लेखाञ्जलि/१०—आगरे की शाही इमारतें
१०—आगरेकी शाही इमारतें।
मुसलमानोंके राज्यमें आगरा और देहली की बड़ी तरक़्की हुई। यही दो शहर मुसलमानी राज्यके केन्द्र थे। यहीं बादशाह रहते थे; अतएव, यहीं उनके अमीर-उमरा और सेनानायक, सेना-समेत, रहते थे। इसी कारण, आगरा और देहलीमें उस समयकी अनेक इमारतें अबतक मौजूद हैं।
आगरेमें पुराने ज़माने की इतनी मसजिदें, बाग़ मकान, महल और मक़बरे इत्यादि हैं कि उन सबका वर्णन थोड़ेमें नहीं हो सकता। इससे हम इन प्रान्तों की "मान्यूम्यण्टल ऐण्टिक्यूटीज़" नामक पुस्तकसे पहले उन सबके सिर्फ़ नाम नीचे देते हैं। फिर हम उनमेंसे मुख्य-मुख्यका संक्षिप्त वर्णन करेंगे।
आगरेके सामने यमुना-पारकी इमारतें।
१—(क) जहाँगीरके समयके ख़्वाजह बुलन्दख़ाँका बुलन्द-बाग। | |
(ख) सातकुइयाँ। | २—रामबाग़ अथवा आरामबाग़ |
(ग) बत्तीसखम्भा। | ३—एतमादुद्दौलाका मक़बरा। |
४—सैयदका बाग़। | ८—नवलगञ्ज। |
५—बाबरकी शहज़ादी ज़ोहराका जोहराबाग़। | ९—हुमायूँ की मसजिद। |
१०—बाबरका चहार-बाग़। | |
६—चीनीका रौज़ा। | ११—अचानकबाग़। |
७—मोती-बाग़। | १२—महताबबाग़। |
किलेके भीतरकी इमारतें।
१—किला। | ८—दीवाने ख़ास। |
२—मोती मसजिद। | ९—समन-बुर्ज। |
३—मीना बाज़ार। | १०—आरामगाह अथवा ख़ास-महल |
४—दीवाने आम। | ११—शीशमहल। |
५—नगीना मसजिद। | १२—अङ्गूरी बाग़। |
६—मच्छी-भवन। | १३—जहाँगीरी महल। |
७—जहाँगीरका बनवाया हुआ काले पत्थरका सिंहासन। | १४—सोमनाथका फाटक। |
आगरेके भीतर और पासपड़ोसकी इमारतें।
१—त्रिपोलिया। | ७—आलमख़ाँका बाग़। |
२—जामै मसजिद। | ८—फ़तेहपुरी मसजिद। |
३—रूमी-ख़ाँ की हवेली। | ९—सहेलियाँका गुम्बज़। |
४—शीश-महल। | १०—ताजबीबीका रौज़ा। |
५—ड्योढ़ी साहबजी। | ११—तिरियालका बाग़ीचा। |
६—जलालुद्दीन बुख़ारीकी दरगाह। | १२—लाल दीवार। |
१३—वज़ीरे आज़मख़ानदौगन की हवेली। | २५—काली मसजिद। |
१४—अहमद बख़ारीकी दरगाह। | २६—पुराना हम्माम। |
१५—दीवानजीका रोज़ा। | २७—मोतमिदख़ाँकी मसजिद। |
१६—महाबतख़ाँका बाग़। | २८—मुख़न्निसोंकी मसजिद। |
१७—तख़्ते पहलवान। | २९—गजा जसवन्तसिंहकी छतरी |
१८—फीगेज़ख़ाँका गैज़ा। | ३०—लाडिली बेगमका बाग़। |
१६—मख़नीका गुम्बज़। | ३१—कन्धारी बाग़। |
२०—जोधाबाईका महल। | ३२—सादिक़ख़ाँकी क़बर। |
२१—ईदगाह। | ३३—सलाबतख़ाँकी क़बर। |
२२—अलीवर्दीख़ाँका हम्माम। | ३४—एतबारख़ाँकी क़बर। इसे कोई-कोई सिकन्दर लोधीकी क़बर बतलाते हैं। |
२३—शाह विलायतकी दरगाह। | |
२४—अकबरी मसजिद। | ३५—गुरूका ताल। |
सिकन्दरेकी इमारतें।
१—सिकन्दर लोधीकी बागदरी | ३—अकबरका मक़बरा। |
२—हंस-महल। |
इस प्रकार आगरे में, और उसके आस-पास बाग़, मसजिदें, मकबरे, महल और हम्माम इत्यादि मिलाकर, ६४ इमारतें मुसलमानोंके समयकी हैं। इसपर भी हमने छोटी-छोटी कई इमारतोंके नाम छोड़ दिये हैं। जितने बाग़ हैं, प्रायः सबमें, किसी-न-किसी तरहकी एक-आध इमारत अवश्य है। जितनी इमारतें हैं, प्रायः सभी मुसलमानी ज़मानेके इतिहाससे थोड़ा-बहुत सम्बन्ध रखती हैं। वे सब ऐतिहासिक क हैं। क्याही अच्छा हो, यदि कोई उनका सविस्तर वृत्तान्त हिन्दीमें लिखे और जिस इमारतसे जिस ऐतिहासिक व्यक्ति या घटनाका सम्बन्ध हो उसका भी साथ-साथ उल्लेख करता जाय। प्राचीन इतिहासकी स्मृतिके लिए इसकी बड़ी आवश्यकता है।
यमुना-पारकी इमारतें।
राम-बाग़ या आराम-बाग़को कोई-कोई नर-अफशांका बाग़ कहते हैं। नूर-अफशां एक बेगमका नाम था। किसी-किसीका मत है कि जहांगीरकी प्रियतमा बेगम नूरजहांहीका दूसरा नाम नूर-अफशां था! इस बाग़के चारों तरफ़ दीवार है। पश्चिमकी तरफ़, अर्थात् जिस तरफ़ यमुना बहती है, एक ऊँचा चबूतरा है। उसीपर पांच अठकोने मीनार हैं। चबूतरेपर दो बारादरियाँ हैं। मरनेपर बाबर बादशाहका मृत शरीर यहीं रक्खा गया था। यहाँसे, कुछ दिनों बाद, वह काबुल भेजा गया। पर लोगोंका कथन है कि इस बाग़को नूरजहाँने बनवाया था। वह यहाँ अपनी सहेलियोंके साथ सैर करने आया करती थी। इसीसे इसका नाम "आराम-बाग़" हुआ।
एतमादुद्दालाका मकबरा यमुनाके किनारे, एक बाग़के भीतर, है। बाग़का रक़बा कोई १८० गज़ मुरब्बा है। नदीकी तरफ़ छोड़कर और सब तरफ़, बाग़के किनारे-किनारे, दीवार है। नदीकी तरफ एक ऊँचा चबूतरा है। बाग़के चारों कोनोंपर एक-एक बुर्ज है। पूर्वकी तरफ, बीचमें, एक बहुत अच्छा फाटक है। उत्तर और दक्षिणकी तरफ, बीचमें, लाल पत्थरकी कई बहुत सुन्दर इमारतें हैं। एतमादुद्दौलाकी क़बर जिस चबूतरेपर है वह १५० फुट मुरब्बा है। चबूतरा लाल पत्थरका है; वह ज़मीनसे कोई ३ फुट ऊंचा है। यह इमारत लगभग ७० फुट मुरब्बा है। बाहरसे इसमें सङ्गमरमर जड़ा हुआ है। इसके हर कोनेपर सङ्गमरमरके अठकोने मीनार हैं। इसके बीच में एक बड़ा मण्डप है। चारों तरफ, हर कोनेमें, एक-एक छोटा कमरा है। मण्डपमें, सब तरफ, मेहराब हैं। दक्षिणकी तरफवाली मेहराब खुली है। और सब संगमरमर को जालियोंसे बन्द हैं। दो मुख्य क़बरोंके सिवा, किनारेके पांच कमरोंमें भी एक-एक कबर है। इस इमारतमें पत्थरका, और रङ्गका भी, काम बहुत अच्छा है। परन्तु सङ्गमरमरके टुकड़ों के निकाल लिये जानेसे इसकी सुन्दरतामें कुछ बाधा आ गयी है। कहीं-कहीं रङ्ग भी ख़राब हो गया है। इसके भीतर एक लेख, १६१७ ईसवीका है। परन्तु जिस समय यह मक़बरा बना था उस समयका यह लेख नहीं जान पड़ता।
किलेके भीतरकी इमारतें।
आगरेका क़िला त्रिभुजाकार है। वह यमुनाके ठीक किनारे है। उसकी दीवारकी परिधि डेढ़ मीलके लगभग है। दीवारकी ऊंचाई ७० फुट है। दीवार लाल पत्थरकी है। उसके सब तरफ़ एक गहरा खन्दक है। उसके प्रधान फाटक, अर्थात् देहली दरवाज़े के सामने खंदकपर एक पुल बना हुआ है। उसे इच्छानुसार लगा या हटा सकते हैं। देहली दरवाज़े के दाहिनी तरफ, एक जगहपर, १६०५ ईसवीका एक लेख है। एक बार अकबरने खानदेशपर चढ़ाई की थी। उस चढ़ाईका और उससे आगरेको लौट आनेका वर्णन इस लेखमें है। अकबरहीने, १५६७ ईसवीमें, इस किलेको बनवाया था। पर उसके पहले भी यहां पर बाद लगढ़ नामक एक क़िला था। १५०२ ईसवीमें, भूकम्पसे, उसे बहुत हानि पहुँची थी। १५५३ ईसवीमें बारूदके उड़नेसे तो वही बिलकुल ही बरबाद हो गया था। यदि अकबरने इस किलेको बिलकुल ही गिराकर नये सिरेसे बनवाया तो उसे इसका बनवानेवाला कहना बहुत ठीक है। इस क़िलेके बनवाने में ३५ लाख रुपये ख़र्च हुए थे। ८ वर्ष तक इसका काम जारी रहा था।
मोती-मसजिद क़िलेके भीतर, बहुत ऊँचेपर, है। उसपर चढ़कर जानेके लिए दो तरफसे सीढ़ियाँ हैं। उसके बाहर लाल पत्थर लगा है। वह पूर्व-पश्चिम २५५ फुट और उत्तर-दक्षिण १९० फुट है। बाहरसे देखने में वह उदासीन मालूम होती है। परन्तु उसका भीतरी भाग बिलकुल सङ्गमरमरका है। इस कारण बाहरकी उदासीनता भीतरकी चमकसे ढक जाती है। मसजिदके सामनेका प्राङ्गण बहुत बड़ा है। मापमें वह १५५ फुट मुरब्बा है। ख़ास मसजिदमें बड़े-बड़े खम्भोंकी तीन क़तारे हैं। खम्भे बहुत अच्छे हैं। खम्भोंके ऊपर जो मिहराबें हैं वे देखने लायक़ हैं। इस मसजिदमें तीन गुम्बज़ हैं; उनमेंसे बीचवाला सबसे बड़ा है। इसमें संगमरमरकी जालीका काम बड़ा ही मनोहर है। मसजिदके चारों कोनोंपर चार मीनार हैं। नमाज़ पढ़नेके दीवानख़ानेमें सङ्गमरमर और सङ्गमूसाके टुकड़े बड़ी खूबीसे जड़े हुए हैं। ८९९ आदमी, एक साथ, इसमें नमाज़ पढ़ सकते हैं। यह मसजिद अपने सादेपनके लिए प्रसिद्ध है। १६४८ से १६५५ ईसवी तक इसमें काम होता रहा था। तब यह बनकर तैयार हुई थी। इसके बनवानेमें तीन लाख रुपया ख़र्च हुआ था। मोती-मसजिदके पास ही सर कालविनकी समाधि है।
दीवानेआम एक खुली हुई इमारत है। वह लाल पत्थरकी है। चौकोर खम्भोंकी चार क़तारोंपर मिहराबें हैं। उन्हींपर उसकी छत ठहरी है। इसका दूसरा नाम महले चेहल सितून, अर्थात् चालीस खम्भोंका महल, है। इसीके पास बादशाहकी बैठक या कचहरी थी; जहाँपर बैठकर वह, साधारण रीतिपर, राज्यके काग़ज़-पत्र देखता था, न्याय करता था, और जिससे जो कुछ कहना होता था कहता था। दीवान-आमहीमें अमीर-उमरा रोज़ आकर हाज़िरी देते थे।
नगीना मसजिद एक छोटी-सी मसजिद है। परन्तु देखनेमें बड़ी सुन्दर है। वह बिलकुल सफ़ेद पत्थर की है। शाही महलोंकी यह ख़ास मसजिद थी। बेगमें भी इसमें आया करती थीं। इसमेंसे होकर एक परदेदार रास्ता दीवाने-आम की छतपर गया है। छतपर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं। वहाँसे वह रास्ता हरम, अर्थात अन्तःपुर, तक गया है। इस मसजिदके तीन भाग हैं। इसकी छत छोटे छोटे खम्भोंकी तीन क़तारोंपर ठइरी है। खम्मे चौकोर और सादे हैं। छतपर तीन गुम्बज़ हैं।
मच्छी-भवन न मक १५० फुट*२०० फुटके प्राङ्गणमें जहाँगीरका सिंहासन रक्खा है। वह काले पत्थरका है। वह १० फुट ७ इंच लम्बा और ९ फुट १० इंच चौड़ा है। इस सिंहासनके किनारे एक लेख है। वह १६०२ ईसवीका है। अर्थात् वह अकबरकी मृत्युके तीन वर्ष पहलेका है। उसमें सुलतान सलीम, अर्थात् जहाँगीर, की प्रशंसा है। इस काले सिंहासनके सामने ही, थोड़ी दूरपर, संगमरमरका एक सफेद सिंहासन भी है।
दीवाने-ख़ासकी लम्बाई ६४ फुट और चौड़ाई ३४ फुट है। वह २२ फुट ऊँचा है। उसके सामने एक पेशग़ाहमें तीन मिहराबें हैं। उनके जवाबमें, दूसरी तरफ भी, उतनी ही मिहराबें हैं। दोनों किनारोंमें दो-दो ताक़-से हैं। उनपर भी मिहराबें हैं। दक्षिण-पूर्वकी तरफ शाही महलों में जानेका रास्ता है। उत्तर और दक्षिणकी तरफकी मिहराबोंके ऊपर जालीदार खिड़कियाँ हैं। इसमें एक लेख है, जिससे जाना जाता है कि यह इमारत १६३७ ईसवीमें बनायी गयी थी।
समन बुर्ज नामके दीवानख़ानेकी लम्बाई-चौड़ाई १७५*२३५ फुट है। इसके बनानेमें अपूर्व कारीगरी दिखायी गयी है। इसके प्राङ्गणमें रङ्गीन पत्थर जड़कर पचीसीके खेलका फ़र्श बनाया गया है। शाही बेगमोंके हम्माम और दूसरे मकानात इसके उत्तर हैं। यमुनाकी तरफ़ सङ्गमरमरकी जाली है। एक ओर जाली है जो अन्तःपुर, अर्थात् शाही हरम, को समन बुर्जसे अलग करती है। एक छोटासा कृत्रिम तालाब और फ़ौवारा भी इसमें है।
ख़ास महल या आरामगाह बड़ी ही मनोहर इमारत है। उसका दीवानखाना ७०*४० फुट है। उसकी छत और दीवारोंमें चित्र विचित्र बेल-बूटे बने हुए हैं। वे सब रङ्गीन हैं। उसमें छोटे-बड़े अनेक कमरे हैं। उनमें जो काम है बहुत अच्छा है। ख़ास बादशाहके, और शाहजहाँकी प्यारी शाहज़ादी जहान-आरा बेगमके, कमरे औरोंकी अपेक्षा सुन्दरता और शोभामें बहुत बढ़े-चढ़े हैं। ख़ास महलहीके पास शीश महल है। वह नीचेके खण्डमें है। वह शाही बेगमोंके नहानेकी जगह है। उसकी छत और दीवारोंमें आईने जड़े हुए हैं। उनमेंसे कुछ आईने निकल गये हैं। पर जितने हैं उतनेहीसे उसकी चमक-दमक और शोभाका बहुत-कुछ अन्दाज़ा हो सकता है। जिस समय इसमें रोशनी होती रही होगी उस समय यह स्थान तेजोमय हो जाता रहा होगा।
क़िलेके भीतर जहाँगीरी महल भी देखने लायक़ है।
इस क़िलेमें एक बहुत बड़ा फाटक रक्खा है। उसे लोग सोमनाथ का फाटक कहते हैं। १८४२ ईसवीमें वह ग़ज़नीसे आगरेको लाया गया था। लोगोंका ख़याल है कि सोमनाथका फाटक नहीं है। सम्भव है कि ग़ज़नीमें सुलतान महमूदकी कबरका यह फाटक हो।
आगरेके भीतर और पड़ोसकी इमारतें।
जामै मसजिद ११४४-१६४९ इसवीमें तैयार हुई थी। उसे शाहजहाँने बनवाया था। उसके बनवानेका काम शाहजहाँ ने अपनी शाहज़ादी जहान आरा बेगमके सिपुर्द किया था। इसलिए उसका असली नाम मसज़िदे बेगम है। उसके बनवाने में पांच लाख रुपया ख़र्च हुआ था। यह मसजिद लाल पत्थरकी है। इसका फर्श ज़मीनसे २१ फुट ऊंचा है। यह बहुत बड़ी मसजिद है। इसका विस्तार १३०*१०० फुट है। इसमें कई गुम्बज़ और कई मीनार हैं।
ताजबीबीके रौज़े पर इतने लेख लिखे जा चुके हैं कि उसके विषयमें अब अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं। यह रौज़ा भी यमुनाके किनारे, क़िलेसे कोई डेढ़ मील, है। आश्चर्य पैदा करनेवाली संसारकी जितनी इमारतें हैं ताजका रौज़ा भी उन्हींमेंसे है। इसे शाहजहाँने अपनी प्रियतमा बेगम मुमताज़ महलके लिए बनवाया था। इस बेगमको अरज़मन्द बानू बेगम या नवाब आलिया बेगम भी लोग कहते थे। ताजका चबूतरा ज़मीनसे १८ फुट ऊँचा है। उसपर सङ्गमरमर बिछा हुआ है। चबूतरेका रक़बा ३१३ फुट मुरब्बा है। उसके चारों किनारोंपर एक-एक मीनार, १३३ फुट ऊँचा, है। सुन्दरतामें इन मीनारोंकी बराबरी हिन्दुस्तानमें कोई मीनार नहीं कर सकता। इसके प्रधान मण्डपका घेरा ५८ फुट और ऊँचाई ८० फुट है। उसके बीचमें, सङ्गमरमरकी जालियोंसे घिरा हुआ, एक स्थान है। उसीमें मुमताज़ महल और शाहजहाँकी क़बरें हैं। उसके नीचे एक अंधेरा स्थान है। असल क़बरें वहीं हैं। ऊपरी कमरेमें जो क़बरें हैं वे उनकी नकल हैं। इसमें सङ्गमरमर और सङ्गमूसा इत्यादि उत्तम-उत्तम पत्थरोंके सिवा और कुछ नहीं लगा! इन्हीं पत्थरोंमें रङ्ग-रङ्गके बहुमूल्य नग जड़े हुए हैं। उन्हींको पच्ची करके अनेक तरहके बेल-बूटे बनाये गये हैं। रौजेके चारों तरफ़ तुग़रा हुरूफोंमें कुरानके वाक्य, काले पत्थरोंकी पच्चीकारीके काममें नक्श हैं। इसकी बराबर सुन्दर इमारत हिन्दुस्तानमें दूसरी नहीं। दूर-दूरसे लोग इसे देखने आते हैं। मुमताज़महल बेगमकी मृत्यु दक्षिणमें हुई थी। जब रौज़ा बन गया तब उसकी हड्डियां लाकर रौज़े के भीतर कबरमें रक्खी गई थी। रौज़े के बाईं तरफ़ तीन गुम्बज़की एक मसजिद है। दाहनी तरफ़ उसके जवाबमें एक और मसजिद है। राज़े के सामने एक हौज़ है। उसमें फ़ौवारोंकी एक पाँति है। हौजके पानीमें रङ्ग-बिरङ्गी मछलियाँ हमेशा खेला करती हैं। यह रौज़ा एक बाग़के भीतर है। उसमें चन्दन, इलायची, सुपारी और मोलसिरी आदिके अनेक पेड़ हैं। फूल भी, उसमें, नाना प्रकारके होते हैं। वे सब ऋतुओंमें खिला करते हैं। इस रौज़ में कई लेख हैं। मुमताज़-महलकी क़बरपर जो लेख है वह १६३१ ईसवीका है और शाहजहाँकी क़बरपर जो है वह १६६७ का है। बाहर जो लेख हैं उनमेंसे एक १६३७ ईसवीका है; दूसरा १६३९ का; और तीसरा १६४८ का। इससे जान पड़ता है कि जैसे-जैसे इसके भाग तैयार हुए हैं वैसे ही वैसे उनपर लेख लिखे गये हैं। २२ वर्षतक इसमें काम जारी रहा था; और सवा तीन करोड़ रुपये इसके बनाने में खर्च हुए थे।
छीपी-टोला महल्लेमें अलीबदींखाँका हम्माम; दरबार शाहजी महल्ले में शाह वलायतकी दरगाह; चौकमें अकबरी मसजिद, हीरामनके बाग़ में काली समजिद और लोहेकी मण्डीमें मुखन्निसों (क्लीबों) की मसजिद भी पुरानी ऐतिहासिक इमारतें हैं।
जोधपुरके राजा जसवन्तसिंहकी छतरी भी, आगरेमें, एक मशहूर जगह है। वह एक बाग़के बीचमें है। छत्रा अभी खूब अच्छी हालतमें है। उसमें लाल पत्थर लगा हुआ है। इसका काम तारीफके क़ाबिल है। जसवन्तसिंह दाराशिकोहके पक्षपाती थे। १६७७ ईसवीके लगभग क़ाबुलमें उनकी मृत्यु हुई थी। उस समय औरंगजेब बादशाह था। अतएव सम्भव नहीं कि राजा जसवन्तसिंहका अग्निसंस्कार आगरमें हुआ हो। शायद उनकी यादगारमें यह छत्री, पीछेसे, बनवायी गयी हो। सिकन्दरकी इमारतें।
आगरेसे सिकन्दरा ५ मील है। लोगोंका अनुमान है कि लोधी घरानेके बादशाहोंके समयका आगरा यहीं था। आगरे और सिकन्दरेके बीच में अनेक पुरानी इमारतोंके खँडहर अबतक पाये जाते हैं। सिकन्दरेमें सिकन्दर लोधीकी बारादरी मशहूर है। वह १४९५ ईसवीमें बनी थी। इस इमारतको लोग अकबरकी ईसाई बेगम मरिअमुज्ज़मानीके रौज़े के नामसे अधिक जानते हैं। अकबरने एक क्रिश्चियन मेमसे विवाह किया था। उसीकी क़बर यहाँपर है।
सिकन्दरेकी इमारतोंमें सबसे अधिक दर्शनीय इमारत अकबरकी क़बर है। उसके चारों तरफ़ बाग़ है। बाग़में चार फाटक हैं, मक़बरेकी इमारत पाँच खण्डोंकी है। नीचेके खण्डोंकी अपेक्षा ऊपरके खण्ड छोटे होते गये हैं। सबसे ऊपरका खण्ड बिलकुल सङ्गमरमरका है। अकबरकी क़बर नीचे है। उसका जवाब जो ऊपर है उसके सिरहाने और पैताने अल्लाहो अकबर और जल्लअजलालहू खुदा हुआ है। इधर-उधर परमेश्वरके ९९ नाम अरबीके बड़े ही सुन्दर अक्षरों में नक़्श किये हुए हैं। परन्तु वहाँ जितने लेख हैं उनम महम्मद साहबका नाम कहीं नहीं है। इसमें पत्थरका काम पहले बहुत अच्छा था। परन्तु डीगके जाट राजा जवाहरसिंहने इसके बहुतसे कीमती पत्थर उखाड़कर इसकी शोभा कम कर दी। इसी मक़बरेमें अकबरकी दो बेटियाँ और दो पोतियाँ भी दफन की गयी हैं। शाहे आलमके बेटे सुलेमांशिकोहकी भी कबर यहीं है। उसकी दो बेगमें भी उसीके पास दफ़न हैं। यह मकबग, जहाँगीरके समयमें, १६१२ ईसवोमें बनकर तैयार हुआ था।
—— [मार्च १९२३]