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देशभाषा काव्य (वीरगाथा) रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई. में किया गया था।


पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त भाषा के जो पुराने काव्य-जैसे, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो-आजकल मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है, उस पर हमें संतोष करना पड़ता है।

इतना अनुमान तो किया ही जा सकता है कि प्राकृत पढ़े पंडित ही उस समय कविता नहीं करते थे। जनसाधारण की बोली में गीत दोहे आदि प्रचलित चले आते रहे होंगे जिन्हें पंडित लोग गंवारू समझते रहे होंगे। ऐसी कविताएँ राजसभाओं तक भी पहुंच जाती रही होगी। 'राजा भोज जस मूसरचंद' कहने वालों के सिवा देशभाषा मे सुंदर भाव भरी कविता कहने वाले भी अवश्य ही रहे होंगे। राजसभाओं में सुनाए जानेवाले नीति, श्रृंगार आदि विप्रय प्रायः दोहो मे कहे जाते थे और वीररस के पद्य छप्पय में । राजाश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य, पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरोल्लासभरी कविताओं से वीरों को उत्साहित किया करते थे।...(पूरा पढ़ें)