विकिस्रोत:आज का पाठ/२८ सितम्बर
निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया था।
"जो ब्रह्म हिंदुओं की विचार-पंद्धति में ज्ञानमार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही बिषय नहीं प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिये हठयोगियों की साधना का समर्थन किया । इस प्रकार उन्हेंने 'भारतीय ब्रहावाद' के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्वाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना-पंथ खड़ा किया । उसकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं।..."(पूरा पढ़ें)