लेखाञ्जलि/९—गौतम बुद्ध का समय
गौतम बुद्धका समय
सभ्यता-सञ्चारके आरम्भसे लेकर आजतक, संसारमें जितने महापुरुष उत्पन्न हुए हैं, महात्मा गौतम बुद्धकी गिनती उन्हींमें है। इस समय सभ्य संसारमें मुख्य-मुख्य जितने धर्म प्रचलिन हैं उन सबपर बुद्ध भगवान्के उदात्त विचारोंका रङ्ग थोड़ा-बहुत अवश्य चढ़ा हुआ है। सारे संसारकी मनुष्य-संख्याका एक तृतीयांश बौद्ध-मतको मानता है। इसमें सन्देह नहीं कि अन्य मतावलम्बियोंकी अपेक्षा बौद्ध लोगोंकी संख्या बहुत अधिक है। बुद्ध भगवान अधिकांश एशिया-निवासियोंके मनोराज्यके अधीश्वर तो हैं ही, योरप और अमेरिकाकी विद्वन्मण्डलीपर भी उनका प्रभाव कुछ-न-कुछे पड़ चुका है। यह प्रभाव दिन-पर-दिन बढ़ता ही जाता है। योरप और अमेरिकाकी मुख्य-मुख्य भाषाओंमें बुद्धदेव और बौद्ध धर्मपर अबतक सैकड़ों ग्रन्थ निकल चुके हैं। और अब भी निकलते ही चले जाते हैं। लेख कितने निकल चुके हैं, इसकी तो गणना ही नहीं की जा सकती। अबतक हमलोग इस सम्बन्धमें बिलकुलही उदासीन-से थे। परन्तु कुछ समयसे हिन्दी-भाषा-भाषी जन-समुदाय भी इस ओर कुछ-कुछ आकृष्ट हुआ है। फल यह हुआ है कि बुद्धदेव और बौद्ध-धर्म्म-विषयक कुछ पुस्तकें हिन्दीमें भी प्रकाशित हो गयी हैं। तथापि जिस महात्माकी महत्ता इतनी महीयसी है और जिसके उपदेशोंका प्रभाव सारे संसारमें इतनी अधिकतासे व्याप्त हो रहा है उसके आविर्भाव-काल—अर्थात् जन्म और निर्माण के विषयमें विद्वानोंमें बहुत मत-भेद हैं। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ।
कुछ समय हुआ, मदरासके बी॰ गोपाल आइयर, बी॰ ए॰, बी॰ एल ने इंडियन ऐंटिक्केरी नामक अंगरेज़ीके एक मासिक पत्रमें इस विषयपर एक गवेषणापूर्ण लेख लिखा था। उसमें उन्होंने बुद्धके जन्म और निर्वाणका प्रामाणिक समय निश्चित करनेकी अच्छी चेष्टा की है। उन्हींके कथनका सारांश यहाँपर दिया जाता है।
पाठक कहेंगे कि हम बहुधा दूसरोंहीके उच्छिष्टसे अपने लेखोंकी कलेवर-पूर्ति किया करते हैं। उनका यह उलाहना किसी हदतक ठीक माना जा सकता है। परन्तु, निवेदन यह है कि हिन्दी-भाषाके साहित्यके जो उन्नायक हिन्दी भाषाहीकी पुस्तकोंकी टीकाओं और भाष्योंको मौलिक ग्रन्थ मानकर टीकाकारोंको बड़े-बड़े इनाम तक दे डालते हैं वही यदि ऐसी बात कहें तो उनका यह उलाहना उन्हें तो शोभा दे नहीं सकता। हमारी राय तो यह है कि बात चाहे जिस देशवासी या जिस भाषा-भाषीकी कही हो, यदि वह अपनी भाषाके लिए नई है तो उसका उद्धरण और प्रकाशन सर्वथा उचित ही समझा जाने योग्य है। हमें तो, इस विषयमें राजा भोजकी यह उक्ति बहुत ही ठीक जँचती है। हम तो हृदयसे इसके कायल हैं। चम्पू-रामायणमें उन्होंने लिखा है—
वाल्मीकिगीतरघुपुङ्गवकीर्तिलेशै-
स्तृप्तिं करोमि कथमप्यधुना बुधानाम्
गङ्गाजलैर्भुवि भगीरथयत्नलब्धैः
किं तर्पणं न विदधाति जनः पित्दृणाम्
अर्थात्—आदि कवि वाल्मीकि मुनिने रघुपुङ्गव रामचन्द्रकी कीर्तिका जो गान किया है उसी गानके कुछ थोड़ेसे लेश लेकर मैं सहृदय विद्वानोंकी तृप्ति करनेका उपक्रम कर रहा हूँ। भगीरथने महान् प्रयत्न करके गङ्गाजीका अवतरण पृथ्वीपर कर दिया तो उसपर उनका इजारा थोड़े ही हो गया। क्या उसी गङ्गाके जलसे लोग पितरोंका तर्पण नहीं करते?
अस्तु। अब बुद्ध भगवान्के आविर्भाव-कालके सम्बन्धकी बातें सुननेकी कृपा कीजिये। उत्तरी देशोंके बौद्ध-ग्रन्थोंमें बुद्धका निर्वाणसमय ईसाके २४२२ से लेकर ५४६ वर्ष पूर्व तक बतलाया गया है। परन्तु आईने-अकबरीमें अबुलफ़ज्लने लिखा है कि यह घटना सन् ईसवीके १२४६ वर्ष पूर्व हुई थी। एक तामील ग्रन्थमें इस घटनाका समय कलि-संवत् १६१६ दिया हुआ है। पर ब्रह्मदेश, श्याम और लङ्काके बौद्धोंका कथन है कि भगवान बुद्धदेवका निर्व्वाण सन् ईसवीके ५४३ वर्ष पहले हुआ था। और तो और, पश्चिमी विद्वान् भी इस विषयमें एकमत नहीं। वे लोग निर्व्वाणका समय ५४४ से ३७० वर्ष ईसाके पहले बताते हैं। अध्यापक रीज़ डेविड्स बौद्ध-साहित्यके प्रमुख ज्ञाता माने जाते हैं। उनका कथन है कि बुद्धका निर्व्वाण ४१२ वर्ष ईसवी पूर्वमें हुआ था। परन्तु अध्यापक कर्न इसे नहीं मानते। वे कहते हैं कि निर्व्वाणका निश्चित वर्ष सन् ईसवीके ३८८ वर्ष पूर्व है। अध्यापक मैक्समूलरका मत है कि बुद्धका निर्व्वाण सन् ईसवीके ४७७ वर्ष पूर्व हुआ था। डाकर फ्लीट यह घटना ४८२ वर्ष ई॰ पू॰ में और अध्यापक ओल्डनवर्ग तथा बाथ साहब ४८० वर्ष ई॰ पू॰ में हुई बताते हैं। विन्सेंट स्मिथ साहबने तीन भिन्न-भिन्न स्थलों में तीन भिन्न-भिन्न कालोंका उल्लेख किया है। अपने प्राचीन भारतवर्षके इतिहासमें उन्होंने लिखा है कि बुद्ध-भगवान् ईसाके ४८७ वर्ष पहले निर्व्वाणको प्राप्त हुए। पर अपने "अशोक" नामक ग्रन्थमें लिखा है कि निर्व्वाण ५०८ ई॰ पू॰ में हुआ था। इसके बाद उन्होंने अपने एक अन्य लेखमें अपना पूर्व-निर्दिष्ट मत बदल दिया है। उसमें आपने लिखा है कि यह घटना ४८० से लेकर ४७० ई॰ पू॰ के बीच किसी समय हुई थी।
ऊपर लिखे गये भिन्न-भिन्न और परस्पर-विरुद्ध मतोंमें कौन मत सच्चा है, इसका निर्णय करना बहुत कठिन है। इसलिए हम इस विषयकी सामग्रीकी छानबीन करके, स्वतन्त्र रीतिसे, बुद्धदेवक निर्व्वाणका समय निश्चित करना चाहते हैं। इस उद्देशकी पूर्तिके लिए हमें पहले मौर्य्य-संवत्का निश्चय करना आवश्यक प्रतीत होता है। क्योंकि उसका सम्बन्ध इस विषयसे बहुत घनिष्ठ है। यह तभी हो सकता है जब हम यह जान लें कि मौर्य्य-वंशके प्रथम नरेश, महागज चन्द्रगुप्त और उनके पौत्र अशोकवर्द्धन कब हुए थे। लङ्काने बौद्धग्रन्थोंमें लिखा है कि महाराज अशोक-वर्द्धन मौर्य्य, सिंहासनासीन होनेके चौथे वर्ष, बौद्ध-धर्ममें दीक्षित हुए थे। उसी साल उनका राजतिलक हुआ था। अपने शासनके अठारहवें वर्ष अशोकने तीसरे बौद्ध-संघका अधिवेशन किया था। उसके सभापति महात्मा तिष्य हुए थे। बुद्धदेवकी निर्व्वाण-प्राप्तिका वह २३५ वाँ वर्ष था।
राज्यप्राप्तिके तेरहवें वर्षके एक शिलालेख या अभिलेखमें अशोकने लिखा है कि "अपने तिलक नवें वर्ष मैंने कलिङ्गदेशके निवासियोंसे युद्ध किया। युद्धके कारण प्रजाकी अनन्त क्षति हुई। उसे देखकर मुझपर बड़ा असर पड़ा। इस कारण मैंने युद्धको सदाके लिए त्याग दिया है। अब मैं सेना-सञ्चालन करके विजय-प्राप्ति करनेका कभी इरादा न करूंगा। धर्मकी यह जीत मेरे जीवनकी सबसे बड़ी जीत है। यह जीत केवल मेरे ही राज्यमें नहीं, किन्तु, छः सौ योजन तक आसपासके उन देशोंमें भी हुई है जहाँ अंटियोक, टरमई, अंटीकीन, मग और अलकज़ंडर नामक राजे और दक्षिणके चोल, पाण्ड्य और सिंहलक राजे गज्य करते हैं"।
ऊपर जिन यवन-नरेशोंके नाम आये हैं वे कल्पित नाम नहीं। इन नामोंके नरेश उस समय भिन्न-भिन्न देशोंमें राज्य करते थे। उनमेंसे अंटियोक नाम यूरपके इतिहास-लेखकोंने अंटियोकस (Autiochus) लिखा है। वह सीरियाके सिंहासनपर २६१ ई॰ पू॰ में बैठा था, और २४७ ई॰ पू॰ में मरा था। टरमयी या टालमी (Ptolemy) २८५ से लेकर २४७ ई॰ पू॰ तक मिस्रका राजा था। अंटीकीन या अंटीगोनस (Antigouus) २७८ से २४२ ई॰ पू॰ तक मैसीडोनियाका अधिपति था। मग या मगस (Magas) सिरीन देशका स्वामी था। वह २५८ ई॰ पू॰ में मरा था। अलेकजांडर (Alexander) पिरिस-देशका राजा था। उसका समय २७२ से लेकर २५८ ई॰ पू॰ तक निश्चित है।
मालूम होता है कि अशोकने, अपने राजा होनेके नवें और तेरहवें वर्षके बीच, अपने धर्म-प्रचारकोंको इन देशोंको भेजा होगा। वे लोग २६१ और २५८ ई॰ पू॰ के बीच वहां पहुंचे होंगे: क्योंकि इसी समय पूर्वनिर्दिष्ट सभी नरेश जीवित थे। धर्म-प्रचारक लोग सम्भवतः कलिङ्ग-युद्धके बादही मगधसे चल दिये होंगे और कोई एक सालमें ऊपर नाम दी हुई यूनानी रियासतोंमें पहुँचे होंगे। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि अशोकके राज-तिलकका दसवाँ वर्ष २६० ई॰ पू॰ से मिलता-जुलता है। अथवा यों कहिये कि अशोकका तिलकोत्सव २६९ ई॰ पू॰ में मनाया गया था। बौद्ध-ग्रन्थोंमें लिखा है कि गद्दीपर बैठनेके चौथे वर्ष अशोकका राजतिलक हुआ था। इसके बाद उन्होंने कोई ३७ वर्ष राज्य किया था। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि अशोकने २७३ से लेकर २३१ ई॰ पू॰ तक राज्य किया था।
अब चन्द्रगुप्त के समयका निश्चय करना चाहिये। लङ्काके बौद्ध-ग्रन्थों में लिखा है कि चन्द्रगुप्तने २४ वर्ष और उसके पुत्र बिन्दुसारने (अशोकके पहले) २८ वर्ष तक राज्य किया। यही बात वायु-पुराण-से भी सिद्ध होती है। इससे प्रकट है कि चन्द्रगुप्त ३२५ ई॰ पू॰ में गद्दीपर बैठा था। बस इसी समयसे मौर्य्य संवत् शुरू होता है।
यूनानी इतिहासकार भी इसी मतकी पुष्टि करते हैं। प्लूटार्कने सिकन्दरके जीवन-चरितमें लिखा है कि जब सिकन्दरने पञ्जाबको जीतकर आगे बढ़ना चाहा, तब उसने सुना कि युवक चन्द्रगुप्त एक बड़ी भारी सेना लेकर यूनानियोंपर आक्रमण करनेके लिए आ रहा है। इसलिए वह लौट पड़ा। यह घटना ३२६ ई॰ पू॰ की है। इसके कुछ ही दिनों बाद (३२५ ई॰ पू॰ में) चन्द्रगुप्तने, चाणक्यकी सहायतासे, नन्दवंशका नाश करके मगधका राज्यसूत्र अपने हाथमें लिया। क्विंटस कर्टियस रूफस, डायोडरस, सिल्यकस और जस्टिन आदि इतिहासकारों तथा मुद्राराक्षस-नाटकसे भी यही बात सिद्ध होती है।
ऊपर लिखे हुए प्रमाणोंसे यह अच्छी तरह प्रकट है कि चन्द्रगुप्त मगधके सिंहासनपर ३२५ ई॰ पू॰ में बैठा था और अशोकका राजतिलक २६६ ई॰ पू॰ में हुआ था। लोग कहेंगे कि चन्द्रगुप्तके सिंहासनारोहण और अशोकके राजतिलकसे बुद्धके निर्वाण-कालका क्या सम्बन्ध? उत्तर यह है कि इनमें परस्पर बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों समय बुद्धके निर्वाणका समय निश्चित करनेके लिए बड़े ही महत्त्वके हैं। क्योंकि लङ्काके बौद्ध-ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्धके निर्वाणके ठीक १६२ और २८८ वर्ष बाद चन्द्रगुप्तको राज्यासनकी प्राप्ति और अशोकका राजतिलक हुआ था। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध-भगवान्का निवाण ४८७ ई॰ पू॰ में हुआ था। बौद्धग्रन्थोंके पूर्वोक्त कथनको अध्यापक मैक्समूलरने भी माना है। इसके सिवा अशोकके अभिलेख भी इस मतकी पुष्टि करते हैं।
अशोकके अभिलेख पश्चिममें गुजरातसे लेकर पूर्वमें उड़ीसा तक और उत्तरमें अफ़ग़ानिस्तानसे लेकर दक्षिणमें माइसोर तक पाये जाते हैं। इन लेखोंसे प्रकट है कि अशोकका राज्य सारे भारतवर्षमें फैला हुआ था। इनमेंसे सहसराम (बङ्गाल), रूपनाथ (मध्यप्रदेश), बैरठ (राजपूताना), सिद्धपुर, जातुंग, रामेश्वर और ब्रह्मगिरि (माइसोर) के अभिलेख अशोकका समय और बुद्धका निर्व्वाण-काल निश्चित करनेमें बड़ी सहायता देते हैं। इन सब शिलालेखोंमें जो बातें खुदी हुई हैं वे आपसमें एक दूसरीसे मिलती-जुलती हैं। कहीं-कहींपर केवल नाम-मात्रका भेद है। ब्रह्मगिरिके अभिलेखका आशय प्रकार है— "सुवर्णगिरिके राजकुमार और शासनकर्त्ताको यह आदेश दिया जाता है—महाराज (अशोक) की आज्ञा है कि मैं कोई साढ़े बत्तीस वर्ष तक साधारण शिष्य था। इतने दिनों तक मैंने कोई साधना नहीं की। परन्तु कुछ ऊपर ६ वर्षसे मैं कठिन साधना कर रहा हूँ। इस समय मुझे मालूम होगया है कि भारतवासियों को जो मैं सत्पथगामी समझता था वह ठीक नहीं। यह साधनाहीका फल है। केवल बड़ा आदमी होनेही से यह फल नहीं मिल सकता। छोटे आदमी भी साधनाके द्वारा स्वर्गीय आनन्दकी प्राप्ति कर सकते हैं। इसलिए यह आज्ञा दी जाती है कि छोटे-बड़े सभी आदमी साधना करके सुफलको प्राप्त करें। मेरे पड़ोसियोंको भी यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। परलोक-वासियोंने ऐसाही उपदेश दिया है। २५६।"
इस अभिलेखमें जो २५६ की संख्या है उसके अर्थके विषयमें विद्वानोंमें मतभेद है। सेनार्ट साहब कहते हैं कि २५६ से तात्पर्य्य २५६ धर्म्म-प्रचारकोंसे है, जिन्हें अशोकने अन्य देशोंको भेजा था। परन्तु यह अर्थ निरा कल्पित, भ्रमात्मक, अप्रासङ्गिक और अयौक्तिक है। असलमें यह तारीख, सन् या साल है। इसका अर्थ यह है कि बुद्धके निवाणके २५६ वर्ष बीतनेपर यह अभिलेख खोदा गया था। वूलर, मैक्समूलर, कनिंहम, कर्न, पिशल फ्लीट, रीज़ डेविड्स और विन्सेंट स्मिथ आदि विद्वानोंने भी इसी अर्थ या तात्पर्य्यको ठीक माना है। इस अर्थ की पुष्टि एक और अभिलेखसे भी होती है। रूपनाथवाले शिलालेखमें लिखा है कि—"व्यूथेन सावने कते २५६ सत विवास ता" इसका भावार्थ यह है कि शिक्षकको संसारसे बिदा हुए २५६ वर्ष बीते। यहाँपर शिक्षकसे तात्पर्य्य भगवान् गौतम बुद्धहीसे है।
पूर्वोक्त अभिलेख खोदनेकी आज्ञा अशोकने उस समय दी थी जिस समय वे मृत्युशय्या पर पड़े थे। परन्तु ये अभिलेख अशोकके मरनेके बाद खोदे गये थे। इसी लिए उनके अन्तमें लिखा है कि वे परलोकवासी (अशोक) के दिये हुए हैं। मालूम होता है कि मरनेके कुछ समय पहलेहीसे अशोक सुवर्णगिरिमें रहते थे। मृत्युके समय उन्होंने अपनी अन्तिम आज्ञाएं वहाँके राजकुमार और शासनकर्त्ताको सुना दी होंगी और उन्हें शिलाखण्डोंपर खुदवानेके लिए भी आदेश दिया होगा। इसी आदेशके अनुसार उन्होंने कार्य्य किया। यह बात खुद अभिलेखोंसे स्पष्ट मालूम होती है।
पूर्वनिर्दिष्ट अभिलेखमें लिखा है कि अशोक साढ़े बत्तीस वर्ष तक साधारण शिष्यके सदृश रहे। मूल लेखमें बत्तीसकी जगह "अढ़ितीसानि" शब्द है। कोई-कोई विद्वान् इसका अर्थ ढाई (२ १/२) करते हैं। परन्तु यह अर्थ नितान्त भ्रममूलक है; क्योंकि यह स्पष्ट है कि प्राकृतमें 'अढ़ि' का अर्थ ढाई और तीसानिका अर्थ तीस है। इस कारण 'अद्वितीसानि' का अर्थ साढ़े बत्तीस है, ढाई (२ १/२) नहीं।
इस शिलालेखसे प्रकट है कि अशोक कुछ ऊपर अड़तीस (३२ १/२+६=३८ १/२) वर्ष तक बौद्ध रहकर बुद्धके निर्व्वाणके बाद २५६ वें वर्ष मृत्युको प्राप्त हुए। अथवा यों कहिये कि वे बुद्धके निर्व्वाणके २१८ वें (२५६-३८=२१८) वर्षमें बौद्ध हुए थे। लङ्काके बौद्धग्रन्थोंसे भी यही बात मालूम होती है। उनमें लिखा है कि अशोक बुद्धके निर्व्वाणके बाद २१८ वें वर्ष में बौद्ध हुए थे और उसके कोई सैंतीस-अड़तीस वर्ष बाद (२५६ निर्व्वाण-संवत्में) मरे थे। सुदर्शनविभाष नामक ग्रन्थसे भी इस मतकी पुष्टि होती है। इस ग्रन्थका अनुवाद चीनी भाषामें, ४६९ ईसवीमें, हुआ था। उसमें भी लिखा है कि अशोक २१८ निर्वाण-संवत्में बौद्ध हुए थे और २५६ निर्व्वाण-संवत्में मरे थे।
ऊपर यह लिखा जा चुका है कि अशोककी मृत्यु २३१ ई॰ पू॰ में हुई थी। इसलिए यह सिद्ध है कि बुद्धका निर्व्वाण २३१+२५६=४८७ ईसवी पूर्वमें हुआ था। बौद्ध-ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि बुद्ध भगवान् ८० वर्ष तक जीवित रहे थे। इसो लिए उनका जन्मसंवत् ५६७ ईसवी पूर्वमें माना जा सकता है।
पूर्वोक्त मतकी पुष्टि एक और प्रमाणसे भी होती है। कहते हैं कि चीनमें एक ग्रन्थ है। प्राचीन कालमें वसन्तोत्सवके समय उसमें प्रतिवर्ष एक बिन्दु लगा दिया जाता था। इस बिन्दुको कैंटन नगरका प्रधान महन्त लगाता था। यह प्रथा ४८९ ईसवी तक प्रचलित रही। उस साल सङ्घभद्र नामके पुरोहितने अन्तिम बिन्दु लगाकर इस प्रथाको बन्द कर दिया। तबसे उसमें किसीने बिन्दु नहीं लगाया। इस बिन्दु-ग्रन्थमें सब मिलाकर, बुद्धके निर्व्वाणसे लेकर ४८९ ईसवीतक, ९७५ बिन्दु बने हैं। इससे मालूम होता है कि उस समय, अर्थात् ४८९ ईसवी तक, बुद्धका निर्व्वाण हुए करीब ९७५ वर्ष बीत चुके थे। यह भी हमारे मतको पुष्ट करता है। अतएव इन सब प्रमाणोंसे सिद्ध है कि बुद्धका निर्व्वाण ४८७ ई॰ पू॰ में हुआ था और जन्म ५६७ ई॰ पू॰ में।
[नवम्बर १९२३]