विकिस्रोत:निर्वाचित पुस्तक/जनवरी २०२२
बिल्लेसुर बकरिहा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का उपन्यास है। इसका प्रकाशन "चौधरी राजेन्द्र शङ्कर", (उन्नाव) द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया था।
"बिल्लेसुर'—नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ—'विल्वेश्वर' है। पुरवा डिवीज़न में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर-शब्द की ओर है। कारण, पुरवा में उक्त नाम के प्रतिष्ठित शिव हैं। अन्यत्र यह नाम न मिलेगा, इसलिए भाषातत्त्व की दृष्टि से गौरवपूर्ण है। 'बकरिहा' जहाँ का शब्द है, वहाँ 'बोकरिहा' कहते हैं। वहाँ 'बकरी' को 'बोकरी' कहते हैं। मैंने इसका हिन्दुस्तानी रूप निकाला है। 'हा' का प्रयोग हनन के अर्थ में नहीं, पालन के अर्थ में है।
बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण, 'तरी' के सुकुल हैं, खेमेवाले के पुत्र ख़ैयाम की तरह किसी बकरीवाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली तब बकरी पालने का कारोबार किया। गाँववाले उक्त पदवी से अभिहित करने लगे।
हिन्दी-भाषा-साहित्य में रस का अकाल है, पर हिन्दी बोलनेवालों में नहीं; उनके जीवन में रस की गंगा-जमुना बहती है; बीसवीं-सदी साहित्य की धारा उनके पुराने जीवन में मिलती है। उदाहरण के लिए अकेला बिल्लेसुर का घराना काफ़ी है। बिल्लेसुर चार भाई आधुनिक साहित्य के चारों चरण पूरे कर देते हैं।
बिल्लेसुर के पिता का नाम मुक्ताप्रसाद था; क्यों इतना शुद्ध नाम था, मालूम नहीं; उनके पिता पंडित नहीं थे। "...(पूरा पढ़ें)