विकिस्रोत:आज का पाठ/७ अगस्त
रङ्गमञ्च रवीन्द्रनाथ ठाकुर का निबंध है जो प्रयाग के इंडियन प्रेस लिमिटेड द्वारा १९२४ ई में प्रकाशित विचित्र-प्रबन्ध निबंध संग्रह में संकलित है।
"जिस प्रकार लोक में स्त्री-भक्त पति की हँसी होती है उसी प्रकार नाटक भी यदि अभिनय की अपेक्षा करके अपने को छोटा बनावे तो निःसन्देह वह भी वैसे ही उपहास के योग्य हो उठता है। नाटक का भाव इस प्रकार का होना चाहिए––हमारा अभिनय होता हो तो हो और यदि न हो तो अभिनय का ही भाग्य फूटा समझना चाहिए। इससे हमारी कोई हानि नहीं है!
जो हो, अभिनय को काव्य की अधीनता माननी ही पड़ेगी। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अभिनय को सब कला विद्याओं की गुलामी करनी पड़ेगी! यदि वह अपने गौरव की रक्षा करना चाहे तो उसे उचित है कि जितनी अधीनता न मानने से उसका स्वरूप प्रकाशित न हो सकता हो उतनी ही अधीनता वह स्वीकार करे। उससे अधिक कुछ भी सहायता उसे नहीं लेनी चाहिए। यदि वह उससे अधिक सहायता ले तो यह उनके लिए अपमान है।..."(रङ्गमञ्च पूरा पढ़ें)