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अफ़ग़ानिस्तान में बौद्धकालीन चिन्ह महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ऐतिहासिक आलेख है जो १९२९ ई॰ में झाँसी के साहित्य सदन द्वारा प्रकाशित पुरातत्त्व प्रसंग निबंध संग्रह में संग्रहित है।


"सम्राट् कनिष्क का ग्रीष्म-निवास, कपिशा नाम के नगर में था। जहाँ पर वह था वहाँ अब बेगरम नाम का नगर आबाद है। जिस नगरहार में दीपङ्कर बुद्ध ने, अपनी तपस्या के प्रभाव से, कितनी ही आश्चर्य-जनक घटनाये कर दिखाई थीं वही अब जलालाबाद के नाम से विख्यात है। हिद्दा वह जगह है जहाँ गौतम बुद्ध के भौतिक शरीर का कुछ अंश रक्खा गया था और जिसके दर्शनों के लिए सैकड़ों कोस दूर से बौद्ध-यात्री आया करते थे। इन स्थानों में जो स्तूप, विहार, चैत्य और मूर्तियाँ मिली हैं वे बिलकुल वैसी ही हैं जैसी कि तक्षशिला और तख्ते-बाही आदि के हिस्सों को खोदने से मिली हैं। हिद्दा में तो पत्थर की कारीगरी की कुछ ऐसी भी चीज़े प्राप्त हुई हैं जिनकी बराबरी भारत में प्राप्त हुई गान्धारशैली की कारीगरीवाली चीज़ें भी नहीं कर सकतीं। हिदा में जिस स्तूप को फ्रांसीसी पुरातत्वज्ञों ने खोज निकाला है उसे वहाँ वाले अपनी भाषा, पश्तो में जायस्ता का स्तूप कहते हैं। "खायस्ता" का अर्थ है-- विशाल। और यह स्तूप सचमुच ही बहुत विशाल है। यह बहुत अच्छी दशा में भी है। जिस समय फाहीयान नाम का चीनी परिव्राजक हिद्दा के पवित्र तीर्थ का दर्शन करने आया था उस समय वहाँ पर एक अभ्रङ्कष बौद्ध- विहार था। उसके विषय मे उसने लिखा है कि धरातल चाहे फट जाय और आकाश चाहे हिंडोले की तरह हिलने लगे, पर यह विहार अपने स्थान से इंच भर भी हटने- वाला नही।..."(पूरा पढ़ें)