विदेशी विद्वान्/१०―बुकर टी॰ वाशिंगटन
१०—बुकर टी॰ वाशिंगटन
मराठी-साहित्य में, हाल ही में, एक बहुमोल ग्रन्थ प्रका-
शित हुआ है। बम्बई के "मासिक मनोरञ्जन" के नाम से
हिन्दी जाननेवाले अपरिचित नहीं हैं। इस पत्र के उत्साही
सम्पादक, श्रीयुत काशीनाथ रघुनाथ मित्र, ने अपनी-"मनो
रञ्जक ग्रन्थ-प्रसारक मण्डला" के कार्यालय से लगभग पौन
सौ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। जिस पुस्तक का और उसके
आधारभूत जिस विषय का-अर्थात् बुकर टी० वाशिंगटन के
चरित्र का-परिचय इस लेख में देने का सङ्कल्प किया गया
है उसका नाम है "आत्मोद्धार" । यदि उक्त मण्डली द्वारा इस
ग्रन्थ के अतिरिक्त और कोई भी पुस्तक प्रकाशित न होती, तो
भी देश-हित की दृष्टि से उसका उद्देश सफल हो जाता।
सचमुच "आत्माद्धार" ऐसा ही प्रभावशाली ग्रन्थ है। जो
लोग उसको अपनावेगे और उसमें लिखी हुई बातों पर कुछ
ध्यान देगे वे निस्सन्देह अपना उद्धार करने में समर्थ हो
जायेंगे। इस ग्रन्थ के लेखक श्रीयुत नागेश वासुदेव गुणाजी,
बी० ए०, एल-एल० बी० का नाम मराठी साहित्य-सेवकों मे
बहुत प्रसिद्ध है। जब आपने बुकर टी० वाशिंगटन और उनके
परोपकारी कार्यों का कुछ वर्णन समाचार-पत्रों में पढ़ा तय
आपकी यह इच्छा हुई कि अमेरिका जाकर उस महात्मा
का दर्शन-लाभ करे और उसकी संस्थाओ मे कुछ दिन रहकर
अध्ययन करे। परन्तु द्रव्य के अभाव से आपकी यह सदिच्छा
सफल न हुई। तब आपने यह निश्चय किया कि यदि शरीर
द्वारा वहाँ नहीं जा सकते तो न सही, अन्तःकरण ही से
बहुत सा काम किया जा सकता है। इसके बाद आपने पत्र-
व्यवहार करके बुकर टी॰ वाशिंगटन के परोपकारी कार्यों के
विषय में जानने योग्य सब सामग्री एकत्र की। वाशिंगटन के
जीवनचरित की कुछ बाते “आउट लुक” नामक मासिक-पत्र मे
प्रकाशित हुई थी। उन्हे पढ़कर उनके अनेक मित्र उनसे अपना
आत्मचरित लिखाने का आग्रह करने लगे थे। उनकी पोर्शिया
नामक लड़की ने भी कई बार इस विषय मे उनसे आग्रह
किया। तब उन्होने “Up from Slavery” नामक पुस्तक
द्वारा अपना आत्मचरित प्रकाशित किया। “आत्मोद्धार”
इसी पुस्तक का मराठी-रूपान्तर है। इस मराठी पुस्तक मे,
ग्रन्थकार के एक मित्र की लिखी हुई २४ पृष्ठों की एक भूमिका
है। उसमे “आत्मोद्धार” के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की
मार्मिक चर्चा की गई है। मराठी-ग्रन्थकार श्रीयुत गुणाजी
का साहित्य-प्रेम तो प्रशंसनीय है ही, परन्तु इस ग्रन्थ की
सामग्री एकत्र करने में आपने अपने दृढ़ निश्चय, धैर्य, यत्न
आदि गुणों का भी परिचय दे दिया है। आपने मराठी-भाषा
की सेवा करने में जो उत्साह प्रकट किया है वह हम लोगों के
लिए अनुकरणीय है। यह ग्रन्थ पढ़ने से यह बात अच्छी
तरह मालूम हो जाती है कि जब मनुष्य अपने उद्धार के लिए
स्वयं यत्न करने लगता है तब परमेश्वर भी उसकी सहायता
करता है। आत्मोद्धार के लिए दृढ़ विश्वास और स्वावलम्बन
ही की आवश्यकता है। बुकर टी० वाशिंगटन का जीवनचरित
इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि दृढ़ निश्चय और प्रयत्न से
हबशी (नीग्रो) जाति का एक दास कितने ऊँचे पद पर पहुँच
सकता है और परोपकार के कितने बड़े बड़े काम कर सकता
है। आत्मावलम्बन की तात्त्विक शिक्षा देनेवाली सैकड़ों
पुस्तकों से जो लाभ न होगा वह ‘आत्मोद्धार’ की अद्भुत
मूर्ति, बुकर टी॰ वाशिगटन, के आत्मचरित से हो सकता है।
इस ग्रन्थ के विषय मे अधिक लिखने को आवश्यकता नहीं। हाँ, इस बात की सूचना कर देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि यदि इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी मे किया जाय तो उससे देश का बहुत हित हो। अब बुकर टी० वाशिगटन का जीवन- चरित सुनिए।
अफ्ऱिका के मूल निवासियों की नीग्रो (हवशी) नामक एक जाति है। सत्रहवीं सदी में इस जाति के लोगों को ग़ुलाम बनाकर अमेरिका मे बेचने का क्रम आरम्भ हुआ। यह क्रम लगभग दो सदियों तक जारी रहा। इतने समय तक दासत्व में रहने के कारण उन लोगों को कितनी अवनति हुई, उन्हें कितना भयङ्कर कष्ट उठाना पड़ा और उनकी स्थिति कितनी निकृष्ट हो गई, ये सब बाते इतिहास-ग्रन्थों से जानी जा सकती हैं। कुमारी एच० बी० स्टो ने अपने एक ग्रन्थ मे लिखा है-इन गुलामों को दिन भर धूप में काम करना पड़ता था। यदि काम मे कुछ सुस्ती या भूल हो जाय तो ओवर- सीयर उन्हें कोड़ों से मारता था। यहाँ तक कि उनके शरीर से लोहू बहने लगता था। रात को उन्हे पेट भर खाने को भी न मिलता था। एक छोटी सी झोपड़ी मे जानवरों की तरह वे रात भर बन्द कर दिये जाते थे। केवल धन के लोभ से पति और पत्नी,भाई और बहन,माता और पुत्र में वियोग कर दिया जाता था। यदि कोई गुलाम अत्यन्त दुःखित होकर भाग जाते तो उनके पीछे शिकारी कुत्तों के झुण्ड दौड़ा दिये जाते थे। इतना अन्याय होने पर भी, आश्चर्य यह है कि पादरी लोग दासत्व के इस घृणित रिवाज का समर्थन, बाइबिल के आधार पर, किया करते थे ! यद्यपि सन् १७८३ ईसवी मे अमेरिका मे स्वाधीनता प्रस्था- पित हो गई थी और यह तत्व मान्य हो गया था कि “ईश्वर की दृष्टि से सब मनुष्य-काले और गोरे-समान और स्वतन्त्र हैं" तथापि अमेरिकन लोगों ने लगभग १०० वर्ष तक नीग्रो जाति के काले मनुष्यों की स्वाधीनता कबूल न की! वे लोग नीग्रो जाति को 'मनुष्य के बदले अपना 'माल' (Property) समझते थे ! परन्तु कुछ विचारवान और सहृदय महात्माओं के आन्दो. लन करने पर यह मत धीरे-धीरे बदलने लगा। उत्तर-अमेरिका की रियासतों ने अपने गुलामों को छोड़ दिया। परन्तु दक्षिण स्कूल में पढ़ने गया। उस समय उसकी अवस्था तेरह-चौदह वर्ष की थी। उसको यह भी मालूम न था कि हैम्पटन कितनी दूर है। वहाँ तक जाने के लिए उसके पास पैसा भी न था। घर से निकलने पर उसे मालूम हुआ कि हैम्पटन ५०० मील दूर है। मार्ग मे उसे बहुत कष्ट सहना पड़ा। जब वह किसी बड़े शहर में पहुँचता तब मजदूरी करके कुछ कमा लेता और आगे बढ़ता। दो-दो दिनों तक उसको भूखा रह जाना पड़ा। रात को सड़क पर पटरी के किनारे वह सो रहता था। इस प्रकार अनेक दुःख और क्लेश भोगने पर वह हैम्पटन पहुँचा। वहाँ मुख्य अध्यापिका ने सबसे पहले उसे एक कमरे का कूड़ा झाड़ डालने को कहा और इस बात की परीक्षा ली कि वह शारीरिक मिहनत से घृणा तो नहीं करता। वह इस प्रवेश- परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ और वहीं विद्याभ्यास करने लगा।
हैम्पटन स्कूल के अध्यक्ष (प्रिंसपल ) जनरल आर्मस्ट्राँग बड़े परोपकारी पुरुष थे। उनके प्रयत्न से यह स्कूल अमेरिका में बहुत प्रसिद्ध हो गया है। इन्हीं के पारा रहने के कारण चार वर्ष मे बुकर टी. वाशिंगटन ग्रेजुएट हो गया। इस स्कूल में वाशिगटन ने जिन बातों की शिक्षा पाई उनका सारांश यह है-
१-"पुस्तकों के द्वारा प्राप्त होनेवाली शिक्षा से वह शिक्षा अधिक उपयोगी और मूल्यवान है जो सत्-पुरुषों के समागम से मिलती है।" २-"शिक्षा का अन्तिम हेतु परोपकार ही है। मनुष्य की उन्नति केवल मानसिक शिक्षा से नहीं होती। शारीरिक श्रम की भी बहुत आवश्यकता है। श्रम से न डरने ही से आत्म- विश्वास और स्वाधीनता प्राप्त होती है। जो लोग दूसरों की उन्नति के लिए यत्न करते हैं-जो लोग दूसरों को सुखी करने में अपना समय व्यतीत करते हैं-वही सुखी और भाग्यवान हैं।"
३--"शिक्षा की सफलता के लिए ज्ञानेन्द्रिय, अन्तःकरण और कर्मेन्द्रिय ( Head, Heart and Hand ) की एकता होनी चाहिए। जिस शिक्षा मे श्रम के विषय मे घृणा उत्पन्न होती है उससे कोई लाभ नहीं होता।"
वाशिगटन स्कूल में पढ़ने और बोर्डिंग में रहने का खर्च न दे सकता था। इसलिए वह स्कूल मे द्वारपाल की नौकरी करके और छुट्टी के दिनों में शहर मे मज़दूरी या नौकरी करके द्रव्यार्जन करता था। इस प्रकार स्वयं श्रम करके अपने आत्मविश्वास के बल पर उसने हैम्पटन-स्कूल का विद्याभ्यास- क्रम पूरा किया। उसका नाम पदवी-दान के समय माननीय विद्यार्थियों (Honour-roll) मे दर्ज किया गया।
शिक्षक का काम
ग्रेजुएट होने के बाद वाशिंगटन अपने निवास स्थान, माल्डन, को सन् १८७६ मे लौट आया और वहाँ एक नीग्रो- स्कूल मे शिक्षक का काम करने लगा। स्कूल मे विद्यार्थियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उसको रात की पाठशाला खोलनी पड़ी। वहाँ से उसने कई विद्यार्थियों को हैम्पटन की शाला में भेजने का प्रबन्ध किया। उस समय शिक्षा के विषय में अनेक भ्रम- मूलक कल्पनायें प्रचलित थी। लोग समझते थे कि भाषा, साहित्य, गणित, भूगोल, आदि की कुछ बातें जान लेना ही शिक्षा है। माल्डन मे दो वर्ष तक शिक्षक का काम करने के बाद, शिक्षा के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए, वाशिंगटन कोलंबिया प्रान्त के वाशिंगटन शहर मे आठ महीने रहा । वहाँ उसको नीग्रो लोगों की सामाजिक दशा के सम्बन्ध में बहुत सी बातें मालूम हुई। बहुतेरे लोग नाममात्र की शिक्षा प्राप्त करके अपने को सुखी और श्रीमान सूचित करने के लिए यत्न कर रहे थे। इसलिए उन्हें अपनी आमदनी की अपेक्षा व्यय अधिक करना पड़ता था। फल यह होता था कि वे ऋणी हो जाया करते थे। शहरों में रहनेवाले लिखे-पढ़े लोग ( स्त्रियाँ और पुरुष दोनों) शारीरिक श्रम करना नीच काम समझते थे। प्रायः अधिकांश लोग कृत्रिम सुख से मोहित होकर राजनैतिक हलचलों मे शामिल होना ही अपना कर्तव्य समझते थे। सारांश यह कि उन लोगों ने अपने जीवन की अनेक आवश्यक- तायें कृत्रिम रीति से वटा ली थी, परन्तु उनमें अपनी सब आवश्यकताओं की पूर्ति करने की योग्यता न थी। नगर- निवासियों का मोहक जीवन-क्रम देखकर वाशिंगटन के भी मन मे एक राजनैतिक हलचल में शामिल हो जाने की इच्छा उत्पन्न हुई। परन्तु वह अपने जीवन के पवित्र उद्देश को भूल नहीं गया था । कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय और अन्तःकरण (Hand, Head and Heart) की शिक्षा से अपनी जाति की उन्नति करना ही उसका प्रधान उद्देश था। अतएव उसने इसी उद्देश की सफलता के लिए यत्न करते रहने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इसके बाद, जिस हैम्पटन स्कूल मे उसने विद्या- भ्यास किया था वहीं उसने दो वर्ष तक शिक्षक का काम किया और सुप्रसिद्ध शिक्षक हो गया।
जाति-सेवा का आरम्भ
सन् १८८१ ईसवी में, अर्थात् तेईस-चौबीस वर्ष की उम्र मे, बुकर टी० वाशिंगटन हैम्पटन मे शिक्षक का काम कर रहा था। इसी समय उसे स्वतन्त्र रीति से जाति-सेवा और परोपकार करने का-प्राप्त की हुई शिक्षा को सफल करने का-अपने जीवन को सार्थक करने का-मौका मिला। दक्षिणी अमेरिका की आलबामा रियासत के टस्केजी नामक छोटे से गाँव के कुछ निवासियों ने जनरल आर्मस्ट्रॉग को एक चिट्ठी भेजी और यह लिखा कि हम लोग अपने गाँव मे काले आदमियों की शिक्षा के लिए एक माडल स्कूल (आदर्श पाठ- शाला) खोलना चाहते हैं। आपके पास कोई अच्छा शिक्षक हो तो भेज दीजिए। जनरल आर्मस्ट्रॉग ने मिस्टर वाशिगटन को वहाँ भेज दिया। इस विषय मे वाशिंगटन ने लिखा है कि-"टस्केजी जाने के पहले मैं यह सोचता था कि वहाँ इमारत और शिक्षा का सब सामान तैयार होगा; परन्तु वहाँ जाने पर जब मैंने यह देखा कि न इमारत है और न कोई सामान है तब मैं थोड़ी देर के लिए निराश हो गया। हाँ इसमे सन्देह नहीं कि सैकड़ों इमारतों और सामान से अधिक मूल्यवान् अनेक मनुष्य शिक्षा के लिए आतुर और उत्सुक मुझे देख पड़े !" महीने दो महीने तक वाशिगटन ने उस प्रदेश के निवासियों की सामाजिक और आर्थिक दशा की अच्छी तरह नॉच की और जुलाई की चौथी तारीख़ को गिरजाघर के पास ही एक टूटी सी झोपड़ी में पाठशाला खोल दी। इस पाठशाला में वाशिंगटन ही अकेले शिक्षक थे । लड़के और लड़कियाँ मिलकर सब ३० विद्यार्थी छात्र थे। वे सब व्याकरण के नियम और गणित के सिद्धान्त मुखाग्र जानते थे; परन्तु उनका उपयोग करना न जानते थे। वे शारीरिक श्रम न करना चाहते थे। वे यह समझते थे कि मिहनत करना नीच काम है। ऐसी अवस्था मे, पहले पहल वाशिंगटन को अपने नूतन तत्त्वों के अनुसार शिक्षा देने में बहुत कठिनाइयाँ हुई। उन्होंने आलवामा रियासत की सामा- जिक और आर्थिक दशा का विचार करके यह निश्चय किया कि इस प्रान्त के निवासियों को कृषि-सम्बन्धिनी शिक्षा दी जानी चाहिए और एक या दो ऐसे भी व्यवसायों की शिक्षा देनी चाहिए जिनके द्वारा लोग अपना उदरनिर्वाह अच्छी तरह कर सके। उन्होने ऐसी शिक्षा देने का निश्चय कर लिया जिससे विद्यार्थियों के हृदय मे शारीरिक श्रम, व्यव साय, मितव्यय और सुव्यवस्था के विषय में प्रेम उत्पन्न हो जाय; उनकी बुद्धि, नीति और धर्म मे सुधार हो जाय; और जब वे पाठशाला से निकले तब अपने देश में स्वतन्त्र रीति से उद्यम करके सुख-प्राप्ति कर सके तथा उत्तम नागरिक (Citizen) बन सके। इन तत्त्वो के अनुसार शिक्षा देने के लिए वाशिंगटन के पास एक भी साधन की अनुकूलता न थी। ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा तक उनके पास न था। इतने में उन्हे मालूम हुआ कि टस्केजी गाँव के पास एक खेत बिकाऊ है। इस पर हैम्पटन के कोषाध्यक्ष से ७५० रुपया क़र्ज़ लेकर उन्होंने वह ज़मीन मोल ले ली। उस खेत मे दो-तीन झोप- ड़ियाँ थीं। उन्हों मे वे अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे। पहले पहल विद्यार्थी किसी प्रकार का शारीरिक काम न करना चाहते थे; परन्तु जब उन लोगों ने अपने हितचिन्तक शिक्षक, मिस्टर वाशिंगटन, को हाथ मे कुदाली-फावड़ा लेकर काम करते देखा तब वे भी बड़े उत्साह से काम करने लगे।
धन की आवश्यकता
जमीन मोल लेने के बाद इमारत बनाने के लिए धन की आवश्यकता हुई। धन के बिना कोई भी उपयोगी काम नहीं हो सकता। तब कुमारी डेविडसन (टस्केजी पाठशाला की एक अध्यापिका ) और मिस्टर वाशिंगटन ने गॉव-गॉव भ्रमण करके द्रव्य इकट्ठा किया। यद्यपि इस काम में वाशिंगटन को अनेक निद्रा-रहित रात्रियाँ व्यतीत करनी पड़ी, तथापि अन्त में परमेश्वर की कृपा से उनके सब यत्न सफल हुए। धन इकट्ठा करने के विषय मे मिस्टर वाशिगटन के नीचे लिखे अनुभव- सिद्ध, नियम बड़े काम के हैं―
(१) तुम अपने कार्य के विषय मे अनेक व्यक्तियों और संस्थाओं को अपना सारा हाल सुनाओ। यह हाल सुनाने मे तुम अपना गौरव समझो। तुम्हे अपने कार्य के विषय मे जो कुछ कहना हो संक्षेप मे और साफ़-साफ़ कहो।
(२) परिणास या फल के विषय मे निश्चिन्त रहो।
(३) इस सिद्धान्त पर विश्वास रक्खो कि संस्था का अन्तरङ्ग जितना हो स्वच्छ, पवित्र और उपयोगी होगा उतना ही अधिक उसको लोकाश्रय भी मिलेगा।
(४) श्रीमान् और ग़रीब दोने से सहायता माँँगो। सची सहानुभूति प्रकट करनेवाले सैकड़ों दाताओं के छोटे- छोटे दान पर ही परोपकार के बड़े-बड़े कार्य होते हैं।
(५) चन्दा इकट्ठा करते समय दाताओं की सहानुभूति, सहायता और उपदेश प्राप्त करने का यत्न करो।
इस प्रकार यत्न करने पर, टस्केजी-संस्था की उन्नति के लिए, अनेक श्रीमान् तथा साधारण लोगों ने गुप्त तथा प्रकट रीति से वाशिंगटन की सहायता की।
संस्था की उन्नति
आत्मावलम्बन और परिश्रम से धीरे-धीरे टस्केजी-संस्था की उन्नति होने लगी। सन् १८८१ में वाशिंगटन के पास अपनी संस्था के लिए थोड़ी सी ज़मीन, तीन इमारतें, एक शिक्षक और तीस विद्यार्थी थे। अब वहाँ १०६ इमारतें, २३५० एकड़ जमीन और १५०० जानवर हैं। कृषि के उपयोगी यन्त्रों और अन्य सामान की कीमत ३८, ८५, ६३९ रुपया है। वार्षिक आमदनी ९,००,००० रुपया है और कोष में ६,४५,००० रुपया जमा है। प्रतिवर्ष २,४०,००० रुपये खर्च होते हैं। यह रक़म घर-घर भिक्षा माँँगकर इकट्ठा की जाती है। इस समय संस्था की कुल जायदाद एक करोड़ से अधिक की है, जिसका प्रबन्ध पञ्चो द्वारा किया जाता है। शिक्षकों की संख्या १८० है। १६४५ विद्यार्थी ( १०६७ लड़के और ५७८ लड़कियाँ ) दर्ज रजिस्टर हैं। १००० एकड़ जमीन में विद्यार्थियों के श्रम से खेती होती है। मानसिक शिक्षा के साथ-साथ भिन्न-भिन्न चालीस व्यवसायों की शिक्षा दी जाती है। इस संस्था में शिक्षा पाकर लगभग ३००० आदसी दक्षिणी अमेरिका के भिन्न-भिन्न स्थानों मे स्वतन्त्र रीति से काम कर रहे हैं। ये लोग स्वय अपने प्रयत्न और उदा- हरण से अपनी जाति के हज़ारो लोगों को आधिभौतिक और आध्यात्मिक, धर्म और नीति-विषयक, शिक्षा दे रहे हैं। मिस्टर वाशिंगटन ने लिखा है कि―“संस्था की उपयोगिता उन लोगो पर अवलम्बित है जो यहाँ शिक्षा पाकर स्वतन्त्र रीति से समाज मे रहने लगते हैं।” इस नियम के अनुसार यह कहा जा सकता है कि वाशिंगटन की संस्था ने सफलता प्राप्त कर ली है। दक्षिणी अमेरिका के भिन्न-भिन्न स्थानों में, इस संस्था में शिक्षा पाये हुए लोगों की मॉग इतनी बढ़ गई है कि लोगों की आधी भी माँँग पूरी नहीं की जा सकती। अनेक विद्यार्थियों को, स्थान और द्रव्य के अभाव से, लौट जाना पड़ता है।
वाशिंगटन को टस्केजी-संस्था का जीव या प्राण सम- झना चाहिए। आप ही के कारण इस संस्था ने सफलता प्राप्त की है। आप ही इस संस्था के प्रिंसपल हैं। आप पाठशाला में शिक्षक का काम भी करते हैं और संस्था की उन्नति के लिए गाँव-गाँव, शहर-शहर, भ्रमण करके धन भी इकट्ठा करते हैं। आपने इस संस्था का प्रबन्ध इतना उत्तम कर दिया है कि आपकी अनुपस्थिति मे भी सब काम नियमपूर्वक होते रहते हैं और इन सब कामो की रिपोर्ट उन्हे मिलती रहती है। उन्हें अपनी स्त्री से बहुत सहायता मिलती है। वे यह जानने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं कि अपनी संस्था के विषय में कौन क्या कहता है। इससे सस्था के दोष मालूम हो जाते हैं और सुधार करने का मौक़ा मिल जाता है। आपकी सफलता का रहस्य आपके आन्तरिक उद्गारों से विदित हो सकता है। आप कहते हैं―
१―ईश्वर के राज्य में किसी व्यक्ति या जाति की सफलता की एक ही कसौटी है। वह यह कि सत्कार्य करने की प्रेरणा से प्रेरित होकर प्रयत्न करना चाहिए। २―जिस स्थान मे हम रहे उस स्थान के निवासियों की शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक उन्नति करने का यत्न करना ही सबसे बड़ी बात है।
३―सत्कार्य-प्रेरणा के अनुसार प्रयत्न करते समय किसी व्यक्ति, समाज या जाति की निन्दा, द्वेष और मत्सर न करना चाहिए। जो काम भ्रातृभाव, बन्धु-प्रेम और आत्मीयता से किया जाता है वही सफल और सर्वोपयोगी होता है।
४―किसी कार्य का यत्न करने मे आत्मविश्वास और स्वाधीनभाव को न भूल जाना चाहिए। यदि एक या दो प्रयत्न निष्फल हो जायँ तो भी हताश न होना चाहिए। अपनी भूलो की ओर ध्यान देकर विचारपूर्वक बार-बार यत्न करते रहना चाहिए। अन्त मे ईश्वर की कृपा से अवश्य ही सफ- लता होती है।
वाशिगटन का यह विश्वास है कि योग्यता अथवा श्रेष्ठता किसी भी वर्ण, रन और जाति के मनुष्य मे हो, वह छिप नहीं सकती। अन्त मे वह मनुष्य अवश्य ही विजयी होता है। गुणों की परीक्षा और चाह हुए बिना नहीं रहती। यह सर्वथा सच है―"गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्ग न च वयः।" वाशिंगटन ने जो जातिसेवा-रूप परोपकार किया है वह यह समझकर किया है कि हमारा कार्य छोटा ही क्यों न हो―अत्यन्त क्षुद्र ही क्यों न हो―यदि यह औरों से अधिक उपयोगी, सुखदायक और कल्याणकारक होगा तो वर्ण या जाति की परवा न करते हुए, “गुणाः पूजास्थानं” इस सनातन नियम के अनुसार, सब लोग उसका उचित आदर अवश्य ही करने लगेंगे। कार्य का आदर करने में―सद्गुणो का सत्कार करने सें―कार्यकर्ता का सम्मान करना ही पड़ता है। अमेरिका-निवासियों ने बुकर टी० वाशिंगटन जैसे सद्गुणी और परोपकारी कार्यकर्ता का उचित आदर करने मे कोई बात उठा नहीं रक्खी। हारवर्ड-विश्व-विद्यालय ने आपको “मास्टर आफ़ आर्ट् स” की सम्मानसूचक पदवी दी है। अटलंटा की राष्ट्रीय प्रदर्शिनी खोलने के समय, उस प्रान्त के गवर्नर साहब ने वाशिंगटन को आरम्भिक वक्तृता करने का बहुमान दिया है। अमेरिका के प्रेसिडेंट (राजा) ने टस्केजी- संस्था में पधारकर नीग्रो जाति के अगुआ वाशिगटन का गौरव करते समय यह कहा कि “यह संस्था अनुकरणीय है। इसकी कीर्ति वहीं नहीं, किन्तु विदेशों में भी बढ़ रही है। इस संस्था के विषय मे कुछ कहते समय मिस्टर वाशिंगटन के उद्योग, साहस, प्रयत्न और बुद्धि-सामर्थ्य के सम्बन्ध में कुछ कहे बिना रहा नहीं जाता। आप उत्तम अध्यापक हैं, उत्तम वक्ता हैं और सच्चे परोपकारी पुरुष हैं। इन्हीं सद्गुणों के
कारण हम लोग आपका सम्मान करते हैं।” सोचने की बात है कि जिस आदमी का जन्म दासत्व मे हुआ, जिसको अपने पिता या पूर्वजो का कुछ भी हाल मालुम नहीं, जिसको अपनी बाल्यावस्था में स्वयं मज़दूरी करके पेट भरना पड़ा, वही इस समय अपने आत्म-विश्वास और आत्म- बल के आधार पर कितने ऊँचे पद पर पहुँँच गया है। बुकर टी० वाशिगटन का जीवनचरित पढ़कर कहना पड़ता है कि "नर जो पै करनी करे तो नारायण ह्वै जाय।" प्रतिकूल दशा में भी मनुष्य अपनी जाति, समाज और देश की कैसी और कितनी सेवा कर सकता है, यह बात इस चरित से सीखने योग्य है। यद्यपि हमारे देश मे अमेरिका के समान दासत्व नहीं है तथापि, वर्तमान समय में, अस्पृश्य जाति के पॉच करोड़ से अधिक मनुष्य सामाजिक दासत्व का कठिन दुःख भोग रहे हैं। क्या हमारे यहाँ, वाशिगटन के समान, इन लोगों का उद्धार करने के लिए―सिर्फ़ शुद्धि के लिए नहीं―कभी कोई महात्मा उत्पन्न होगा? क्या इस देश की शिक्षा-पद्धति मे शारीरिक श्रम की ओर ध्यान देकर कभी सुधार किया जायगा? जिन लोगों ने शिक्षा द्वारा अपने समाज की सेवा करने का निश्चय किया है क्या वे लोग उन तत्त्वो पर उचित ध्यान देगे जिनके आधार पर हैम्पटन और टस्केजी की संस्थाये काम कर रही हैं? जिस समय हमारे हिन्दू और मुसलमान भाई अपने लिए स्वतन्त्र विश्वविद्यालय स्थापित करने का यत्न कर रहे हैं उस समय यह आशा करना व्यर्थ न होगा कि भविष्यत् में हमारे यहाँ निरुपयोगी और निकम्मे ग्रेजुएटों ( Superficial Graduates) की संख्या घट जायगी और परोपकारी जाति- सेवकों की संख्या बढ़ जायगी। अन्त मे यही प्रार्थना है कि परमेश्वर हम लोगों को अज्ञान-शृङ्खला के बन्धन से मुक्त होने तथा बुकर टी० वाशिगटन के समान जातिसेवा करने की बुद्धि और शक्ति दे।