"पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/१४": अवतरणों में अंतर
रोहित साव27 (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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⚫ | बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू |
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⚫ | बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू खां—मैं हाथ पैर बंधा कर तुम्हारे समीप दया की आशा कर के नहीं आया हूं जिस का जीवन तुम्हारी दया के आधीन है उसका जीनाही क्या? यदि तुम केवल मेराही प्राण ले कर सन्तुष्ट होते तब भी मैं तुमको आशीर्वाद देता परन्तु तुमने तो हमारे कुल का नाश कर डाला और प्राण से भी अधिक तुमने हमारे बीरेन्द्रसिंह के मुंह से और बात नहीं निकली कंठ रूंध गया आंखों से पानी बहने लगा। भय हीन दाम्भिक बीरेन्द्रसिंह सिर नीचे करके रोने लगे। |
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कतलू खां तो सहज निठुर था। वरन उसको परायः दुख देख कर उल्लास होता था बीरेन्द्रसिंह को इस अवस्था में देखकर उसको हंसी आयी और बोला 'बीरेन्द्रसिंह! कुछ मांगना हो तो मांग लो अब तुम्हारी घड़ी आगयी। रोते २ बीरेन्द्रसिंह की छाती कुछ ठंढी हुई और बोले 'मुझको और कुछ न चाहिये अब शीघ्र मेरे बध की आज्ञा दीजिये।' |
कतलू खां तो सहज निठुर था। वरन उसको परायः दुख देख कर उल्लास होता था बीरेन्द्रसिंह को इस अवस्था में देखकर उसको हंसी आयी और बोला 'बीरेन्द्रसिंह! कुछ मांगना हो तो मांग लो अब तुम्हारी घड़ी आगयी। रोते २ बीरेन्द्रसिंह की छाती कुछ ठंढी हुई और बोले 'मुझको और कुछ न चाहिये अब शीघ्र मेरे बध की आज्ञा दीजिये।' |
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क· — 'यह तो {{SIC|होगाही|होहीगा}} और कुछ?' |
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'अब इस जन्म और कुछ न चाहिये।' |
'अब इस जन्म और कुछ न चाहिये।' |
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पंक्ति १३: | पंक्ति १४: | ||
इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव लगा। 'यदि हमारी कन्या तुम्हारे घर में जीती है तो उसको न देखूंगा और यदि मरगयी हो तो लाओ उसको गोद में लेकर मरूं।' दर्शकगण चुपचाप दांत तले उंगली दबाये इस कौतुक को देख रहे थे। |
इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव लगा। 'यदि हमारी कन्या तुम्हारे घर में जीती है तो उसको न देखूंगा और यदि मरगयी हो तो लाओ उसको गोद में लेकर मरूं।' दर्शकगण चुपचाप दांत तले उंगली दबाये इस कौतुक को देख रहे थे। |
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नवाब की आज्ञा पाय 'रक्षक बीरेन्द्रसिंह को बध भूमि |
नवाब की आज्ञा पाय 'रक्षक बीरेन्द्रसिंह को बध भूमि |