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कैदी प्रेमचंद द्वारा रचित मानसरोवर २ का एक अध्याय है जिसका प्रकाशन १९४६ ई॰ में सरस्वती प्रेस "बनारस" द्वारा किया गया था।


"चौदह साल तक निरन्तर मानसिक वेदना, शारीरिक यातना भोगने के बाद आइवन ओखोटस्क जेल से निकला, पर उस पक्षी की भाँति नहीं, जो शिकारी के पिंजरे से पंख-हीन होकर निकला हो, बल्कि उस सिंह की भांति, जिसे कठघरे की दीवारों ने और भी भयंकर और भी रक्त-लोलुप बना दिया हो। उसके अन्तस्तल मे एक द्रव ज्वाला उमड़ रही थी, जिसने अपने ताप से उसके वलिष्ठ शरीर और सुडौल अंग-प्रत्यंग और लहराती हुई अभिलाषाओं को झुलस डाला था और आज उसके अस्तित्व का एक-एक अणु एक-एक चिनगारी बना हुआ था, क्षुधित, चंचल और विद्रोहमय।..."(पूरा पढ़ें)