Download this featured text as an EPUB file. Download this featured text as a RTF file. Download this featured text as a PDF. Download this featured text as a MOBI file. Grab a download!

ध्रुवस्वामिनी- द्वितीय अंक जयशंकर प्रसाद द्वारा १९३३ ई. में रचित नाटक है, जो वाराणसी के प्रसाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था।


द्वितीय अंक

"[शक दुर्ग के भीतर सुनहले काम वाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी दो सीढ़ियाँ, उसी के सामने काश्मीरी खुदाई का सुन्दर लकड़ी का सिंहासन/ बीच के दो खम्भे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग के रेशमी पर्दे पड़े हैं/ सामने बीच में छोटा सा आंगन की तरह, जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं]
कोमा––(धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके) इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौन्दर्य पर आवरण डाल देती है। (देखकर) आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल, जैसे मुकुलित होकर ही रह गये हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं। (सोच कर) ठीक, इधर कई दिनों से महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए है और मैं भी यहाँ नहीं आयी, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मञ्च और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने में पागल! वसन्त का उदास और अलस पवन आता है, चला जाता है। कोई उसके स्पर्श मे परिचित नहीं। ऐसा तो वास्तविक जीवन नहीं है? (सीढ़ी पर बैठकर सोचने लगती है) प्रणय! प्रेम! जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखो में प्रकाश-पुञ्ज उड़ेल देता है, तब सामने की सब वस्तुएँ और भी अस्पष्ट हो जाती हैं। अपनी ओर से कोई भी प्रकाश की किरण नहीं। तब वही केवल वही! हो पागलपन, भूल हो, दुःख मिले, प्रेम करने की एक ऋतु होती है। उसमें चूकना, उसमें सोच-समझ कर चलना, दोनों बराबर है। सुना है, दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि में मूर्ख बनते हैं, तब कोमा, तू किसे अच्छा समझी है?..."(पूरा पढ़ें)