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ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद द्वारा १९३३ ई. में रचित नाटक है, जो वाराणसी के प्रसाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था।


"ध्रुवस्वामिनी––(सामने पर्वत की ओर देख कर) सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अम्रभेदी उन्मुक्त शिखर! और इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न! (साथवाली खड्गधारिणी की ओर देखकर) क्यों, मन्दाकिनी नहीं आई? (वह उत्तर नहीं देती है) बोलती क्यों नही? यह तो मैं जानती हूँ कि इस राजकुल के अन्तःपुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा, जो मुझे आते ही मिला; किन्तु क्या तुम-जैसी दासियों से भी वही मिलेगा? इसी शैलमाला की तरह मौन रहने का अभिनय तुम न करो, बोलो! (वह दाँत निकालकर विनय प्रकट करती हुई कुछ और आगे बढ़ने का संकेत करती है) अरे, यह क्या; मेरे भाग्य-विधाता! यह कैसा इन्द्रजाल? उस दिन राजमहापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या वह अभिशाप था? इस राजकीय अन्तःपुर में अब जैसे एक रहस्य छिपाये हुए चलते हैं, बोलते हैं और मौन हो जाते हैं। (खड्गधारिणी विवशता और भय का अभिनय करती हुई आगे बढ़ने का संकेत करती है) तो क्या तुम मूक हो? तुम कुछ बोल न सको, मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसीलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गयी हो? यह असह्य है। इस राजकुल में एक भी सम्पूर्ण मनुष्यता का निदर्शन न मिलेगा क्या? जिधर देखो कुबड़े, बौने, हिजड़े, गूँगे और बहरे..."(पूरा पढ़ें)