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मनावन प्रेमचंद द्वारा १९०७ ई. में रचित कहानी है, जो इलाहाबाद के हंस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कहानी-संग्रह "गुप्त धन 1" में संग्रहित है।


"खैर पाँच बजे खेल शुरू हुआ। दोनों तरफ के खिलाड़ी बहुत तेज़ थे जिन्होंने हाकी खेलने के सिवा ज़िन्दगी में और कोई काम ही नहीं किया। खेल बड़े जोश और सरगर्मी से होने लगा। कई हज़ार तमाशाई जमा थे। उनकी तालियाँ और बढ़ावे खिलाड़ियों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गेंद किसी अभागे की किस्मत की तरह इधर-उबर ठोकरें खाता फिरता था। दयाशंकर के हाथों की तेज़ी और सफाई, उनकी पकड़ और बेऐब निशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहाँ तक कि जब वक्त खत्म होने में सिर्फ एक मिनट बाकी रह गया था और दोनों तरफ के लोग हिम्मतें हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेंद लिया और बिजली की तरह विरोधी पक्ष के गोल पर पहुँच गये। एक पटाखे की आवाज़ हुई, चारों तरफ से गोल का नारा बुलन्द हुआ। इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के सिर था—जिसका नतीजा यह हुआ कि बेचारे दयाशंकर को उस वक्त भी रुकना पड़ा और सिर्फ इतना ही नहीं, सतारा अमेचर क्लब की तरफ से इस जीत की बधाई में एक नाटक खेलने का प्रस्ताव हुआ जिससे बुध के रोज़ भी रवाना होने की कोई उम्मीद बाक़ी न रही। दयाशंकर ने दिल में बहुत पेचोताब खाया मगर ज़बान से क्या कहते। बीवी का गुलाम कहलाने का डर ज़वान बन्द किये हुए था। हालाँकि उनका दिल कह रहा था कि अब को देवी रूठेंगी तो सिर्फ खुशामदों से न मानेंगी।..."(पूरा पढ़ें)