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पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर महावीर प्रसाद द्विवेदी का आलेख है जो १९४२ ई में लखनऊ के गंगा-पुस्तकमाला द्वारा प्रकाशित अद्भुत आलाप निबंध संग्रह में संग्रहित है।


"कुछ देर में पत्थरों की वर्षा होने लगी, और जैसे भादों में गंगाजी उमड़ चलती हैं, वैसे ही गरम पानी की तरह पिघली हुई चीज़ें ज्वालामुखी पर्वत से बह निकलीं। उन्होंने पांपियाई का सर्वनाश आरंभ कर दिया। मेहमान भोजन-गृह में, स्त्री पति के साथ, सिपाही अपने पहरे पर, क़ैदी क़ैदखाने में, बच्चे पालने में, दूकानदार तराज़ू हाथ में लिए ही रह गए। जो मनुष्य जिस दशा में था, वह उसी दशा में रह गया।

मुद्दत बाद, शांति होने पर, अन्य नगर-निवासियों ने वहाँ आकर देखा, तो सिवा राख के ढेर के और कुछ न पाया। वह राख का ढेर खाली ढेर न था; उसके नीचे हज़ारों मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके सदैव के लिये सो गए थे।
हाय, किस-किसके लिये कोई अश्रू-पात करे! यह दुर्घटना २३ अगस्त, ७६ ईस्वी की है। १६४५ वर्ष बाद जो यह जगह खोदी गई, तो जो वस्तु जहाँ थी, वहीं मिली।..."(पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर पूरा पढ़ें)