विश्व प्रपंच
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, पृष्ठ ११२ से – १२१ तक

 

आठवाँ प्रकरण।

आत्मा का गर्भविकाश।

मनुष्य की आत्मा को हम चाहे जिस रूप को समझे पर यह निश्चित है कि उसकी भी जीवनकाल मे क्रम क्रम से वृद्धि हेाती है। अतः मनोव्यापारो के निरूपण के लिए गर्भविधान


के तत्वाद्वैतवाद ही का अनुसरण किया है अत: उसने इस विषय मे उसी का सिद्धात मान्य ठहराया है।

भारतीय विचारपद्धति मे 'कर्मबधन' और 'आत्मस्वातत्र्य' की बडी गूढ व्याख्या की गई है। वेदातसूत्र के 'जविकतृत्वाधिकरण' मे जीव कर्ता अर्थात् कर्म करने मे स्वतत्र है या नहीं इसका विचार किया गया है। कर्मविपाक मे सचित, प्रारब्ध और किमाण ये तीन भेद कर्म के किए गए हैं जिससे सिद्ध होता है कि एक कर्म बीज रूप से दूसरे को उत्पन्न करता है। फिर 'आत्मस्वातत्र्य' या कर्मसकल्पवृत्ति का स्वातन्य कहाँ रहा ? वेदात जान द्वारा मोक्ष बतलाता है। पर ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी मनुष्य स्वतत्र नहीं। वेदाती इसका उत्तर कर्म के 'आरब्ध' और 'अनारब्ध' दो भेद कर के इस प्रकार देते है कि आरब्ध कर्म, जिनका भोग आरभ हो चुका है, वे तो भोगने ही पड़ेगे पर अनारब्ध कर्मों का ज्ञान से पूर्णतया नाश किया जा सकता है। 'कर्मबंधन' के साथ सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का स्वातत्र्य भी बराबर रहता है। यही आत्मस्वतत्र्य है।
की परीक्षा अत्यंत प्रयोजनीय है। हमे भ्रूण के मस्तिष्कविकाश और शिशु के मनोव्यापारो की ओर ध्यान देना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि से विचार न करनेवाले आत्मा की क्रमशः वृद्धि नही मानते। वे आत्मा को सदा एकरस मानते है। आत्मा के संबंध मे जो भिन्न भिन्न प्रकार के विचार प्रचलित हैं उनमे से कुछ ये है---

(१) आवागमन---इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा एक शरीर से निकल कर दूसरे शरीर मे, दूसरे से तीसरे मे इसी प्रकार बराबर गमन करती रहती है और नाना योनियो मे भ्रमण करती है। वह मनुष्ययोनि मे भी आ जाती है और फिर उसमे से निकल कर मनुष्य या और कोई योनि प्राप्त करती है।

(२) आनयन--अर्थात् आत्माओ का कही अक्षय्य भांडार है जहॉसे बराबर आत्माएँ शरीरो मे लाई जाती है और जहॉ फिर चली जाती है।

(३) ईश्वर द्वारा सृष्टि-ईश्वर आत्माओं की सृष्टि करता है और उन्हे संचित रखता है।

जीवनतत्त्व के अनुसंधान द्वारा अपर लिखी कल्पनाएँ असार प्रमाणित हो चुकी है। पहले कहा जा चुका है कि गर्भविधान मे पुंस्तत्त्व और स्त्रीतत्त्व दोनो सूक्ष्म घटक मात्र है। इन दोनो घटको में ऐसे शारीरिक गुण होते है जिन्हे हम घटकात्मा कह सकते है। इन दोनो बीजघटको मे गति और संवेदन शक्ति होती है। गर्भाड या अंडघटक जल मे रहने वाले अस्थिराकृति अणुजीवो के समान चलते फिरते है। अत्यंत सूक्ष्म शुक्रकीटाणु अपनी रोइयो के सहारे वीर्य मे उसी

प्रकार तैरते रहते हैं जिस प्रकार रोईवाले समुद्र के सूक्ष्म कीटाणु।

स्त्री पुरुष का संयोग होने पर जब दोनों बीजघटक परस्पर मिलते है (अथवा उनका संयोग बाहर ही बाहर होता है जैसा कि कुछ जलजंतुओ में ) तब दोनो एक दूसरे की ओर आकर्षित होकर जुट जाते है। इस आकर्षण का प्रधान कारण कललरस की रासायनिक और संवेदनात्मक क्रिया है जो घ्राण या रसन से मिलती जुलती होती है और 'अनुरागमूलक रासायनिक प्रवृत्ति' कहलाती है। इसे हम घटको का प्रेमव्यापार भी कह सकते है। पुरुष के वीर्य में रहनेवाले बहुत से रोईदार घटक ( शुक्रकीटाणु ) स्त्री के अंडघटक की ओर रेग पड़ते है और उसमे घुसना चाहते है। पर इनमे से घुसने पाता है कोई एक ही। ज्यो ही कोई शुक्रकीटाणु गर्भाड मे सिर के बल घुसा कि गर्भाड के ऊपर की झिल्ली छूट कर एक आवरण के रूप मे हो जाती है जिससे और कोई शुक्रकीटाणु भीतर नही घुस सकता। एक वैज्ञानिक ने बर्फ या मरफिया के प्रयोग से गर्भाड का ऊपरी तल कठोर कर दिया जिससे यह झिल्ली नही छूटने पाई। फल इसका यह हुआ कि गर्भाड अतिगर्भित हो गया अर्थात् उसमे कई शुक्रकीटाणु घुस पड़े। इन बातो से पाया जाता है कि बीजघटको में भी एक प्रकार की आंतरिक प्रवृत्ति या संवेदना होती है। गर्भाड और शुक्रकीटाणु जब परस्पर मिल कर एक हो जाते हैं तव अंकुरघटक की उत्पत्ति होती है जिसके उत्तरोत्तर विभाग द्वारा अनेकघटक भ्रूण का स्फुरण होता है। गर्भविधान की ओर ध्यान देने से हमें मनोविज्ञानसंबंधी कई महत्त्व की बातों का आभास मिलता है। इस प्रकार के अनुसंधान द्वारा चे पाँच सिद्धांत निकलते हैं---

(१) जीवन के आरंभ मे प्रत्येक मनुष्य या उन्नत जंतु एक अत्यंत सूक्ष्म घटक के रूप में होता है।

(२) सब उन्नत जीवो में अंकुरघटक की उत्पत्ति समान विधान से अर्थात् दो बीजघटकों के परस्पर एक हो जाने से होती है।

(३) दोनों बीजघटकों में से प्रत्येक को एक घटकात्मा होती है--अर्थान् दोनो में एक विशेष रूप की संवेदना और गति होती है।

(४) गर्भाधान के समय दोनो घटकों के कललरस और बीज ही मिल कर एक नहीं हो जाते बल्कि उनकी घटकात्माएँ भी परस्पर मिल जाती हैं अर्थात् दोनों में जो निहित या अव्यक गतिशक्तियाँ ( और द्रव्यों के समान ) होती हैं वे भी एक नवीन शक्ति की योजना के लिए मिल कर एक हो जाती हैं। अंकुरघट की यह नव-योजित शक्ति ही 'बीजात्मा'हैं।

(५) अतः प्रत्येक मनुष्य के शारीरिक और मानसिक गुण माता-पिता से ही प्राप्त होते हैं। वंशक्रमानुसार माता के गुणों का कुछ अंश गर्भाड द्वारा और पिता के गुणों का कुछ अंश शुक्रकीटाणु द्वारा प्राप्त होता है। इन सिद्धांतों के द्वारा यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन का आदि होती है। दोनों बीजघटकों का जिस घड़ी संयोग होता है वही घड़ी अंकुरघटक के शरीर और आत्मा दोनों की उत्पत्ति की है। अत: लोगों का यह कहना कि आत्मा अनादि और अमर है प्रलाप मात्र है। इसी प्रकार यह भावना भी असंगत हैं कि गर्भ के भीतर ईश्वर शरीर को गढ़ता है। जीवन की उत्पत्ति माता पिता के संयोग से होती है। इस संयोग के लिए यह आवश्यक है कि शुक्रकीटाणु का गर्भाशय में प्रवेश हो, दर्शन या आलिगन मात्र से गर्भाधान नही हो सकता। स्थलचारी जीवों में गर्भाधान की यही रीति है कि गर्भाशय में गर्भोत्पादक तत्व पहुँचाया जाय। कुछ क्षुद्र जलचर जंतुओ मे दूसरे प्रकार की व्यवस्था है। उनमें नर मादा अपना अपना वीर्य और रजोबिंदु जल में डाल देते हैं जिनका संयोग बाहर ही बाहर किसी अवसर पर हो जाता है। ऐसे जंतुओं में वास्तविक मैथुन नहीं होता, अत: उनमें प्रेम का वह मानसिक उदार नहीं देखा जाता जो उन्नत जीवों में इतना अधिक पाया जाता है। क्षुद्र अमैथुनीय जंतुओं में स्त्री-पुरुष-भेदसूचक कुछ ऐसे चिह्न भी नहीं होते जैसे बारहसिंगों के सींग, पुरुषों की दाढ़ी, नरमोर का सुंदर चित्रित पुच्छवितान।

ऊपर बताया जा चुका है कि शिशु माता और पिता दोनों के मानसिक गुण ग्रहण करता है। दोनों के स्वभाव, लक्षण, संकल्प की दृढ़ता, प्रतिभा आदि गुण उसमें वंशपरंपरा के प्राकृतिक नियमानुसार आते हैं। माता-पिता के ही नहीं
पितामह आदि के कुछ गुण भी उसमे बराबर पाए जाते हैं। सारांश यह कि शारीरिक विशेषताओ के समान मानसिक विशेषताएँ भी वंशानुक्रम द्वारा एक से दूसरे मे जाती है। अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वंशपरंपरा का प्राकृतिक नियम भी एक शरीरधर्म है जिसका निर्धारण भौतिक और रासायनिक क्रियाओं के अनुसार--कललरस की योजना के अनुसार--होता है।

शरीर-विज्ञान संबंधी यह बात मनोविज्ञान के क्षेत्र मे बहुत ध्यान देने की है कि मनस्तत्व एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे बराबर चला चलता है। जिस क्षण गर्भाधान होता है उसी क्षण एक नए जीव का प्रादुर्भाव होता है। पर इस नए जीव मे कोई स्वतंत्र शारीरिक और मानसिक सत्ता नही होती, यह शुक्रघटक और रजोघटक रूप दो उपादानो की योजना का परिणाम मात्र है। जिस प्रकार मनोव्यापार-रूपिणी निहित शक्ति के भौतिक आधार उक्त दोनो घटको की गुठलियो के मेल से एक नई गुठली पैदा हो जाती है उसी प्रकार दोनो घटकात्माओ के योग से निहित शक्तियो की समष्टिरूप एक नई घटकात्मा बन जाती है। अब यहाँ पर प्रश्न यह होता है कि एक ही मातापिता से उत्पन्न दो शिशुओ के स्वभाव आदि मे भेद क्यो दिखाई पड़ता है? इसके कई कारण है। पहली बात तो यह है कि यह भेद कुछ न कुछ दोनो बीजघटको में ही-उनके कललरस की योजना मे ही---रहता है। माता-पिता अपने जीवन मे स्थिति के परिवर्तन के अनुरूप जो नई नई विशेषताएँ प्राप्त करते जाते हैं उनको प्रभाव बीजघटको के
अण्वात्मक कललरस के विधान पर भी उलट कर पड़ता है और उनके द्वारा संयोयित संतति मे देखा जाता है।

इस विभेद के संबंध मे एक बात और है। यद्यपि गर्भाधान के समय दो आत्माओ का जो संमिश्रण होता है उसमें दोनो घटको के अनुरागात्मक संयोग द्वारा केवल जनक-जननी की आत्माओ की निहित शक्तियो की ही संप्राप्ति अधिकतर शिशु को होती है पर ऐसा भी होता है कि और ऊपर की पीढ़ियो के पूर्वजो के मानसिक संस्कार भी साथ ही उसे प्राप्त हो जाते है। कुलपरंपरासंबंधी प्राकृतिक नियम आत्मा पर भी ठीक वैसे ही घटते हैं जैसे अंगविधान पर। छत्रक आदि समुद्र के उद्भिदाकार कृमियो मे एक एक पीढ़ी का अंतर दे कर पूर्वजो की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। एक कृमि से जो दूसरा कृमि उत्पन्न होगा उसमे पहले का लक्षण न होगा, उस दूसरे से जो तीसरा उत्पन्न होगा उसमे पहले के लक्षण मिलेगे, फिर उस तीसरे के लक्षण पाँचवी पीढ़ी मे मिलेगे, पाँचवी के सातवी मे, इसी प्रकार यह क्रम बराबर चुला चलेगा। इसी नियम के अनुसार दूसरी पीढ़ी के लक्षण चौथी मे, चौथी के छठी मे, छठी के आठवी मे मिलेगे। मनुष्य आदि उन्नत जीवो मे यद्यपि इस प्रकार के अंतर का नियम नहीं है पर उनमे भी कभी कभी एक पीढ़ी का अंतर दे कर लक्षण प्रकट होते है, जिसका कारण वंशपरंपरा का निहित नियम है। बड़े बड़े लोगो मे प्रायः ऐसा देखा जाता है कि उनके गुण और स्वभाव उनके पितामहों से मिलते है। आत्मविकाश की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं---एक गर्भावस्था, दूसरी जीवनावस्था।

गर्भ में आत्मोपत्ति—मनुष्य का गर्भ साधारणत: नौ महीनों में पूरा होता है। इस बीच में बाहरी संसार से वह बिलकुल अलग रहता है और उसकी रक्षा के लिये केवल गर्भकोश ही नही रहता, आवरण की तरह लिपटी हुई झिल्लियाँ भी होती हैं। ये झिल्लियाँ सब सरीसृपो, पक्षियो और स्तन्यजीवो मे होती हैं। इन समस्त जीवों के भ्रूण झिल्लियो के जलपूर्ण कोश में रहते हैं। आघात से रक्षा का यह आयोजन आदिम सरीसृपो ने अत्यंत प्राचीन कल्प में प्राप्त किया था जब कि वे जल मे न रह कर जमीन पर घूमने और साँस लेने लगे थे। उनके पूर्वज जलस्थलचारी जंतु (मेढक आदि) अपने पूर्वज मत्स्यों के समान जल ही में रहते और साँस लेते थे।

उन रीढ़वाले जंतुओ के भ्रूण में जो जल मे रहते थे आदिम जीवो के बहुत अधिक लक्षण बहुत अधिक काल तक रहते थे जैसा कि आज कल की मछलियो और मेढकों में देखा जाता है। यह बात प्रायः सब लोग जानते है कि अंडे से निकलने के बाद मेढको के भ्रूण लंबी पूँछवाले कीड़ो के रूप मे होते हैं और केवल जल ही में तैरा करते है। इन बच्चो को साधारण भाषा मे छुछमछली कहते है। इनमें इनके पूर्वज मत्स्यो का ढाँचा बहुत काल तक बना रहता है। इनकी रहन सहन और संवेदना भी उन्हींकी सी होती है। ये गलफड़ों के द्वारा सॉस लेते हैं। फिर जब कुछ दिनो के उपरांत इनका विलक्षण
रूपांतर या कायाकल्प होता है और इनका अंगविधान स्थल- चारी जीवन के अनुकूल संघटित होता है तब इनका मत्स्याकार शरीर कूदनेवाले चतुष्पद मेढक के रूप मे परिवर्तित हो जाता है। फिर तो गलफड़ो द्वारा पानी में सॉस लेने के बेदले ये फेफड़ो के द्वारा स्थल पर सॉस लेने लगते है, इनकी इंद्रियों और अंतःकरण अर्थात् सारा विज्ञानमय कोश अधिक उन्नत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि हम छुछमछली के आत्मस्फुरणक्रम को आदि से अंत तक ध्यानपूर्वक देखे तो पता लगे कि जीवनोत्पत्ति के सामान्य नियम किस प्रकार आत्मविकाश के क्रम पर भी ठीक ठीक घटते हैं। बात यह है कि छुछमछली की वृद्धि का वाह्य संसार की उस बदलने वाली परिस्थिति से सीधा लगाव होता है जिसके अनुकूल उसकी संवेदना और गति मे परिवर्तन उपस्थित होता है। तैरनेवाली छुछमछली का ढॉचा ही नही रहनसहन भी मछली ही की सी होती है, मेढक के लक्षण उसमे परिवर्तन के उपरांत आते है।

मनुष्य के भ्रण मे ऐसा नही होता। झिल्लियो के कोश में बंद रहने के कारण वह वाह्य संसार के प्रभावो से अलग रहता है और वाह्य परिस्थति के अनुरूप प्रातक्रिया उसमे स्वच्छंद रूप से नही होने पाती। जलपूर्ण कोश के भीतर रक्षापूर्वक बंद रहने के कारण मनुष्य आदि के भ्रूण मे आदिम जीवों के लक्षणो का उत्तरोत्तर विकाश पूर्णरूप से नहीं होने पाता। अत्यंत संक्षिप्त उद्धरणी के द्वारा ही उसे नए जीव का स्वरूप प्राप्त होने का सुगम साधन प्राप्त हो जाता है। पहली बात तो यह है कि ऐसे भ्रूण के पोषण का पूरा प्रबंध रहता है। यह पोषण अंडजों में तो उस उरदी के द्वारा होता है जो अंडों के भीतर रहती है। जरायुजों में जरायु के द्वारा माता के रक्त का जो संचार भ्रूण में होता है उसके द्वारा उसका पोषण पूर्ण रूप से होता है। अतः इनका भ्रूण धरती पर गिरने से पहले ही पूर्ण वृद्धि को प्राप्त रहता है। पर गर्भावस्था में भ्रूण की आत्मा सुषुप्तावस्था में रहती है। इसी प्रकार की सुषुप्ति इस कीड़ों के कायाकल्प-काल में रहती है जिनका रूपांतर होता है। तितलियाँ, मक्खियाँ, गुबरैले रेशम के कीड़े इत्यादि जब ढोले में फतिंगे के रूप में आने लगते हैं तब इसी प्रकार की सुषुप्त दशा में रहते हैं। इस सुषुप्तिकाल के बीच उनके तंतुओं और विविध अंगों का निर्माण होता है। ध्यान देने की बात यह है कि इस कायाकल्प-काल के पूर्व जब वे ढोले के रूप में रहते हैं तब उनमें इन्द्रियों और अंतःकरण के व्यापार अच्छी तरह दिखाई पड़ते हैं। फिर इस सुषुप्तावस्था के हट जाने पर जब इन कीड़ों का पूरा कायापलट हो जाता है और ये पूर्ण यौवनप्राप्त फतिंगों के रूप में उड़ने लगते हैं तब ये मनोव्यापार और भी उत्तम रूप में देखे जाते हैं।

मनुष्य के मनोव्यापार की भी जीवनकाल में कई अवस्थाएँ होती हैं। जिस प्रकार उसका शरीर शैशव, कुमार, पोंगंड, यौवन और जरा नामक चढ़ानी उतरानी की अवस्थाओं को क्रमशः प्राप्त होता है उसी प्रकार उसकी आत्मा या मनोव्यापार भी।