिलकर बिलकुल एक जीव नही बन जाते तो भी इनमें एक प्रकार का संबंध रहता है। एक अणुजीव के त्वक् पर जो क्षोभ पहुँचाया जायगा उसका प्रभाव सारे समूह पर पड़ेगा। ऐसे जीव जल मे पाए जाते है। इनकी आत्मा को समूहबद्व आत्मा कह सकते है।

(३) आदिम अनेकघटक जीव जिनका शरीर कई घटकों के मिलकर सर्वथा एक शरीर-कोश हो जाने से बना है-जैसे चिपटे केचुओ का वर्ग।


  • ये अणुजीव एक इच के शताश के बराबर होते है और ताल आदि के स्थिर जल मे अपना रोइयो के सहारे तैरते फिरते है। ये एक लबी थैली के रूप के होते है। इनमे स्फुट इंद्रियाँ आदि नही होती। पेट की ओर कुछ दबा हुआ स्थान होता है जिसमे एक ओर से जल भीतर जाता है और दूसरी ओर से निकलता है। भीतर जो कललरस का चेप रहता है उसमे जल का पोषक अश (और भी सूक्ष्म वनस्पति आदि) मिल जाता है। जब यह जीव किसी प्रकार उद्विग्र या क्षुब्ध होता है तब अपने त्वक् के भीतर से चारो ओर लबे लबे सूत निकालता है। सड़ाव के कीड़े इसी प्रकार के होते है।

ये केचुए कई प्रकार के होते हैं। अधिकांश तो जतुओ के पेट मे पड़ते हैं, कुछ समुद्र के जल में या दलदलो में पाए जाते है। (४) विनारीढ़ वाले आदिम जीव जिनमे मस्तिष्क या अंतःकरण एक खड़ी सुत्रग्रंथि के रूप मे होता है---जैसे, जोक आदि का वर्ग।

(५) ऐसे रीढ़वाले जंतु जिन्हे कपाल या मस्तिष्क नही होता केवल एक सादा मेरुरज्जु होता है-जैसे, अकरोटी मत्स्य * या कुलाट।

(६) कपाल और पंचघटात्मक मस्तिष्कवाले जंतु---- जैसे, मछली।

(७) ऐसे स्तन्य जंतु जिनके मस्तिष्क का तल उन्नत अवस्था को प्राप्त रहता है। जैसे, जरायुज वर्ग (कुत्ते, विल्ली आदि)।

(८) वनमानुस और मनुष्य जिनके मस्तिष्क के भेजे में मेधाशक्ति होती है।

ऊपर लिखे हुए जीवो की सृष्टि मिन्न भिन्न कल्पो मे एक दूसरे के पीछे क्रमशः हुई है। इनमे जिस क्रम से मनस्तत्त्व का विकाश हुआ है वह नीचे दिया जाता है---

(१) घटकात्मा (या अंकुरात्मा)। जीववर्गों के बीच मनोविकाश की यह प्रथमावस्था है। ऊपर कहा जा चुका


  • चार अगुल लबा एक कीडा जो देखने मे जोक की तरह का होता है। इसमे विशेषता यह है कि इसके शरीर मे एक प्रकार की लचीली केमल रीढ़ होती है जिसे सूत्रदंड कह सकते हैं पर कपाल या मस्तिष्क नहीं होता। यह कीड़ा समुद्र तट पर बालू में बिल बना कर रहता है और पानी में खड़ा तैरता है।
    है कि मनुष्य तथा और सब जीवों के सब से आदिम पूर्वज एकघटक अणुजीव थे। जिस क्रम से मनुष्य आदि प्राणी अपने पूर्ववर्ती जंतुओ से परिवर्तनपरंपरा द्वारा निकल कर अपने वर्तमान रूप मे आए है उसका पता प्रत्येक प्राणी के भ्रूणविकाशक्रम को देखने से लग जाता है। और सब अनेकघटक जीवो के समान मनुष्य भी गर्भाशय के भीतर एक क्षुद्र घटक से जिसे अंडघटक वा अंकुरघटक कहते हैं अपने जीवन का आरंभ करता है। जैसे इस घटक मे आरंभ ही से एक प्रकार की आत्मा होती है वैसे ही अत्यंत प्राचीन कल्प के उन पूर्वज अणुजीवो मे भी थी जिनसे विकाक्रमानुसार मनुष्य की उत्पत्ति हुई है।

एकघटक जीवों के मनोव्यापार किस प्रकार के होते हैं इसका पता आज कल पाए जानेवाले एकघटक अणुजीवों के शरीराविधान आदि को देखने से लग सकता है। इन अणुजीवो के अन्वीक्षण से बहुत सी नई नई बातो का पता लगा है। वरवर्न नामक एक जरमन जीवविज्ञानवेत्ता ने अनेक प्रकार से परीक्षा कर के बतलाया है कि एकघटक अणुजीवों के समस्त मनोव्यापार अचेतन अर्थात् अज्ञानीकृत होते है, उन मे जो संवेदना और गति देखी जाती है वह कललरस की कणिकाओं के धर्मानुसार होती है। एकटक अणुजीवो के मनोव्यापार जड़-द्रव्य की रासायनिक क्रियाओ (जैसे अणुओ का आकर्षण विश्लेषण आदि ) और उन्नत जंतुओं की अंतःकरण-वृत्तियों के बीच की श्रृंखला के समान हैं। उन्हें
मनुष्य तथा और अनेकघटक जीवों के उन्नत सनोव्यापारों का बीज समझना चाहिये।

जल मे रहनेवाले भिन्न भिन्न प्रकार के एकघटक कीटाणुओ की परीक्षा करके मैंने कुछ दिन पहले यह मत प्रकट किया था कि प्रत्येक सजीव घटक में कुछ मानसिक वृत्तियाँ होती हैं, और अनेकघटक जीवों और पौधों की मानसिक वृत्ति उन घटको की मानसिक वृत्तियो की समष्टि है जिनकी योजना से उनका शरीर संघटित रहता है। स्पंज आदि क्षुद्र कोटि के अनेकघटक जीवो में शरीर का प्रत्येक घटक मानसिक क्रिया मे समान रूप से प्रवृत्त होता है पर उन्नत कोटि के जीवों मे कार्यविभाग के नियमानुसार कुछ चुने हुए घटक ही इस क्रिया के लिये नियुक्त हो जाते है और मनोघटक कहलाते हैं।

घटकात्मा की भी ऊँची नीची कई श्रेणियाँ होती हैं। कुछ का व्यापार तो अत्यंत सीधासादा होता है और कुछ का जटिल होता है। सब से आदिम और क्षुद्र कोटि के एकघटक जीवो में संवेदन और गतिशक्ति घटकस्थ कललरस में सर्वत्र एकरस होती है। जो कुछ व्यापार वे कर सकते है अपने रसविदु रूपी शरीर के प्रत्येक भाग से कर सकते है। उन्नत कोटि के एकघटक अणुजीवो मे कुछ करणांकुर उत्पन्न हो जाते है जिनसे गति आदि व्यापार होते है। इस प्रकार के करण जल के कुछ सूक्ष्म कीटाणुओं मे स्थिर पादांकुरो या रोइयो के रूप मे देखे जाते हैं। इन कीटाणुओं के कललरस के मध्य मे एक सूक्ष्म गुठली होती है जिसे घटक का अंतःकरण समझना चाहिए। सब से आदिम वनस्पति और सब से
आदिम जंतु जो सृष्टि के बीच उत्पन्न हुए वे एकघटक थे। आज भी इस प्रकार के एकघटक जंतु और एकघटक वनस्पति पाए जाते हैं। जल के ये वनस्पति अत्यंत सूक्ष्म होते है, कोई कोई तो एक इंच के कई लाखवे हिस्से के बराबर होते हैं।

जल मे रहनेवाले रोईदार सूक्ष्म अणुजीवो मे उन्नत कोटि की घटकात्मा देखी जाती है। उनकी गतिविधि का यदि हम अनेकघटक प्राणियो की गतिविधि से मिलान करे तो बहुत कम अंतर मिलेगा। इन एकघटक अणुजीवो मे जो संवेदनग्राही और गतिसंपादक करणांकुर होते है वे वही काम करते है जो उन्नत जंतुओ का मस्तिष्क करता है। इन सूक्ष्म अणुजीवो का मनोव्यापार किस प्रकार का होता है इस विषय मे कुछ मतभेद है। कुछ वैज्ञानिको का कहना है कि इनमे जो स्वतः प्रवृत्ति होती है वह जड़ या उद्वेगात्मक (कललरस के स्वाभाविक क्षोभ से उत्पन्न) होती है और जो विषयोत्तेजित गति देखी जाती है वह प्रतिक्रिया मात्र होती है। इसके विरुद्ध कुछ लोगों का कहना है कि इनके ये व्यापार कुछ कुछ झानकृत होते है अर्थात् इनमे थोड़ी बहुत चेतना का विकाश होता है। पर अधिकांश लोग इनमे चेतना या ज्ञान नही मानते। जो कुछ हो, हमारा प्रयोजन इतने ही से है कि इनमे एक प्रकार का समुन्नत मनस्तत्त्व या आत्मतत्त्व होता है।

(२) समूहबद्ध आत्मा--वर्गानुक्रमगत आत्मविकाश की यह द्वितीयावस्था है। मनुष्य तथा और दूसरे अनेकघटक प्राणियों की गर्भवृद्धि एक सुक्ष्म घटक के विभाग द्वारा आरंभ
होता है। यह सूक्ष्म अंकुरघटक पहले दो घटको मे विभक्त होता है, फिर दोनो घटक विभक्त होकर चार घटक हो जाते है। चार से आठ, आठ से सोलह, सोलह से बत्तीस, बत्तीस से चौसठ इसी प्रकार घटको की संख्या बराबर बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि वे सब मिल कर सूक्ष्म बुद्बुदगुच्छ या शहतूत का सा आकार धारण करते है। इस गुच्छ को कललगुच्छ कहते है। धीरे धीरे घटको के इस गुच्छे के बीच एक प्रकार का रस इकट्ठा हो जाता है और यह गुच्छा झिल्ली का एक कोश या घट बन जाता है। यह इस प्रकार होता है कि सारे घटक रस के ऊपर आकर एक झिल्ली के रूप मे जम जाते हैं जिसे मूलकला कहते हैं। इस कला द्वारा जो गोल कोश बनता है उसे अंकुरकोश या कललकोश कहते है।

कललकोश के निर्माण मे घटकसमूह के जो मनोव्यापार दिखाई पड़ते हैं वे कुछ तो संवेदन हैं और कुछ गत्यात्मक क्रियाएँ है। गति इसमे दो प्रकार की होती है--एक तो आभ्यंतर गति जो विभाग के समय घटक की भीतरी गुठली के स्थितिपरिवर्तनक्रम मे देखी जाती है, दूसरी वाह्यगति जो घटको के स्थिति बदलने और परस्पर मिल कर झिल्ली बनाने मे देखी जाती है। हम इन गतियो को कुलपरंपरागत और अचेतन (अज्ञानकृत) मानते हैं। ये उन एकघटक अणुजीवो के धर्म है जिनसे समस्त बहुघटक प्राणियों का विकाश हुआ है। कुलपरंपरानुसार ये धर्म किसी न किसी रूप में अबतक प्रकट होकर कुछ काल तक रहते है। संवेदन भी दो प्रकार के होते हैं—(क) प्रत्येक घटक के पृथक्
पृथक् संवेदन और (ख) घटको के सारे समूह का एक सामान्य संवेदन जिसका पता सारे घटकों की उस सामान्य प्रवृत्ति से लगता है जिसके अनुसार वे सब के सब मिलकर एक कोश निर्माण करते है। जैसा कि कहा जा चुका है गर्भावस्था का यह कललघट वह रूप है जिस रूप मे सारे जंतुओ के अदिम पूर्वज किसी कल्प मे थे। इस प्रकार के घटकसमूह अबतक जल के रोईदार तथा और कई प्रकार के एकघटक अणुजीवो मे पाए जाते है। ये एकघटक जीव उसी प्रकार समूह बनाकर रहते है जिस प्रकार कललकोश के घटक।

(३) तंतुजालगत या समवाय आत्मा---वर्गपरपरागत आत्मविकाश की यह तृतीयावस्था है। उन सब बहुघटक पौधो और जीवो मे जिनके घटक तंतुजाल के रूप मे मिलकर एक हो जाते है दो कोटि के मनोव्यापार देखे जाते है---(१) तंतुजाल के एक एक घटक की आत्मा का अलग अलग मनोव्यापार। और(ख)सारे तंतुजाल अर्थात् घटकसमष्टि का मनोव्यापार। मनोव्यापारो के इस समष्टिविधान से ही बहुत से घटक मिलकर एक शरीर हो जाते है। यह तंतुजालगत आत्मा या आत्मसमष्टि सारे घटको की पृथक् पृथक् घटकात्माओ को अंगागिभाव से चलाती है। निम्नकोटि के बहुघटक पौधो और जंतुओ मे आत्मा की यह दोहरी प्रवृत्ति ध्यान देने योग्य है। परीक्षा द्वारा इसे हम प्रत्यक्ष देख सकते है। किसी पौधे को लेकर हम देख सकते है कि उसके प्रत्येक घटक की निज की संवेदना और गति भी होती है और साथ ही प्रत्येक तंतुजाल या अवयव का (जो कई समानधर्मवाले घटको के योग से संघ
टित रहता है) विशेष उत्तेजन और मनोधर्म भी होता है---दृष्टांत के लिये पौधो के पराग या परागकेसर को लीजिए।

(क) उद्भिदात्मा–--यह बहुघटक पौधों की समस्त आंतरिक वृत्तियों का सारांश है। पहले पौधों और जंतुओं में बड़ा भारी भेद यह समझा जाता था कि जंतुओं में आत्मा होती है और पौधो मे नहीं। पर घटकविधान और कललरसविधान का पता लग जाने से अब जंतुओ और पौधो की मूलयोजना की समानता सिद्ध हो गई है। आजकल के तारतम्यिक शरीरविज्ञान ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि बहुत से पौधा और क्षुद्र जंतुओ की प्रवृत्ति पर प्रकाश, ताप, विद्युत्प्रवाह, सघर्षण और रासायनिक क्रिया इत्यादि उत्तेजनो का प्रभाव समान पड़ता है और दोनों में इस प्रकार के उत्तेजन से एक ही ढंग की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसे उत्तेजनो से जिस प्रकार की प्रतिक्रिया स्पंज, मूँगे के कृमि आदि मे उत्पन्न होती है उससे बढ़कर लजालु और मक्षिकाग्राही आदि पौधा मे देखी जाती है। अत. यदि एक की क्रिया को हम आत्मा की क्रिया मानते हैं तो दूसरे की क्रिया को भी आत्मा की क्रिया क्यो न माने? जो लजालु छूने के साथ ही अपनी पत्तियो को बंद कर लेता और टहनियों को झुका लेता है, जो मक्षिकाग्राही पौधा पत्ते पर मक्खी बैठते ही उस पत्ते को दूसरे पत्ते के साथ जुटा कर मक्खी को फँसा लेता है उसमे स्पंज आदि की अपेक्षा अधिक संवेदन और गतिशक्ति हमे माननी पड़ेगी।

(ख) संवेदनसूत्र-रहित अनेकघटक जीवो की आत्मा--उन क्षुद्र बहुघटक जीवो के मनोव्यापार ध्यान देने
योग्य हैं जिनका शरीर तंतुजालमय तो होता है पर जिन्हे अलग संवेदनवाहक सूत्र नही होते। जल मे रहनेवाले घटकृमि चिपटे केचुए, स्पज तथा प्रवालकृमि इत्यादि सब से क्षुद्र कोटि के आशयविशिष्ट जीव इसी प्रकार के हैं।

घुटकृमि आशयविशिष्ट जीवो मे सबसे आदिम हैं। इन्हीसे और सब बहुघटक जीव उत्पन्न हुए है। इन कृमियो का क्षुद्र शरीर एक अंडाकार कोश या पात्र के रूप मे होता है जिसमे एक छोटा छिद्र होता है। कोश के भीतर का खाली स्थान उदर का, और छिद्र मुख का आदि रूप है। कोश दोहरी झल्लियो का होता है। नीचेवाली झिल्ली उदराशय का आवरण है जिसके द्वारा पाचन क्रिया होती है और ऊपर वाली झिल्ली त्वक है जिसके द्वारा स्पर्शसंवेदन और गति होती है। त्वकवाली झिल्ली जिन घटको के योग से बनी रहती है उनके ऊपर बहुत सूक्ष्म रोइयाँ होती है जिनके सहारे ये कृमि पानी में तैरते है। इन कृमियो की कई जातियां जल मे मिलती हैं। ये द्विकलघट कृमि अपने जीवन भर उसी अवस्था मे रहते हैं जिस अवस्था मे कुछ काल तक मनुष्य आदि समस्त बहुघटक प्राणियो के भ्रूण आरंभ में रहते हैं। यह द्विकलघट रूप भ्रूण को कललघट अवस्था के उपरांत ही प्राप्त होता है। कललकोश की जो एकहरी झिल्ली होती है वह एक ओर पिचक कर नीचे की ओर धँस जाती है। आधी झिल्ली जब पिचक कर शेष आधी झिल्ली के भीतर जम जाती है तब कललकोश का आकार बदल कर दोहरी झिल्ली के एक कटोरे का सा हो जाता है जिसे हम द्विकलघट कह सकते
हैं। नीचे ऊपर जमी हुई दो झिल्लियों में से बाहरी झिल्ली ( वाह्यकला )- त्वककला हैं और भीतरी झिल्ली आशयकला है। कटोरे के आकार के द्विकलघट में जो खाली स्थान होता है वही पेट या जठराशय है और जो छिद्र होता है वही सुख है। बाहरी त्वककला ही संवेदन की एक मात्र इन्द्रिय है। इसी से क्रमशः उन्नति करते करते बड़े जीवों की ऊपरी त्वचा, इन्द्रियाँ तथा संवेदनसूत्र कार्यविभाग-क्रम द्वार बने हैं। द्विकलघट जीवों में संवेदवाहक सूत्र आदि न होते उनकी ऊपरी झिल्ली ( वाह्यकला ) के सारे घटक समान रूप से संवेदनग्राही और गतिशील होते हैं। इनमें तंतुनालगत आत्मा सब से आदिम वा प्रारंभिक रुप में रहती है।

चित्रपट केचुओं में से कुछ की बनावट तो बिल्कुल घट कृमियों की सी होती है अर्थान् उनमें संवेदनसूत्र-विधान नहीं होता। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनमें एक लंबा संवेदनसूत्र और एक सूक्ष्म मस्तिष्कग्रंथि भी होती है। स्पंजों की बनावट सब से विलक्षण होती है। वे अधिकतर समुद्र के तल में पाए जाते हैं। सब से क्षुद्र कोटि के जो स्पंज होते हैं वे द्विकलघट के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते। उन की झिल्ली में छलनी की तरह के बहुत से छेद होदे हैं जिनसे होकर खाद्यमिश्रित जल भीतर जाता है। वे कांड या शाखा के रूप का समूहपिंड बना कर रहते हैं जिसके भीतर जल के लिए नालियाँ होती हैं। वे चर नहीं होते हैं। उनमें संवेदन और अंगगति बहुत ही मंद होती है। इसी से पहले लोग उन्हें उद्भिद् समझ थे। जल के उद्भिदाकार कृमियो की यदि हम परीक्षा करें तो साफ दिखाई पड़ेगा कि किस प्रकार तंतुजालगत आत्मा से उन्नतिक्रम द्वारा संवेदनसूत्रगत आत्मा का विकाश होता है। मूँगा और छत्रक इसी प्रकार के कृमि है। एक प्रकार के कृमियो का समूहपिंड या छत्ता समुद्र और झीलो मे चट्टानो आदि पर जमा मिलता है जो देखने में खड़े पौधे की तरह जान पड़ता है। इन्हे खंडबीज कहते है। छत्तेके प्रधान कांड में से जगह जगह पर छोटी छोटी शाखाएँ निकली होती है जो सिरे पर चौड़ी होकर गिलास के आकार की होती है। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बंद रहते हैं, केवल उनकी सूत की तरह की भुजाएँ निकली होती है। कुछ शाखाओं के भीतर विशेष प्रकार के कुड्मल होते हैं। जब कोई कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतंत्र जीव होकर कांड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप मे इधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्रककृमि कहते हैं क्योकि यह छाते के आकार का होता है। जिस अचर पिड से इसकी उत्पत्ति होती है उससे यह बिलकुल भिन्न होता है। अचर खंडबीज कृमियो मे संवेदनसूत्र और इन्द्रियाँ नही होतीं, उनमें संवेदन शरीरव्यापी होता है। पर छत्रक में संवेदनग्रंथियो और विशेष विशेष इन्द्रियों का कुछ विधान होता है। इसके प्रजनन का विधान भी ध्यान देने योग्य है। स्थावर खंडवीज कृमियो मे


  • इनमें यह विशेषता होती है कि इनके शरीर के यदि कई खड कर डालें तो प्रत्येक खड बढ कर कृमि के रूप मे हो जायगा।
    स्त्री पुं० विधान नही होता. कुड्मल-विधान होता है जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है। पर उनसे जो छत्रककृमि उत्पन्न होते हैं उनमे स्त्री पु० अलग अलग होते हैं। पुं० के शुक्रकीटाणु जल मे छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा मादा के गर्भाशय मे जाकर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। ये गर्भकीटाणु शीघ्र डिंभकीट के रूप मे प्रवर्द्धित होकर कुछ दिनो तक जल मे तैरते फिरते हैं पीछे किसी पौधे, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते है और धीरे धीरे बढ़ कर खंडबीज कृमि के रूप मे हो जाते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इसी खडबीज कृमि से फिर छत्रककृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खंडबीज कृमि से छत्रक कृमि की उत्पत्ति होती है और छत्रककृमि से खंडबीज कृमि की। प्रजनन के इस विधान को इतरेतरजन्म * या योन्यंतर विधान कहते हैं। इससे हम आत्मा की वर्गपरपराक्रम से वृद्धि अपनी ऑखो के सामने देख सकते हैं। समूहपिंड बना कर रहनेवाले उद्भिदाकार कृमियों मे हमे दोहरी आत्मा दिखाई पड़ती है। एक तो समूहपिंड के कृमियों की पृथक पृथक् आत्मा, दूसरी सारे समूहपिड की सामान्य आत्मसमष्टि।

(४) संवेदसूत्रगत आत्मा या सूत्रात्मा---वर्गपरं


  • ऋग्वेद में लिखा है कि "अदितिर्दक्षो अजायत, दक्षाददितिपरि अर्थात् अदिति से दक्ष उत्पन्न हुए और दक्ष से अदिति। इसका यास्काचार्य ने इस प्रकार समाधान किया है "इतरेतर जन्मानो भवन्तीतरेतर प्रकृतयः"।।
    परानुगत आत्मविधान की यह चतुर्थावस्था है। मनुष्य आदि समुन्नत जीवों के मनोव्यापार एक विशेष यंत्र या करण के द्वारा होते हैं। इसे करण के तीन मुख्य विभाग होते हैं--(क) वाह्यकरण या इन्द्रियां जिनसे संवेदन होता है, ( ख ) पेशियाँ जिनसे गति या संचालन होता है और ( ग ) संवेदनसूत्र जो इन दोनो के बीच मस्तिष्क रूपी प्रधान करण के द्वारा संबंध स्थापित करते हैं। मनोव्यापारो का साधन करने वाले इस भीतरी यंत्र की उपमा तारयंत्र से दी जा सकती हैं। संवेदनसूत्र तार है, इन्द्रियां छोटे स्टेशन है और मस्तिष्क सदर स्टेशन है। गतिवाहक सूत्र संकल्परूपी आदेश को सूत्रकेद्र या मस्तिष्क से पेशियो तक पहुँचाते है जिनके आकुंचन से अंगो में गति होती है। संवेदनवाहक सूत्र इंद्रियो के द्वारा प्राप्त संवेदनो को अंतर्मुख गति से मस्तिष्क या अंतःकरण मे पहुँचाते है। मस्तिष्क या अंतःकरण रूपी मनोव्यापारकेद्र ग्रंथिमय होता है। इन सूत्रग्रंथियो के घटक सजीव द्रव्य के सब से समुन्नत अंश हैं। इनके द्वारा इन्द्रियो और पेशियो के बीच व्यापारसंबंध तो चलता ही है, इसके अतिरिक्त भावग्रहण, बोध और विवेचन आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते हैं।

अत्यंत क्षुद्र जीवो को छोड़ शेष सब जंतुओ मे मनोव्यापार का एक अलग करण होता है। छत्रककृमियो में मुँह के


• क्षुद्र कोटि के जीवो में साधारण ततुओं से अलग संवेदन सूत्र नहीं होते।
मेंडरे पर भेजे या संवेदनसुत्र बनानेवाली धातु का एक छल्ला सा होता है जिसमे थोड़े बहुत अंतर पर कई(प्रायः चार या ठि) कोशं या ग्रंथियां होती है। ये ग्रंथियाँ निकले हुए पैरों के सिरे पर होती हैं और वही काम देती हैं जो मस्तिष्क देता है। चिपटे केचुओ और जोक आदि कीड़ो में मुँह के उपर केवल दो सूत्रगंथियो का खड़ा मस्तिष्क होता है। इन ग्रंथियो से दो सूत्रशाखाएं त्वक और पेशियो की ओर जाती हैं। शुक्तिवर्ग के कोमलकाय कृमियो मे नीचे की ओर भी ग्रंथियाँ होती हैं जो ऊपरवाली ग्रंथियो से एक छल्ले के द्वारा जुड़ी होती हैं। इस प्रकार का छल्ला खडकाय (जिनका शरीर गुरियो से बना हो, जैसे कनखजूरा, मकड़ा, केकड़ा आदि ) कीटो मे भी होता है पर वह पेट की ओर भेजे के दो सूत्रो के रूप मे दूर तक गया होता है। रीढ़वाले जंतुओ मे अंतःकरण की बनावट और ही प्रकार की होती है। उनमे पीठ की ओर भेजे की एक बत्ती प्रकट होती है जो अगले सिरे की ओर फैल कर घटस्वरूप मस्तिष्क का रूप धारण करती है।

उन्नत कोटि के सब जीवो के मस्तिष्क यद्यपि एक ही ढाँचे के नही होते पर भिन्न भिन्न जंतुओं के मस्तिष्को का मिलान करने से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति एक ही मूल से अथात चिपटे केचुओ और जोक आदि कीड़ों के ( कवल दो ग्रंथियो से निर्मित ) क्षुद्र मस्तिष्क से हुई है। मस्तिष्क या अंत.करण का स्फुरण गर्भकाल मे सब से ऊपरवाली झिल्ली मे होता है। सब जंतुओं के मस्तिष्क मे ग्रंथिघटक या मनोघटक होते हैं जिनके द्वारा चिंतन, बोध
आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते है। संवेदन सूत्रो के अतिरिक्त गति-सूत्र भी मस्तिष्क तक गए होते है जिनके द्वारा क्रिया की प्रेरणा होती है।

अंतःकरण का केद्र मस्तिष्क है। रीढ़वाले जंतुओ मे टसकी परिस्थिति, रचना और योजना एक विशेष प्रकार की होती है। प्रत्येक जंतु के मस्तिष्क से भेजे की एक नली रीढ़ मे होती हुई पीठ के बीचोबीच नीचे की ओर गई होती है। इस नली की एक एक गुरिया से दोनो ओर संवेदनसूत्र और गतिसूत्र शरीर के भिन्न भिन्न भागो मे जाते है। भेजे की इस नली की उत्पत्ति मेरूदंड जीवो के भ्रूण मे एक ही ढंग से होता है। पीठ की त्वचा के बीचोबीच पहले भेजे की एक लकीर या नाली सी दिखाई पड़ती है। पीछे इस लकीर के दोनो किनारे कुछ कुछ उठने लगते हैं और धीरे धीरे मिल जाते है जिससे यह लकीर भेजे की एक पोली नली के आकार की हो जाती है।

भेजे की यह नली मेरुदंड जीवो की सब से बड़ी विशेषता है। इसी से काल पा कर भिन्न भिन्न करण उत्पन्न होते है जिनसे अनेक प्रकार के मनोव्यापार (ज्ञान, अनुभव, प्रेरणा आदि) होते हैं। मनुष्य मे यह नली या मेरुरज्जु अत्यंत पूर्ण अवस्था को प्राप्त होती है। इसकी गुरियो के दोनो ओर बहुत से सूत्र शरीर के भिन्न भिन्न भागों मे जाते हैं जिनके द्वारा ज्ञानेद्रियो का अनुभव और कर्मेंद्रियो का संचालन होता है। करोड़ो वर्षों मे अनेक मध्यवर्ती जंतुओ की आत्माओ से उन्नति करते करते मनुष्य की समुन्नत आत्मा का प्रादुर्भाव हुआ है। सृष्टि के भिन्न भिन्न कल्पो मे जिन जिन अंत:करण
विशिष्ट जंतुवर्गों को एक दूसरे से क्रमशः विकाश हुआ है मेरुरज्जु की क्रमोन्नति के विचार से मनुष्य तक उनके आठ वर्ग होते हैं---(१) अकरोटीमत्स्य, (२) चक्रमुखमत्स्य *, (३) मत्स्य, (४) जलस्थलचारी जंतु, (५) अजरायुज जतु, (६) आदिम जरायुज जंतु, (७) किंपुरुषवर्ग, (८) नराकार वनमानुस और मनुष्य।

मेरुरज्जुवाले जीवो मे सब से प्रथम अकरोटी मत्स्य उत्पन्न हुए जिनके वर्ग का केवल एक जंतु कुलाट आजतक समुद्र के किनारे मिलता है। इसके मनोव्यापार का करण एक सीधी सादी भेजे की नली है जिसमे मस्तिष्क नही होता। इसी से आगे चलकर चक्रमुख मत्स्यो की उत्पत्ति हुई जिनके वर्ग के दो चार जंतु अब भी पाए जाते हैं। इनमे मेरुरज्जु का अगला छोर फैल कर एक घट के रूप मे हो जाता है जिसके पाँच विभाग हो जाते है----बड़ा मस्तिष्कघट, अतरवर्ती मस्तिष्कघट, मझला मस्तिष्कघट, छोटा मस्तिष्कघद और पिछला मस्तिष्कघट। इसी पंचघटात्मक मस्तिष्क से समस्त कपाल वाले जंतुओ के मस्तिष्क का विकाश हुआ है। साधारण मछलियो में ये पाँचो घट अधिक स्पष्ट होते है। मछलियो से फिर जलस्थलचारी जंतुओं की उत्पत्ति हुई जिनके वर्ग के मेढक


  • बाम की तरह की एक छोटी मछली जिसके मुख का विवर गोल होता है। इसके मुंह में नीचे ऊपर के जबड़े नहीं होते, महीन महीन दाँत चारो और होते हैं जिनके द्वारा यह चट्टानों या बड़ी मछ.. लियों के शरीर पर, चिमटी रहती है। आदि जंतु अब भी पाए जाते हैं। इनसे आगे चलकर जीवों के जो तीन वर्ग एक दूसरे के पीछे उत्पन्न हुए वे दूधा पिलानेवाले जंतुओं के हैं। दूध पिलानेवाले जीवों के मस्तिष्क में दूसरे रीढ़वाले जंतुओं के मस्तिष्क से कई बातों की विशेषता होती है। सबसे मुख्य विशेषता तो यह है कि उसमें प्रथम और चतुर्थ घट की बहुत अधिक वृद्धि होती है और तृतीय या मझला घट बिल्कुल नहीं होता। सबसे आदिम वर्ग के स्तन्य (अंडजस्तन्य, अजरायुज स्तन्य) जीवों का मस्तिष्क जलस्थलचारी जीवों के मस्तिष्क से मिलता जुलता होता है पर उनसे जो उन्नत कोटि के स्तन्य जीव उत्पन्न हुए उनके मस्तिष्क में प्रथमघट की बहुत अधिक वृद्धि हुई। मनुष्य के मस्तिष्क में यह घट सबसे बड़ा और दूर तक लोथड़े की तरह फैला है[]। इसी से संकल्प, विचार आदि उन्नत कोटि के व्यापार होते हैं। इस प्रकार का मस्तिष्क मनुष्य के अतिरिक्त केवल नराकार बनमानुसों ही का होता है।

अस्तु, यह बात पूर्णरूप से सिद्ध है कि मनुष्य की आत्मा निम्नकोटि के स्तन्य जीवों से क्रमशः उन्नति करते करते उत्पन्न हुई है।

 

  1. इसमें अखरोट के गूदे की तरह उभार होते हैं।