रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ २३९ से – ३८४ तक

 

॥२७ ॥ अथ रेवातट सम्यौ लिभ्यते ॥ २७ ॥

दूहा

देव्ग्गिरी जोते सुभट, आयौ चामंड राइ[]
जय जय त्रप कोरति सकल, कही कव्विजन गाइ[] ॥ छं० १ । रू० १।
मिलत राज प्रथिराज सो, कही राव चामंड ।
रेवातट जो मन करौ, (तौ)[] वन अपुञ्च गज झुंड ॥ छं० २ । रू० २।

भावार्थ-रू० १-(जब) देवगिरि को जीतकर श्रेष्ठ वीर चामंडराय या (ब) सब कवियों ने राजा ( पृथ्वीराज ) की कीर्ति का जय गान किया ।

रू० २ - (तद्पश्चात् ) चामंडराय ने महाराज पृथ्वीराज से मिलकर कहा कि यदि आप रेवातट पर चलने की इच्छा करें तो वहाँ वन में अपूर्व हाथियों के झुंड मिलेंगे ।

शब्दार्थ- - रू० १ - देवगिरि देवगिरि = आधुनिक दौलताबाद का नाम था । दौलताबाद, निजाम राज्य में औरंगाबाद के पास और नर्मदा नदी के दक्षिण में १९५७ अक्षांश उत्तर और ७५° १५' देशांतर पूर्व में बसा है [ Hindostan. Hamilton Vol. II, p. 147 ] | देवगिरि नाम का न भी था और दुर्ग भी । [वि० वि० प० में ] 'देवगिरि सम्यौ' के अनुसार पृथ्वीराज ने देवगिरि के राजा की पुत्री शशित्रुता का अपहरण कर उससे विवाह किया जिसकी राजा जयचन्द को मँगनी दी जा चुकी थी । इसके फलस्वरूप पृथ्वीराज के सेनापति चामंडराय की अध्यक्षता में देवगिरि के राजा व जयचंद की संयुक्त सेना से युद्ध हुआ । वामंडराय विजयी हुआ । उसके अनुसार नर्मदा नदी दिल्ली से देवगिरि जानेवाले मार्ग में पड़ती थी जिसे हम भूगोल के अनुसार ठीक पाते हैं । चामंडराय = यह दाहरराय दाहिम का सब से छोटा पुत्र था और पृथ्वीराज का एक वीर सेनापति था । कव्विजन < कविजन = कवि ( बहुवचन) । सुभट-श्रेष्ठ वीर ।


रू० २ - प्रथिराज < पृथ्वीराज (तृतीय) चौहान जो दिल्ली का अन्तिम हिंदू सम्राट था । यह अजमेर के राजा सोमेश्वर का पुत्र था [ राजपूताना का इतिहास गौ० ही० श्र०, भाग १, जिल्द ४, पृ० ७२ ]। रेवा श्राधुनिक नर्मदा नदी का नाम था । नर्मदा मध्यप्रदेश की एक नदी है जो अमर कंटक पर्वत से निकलकर खंभात की खाड़ी में गिरती है। रेवा, भारत के उस देशखंड को भी कहते हैं जहाँ नर्मदा नदी बहती है । रीवाँ राज्य बघेलखंड में है । विंध्य श्रेणी पर विस्तृत रेवा श्रर्थात् नर्मदा की धार की तुलना कालिदास ने हाथी के शरीर पर खौर रेखाओं से की है-

रेवां द्राच्यस्यूफ्लविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमङ्गे गजस्य ॥ १६ ॥ मेघदूत।

१२-१३ वीं शताब्दी के जैन प्राकृत ग्रंथों में रेवा अर्थात् नर्मदा नदी के तट पर स्थित कई जैन तीर्थों का उल्लेख मिलता है परन्तु १७०० मील बहने वाली इस नदी पर अन्य प्रमाणों के अभाव में अभी तक उनका स्थान निर्दिष्ट नहीं किया जा सका । एक उल्लेख दृष्टव्य होगा--

दहमुहरायस्स सुत्रा कोडी पंचद्धमुशिवरें सहिया ।
रेवा उम्मि तीरे शिव्याण गया रामो तेसिं ॥ १० ॥
रेवा इये तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे।
दो चीदह पेयको डिशिवदे बन्दे ॥११॥
रेवातस्मि तीरे संभवनाथस्स केवलुप्पपत्ती ।
आहुट्ठय कोडीनिव्वाण गया रामो तेसिं ॥ १२॥ क्रियाकलाप।

रेवा के उद्गम अमरकंटक के समीप रावण की लंका की प्रस्थापना के लिये भी उपर्युक्त छंद १० की मुखपंक्ति विचारणीय होगी।

तट- किनारा । अपुत्र < अपूर्व, यह 'गज' और 'राज झुंड' दोनों का विशेषण है।

नोट -- “प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का fara माना जा सकता है। उस समय जैसे गाथा कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही 'दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्यभाषा का पद्य समझा जाता था ।" [हिन्दी साहित्य का इतिहास, पं० रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ ३ ]। दोहा या दूहा मात्रिक छंद है। इसके विषम रणों में १३ और सम चरणों में ११ मात्रायें होती हैं । पहिले व तीसरे चरण के आदि में जगरण न होना चाहिये और अंत में लघु होना चाहिये ।

कवित्त

"बिन्द्र ललाट प्रसेद, करयौ संकर गजराजं ।
औरापति[] धरि नाम दियौ चढ़ने सुरराजं ॥
दानव दल तेहिं[] गंजि रंजि उमया उर अंदर ।
हो कपाल हस्तिनी संग बगसी रचि सुंदर ॥
लादि तासु तन कै, रेवातट वन बिधतरिय ।
सामन्तनाथ सों मिलत इप, दाहिमै कथ उच्चरिय ॥ ६०३। रू०३ ।

भावार्थ--रू० ३–“शंकर ने अपने ललाट के प्रस्वेद की बूँद से तिलक करके गज को गजराज बना दिया और ऐरापति नाम करण करके उसे सुरराज को सवारी के लिये दिया [ शंकर ने अपने ललाट के पसीने की बूँद से गजराज को उत्पन्न किया - ह्योर्नले ] । उसने राक्षस समूह का गंजन कर उमा के हृदय को रंजित किया (प्रसन्न किया ) और उन्होंने कृपालु होकर उसे एक सुन्दर हस्तिनी (हथिनी ) प्रदान की । इन्हीं ( हाथियों) के शरीर से इनका कुटुम्ब बढ़ा और रेवातट के वन में फैल गया ।" सामन्तों के नाथ (पृथ्वीराज ) से मिल कर दाहिम (चामंडराय ) ने इस कथा का वर्णन किया।

शब्दार्थ – रू० ३ –विन्द < बिन्दु <हि० बँद । लता माथा । प्रसेद < सं० प्रस्वेद = पसीना । संकर <सं० शंकर [वि०वि० प० में] । गजराजजों का राजा । ऐरापति सं० ऐरावत - इन्द्रहस्ती । ऐरावत शुक्लवर्ण और चतुर्दन्त विशिष्ट है । समुद्र-मंथन के समय चौदह रत्नों के साथ यह भी निकला था । यह पूर्व दिशा का राज कहा जाता है। इसके अन्य नाम अभ्रमातङ्ग, ऐरावण, भूवल्लभ, श्वेतहस्ती, मल्लनाग, इन्द्रकुंजर, सदादान, सुदामा, श्वेतकुंजर, जामी और नागमल्ल हैं ।

" इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोऽपि तं पुनः ।
आरुहौरावतं झन् प्रययावमवरावतीम् ॥” १-१-२५ विष्णु पुराण

सुरराजं < सं० सुरराज= इन्द्र । एक वैदिक देवता जिसका स्थान अंत- रिक्ष है और जो पानी बरसाता है। यह देवताओं का राजा माना जाता है । इसका वाहन ऐरावत और अस्त्र वज्र है । इसकी स्त्री का नाम शन्चि और सभा का सुधर्मा है, जिसमें देव, गंधर्व और अप्सरायें रहती हैं । इसकी नगरी अमरावती और न नंदन है । उचैःश्रवा इसका घोड़ा और मातलि सारथी। वृत्र, त्वष्टा, नमुचि, शंबर, पण, वलि और विरोचन इसके शत्रु हैं। जयंत


इसका पुत्र है । यह ज्येष्ठा नक्षत्र और पूर्व दिशा का स्वामी है। इसके अनेक नाम हैं । दानव -- संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० दानवी ]-- कश्यप के वे पुत्र जो दनु नाम्नी पत्नी से उत्पन्न हुए। मायावी दानवों का उल्लेख ऋग्वेद में भी है । महाभारत के अनुसार दक्ष की कन्या दनु से शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, विप्रचित्ति, दुर्जय, अय: शिरा, विरूपाक्ष, महोदर, सूर्य, चन्द्र इत्यादि चालीस पुत्र हुए जिनमें विप्रचित्ति राजा हुआ । दानवों में जो सूर्य चन्द्र हुए उन्हें देवताओं से भिन्न समझना चाहिये । भागवत् में दनु के ६१ पुत्र गिनाये गये हैं । मनुस्मृतियों में लिखा है कि दानव पितरों से उत्पन्न हुए । मरीचि यादि ऋषियों से पितर उत्पन्न हुए, पितृगणों से देव तथा दानव और देवताओं से यह चराचर जगत अनुपूर्विक क्रम से उत्पन्न हुआ । गंजिगंजन कर, नाश कर । रंजि=रंजन ( प्रसन्न ) कर । उमया - [ सं० <उमा ] - शिव की स्त्री पार्वती । कालिका पुराण में लिखा है कि जब पार्वती शिव लिये तय कर रहीं थीं उस समय उनकी माता मेनका ने उन्हें तप करने से रोका था । इसीसे पार्वती का नाम उमा पड़ गया; अर्थात् उ ( है ) मा ( मत ) पार्वती, गौरी, दुर्गा, शिवा, भवानी, गिरिजा यादि नामों से ये पूजी जाती हैं। उर -- संज्ञा पुं० [सं० उरस् ] वक्षःस्थल, हृदय, मन । [ उ० – “3र अभिलाप एक मन मोरे" राम चरित मानस ] | क्रपाल = कृपालु | हस्तिनी हथिनी [सं० हस्तिन् <हि० हाथी ] | बगसी <फा० प्रदान की। चौलादि ८० 3]]==संतान । सामन्तनाथ - सामंतों के स्वामी अर्थात् पृथ्वीराज चौहान । इह यह "हिन्दी के इस रूप की संभावना अपभ्रंश तथा प्राकृत में प्रचलित किन्हीं सुसाहित्यिक रूपों से हुई है।” हिन्दी भाषा का इतिहास- डॉ० धीरेन्द्र वर्मा पृष्ठ २६७ । जहाँ तक मेरा अनुमान है 'इह' शब्द से ही 'यह' निकला है । पृ० रा० में 'यह' के स्थान पर 'इह' का ही प्रयोग मिलता है। दाहिम्मै [ दाहिम ] - राजपूतों की जाति विशेष । 'दाहिम्यै' यहाँ चामुंडराय के लिए आया है जो दाहिम जाति का राजपूत था ।

नोट - प्रस्तुत रेवातर समय के तथा पृ० रा० के वे सारे छंद जिन्हें चंद-वरदाई ने 'कवित्त' संज्ञा दी है, वे छंद-ग्रंथों में दिये हुए कवित्त के लक्षणों से नहीं मिलते, और मिलें भी कैसे, क्योंकि वे कवित्त हैं नहीं - वे हैं 'छप्पय' । तब चंद वरदाई ने 'छप्पय' को 'कविन्त' क्यों लिखा ? इसका रहस्य पृ० रा० ना० प्र० स० पृष्ठ ६ के फुटनोट में इस प्रकार उद्घाटन किया गया है-

"सांप्रत काल में यह छप्पय, छप्पै षट्पद, षट्पदी आदिक नामों से प्रसिद्ध है । परन्तु सत्रहवीं शताब्दी के पहिले यह कवित्त नाम से ही प्रसिद्ध था । रूपदीप पिंगल वाले ने भी नीचे लिखा छप्पय का लक्ष्ण कहा है उसमें उसने भी यह कहा है कि इस ग्रंथ के बनाने के समय तक 'छप्पै' का नामांतर 'कवित्त' करके प्रसिद्ध था--

छप्पै

'लघु दीरं नहि नेम । मत्त चौबीस करीजै ॥
ऐसे ही तुक सार। धार तुक चार भरीजै ॥
नाम रसावल होय । और वस्तू कमि जानहु॥
उल्लाला को विरत । फेर तिथि तेरह श्रानहु ॥
है तु बनाव अंत की । यत यत में अठ बीस गहु ॥
सुन गरुड़ पंख पिंगल कहै । छप्पै छंद कवित्त यहु । '

इसके अतिरिक्त कवि कृत 'रघुनाथ रूपक' में भी उसने छप्पै छंदों को कवित्त करके लिखा है ।"

अरिल्ल

च्यारि प्रकार पिषि वन वारन ।
भद्र मंद नग जाति सधारन ॥
पुच्छि चंद कवि को[] नरपत्तिय ।
सुर वाहन किम इ घरतिय ॥छं ० ४

चंद कवि का उत्तर --

कवित्त

"हेमाचल उपकंठ एक वट वृष्प उतंगं[]
सौ जोजन परिमानं साप तस भंजि दाहि मतंगं[]
बहुरि दुरद मद अंघ ढाहि मुनिवर आरामं ।
दीर्घतपा री[] देषि श्राप दीनो कुपि तामं ॥
अंबर विहार गति मंद[१०] हुअ नर आरूढन संग्रहिय ।
संभरि नरिंद्र कवि चंद काह सुर गइंद इम भुवि रहिय ।।छं० ५। रू ०५।

भादार्थ –रू० ४–[ चामंडराय पृथ्वीराज से कहता है-- ] " (उस) वन में भद्र, मंद, मृग और साधारण- ( ये ) चार प्रकार के हाथी देखे जाते हैं ।" ( तब ) नरपति ( पृथ्वीराज ) ने चंद कवि से पूछा कि देवताओं का वाहन पृथ्वी पर किस प्रकार आ गया ।


रू० ५ - [ चंद कवि ने पृथ्वीराज को उत्तर दिया-] " हिमालय के समीप एक बड़ा ऊँचा वट का वृक्ष था जो सौ योजन तक विस्तृत था । भतंग ने (पहिले तो) उसकी शाखायें तोड़ीं और फिर मदांध हो उसने दीर्घतपा ऋषि का उद्यान उजाड़ डाला (जिसके फलस्वरूप) हाथी की आकाश गामी गति मंद (क्षीण) हो गई और नरों ( मनुष्यों) ने उसे सवारी के लिये संग्रह कर लिया ।" चंद कवि ने कहा कि हे संभल के राजा (पृथ्वीराज), इस प्रकार सुर गयंद भूमि (पृथ्वी) पर रह गया।

शब्दार्थ - रू० ४ - च्यारि=चार। पिषि= (पेखना < सं० प्रेक्षण) देखे जाते हैं । वारन = हाथी । पुच्छि= पूछा <सं० पृच्छ नोट- प्राय: भद्र,मंद्र या मंद और मृग इन तीन प्रकार के हाथियों का वर्णन मिलता है परन्तु कहीं कहीं चार से अधिक हाथियों की जातियों का भी उल्लेख है । को-से । नरपत्तिय- नरपति (राजा)। सुर वाहन-देवताओं की सवारी किम=किस प्रकार, कैसे। धरत्तिय हि० धरती <सं० धरित्री = पृथ्वी।

रू० ५——हेमाचल=[हेम (बर्फ) + अचल ] हिमालय पर्वत (जो भारतवर्ष की उत्तरी सीमा पर है।)। उपकंठ - वि० (सं०) निकट, समीप। बट- बरगद। वृष < सं० वृक्ष = पेड़ । उतंगं ऊँचा। जोजन <सं० योजन । परिमान <सं० प्रमाण। साथ <शाख (यहाँ 'साप' का बहु वचनांत प्रयोग है )। तस< सं० तस्य= उसकी। भंजि <सं० भंजन = तोड़ना । मतंगं-हाथी। बहुरि=फिर। दुरद < सं० द्विरद = दो दाँत वाला अर्थात् हाथी । दाहि गिराना । श्रारामं == फुलवारी aगीचा, उद्यान, उपवन [अ० -- "परम रम्य आराम यह जो रामहिं सुख देत।" रामचरितमानस ]। देषि < हि० देखकर। कुपिकुपित अर्थात् क्रोधित होकर । तामं=तिसको ( अर्थात् -- उसको )। दीर्घतपा री = ('री' शब्द ऋषि का संकेत बोधक प्रतीत होता है ।) दीर्घतमस् ऋषि एक प्रख्यात ऋषि थे। ये चन्द्रवंशी पुरुरवा के वंशज काशिराज के पुत्र, काश के पौत्र और प्रसिद्ध धन्वंतरि वैद्य के पिता थे (विष्णु पुराण)। 'अनु' के वंशज सूतपस के पुत्र बलि की स्त्री से नियोग करके इन्होंने अंग, बंग, कलिंग, सुझ और पुण्ड नामक पाँच पुत्र उत्पन्न किये थे ( विष्णु पुराण ४ । १८। १३ )। महाभारत, मत्स्य पुराण और वायु पुराण में दीर्घतमस् का जन्म बृहस्पति के बड़े भाई उजासि ( या उतथ्य ) और ममता द्वारा होना लिखा है। वायु पुराण में हम इनका नाम दीर्घतपस भी पढ़ते हैं । ह्योनले महोदय ने यू० पी० जिला फरूखाबाद के कंपिल ग्राम के जिन दीर्घतपा ऋषि का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है उन से यहाँ कोई संबंध नहीं समझ पड़ता। डॉ० ह्योनले का अनुमान है कि अगले छठे कवित्त में आने वाले पालकाव्य ऋषि संभवतः दीर्घतमा के पुत्र धन्वंतरि ही हैं। अंबर विहार आकाश गामी । गति = चाल । मंद हु= मंद [ कम- ( यहाँ क्षीण से तात्पर्य है ) ] हो गई। आरूढ़न < सं० आरोहण चढ़ना । संग्रहिय= संग्रह किया ( भूत कालिक कृदंत ), यहाँ 'संग्रहिय' से पकड़ने का . संकेत है। संभरि नरिंद= साँभर का राजा ( पृथ्वीराज ) । सुर गइंद< सं० सुर गयंद (गयंद - हाथी) । भुवि <सं० भूभूमि, पृथ्वी । रहिय= रह गया ।

नोट - अल्लि रूपक का लक्षण - 'रूप दीप पिंगल' के अनुसार यह है—

"लघु दीर को नेम न कीज।
ऐसे ही तुक चार भरीजै ॥
षोडश कला कली विच धारें।
छंद अरिल्ला शेष उचारें ॥"

'इसके किसी चौक में 'जन' जगण (।ऽ।) न होना चाहिये।'

छंद: प्रभाकर, भानु । 'प्राकृत पैङ्गलम्' में इसका निम्न नियम मिलता है-

सोलह मत्ता पाउ अलिल्लह ।
वेगि जमक्का भेउ अलिल्लाह ॥
होण पत्रोहर किंपि अलिल्लाह।
अंत सुपि भण छंदु अलिल्लाह ॥I॥१२७॥

पोडश मात्रा: पदावली लभतां द्वेपि यमके भेद इति गृह्यतां । भवति पयोधरः किमपि अश्लाघ्य : सुप्रियोऽन्ते यत्र छंद: प्रलिल्लाह || प्रतिपादं षोडश मात्रा:, द्वयोश्चरणयोर्यमकं, जगणो न कर्त्तव्यः, लघुयं च तत अभि [ लि ] लह छंद इत्यर्थः ||२८||(G)

कवित्त

अगदेस पुरब्ब मद्धि वन पंड महत्वर ।
उज्जल जल दल कमल, विपुल लुहिताच्छ सरव्बर ॥
श्रापित की जूथ, करत कीड़ा निसि वासर ।
पालकाव्य लघुबेस रहत एक तहाँ रुपेसर ॥
तिन प्रतिबंधित परसपर, रोमपाद नृप संभरिय।
आखेट जाइ न पकरि, दुरद आणि चंपापुरिय ।। छं० ६ । रू० ६।

भावार्थ–रू० ६–[चंद कवि ने फिर कहा ]-""पूर्व प्रदेश के एक अति सघन वन के मध्य में लोहिताक्ष नाम का जिसका जल अत्यंत स्वच्छ है और उसमें कमलों के दल प्रस्फुटित दिशा में यंगसरोवर है,।( उसी सरोवर में आप ) - पाया हुया हाथियों का झुंड दिन रात क्रीड़ा किया करता है । वहीं पालकाव्य नामक एक युवक ऋषि कुमार रहते थे और उनसे तथा हाथियों से परस्पर बड़ी प्रीति थी । हे संभलराज ! ( इसी समय के अनंतर ) राजा रोमपाद ग्राखेट के हेतु वहाँ आया और फंदों द्वारा द्विरदों ( हाथियों ) को पकड़कर ( अपनी राजधानी ) चंपापुरी ले गया ।"

शार्थ - रू० ६ - श्रंग देस - सूतपस के पुत्र बलि की स्त्री का 'दीर्घ- तमस' द्वारा नियोग होने पर यंग, बंग, कलिंग, सुझ और पुराहू नामक पाँच पुत्र हुए। ये पाँचों जिन पाँच प्रदेशों में बसे वे प्रदेश उसमें बसनेवाले लड़के के नाम से विख्यात हुए ( विष्णु पुराण ४।१८। १३-४ ) । अंग जिस प्रदेश में जाकर रहे थे वह प्रदेश अंग प्रदेश' या 'अंग देश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भागलपुर के चारों ओर के प्रदेश का नाम अंग था । महाभारत में लिखा है कि दुर्योधन ने यह प्रदेश क को दिया था । और आज भी यहाँ कर्षों का किला खँडहर पड़ा है। पूरन<सं० पूर्व । मद्धि <सं० मध्य । गव्वर = सघन । उज्जल <सं० उज्ज्वल । विपुल-बड़ा, ब्रूहत । लुहिताच्छ <सं० लोहितान् । सरव्वर << सरोवर । जूथ सं० यूथ । निसिवासर = रात-दिन । लघु वेस = लघु वयस, थोड़ी अवस्थावाला, युवक। पालकाव्य-संभव है कि ये ही धन्वंतरि रहे हों । अगले गाथा छंद में हम पढ़ते हैं कि पालकाव्य ने हाथियों की चिकित्सा की और उन्हें अच्छा कर दिया। पाल कविराज द्वारा रचित ' पालकाव्य' नामक ator ग्रंथ में भी हाथियों की चिकित्सा आदि का वर्णन मिलता है। पालकाव्य ऋषि प्रणीत हाथियों को चिकित्सा विषय संस्कृत ग्रंथ का हिंदी भाषांतर और टीका सहित एक हस्तलिखित ग्रंथ 'अनूप संस्कृत पुस्तकालय' वीकानेर में है। इस ग्रंथ में १४२ प्रकार के हाथियों का वर्णन और उनके रोगों के निदान तथा औषधि की व्यवस्था है । ग्रंथ परिचय देखिये-

वैद्यक ग्रंथ -(५) गजशास्त्र -(अमर सुबोधिनी भाषा टीका) सं० १७२८ ।

Colophon-इति पालकाव्य रिषि विरचितायां तद्भापार्थं नाम अमरन सुवोधिनी नाम भावार्थ प्राकाशिकायां समाप्ता शुभं भवतु ।

लेखन काल - सं० १७२८ वर्षे जेठ सुदी ७ दिने महाराजाधिराज महाराजा श्री अनूपसिंह जी पुस्तक लिखावितः । मथेन राखेचा लिखतम् । श्री ओरंगाबाद मध्ये ।

प्रति - पत्र ५ । पंक्ति ६ । अक्षर ३० । थाकार २०३५ इत्र ।

"राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज' अगरचंद नाहटा । रूपे- सर <सं० ऋपेश्वर ऋषियों में श्रेष्ठ । परसपर < सं० परस्पर एक दूसरे से रोमपाद - [या लोमपाद-पैरों में रोयें वाला ।] 'अनु' के वंशज दीर्घतमस' के नियोग द्वारा उत्पन्न 'अंग' के नाम से अंग देश प्रसिद्ध हुआ । अंग के प्रपौत्र धर्मरथ हुए और धर्मरथ के पुत्र रोमपाद नाम से विख्यात हुए । रोमपाद का दूसरा नाम दशरथ भी था । रोमपाद पुत्रहीन थे व्रतएव सूर्यवंशी 'ज' के पुत्र 'दशरथ' ने इन्हें अपनी कन्या शांता गोद लेने के लिये दी थी ( विष्णु- पुराण ४। १८। १५-८) । बाल्मीकि रामायण में भी इस कथा का उल्लेख है। दशरथ की पुत्री शांता का विवाह शृंग ऋषि के साथ हुआ था । अग्निपुराण, मत्स्यपुराण और रामायण में हम शांता के दत्तक पिता का नाम लोमपाद ही पाते हैं। उत्तर रामचरित्र - पृष्ठ २८६ में भी 'रोमपाद' नाम मिलता है। संभरिय संबोधन वाचक शब्द है और संभल के राजा पृथ्वीराज चौहान के लिये प्रयुक्त हुआ है। फंदन, फंदा का बहुवचनान्त प्रयोग है। चंपापुर [चंपापुरी या चंपापुर ] 'अनु' के वंशज रोमपाद के प्रपौत्र 'चंप' ने 'चंपा' नगर बसाया ( विष्णुपुराण- -४/१८ १६-२० )। भागवत में चंपापुरी बसानेवाले चंप का नाम नहीं मिलता। उसमें 'चंप' का नाम इक्ष्वाकु के वंशजों में अपने उचित स्थान पर न होकर प्रथम ही लिख दिया गया है। 'चंपापुर अंग देश के जिले चंपा की राजधानी थी'[ Ancient Geography of India. Cunninghan. p. 477]। 'बिहार के जिले भागलपुर में चंपा नगर एक बड़ा ग्राम है। भागलपुर से तीन मील की दूरी पर २५० १४ अक्षांश उत्तर और ८६° ५५' देशांतर पूर्व में बसा हुआ है [The East India Gazetteer. Hamilton Vol. I, p. 390 ]। भागलपुर के समीप इस प्राचीन नगर के ध्वंसावशेष अव भी देखे जा सकते हैं। नगर का स्थान एक साधारण ग्राम ने ले लिया है।

दूहा

पालकाव्य कैं विरह करि अंग भये तीन।
मुनिवर तब तहूँ आय कै गज चिग्गछ[११] गुन कीन ॥ छ० ७ । रू० ७

गाथा

कोंपर पराग पत्रं छालं डालं फलं[१२] फुलं कंद ।
फल्लि[१३] कली दे जरियं कुंजर करि थूलयं तनं[१४] ॥ छं० ८ रू० ८


भावार्थ – रू०७- “पालकाव्य की विरह के कारण उनके ( हाथियों के ) शरीर अत्यन्त क्षीण हो गये तब मुनिवर ने वहाँ ( चंपापुरी में ) आकर उनकी भलीभाँति चिकित्सा की।

रू० ८ – उन्होंने कोंपलें, पराग, पत्तियाँ, छालें, डालियाँ, फल, फूल, कंद, फलियाँ, कलियाँ और जड़ियाँ खिलाकर कुंजरों का शरीर (पुनः) स्थूल कर दिया।

शब्दार्थ - रू० ७-पीन सं० चीरा- निर्बल । चिरगछ < प्रा०चिगिच्छा < सं० चिकित्सा (= दवा)। गुन गुणपूर्वक अर्थात् योग्यतापूर्वक भलीभाँति। कीन (अवधी)- किया।

रू० ८ - कोपर <सं० कोपल। पत्र - पत्ते। कंद - विना रेशे की गूदेदा जड़ जैसे सूरन, शकरकंद, गाजर, मूली आदि ( उ० - कंद मूल फल अमिय अहारू - रामचरितमानस)। फल्लि फलियाँ ।कली- कलियाँ। जरियं जड़ियाँ | कुंजर - हाथी (नरो वा कुंजरो वा - महाभारत)। थूलयं सं० स्थूल । तनं = शरीर। कार ( ज ) = किया।

नोट- रू० ७- 'गज चिग्गछ गुन कीन' का अर्थ Mr. Growse ने यह किया है — “The elephants screamed again and again with delight.” अर्थात् हाथी बड़ी प्रसन्नता से बार बार विध्वारे [Indian Antiquary. vol III. p. 340 ]।

‘रासो-सार', पृष्ठ εε में लिखा है--"देव योग से चंपापुरी का राजा रोमपाद वहाँ शिकार करने आया और वह ऐरावत को पकड़कर अपनी राज- धानी को ले गया । इधर हाथी के विरह में पालकाव्य दिन दिन दुबला होने लगा । अंत में वह उसी सोच में मर गया और हाथी की योनि में जन्मा।"

'रासो-सार' के लेखकों ने यदि छंद के अर्थ को ध्यान में रक्खा होता तो पालकाव्य की मृत्यु का वर्णन कभी न करते । छंद ६-७-८-६-१० में कहीं भी कोई ऐसा शब्द या शब्द समूह नहीं है जो पालकाव्य मुनि की मृत्यु का द्योतक हो।

रू० ८ - गाथा छंद का लक्षण यह है--

"गाथा या गाहा छंद का प्रयोग प्राकृत भाषा में बहुलता से किया गया है | गाथा छंदों की भाषा अपभ्रंश भाषा के सामान्य रूप लिये हुए प्राकृत पाई जाती है । साधारणत: गाथा छंद का नियम यह है-

प्रथम चरण ४+४+४/४+४+।ऽ। +४+ऽ

द्वितीय चरण ४+४+४/४+४+1+४+ऽ तीन गणों के बाद विराम वाले गाथा छंद 'पथ्या' कहलाते हैं तथा बिना ऐसे विराम वाले 'विपुला' । विपुला के तीन उपभेद हैं-- मुखविपुला, विपुला और सर्वविपुला ।" Sanidesa Rāsakaed Muni Jins Vijay. A Critical Study. p. 69-70.

'प्राकृत पैङ्गल' नामक ग्रंथ में गाहा ( अथवा गाथा ) छंद का लक्ष्ण इस प्रकार लिखा गया है-

पढमं बारह मत्ता बीए आट्टररहे हिं संजुत्ता।
जह पढमं तह तीचं दह पंन्त्र बिहूसिया गाहा ॥ १४।

[अर्थात् - ( इस चार चरण वाले ) गाथा छंद के प्रथम चरण में बारह मात्रायें और दूसरे चरण में अठारह मात्रायें तथा तीसरे में बारह मात्रायें और चौथे में पंद्रह मात्रायें होती हैं ।]

'रूप दीप पिंगल' में इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है-

"यादौ द्वादश करियै अठारह बारह फिर तिथ धरियै,
संग्या शेस सिपाई गाथा छंद कहो इस नांम ।"

कवित्त

ब्रह्म[१५] रिष तप करत, देषिकंप्यौ मघवान।
छलन का पहु पठय, रंभ रुचिरा करि मानं॥
श्राप दियौ तापसह, अवनि करनी सुत्रावत्तिरि।
क्रम बंधि इक जती, लषितहू यौ सुपनंन्तरि॥
तिहि ठाम[१६] आइ उहि हस्तिनी, बोर लियो पोगर सुनमि।
शुक्रवार वंद कहि, पालकाव्य मुनिवर जनमि ॥ छं० ९ । रू० ९।

भावार्थ- रू० ९-एक ब्रह्मर्षि को तपस्या करते देख कर इन्द्र कँप उठे ( डर गये ) [उन्हें अपने इन्द्रासन के लिये चिंता हुई कि कहीं यह उसी के लिये न तप करता हो] और उन्होंने रंभा का पूर्ण रूप से शृंगार करके मुनि को छलने भेजा। तपस्वी ने उस ( रंभा ) को श्राप दिया जिसके फलस्वरूप वह हथिनी होकर पृथ्वी पर अवतरित हुई । कर्म बंधन के अनुसार (भाग्य की गति देखिये ) एक यती का सोते समय वीर्यपात हुआ और उस हथिनी ने उस समय वहाँ पहुँचकर अपनी सूँड़ झुकाकर उस (वीर्य) को उठा लिया


तथा अपने उदर में रख लिया । चंद कवि कहते हैं कि इस प्रकार मुनिवरे पालकाव्य का जन्म हुआ।

शब्दार्थ-रू० ६-ब्रह्मरिष्य< सं० ब्रह्मर्षि। कंप्यौ=कैंप उठा, डर गया। मघवानं–इन्द्र । भ=रभार पुराणानुसार स्वर्ग की सर्व सुंदरी प्रसिद्ध अप्सरा )। काज <सं०कार्य । छलन काजछलने के लिये। अढय=पठ्य, भेजकर । रंभ रुचिरा करि मानं=रंभा को अत्यन्त सुन्दरी बनाकर। तापसह=तपस्वी ने। अवनि-पृथ्वी। करनी= हथिनी। सुबह ! अबत्तरि=अवतरित हुई, जन्मी। क्रंम=कर्म । वंधि अँधकर । जती <सं० यति । लर्षित हू -Efucio siminis–वीर्यपात हो गया, Hoernie] । सुपनंतरि=स्वप्न के अंतर में अर्थात् सोते समय । इ=एक । ठम-स्थान । उहि वह । तिहिउस । पोगर मुख यहाँ सँड़ से तात्पर्य है । सुनमि=उसको झुकाकर। शुक्र=वीर्य । अंस <सं० अंश । उर-हृदय (यहाँ उदर” से तात्पर्य है)।

नोट-रू० ९–ना० प्र०सं० पृ० रा० के इस नवें छेद के ऊपर लिखा है कि उधर ब्रह्मा के तप को भंग करने के लिये इन्द्र ने रंभा को भेजा था उसे शाप बश हथिनी होना पड़ा वह भी वहीं आईं। परन्तु कहीं पुराणों आदि में ऐसा प्रसंग न मिलने के कारण हम ब्रह्मा अर्थ न लगाकर ब्रह्मर्षि समझे जो वस्तुतः स्पष्ट रूप से माननीय है।

रास-सार', पृष्ठ ६१ में कवित्त ६ से इस प्रकार का सार लिया गया है:-ब्रह्मा ऋषी की तपस्या का प्रताप बढ़ा देखकर उसकी तपस्या भंग करने के लिये रंभा ने इन्द्र की आज्ञानुसार ऋषि का तप भ्रष्ट करने के लिये यथा साध्य उपाय और चेष्टा की; उससे ऋषि का चित्त तो चंचल न हुया वरन् उसने कुपित होकर रंभा को शाप दिया कि यह हथिनी हो जाय । निदानरंभा हथिनी का रूप धारण कर वन में बिहार करती हुई हाथी वेषधारी पालकाव्य के पास आ पहुँचीं। उन दोनों में अत्यंत प्रीति और दाम्पत्य स्नेह - बढ़ गया और वे दोनों साथ साथ रहकर रेवा के किनारे विचरने लगे; उन्हीं से उत्पन्न हुए हाथी रेवा के किनारे माये जाते हैं।”

इस अर्थ को कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है। कवित्त.६ में स्पष्ट कहा है कि पालकाच्य मुनि को जन्म हथिनी के पेट से ऋषि को वीर्य खा लेने से हुआ और फिर अगले दोहे १० में चंद कवि ने कहा है। कि इसीलिये ( अर्थात् हथिनी के पेट से जन्म लेने के कारण ही ) मुनि ( पालकाव्य) को करिन ( बहु वचनांत प्रयोग है इसलिये 'हाथियों अर्थ लेना होगा ) से बड़ी प्रीति हो गई थी । यह ठीक है कि विज्ञान ऐसी घटनाओं की हँसी उड़ाता है-हथिनी के वीर्यं खा लेने से उसके गर्भ नहीं स्थिर हो सकता और वह भी हाथी का वीर्य न होकर मनुष्य का था; फिर यदि गर्भ स्थिर भी हो सके तो हाथी और मनुष्य के मेल से किसी विचित्र जंतु के जन्म की कल्पना ही संभव है न कि मनुष्य की -- परन्तु हिन्दू पुराणों में ऐसी कपोल कल्पित गाथा की कभी नहीं है । उदाहरणार्थ घड़े में शुक्र रखने से कुंभज ऋषि का जन्म, कबूतर के वेश में आये हुए अग्नि पर शिव के वीर्य डालने पर कार्ति- केय का जन्म ( शिव पुराण ) और द्रुमिल नामक गोप की स्त्री कलावती के नारद का वीर्य खा लेने पर स्वयं नारद का जन्म ( नारद पुराण ) इत्यादि दन्तकथायें ऋषि पालकाव्य के जन्म से कहीं बढ़कर आश्चर्यजनक हैं।

'रासो-सार' की बात ठीक मान लेने से कि—रेवा तट पर मिलने वाले हाथी, मरकर हाथी का जन्म पाये हुए पालकाव्य ऋषि और श्रापित रंभा रूपी हथिनी की संतान थे, नकि पिछले कवित ३ के अनुसार ऐरावत और उमा द्वारा प्रदान की हुई हथिनी के — हाथियों की जन्म विषयक एक ही स्थान पर दो कथायें हुई जाती हैं जो अनुचित है । रासो-सार के लेखकों ने कथानक के उपकथानक के क्षेपक को क्षेपक न मानकर उसी उपकथानक में 'भूल' ' से सम्मिलित कर दिया है।

'रासो-सार', पृष्ठ ६६ में लिखा है कि- "इस प्रकार ऋषि के शाप के कारण ऐरावत अपनी श्राकाशगामिनी शक्ति से वंचित होकर अंग देश के पूर्व प्रदेश में स्थित गहन वन में जहाँ कि नाना प्रकार के कमल और कुमोदिनी समूह से आच्छादित निर्मत जलमय अच्छे अच्छे सुबृहत सरोवर शोभायमान हैं, आनंद से केलि क्रीड़ा करता हुआ समय व्यतीत करने लगा | उसी वन में पालकाव्य नामक एक ऋषि रहते थे । पालकाव्य और ऐरावत में ऐसी घनी प्रीति हो गई कि वे एक दूसरे को देखे बिना "पल भर भी न रहते थे ।" पिछले कवित्त ६ की पंक्ति - श्रापित गज कौ जूथ करत क्रीड़ा निसि वासर का अर्थ है कि आप पाये हुए गजों का यूथ वहाँ क्रीड़ा किया करता था; अतएव केवल ऐरावत का वहाँ क्रीड़ा करना, लिखा जाना उचित नहीं है । एक स्थान पर रहते-रहते पालकाव्य और हाथियों में बड़ी प्रीति हो गई थी, दैवयोग से राजा रोमपाद हाथियों को पकड़ कर ले गया और पाकाव्य की विरह के कारण उन हाथियों के शरीर निर्बल होने लगे । राजा रोमपाद को यह देखकर चिंता हुई होगी कि आखिर इस दुर्बलता का क्या कारण है ? चंपापुरी अंगदेश के जिले चंपा की राजधानी थी और लोहि- ताक्ष सरोवरवाले वन खंड में पालकाव्य ऋषि रहते थे, जो इसी अंग देश के अंतर्गत था ( कवित्त ६ ) । किसी ने पालकाव्य को उनके प्यारे हाथियों की इस अवस्था का समाचार अवश्य दिया होगा ( चंद कवि ने यह नहीं लिखा कि पालकाव्य को हाथियों की चिकित्सा करने के लिये किसने बुलाया १ ) । यह भी संभव है कि मुनि पालकाव्य वैद्यकशास्त्र के ख्यातनामा जानकार रहे हों या चाहे धन्वंतरि ही हों । साथ-साथ रहने से तो प्रीति होती ही है परन्तु पालकाव्य की माँ हस्तिनी थी इसलिए उनमें और हाथियों में भ्रातृप्रेम का होना भी स्वाभाविक है। समाचार मिला कि हाथी बीमार हैं, प्रेम ने ज़ोर मारा, पालकाव्य चंपापुरी पहुँचे और हाथियों को चिकित्सा द्वारा अच्छा कर दिया ( "कुंजर करि थूलयं तनं" ) । अगले दूहा १० में लिखा है कि-तार्थ तिन मुनि करिन सबंध प्रीति अत्यंत - यहाँ 'करिन' बहु वचन है अतएव जैसा 'रासो-सार' के लेखकों ने एक वचन का अर्थ लिया है, वह असंगत है।

दूहा

-तार्थ[१७] तिन मुनि करिन सों, बंधि प्रीति अत्यंत ।
चंद कयौ नृप मिथ्य सम, सकल मंडि बिरतंत[१८] ॥ छं०। रू० १०।

[ संभवत: चामंडराय का कथन -]

कवित्त

"सुनहि राज प्रथिराज, बिपन रवनीय करिय जुथ।
रेवाट सुन्दर समूह, वीर गजदंत चवन रथ ॥
आपेटक अचंभ पंथ, पावर रुकि षिल्लौ ।
सिंघवट्ट दिलि समुह राज पिल्लत दोइ चल्लो ॥
जल जूह कूह कस्तूरि मृग पहपंषी[१९] अरु परबतह[२०]
हुन मान देषे नृपति कहि न बनत दच्छिन सुरह। "छं० ११। रू० ११।

भावार्थ- रू० १० यही कारण था कि मुनि को हाथियों से अत्यन्त प्रीति हो गई थी ।" ( इस प्रकार ) चंद (कवि ) ने महाराज पृथ्वीराज से सारा वृत्तांत कहा ।

नोट- कवित्त में कहने वाले का नाम नहीं दिया है । परन्तु जो कुछ कहा गया है उससे यही अनुमान होता है कि ये चामंडराय के वचन हैं—


रू० ११--“हे राजन् ! सुनिये - (रेवातट पर विस्तृत) वन को हाथियों के यूथों ने रमणीक बना दिया है। रेवातट पर चारों ओर वीर (पराक्रमी) गजदंतों (हाथियों) के समूह हैं। वहाँ आप मार्ग रोककर कौतूहल वद्ध के मृगया का आनंद लें (और फिर) दिल्ली के मार्ग में (दिल्ली से देवगिरि जाने वाले मार्ग सिंह भी मिलते हैं जिनका श्राप शिकार खेलसकते हैं। हे नृपति, जलाशयों, पहाड़ों और चारों ओर आप ( अत्यधिक ) परिमाण में कस्तूरी मृग, पक्षी और कबूतर देखेंगे, [यह सब तो है ही] परन्तु दक्षिण की सुरभि तो वर्णनातीत है या (दक्षिण के मार्ग का वर्णन नहीं किया जा सकता)। "

शब्दार्थ - रू० १० – तार्थ = इसीलिये (यही कारणा था) । तिन=उन । मुनि - यहाँ मुनि पालकाव्य की ओर संकेत है। करिन सों= हाथियों से । पिथ्थ < पृथ्वीराज । सम= से । सकल = सब। मंडि= कहा । विरतंत <संवृत्तांत।

रू० ११ - सुनहि = सुने । विपन < सं० विपिन = वन । रवनीय < सं० रमणीक। करिय (अवधी) = कर दिया। गजदंत बड़े दाँत वाले, हाथी । चवन = चार । रथ <सं० रथ्य = मार्ग, रास्ता । त्रवन रथ= चारों ओर । पेटक अचंभ = कौतूहल वर्द्धक आखेट (शिकार) । पंथ मार्ग । पावर < पौर = दरवाजा। (पावर का अर्थ बाड़ा भी है, जैसे पावर रोपकर) । रुकि=रोककर ।पंथ पावर रुकि= मार्ग का द्वार रोककर अर्थात् मार्ग को बंद करके । बिल्लौ खेलो। वह < बाट रास्ता । जूह = यूथ । जन जूह = जल का यूथ अर्थात् जलाशय । कूह < फा० ४ = पर्वत। परवतह सं० पारावत= कबूतर [प्रन्तु चोर्नले महोदय इसका अर्थ जंगली जानवर लगाते हैं ]। चहुन == (१) चारों ओर (२) चौहान पृथ्वीरा। मांन=परिमाण; मानिये, विश्वास कीजिये । देषे देखा है, देखिये । दच्छिन सं० दक्षिण । सुरह = सुरही <सं० सुरभि = दक्ष कन्या, कश्यप पत्नी, पशु तथा रुद्रों की माता बहुधा ऐक मातृका समझी जाने वाली पौराणिक कामधेनु । दच्छिन सुरह = दक्षिणी गाय। [ परन्तु ह्योनले महोदय 'सुरह' को 'स्वर' का विकृत रूप मानते हैं जो भ्रम जनित है ]। सुरह गायें बद्रिकाश्रम की ओर उत्तराखंड में पाई जाती हैं। कालिदास ने वायुवेग से रगड़ खाकर देवदार की डालों का सुरह गाय की पूछें जलाकर दावाग्नि पैदा करने का वर्णन किया है-

तं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्ध संघ जन्मा
बाधेतोल्काक्षपितचमरी बालभारो दवाग्निः॥ १४ ॥ मेघदूत।

सुरह का अर्थ (सु+राह) सुन्दर मार्ग भी कुछ विद्वान करते हैं। यद्यपि इस संधि में अशुद्धि स्पष्ट है परन्तु रासो में ऐसी स्वच्छन्दता आश्चर्यजनक नहीं कही जा सकती । 'ढोला मारू रा दूहा, में भी नाविया =न + आविया सदृश अनेक शब्द मिलते हैं ।

नोट- कवित्त ११ की दूसरी पंक्ति का अर्थ [-"On the banks of Reva, there are plenty of beautiful large elephant's tucks in every direction" Hoernle. अन्तिम दो पंक्तियों का अर्थ-‘At the water as well as on the mountains, there is heard in profusion the cry of the musk deer, wild beasts and birds. O king Chahuvan, believe one who has seen it; it is impossible, to describe in words the ( beauty of the ) southern country.” Hoernle इन पंक्तियों को Mr. Growse ने Indian Antiquary. Vol III, p. 340 में इस प्रकार लिखा है-

"Flock and fowls scream on the water, on the plane are musk deer, and on the hill birds." Kuh being the verb which is more common in the frequentative form Kokuya.

दूहा

एक ताप पहुपंग को अरु रवनीक जु[२१] थांन ।
चामंडराय[२२] वचन सुनि, चढ़ि चढ्यो चहुत्र्यांन ॥ छं० १२ । रू० १२।

कवित्त

चढ़त राज प्रिथिराज, वीर अगिनेव[२३] दिसा कसि ।
सब भूमि नृप नृपति, चरन चहुआन लग्गि धसि ॥
मिल्यो भान बिस्तरी, मिल्यो बट्टल गढ्ढी नृप ।
मिल्यो नंदिपुर राज, मिल्यो रेवा नरिंद अप ।
aवन जूय मृग्ग सिंघहरु गज, नुप आवेदक पिल्लई[२४]
लाहौर थान सुरतांन तप, वर कागद लिपि मिल्लई ॥ बं० १३ ॥ रू० १३ ।

भावार्थ- रू० १२ -- एक तो पहुषंग ( जयचंद ) को कष्ट पहुँचेगा दूसरे स्थान भी रमणीक है- (यह विचार कर चामंडराय के वचन सुनकर चौहान चढ़ aar (अर्थात् चौहान ने प्रस्थान की आज्ञा दे दी)।

रु० १२——-वीर महाराज पृथ्वीराज के दक्षिण पूर्व पथ में सुसज्जित होकर गमन करने पर ( उस मार्ग पर पड़ने वाले ) देशों के राजे महाराजे उनके


चरण स्पर्श करने के लिये झुके । राजा मान दल बल सहित आकर मिला, दलगढ़ का राजा खड्ड तथा नंदिपुर का राव मिला और रेवा नरेन्द्र भी स्वयं याकर मिला । वन में अनेक मृगों, सिंहों और हाथियों के यूथ थे जिनका महाराज ने शिकार खेला। ( तत्र ) लाहौर स्थान में जो ( शासक चंदपु डीर) था और जो सुलतान को कष्ट देने वाला था उसका वर ( श्रेष्ठ ) पत्र मिला ।

"वहीं उन्हें लाहौर से एक पत्र मिला जिसमें सुलतान की बढ़ी हुई शक्ति का वर्णन था ।" ह्योर्नले | ( इन्होंने 'तपवर' का अर्थ मिलाकर किया है )।

शब्दार्थ – रू० १२ -- ताप-कष्ट । पहुपंय यह कन्नौज के राजा जय- चंद की एक उपाधि थी। [ पहु प्रभु (= स्वामी ) +पंग या पंगल ( = लंगड़ा) ] । और एक नाम दुल- पंगुल भी था। रासो में पहुपंग और दल- पंगुल (दुल- पंगुल) दोनों नाम मिलते हैं। जयचन्द का नाम दल- पंगुल क्यों पड़ा इसे पृथ्वीराज रासो सम्यो ६१ छंद, १०२८ में चंद वरदाई ने इस प्रकार लिखा है-

"जैसे नर पंगुरौ । विन सु भंगुरी न हल्लाहि ॥
आधारित भंगरी । हरु वह वत्तन चल्लहि ॥
तै रा जयचंद । असं दल पार न पायौ ॥
चालक इक सर सरित । दलन हरवल्ल अधायौ ॥
दिसि उभय गंग जमुना सु नदि । श्रद्ध कोस दत्त तब बह्यौ ॥
कविचंद कहै जै चंद नृप । तातें दल पंगुर कह्यौ ॥"

जयचंद का 'पहुपंग' नाम केवल इसी २७ वें सम्यौ में ही नहीं आया है। रासो सम्पौ २६ छंद ४- तव पहुपंग नरिंद। कुसल जानी न गरिट्ठो ॥"; छंद ६---"तव पहुपंग नरिंद प्रति । दूत सु उत्तर जप्पु ॥" इसी प्रकार रासो के अनेक स्थलों पर 'पहुरंग' नाम मिलता है जो जयचंद के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। टॉड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि दुल- पंगुल नाम की उत्पत्ति इस प्रकार हुई "कन्नौज राज्य के किले की चहार दीवारी तीस मील से भी अधिक थी और राज्य की असंख्य सेना के कारण राजा का विशेषण दुल- पंगुल हो गया । दुल-पंगुल से तात्पर्य है कि राजा लँगड़ा है या सेना की अधिकता के कारण वह नहीं चल सकता । चंद के अनुसार गली सेना युद्ध क्षेत्र में पहुँच जाती थी तब भी पिछली सेना को आगे बढ़ने का स्थान न मिलता था और वह खड़ी ही रह जाती थी" [ Annals and Antiquities of Rajasthan. Tod Vol II, p. 7] । पु०रासो के अतिरिक्त 'रंभा- मंजरी' की भूमिका पृष्ठ ४ तथा उसके प्रथम अंक, पृष्ठ ६ में भी हमें राजा जयचंद का 'पंगु' नाम मिलता है जैसे “सैन्यातिश्यात पंगु विरुद धारक: ।" मुनिराज जिनविजय द्वारा संपादित 'प्रबंध - चिन्तामणि' पृष्ठ ११३, छंद २१० में भी जयचंद की महान सैनिक शक्ति का वर्णन मिलता है । 'सूरज प्रकाश के अनुसार जयचंद की सेना में ८०००० सुसज्जित सैनिक, ३०००० जिरह बहतर वाले घोड़े, ३००००० पैदल सैनिक, २००००० धनुधर्र और फरशा- धारी सैनिक तथा सैनिकों सहित असंख्य हाथी थे [Annals and Antiq- uities of Rajasthan, (Crooke ) Vol. II, p. 936। जयचंद की सेना व राज्य विस्तार से तत्कालीन मुसलमान इतिहासकार भी प्रभावित हुए थे।

रू० १३ – अगिनेव <सं० अग्निदेव = दक्षिणी पूर्वी दिशा । दिसा < सं० दिशा । कसि } = कस कर अर्थात् भली भाँति सुसज्जित होकर । सब्ब ८० सर्व सच । भान राज भान । विस्तरी = विस्तार से अर्थात् बड़े दल बल सहित। पडलगढी- लोर्नले महोदय ने अपनी पुस्तक में इसे 'पट्टू दलगढी' पढ़ने के लिये अपनी सम्मति दी है जो अन्य अच्छी सम्मतियों के अभाव में मान्य है । 'दलगढ़' या तो राजा खड्ड के किले का नाम या दलगढ़ [ दल= ( सैनिक ) + गढ़ = ( गढ़ने वाला)] का अर्थ पृथ्वीराज के दल को गढ़ने वाला माना जा सकता है। [“मिल्यो बलगढी नृप" का दूसरा अर्थ खदुलगढ़ का राजा मिला भी हो सकता है ]। नंदिपुर = अयोध्या के समीप इस नाम का स्थान है । पृ० रा० सम्यौ २२ से ज्ञात हुआ कि रघुवंशी राम ने नंदिपुर का विनाश किया था। रेवा इलाहाबाद के दक्षिण रीवाँ राज्य का प्रसिद्ध नगर है । 'देवा नरिन्द' से तत्कालीन रोगों के राजा का अर्थ समझ पड़ता है । अप अपने आप स्वयं। मृग <सं० मृग- हरिण, जानवर । पिल्लई = खेला। [सुरतांन तप= ( तप-ताप, गर्मी ) सुलतान की भयंकर शक्ति ] ह्योर्नले । सुरतांन सुलतान ( गोरी ) । तप < ताप, अर्थात् कष्ट देने वाला । बर कग्गद श्रेष्ठ कागज़ (पत्र) । मिल्लई = मिला । चंद ने लाहौर के शासक चंद-पुडीर द्वारा भेजे गये पत्र को 'वर कागद' इसलिये कहा कि इसमें सुलतान गोरी का हाल था और गोरी चौहान का शत्रु था। शत्रु के रंग ढंग के समाचार लेते रहना सदैव अच्छा है इसीलिये वह 'बर कागद' था।

नोट- रू० १३ - श्री० प्राउज़ महोदय इस कवित्त की प्रथम पंक्ति में आये हुए 'सि' का अर्थ 'कसना' करते हैं । उनके अनुसार 'कमर कसने' से तात्पर्य है "The great king Pirthviraj marches south, gird- ing up his loins.” [Indian Antiquary, Vol. III, p. 340]। प्रस्तुत कवित्त में जिस पत्र का हाल है वह पत्र पृथ्वीराज के सेनापति चामँडराय के भाई "चंद पुंडीर ' के पास से श्राया था जो पृथ्वीराज के सीमांत प्रदेश लाहौर का शासक या क्षत्रप था। अगले १८ वें दोहे से यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाती है।

इस पत्र के विषय में दो सम्मतियाँ और मिली हैं- “गुप्त रीति से संतत लाहौर में रहने वाले शहाबुद्दीन के जासूस ने ग़ज़नी को लिख भेजा कि पृथ्वीराज सेना सहित रेवातट पर शिकार खेलने गया है।" रासो सार, पृ० १००।

"The letter was not received from Lahore, but reached the Sultan there and came from Jaychand at Kanauj." [Indian Antiquary. Vol. III, p. 340, F, S. Growse.]।

किंचित् बिचार से पढ़ने पर स्पष्ट हो जावेगा यों कि सम्मतियाँ निराधार हैं। दूत के पत्र का हाल-

दूहा

"ततार मारूफ खां, लिये पांन कर सांहि ।
घर चांनी उप्परै, बजा बजन बाइ ॥ छं० १४ । रू० १४ ।

साटक

श्रोतं भूपय गोरियं वर भरं, बज्जाइ सज्जाइने ।
सा सेना चतुरंग बंधि उललं, तत्तार मारूफयं ॥
तुझी सारस उप्परा बसरसी[२५], पल्लानयं षानयं ।
एकं जीव सहाब साहि न नयं, बीयं स्वयं सेनय ॥ छं० १५ । रू० १५ ।

नोट -[चंद पुंडीर के दूत द्वारा लाये गये पत्र का हाल रू० १४ से लेकर रू० १७ तक है ।]

भावार्थ - रू० १४ -"खाँ तातार मारूफ खाँ ने शाह ( गोरी ) के हाथ से पान लिया है। चौहानों को उखाड़ फेंकने के लिये वायु में बाजे ( युद्ध वाद्य ) बज रहे हैं ।

रू० १५— हे राजन्, सुनिये, गोरी के श्रेष्ठ सेनापति तातार मारूफ खाँ ने (ढोल) बजाकर सारी तय्यारी कर ली है और उसकी चतुरंगिणी सेना हम लोगों पर झपटने के लिये प्रस्तुत है। आपके ऊपर भयंकर आक्रमण करने की आकांक्षा सेवानों ने अपने घोड़ों पर जीने कस ली हैं [था आपकी सत्ता


नष्ट करने के लिए ज्ञान घोड़े दौड़ा रहे हैं ।( सारस = सेना इसलिए सत्ता, राज्य या बल; उप्परा < उपारना= नष्ट करना; पल्लानयं <सं० पलायनं = दौड़ाना, भगाना ) ]।'( केवल ) एक साहबशाह ( गोरी ) रहे और कोई न रहे यह कहकर गोरी की सेना उसका स्वागत कर रही है।

शब्दार्थ - रू० १४--प्रांतातार मारूफ षां यह इस युद्ध में शहाबुद्दीन गोरी का प्रधान सेनापति समझ पड़ता है क्योंकि इस सम्पूर्ण सम्यौ में हम उसे एक प्रतिष्ठित पद और मुख्य- सैन्य -संचालन में पाते हैं । ना० प्र० सं० ( पृ० रा० ) में इस छ० के ऊपर के नोट में एक नाम ' तातार मारूफ खाँ' के स्थान पर तातार ख़ाँ और मारूफ ख़ाँ दो नाम पाये जाते हैं जो उचित नहीं समझ पड़ते। दो का अर्थ है कि खाँ- तातार मारूफ खाँ ने शाह के हाथ से पान का बीड़ा उठाया - ( प्राचीन समय में यह नियम था कि जब कोई कठिन कार्य श्रा उप- स्थित होता था तो दरवार में पान का बीड़ा रखकर अपेक्षित कार्य की सूचना दी जाती थी श्रतएव जो सरदार अपने को उस काम के करने के योग्य देखता वह बीड़ा उठा लेता ) -जो प्रथानुसार भी ठीक है अतएव तातार मारूफ खाँ एक व्यक्ति है। डॉ० ह्योनले भी एक ही व्यक्ति मानते हैं। दो व्यक्तियों का भ्रम इस शब्द (ख़ाँ-तातार-मारूफ-ख़ाँ) के दोनों ओर ख़ाँ लगाने से हो गया है परन्तु चंद ने रासो के अनेक स्थलों पर एक ही व्यक्ति के लिये इसके अनुरूप प्रयोग किये हैं। अगले साटक छंद से भी तातार मारूफ खाँ के एक व्यक्ति होने का श्राभास मिलता है | लिये पांन कर साहि= शाह के हाथ से पान लिया है; (इस भाँति प्रान का बीड़ा किसी दुष्कर कार्य को सम्पादित करने के लिये ही उठाया जाता था और इस समय चौहान से मोर्चा लेना साधारण बात न थी) । उप्परै धर== उपार ( उखाड़) देने के लिये । वर चहुद्यांनी उप्परै = चौहानी को उखाड़ देने के लिए। बज्जा = फेंकने वाले वाजे जैसे तुरही, बिगुल, भोंपू आदि । बज्जन वे 'बजाते हैं; (यह पंजाबी भाषा का शब्द है और यह क्रिया वर्तमान काल, बहु- वचन, उत्तम पुरुष की है)। बाइ <सं० वायु । ['बज्जन वाह' की भाँति 'पोन निसान' भी है जिस का प्रयोग रामचरितमानस में देखा जा सकता है ]।

रु॰-१५ - श्रोतं सुनिये। भूपय राजन् (संबोधन )। बर = श्रेष्ठ ! भरं भट ( का रूप है ) = वीर । बज्जाइ= बजाकर । सज्जाइने = सजा लिया है । सा उस (गोरी ) की। सेना चतुरंग बंधि सेना चतुरंगिणी वन कर । उ< (हिं० क्रिया) उत्तरना= झपटना । तुझी तुहारे कपर। सारस=सार सहित (अर्थात् शक्ति पूर्वक ) । उप्परा = (१) व्याक्रमण (२) उखाड़ फेंकना । बस <सं० वशः = इच्छा। रसी ( या रसिक )=घोड़ा, हाथी । पल्लानयं=जीन कसना । एकं = एक। जीव = जिये । सहाब साहि साहब शाह ( गोरी शहाबु- न )। ननयं = न। बीयं = दूसरा । स्तयं <सं० स्तवं = स्तुति, प्रशंसा; स्वागत । सेनयं = सेना ।

नोट- रू० १४ -"यह सुनते ही शहाबुद्दीन ने दरवार में पान का बीड़ा रखकर कहा कि जो इस बीड़े को खाकर पृथ्वीराज को पकड़ लावे उसे मैं बहुत कुछ इनाम दूँगा ।" रासो-सार, पृष्ठ १००॥

दूहा १४ से कुंडलिया १७ तक लाहौर के शासक चंद पुंडीर के दूत द्वारा लाये हुए पत्र का हाल है । 'रासो-सार' के लेखक इस रहस्य को सम्भवत: न समझ सके जिसके फलस्वरूप उपर्युक्त वार्ता लिख दी गई ।

रू० १५- साटक छंद का लक्षण–

यह छंद आधुनिक छंद-ग्रंथों में नहीं मिलता । "गुजराती भाषा के काव्यों में इस नाम का छंद मिला और The Rev. Joseph Van S. Taylor साहब ने अपने गुजराती भाषा के व्याकरण के छंद - विन्यास नामक प्रकरण के पृष्ठ २२३ में इसका साटक नाम से ३८ अक्षरों की दो तुक का छंद होना लिखा है जिसकी प्रत्येक तुक में १२+७= १६ अक्षर होते हैं इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा के किसी छंद ग्रंथ से अनुवादित होकर संवत् १७७६ में "रूपदीप पिंगल" नामक छंद-ग्रंथ में साटक छंद का यह लक्षण लिखा है-

"कद्वाद संग्या, मात्रा सिवो सागरे।
दुज्जी वी करिके कलाष्ट दसवी, अर्कोविरामाधिकं ॥१॥
गुर्व निहार धार सबके, औरों कछू भैद ना ।
तीसों मत्त उनी अंक वने, सेसो भरी साटकं ॥२॥

हम इस सादक छंद को पिंगल- छंद- सूत्रम नामक ग्रंथ में कहे शाईल- विक्रीडित छंद का नामान्तर होना मानते हैं और उसका लक्षण बहुत प्राचीन अमर और भरत कृत छंदों में होना अवश्य अनुमान करते हैं क्योंकि चंद कवि ने भी अपने इसी ग्रंथ (पृथ्वीराज रासो) के आदि पर्व के रूपक ३७ में जो कुछ कहा है उससे स्पष्ट मालूम होता है कि उसने अपने इस महाकाव्य की रचना मैं पिंगल, अमर और भारत के छंद-ग्रंथों का श्राश्रय अवश्य लिया है ।" [ना० प्र० सं०, पृ० रा० फुट नोट, पृष्ठ १-२]।

दूहा

अहि बेली फल हथ् लै, तौ ऊपर तत्तार।
मेच्छ मसरति सत्तिकै, वंच कुरानी बार ॥ छं० १६ । रू० १६ ।

कुंडलिया

बर मुसाफ[२६] तत्तार पाँ, मरन कित्ति तन[२७] बांज ।
में[२८] भेजे लाहौर घर, लैहूँ सुनि सु विहान।
लैहूँ[२९] सु निसु विहान, सुनै दिल्ली सुरतांनं ।
लुथि पार पुंडीर, भीर परिहै चौहानं[३०]
दुचित चित्त जिन करहु, राज आखेट उथापं[३१]
गनेस आयरस, चले सब छूय[३२] मुसाफ ॥ छं० १७ । रू० १७ ।

भावार्थ- रू १६ - म्लेक्ष [ तातार भारूफ खाँ ] ने ( तुम्हारे विपक्ष में दी हुई अपनी ) सलाह की सत्यता प्रदर्शित करने के लिये हाँथ में पान और सुपारी ली फिर कुरान के वाक्य पढ़े ।

रू० १६ - तातार खाँ ने पवित्र कुरान की शपथ ले कर कहा कि रण का वेश धारण कर फिर मरना क्या ( मरने का क्या डर )। मैं लाहौर नगर को नष्ट कर तथा अधिकृत कर चौबीस घंटे में दिल्ली भी ले लूँगा । हे सुलतान सुनो, पुंडीर की लोथ गिरा कर चौहान पर आक्रमण होगा [ या- मैं लाहौर नगर को नष्ट कर अधिकृत कर लूँगा और सुलतान सुनेगा कि दूसरे दिन मैंने दिल्ली भी ले ली है। पुंडीर की लोथ पार करके चौहान पर क्रमण होगा ]। आप अपने चित्त में किसी प्रकार की शंका न करें (क्योंकि) राजा [ पृथ्वीराज ] श्राखेट खेलने में संलग्न है । ( तब ) शाह गोरी ने ( चढ़ाई बोल देने की ) आज्ञा दी और सब लोग पवित्र पुस्तक [ कुरान ] को छू कर चल दिये ।

सूचना - यहाँ चंद पुंडीर का पत्र समाप्त हो जाता है।

शब्दार्थः - दूहा - १६ - प्रति वेली फल = अहिवेल या नाग सुपारी । हथ्थ<सं० हस्त = हाँथ । तौ = तो 1 बेल का फल तुम्हारे (ऊपर दी हुई सलाह) | मेच्छ = म्लेक्ष ( यहाँ तातार सारूफलों के लिये आया है ) । मसूरति <० सलाह। कुरानी बार=कुरान की (b) इबारत ।

रू० १७-मुसाफ <सं० पुस्तक या पृष्ठ - ( जो धर्म पुस्तक कुरान के लिये प्रयुक्त होता है ।) उन्होंने 'जिहाद' करने के लिये क्रुरान की शपथ ली । [-इस कुंडलिया में दो स्थानों पर मुसाफ आया है । पहिले


'मुसा' को ह्यर्नले महोदय ' तत्तार वाँ' के साथ जोड़ कर एक नाम बना देते हैं परन्तु 'मुसाफ- तत्तार-पाँ' नाम प्रमाण रहित है । उचित यह है कि दोनों 'मुसाफ' से क़ुरान का ही अर्थ लगाया जाय ]। मरन कित्ति = मरना क्या । तनबांन = रण का बाना (वेश) धारण करके। में मैं । भेजे नष्ट करके । घर हूँ अधिकृत कर लूंगा । नितु विहान = दिन रात एक दिन रात में= २४ घंटे में। दिल्ली = दिल्ली । सुरतानं सुलतान गोरी। सुनै:=सुनो ( सम्वोधन )। लुथि तोयें। पार - डालना, गिराना, पार करना । भीर परि है : - कष्ट पड़ेगा, आक्रमण होगा । दुचित चित्त जिन करहु = शंका मत करो । राज = राजा ( पृथ्वीराज )। उथापं लगा है, संलग्न है। गज्जनेस = गजनी के ईश ( शाह गोरी )। आायरस < आयसु <सं० आदेश = आज्ञा दी । छू छूकर। मुसाफ धर्म पुस्तक कुरान।

नोट- कुंडलिया छंद का लक्षण

यह मात्रिक छंद है। इस में छै पद होते है। प्रत्येक पद में २४ मात्रायें होती हैं। पहले दो पदों में १३ और शेष चार में ११ पर यति होती है । एक दोहे के बाद रोला छंद जोड़ने से कंड लिया होती है। इसमें द्वितीय पद का उत्तरार्ध तृतीय पद का पूर्वार्ध होता है । जो शब्द छंद के आरम्भ में होता है वही अन्त में आता है।

'प्राकृत पैङ्गलम्' में कुंडलिया छंद का निम्न लक्षण दिया है—

दोहा लक्खण पदम पढि क्व्वह ऋद्ध शिरुन्त ।
कुंडलित्रा बुहत्रण मुगह उल्लाले संजुत ॥
उल्लाले संजुत जमक सुद्धउ सलहिज्जड़
वउालह स मत्त सुकह दिढ बंधु कहिज्जइ ।
उचालह स मत्त जासु तरा भूसण सोहा
एम कुंडलिया जाणहु पढनपडि जह दोहा ॥I, १४६॥

श्री 'भानु' जी ने श्री पिङ्गलाचार्य जी के मत को आधार मान कर अपने ‘छंद: प्रभाकर' में कुंडलिया का लक्षण इस प्रकार लिखा है-

दोहा रोला जोरि कै छै पद चौबिस मत्त ।
आदि अन्त पद एक सो, कर कुंडलिया सत्त ॥

रेवाट सम्यौ का कुंडलिया छंद 'प्राकृत पैङ्गलम्' में दिये लक्षण के अनुरूप है।

दूहा

षट मुर को मुकांम करि, चहि चढ्यौ चहुन ।
चंद्र वीर पुंडीर कौ, कागद करि परिवांन ॥ छं० १८।रू० १८ ।

दूहा

गोरी वै दल संमुहौ, गौ पंजाब प्रमान।
पुत्ररुपच्छिम दुहुँ दिसा, मिलि चुहांन सुरतांन ॥छं १९। रु० १९।

दूहा

दूत गये कनवज दिसि, ते आये तिन थान।
कथा मडि[३३] चहुआन की, कहि कमधज्ज प्रमान ॥ छं० २०। रु० २०।

दूहा

रेवा तट श्रायौ सुन्यौ बर गोरी हुन ।
राज सब मिट्टि के, सजे सेन सुरतांन ॥ छं० २१ ।रू० २१।

दूहा

दूत बचन - " संभल नृपति, वर आटक पिल्ल।
रेवा तट पाधर[३४] धरा, जूह ( जहाँ ) मृगन बर मिल्ल ।। छं० २२। रू ०२२।

भावार्थ – रू० १८ – वीर चंद पुंडीर के पत्र को प्रमाण मानकर छै कोस पर मुकाम करता हुआ चौहान मुड़कर चढ़ चला।

रू० १६ - गोरी की सेना से ( या गोरी की सेना विशेष से ) भिड़ने के लिये वह सीधा पंजाब को प्रमाण करता हुया गया और पूर्व तथा पश्चिम से चौहान और सुलतान (क्रमश:) [ परस्पर] मिलने (भिड़ने ) के लिये चले ।

रू० २०--जो गुप्त-चर कन्नौज चल दिये थे वे उस स्थान (कन्नौज) पर पहुँच गये और उन्होंने कमधज्ज (जयचंद) से चौहान की सारी कथा सत्य प्रमाणित कर कही ।

रू० २१ -[दूत बन्चन जयचंद से ]-"श्रेष्ठ गोरी ने चौहान को रेवा नदी के तट पर या सुनकर चुपचाप एक सेना सजा ली है। "

रू० २२ दूत ने (फिर) कहा - " ( श्रौर ) संभल का राजा आखेट खेल रहा है। रेवा तट पर जहाँ अच्छे जानवर मिलते हैं उसने जाल लगा रक्खे हैं ।”


शब्दार्थ- - रू० १८ पट है । मुर= मुद्रा। षट कोस= छै कोस । मुकाम करि=पड़ाव डालता हुआ। चढ़ि चल्यौ = चढ़ चला (या लौट चला) । कौ=का (सम्बन्ध कारक ) । परिवांन प्रमाण।

रू.०-१९. - वै कुछ विद्वान् इसका 'विशेष' अर्थ यह सम्बन्धकारक का चिन्ह समस्त पड़ता है और रासो के इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि लगाते हैं परन्तु अनेक स्थलों पर यह छंद के नियम पूरे करने के लिये लगा दिया जाता होगा । दल सेना । संमुहौ = मुकाबिला करने या भिड़ने । गौ= गया। पंजाब प्रमांन :- पंजाब को प्रमाण बनाता हुआ अर्थात् सीधा पंजाब को लक्ष्य करके । पुब्ब < पूर्व । रु<= और। पच्छिम < सं० पश्चिम। दुहुँ – दोनों।

रू०२०-कनवज्ज<सं० कान्यकुब्ज ( कुबड़ी कन्या) कन्नौज [वि० वि० भौगोलिक प० में] । दूतगुप्तचर । तिन थांन=उस स्थान पर । मंडि रचकर कहना । प्रमांन< प्रमाण = सबूत । कमज्ज ( < कामध्वज या कन्या- भ्वज)--यह पृ० रासो में अनेक स्थलों पर जयचंद के लिये लाया है [ उ०- “इह कहत नृप पंग सुष्णी । बियो दूत नृप अपन दी ॥ दुचितचित्त मुक्की बर बानी । कुसल वीर कमधज्ज न जानी ॥” सम्यौ २६, छंद ८ “चढ़ि चल्यो पंग कमज्ज राइ । सो छिन्न भिन्न डम्भरित छाइ ॥" सभ्यौ २६, छंद ३६, "इ सँपते सूर धर । सुरताना कमधज्ज ॥" सम्यौ ३१, छंद २२; कमज्ज बाँह बर ।" सम्यौ ६१, छंद ३०३; "कमधज्जराज फिरि चंद कहु ।” सयौ ६१ छंद, ६५८ -- इत्यादि ]। पूत थे और कामध्वज उनका विशेषण या कि जिसकी ध्वजा में कामदेव अंकित है और कन्याध्वज का अर्थ है कि जिसकी ध्वजा में कुमारी कन्या अंकित है । संवत् ५२६ (४७० ई० पू० ) में नयनपाल "कन्नौज वाले राठौर वंशी राज- पदवी थी । कामध्वज का अर्थ है कन्नौज पर अधिकार किया और तभी से राठौरों ने 'कामधुज' पदवी ग्रहण की" [Rajasthan, Tod, Vol. II, P. 5] । परन्तु कन्नौज पर सबसे प्रमाणिक पुस्तक History of Kanauj R. S. Tripathi Ph. D. (London ) - में ये सब प्रमाण नहीं मिलते।

रू० २१ --बर अवाज सब मिट्टि के सब आवाज़े मिटाकर अर्थात् चुपत्वाप।

रू० २२---संभल नृपति=साँभर का राजा अर्थात् पृथ्वीराज। बिल्ल= खेलना। पाधर (या पद्धर) <सं० प्रधारणा = जाल, बाड़ा या रोक।जूह (या जूथ) <सं० यूथ ( परन्तु 'जूह' का 'जहाँ ' पाठ भी असंभव नहीं है ) । मृगन बर = अच्छे जानवर | मिल्लि मिलते हैं।

नोट रू० १८ –“इधर पृथ्वीराज ने लाहौर के प्रतिनिधि शासक चंद पुंडीर को परवाना भेजकर अपने आने का समाचार जता दिया और आप कभी और कभी ठोस का मुकाम करता हुआ पंजाब की सीध में चलने लगा ।" रासो-सार, पृ० १०० । इस दोहे में 'आठ' कोस' शब्द या उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द नहीं आया है । और 'कागद करि परिवांन' का अर्थ 'कागद ( पत्र ) को प्रमाण मानकर' है, न कि 'परवाना भेजकर' ।

रू० १९--“जिस घड़ी पृथ्वीराज ने पंजाब की भूमि में पैर रखा उसी समय मुसलमानी सेना ने भी वह सीमा पार की ।" रासो-सार, पृष्ठ १००।

"Marching from two opposite directions i, e, east and west, the Chauhan and Sultan met Growse.." [Indian Antiquary. Vol. III, pp. 339-40.]

"To meet the host of Gori, he went straight to the Punjab. From both sides, the east and the west, they met, the Chahuvan and the Sultan." [Hoernle, p. 11.]

उपर्युक्त तीन अर्थ पाठकों के अवलोकनार्थ दिये गये हैं । ह्योन तथा ग्राउज़ महोदय गोरी और चौहान को प्रारंभ काल में अभी विलम्व है । परन्तु का काम किया है, उन्होंने एक ऐसी बात और असंभावना भी । जो कुछ भी हो रू० अभी मिलाये देते हैं जब कि युद्ध रासो-सार के लेखकों ने बुद्धिमानी कह दी है जिसकी संभावना भी है १६ की पंक्तियों का शब्दार्थं देखते हुए उसका दिया हुआ भावार्थ ही अधिक समुचित है ।

रू० २२ - ह्योनले महोदय इस रूपक के अंतिम चरण का अर्थ इस प्रकार करते हैं---"रेवातट पर उसने बाड़े लगा रक्खे हैं और अनेक अच्छे जानवरों को पकड़ रखा है । "

"पृथ्वीराज का कहना कि बहुत बड़े शत्रु रूपी मुगों का समूह शिकार करने को मिला । " ( पृ० रा० ना० प्र० सं०, पृष्ठ छंद २२ की टिप्पणी) । इस रूपक का आधार क्या है इसे ० रा० के ना० प्र० सं० के सम्पादक ही समझ सकते हैं ।

कवित्त

मिले सब्ब सामंत, मत्त मंड्यौ सु नरेसुर।
दह गूना दल[३५] साहि, सजि चतुरंग सजिय उर॥
मन संत कौन, सोइ वर मंत विचारौ।
बल घट्यौ अप्पन्नौ सोच, पच्छिलो निहारौ॥
तन सदसद्वै लीजे[३६] मुगति, जुगति बंध गौरी दलह।
संग्राम भीर प्रिथिराज बल, अप्य मन्ति किज्जै कलह॥ छं० २३। रू० २३॥

भावार्थ – रू०२३ –– सब सामंत एकत्रित हुए और नरेश्वर (पज्जूनराव ) ने यह सुझाव पेश किया, “शाह ने बड़े विचार पूर्वक (हम लोगों से) दस गुनी चतुरंगिणी सेना तैय्यार कर ली है (अतएव इस समय ) आप शांति नीति ग्रहण कीजिये और यही श्रेष्ठ मंत्रणा है; ['सलाह देने में न चूकिये वरन् श्रेष्ठ मंत्रणा सोचिये।' ह्योर्नले]। (साथ ही ध्यान रखिये कि) अपना बल घट गया है. (तथा) पिछली लड़ाइयों का क्या प्रभाव पड़ा है इसे भी सोच लीजिये ! अपने विविध अंगों को मिलाकर और युक्ति पूर्वक गोरी की सेना को घेरकर हम मुक्ति लें [अपनी बाधा को टालें — मुक्ति का अर्थ मरकर मृत्यु नहीं वरन् शत्रु से पीछा छुड़ाना है।] - पृथ्वीराज के बल ( सेना ) पर इस समय संग्राम की भीर है (चारों ओर से प्रहार हो रहे हैं) अतएव अपने श्राप झगड़ा मोल न लीजिये [ या आप अपने में कलह न कीजिये अथवा गोरी से इस समय झगड़ा न कीजिये उसे मिलाये रहिये।"

शब्दार्थ –रू० २३–मत्त = मत, सलाह, सुझाव। नरेसुर < नरेश्वर राजा । पज्जूनराव की पदवी 'नरेसुर' थी। पज्जून ये पृथ्वीराज के साले थे ( Rajasthan. Tod Vol II, pp. 350-351 ) । दह गूना दस- गुना । सजिय उर मन लगाकर, बड़े विचार पूर्वक। भवनमंत मौन मत' अर्थात् शांति नीति । चुकौ न= न चुको । सोह=वही। वर मंत= श्रेष्ठ मत. (सलाह, मंत्ररणा )। अपनी-अपना। घट्यो=घट गया है। पच्छिलो निहारौ = अंत भी देखो पिछली (लड़ाइयों का क्या प्रभाव पड़ा है इसे भी) सोच लो । तन अंग। सद <शत – सौ ( अर्थात् अनेक)। तन सदअनेक (विविध) अंग। सधैं सदें मिल जायें। मुगति <सं० मुक्ति। जुगति सं० युक्ति। बंध। गोरी दलह गोरी के दल को बाँध लें। बल = शक्ति। प्रिथिराज बल-पृथ्वी- राज की शक्ति ( सेना ) पर। अप्प = श्राप। मत्ति किज्जै = मत कीजिये। कलह झगड़ा, फूट।


नोट - इस कवित्त की अंतिम चार पंक्तियों का अर्थ धोर्नले महोदय इस प्रकार करते हैं-

"हमारी शक्ति क्षीण हो गई है इसको याद रखिये और अंत भी सोच लीजिये । शरीर से शरीर भिड़ाकर लड़िये और मुक्ति प्राप्त कीजिये । गोरी अपना दल बड़ी युक्तिपूर्वक सजाया है परन्तु युद्ध छिड़ने पर पृथ्वीराज की शक्ति उसके बरावर है अतएव श्राप युद्ध करने का दृढ़ संकल्प कर लीजिये या इस समय स्वयं अपने में फूट न डालिये । "

कवित्त

सुनिय वत्त पज्जून राव परसंग मुसक्यौ[३७]
देवराव बग्गरी, सैन दे पाव कसक्यौ ॥
तन सट्टै[३८] र सटि मुकति, बोल भारथ्यो बोलै ।
लोह अंच उड्डत, पत्त तरखर जिमि डोलै ॥
सुरतांम कांपी मुष्यां[३९] लग्यौ, दिल्ली नप दल बानियो ।
भरभीर धीर सामंत पुन, अबे पटंतर जानिव ॥ छं०२४ ॥ रू०२४॥

भावार्थ- रू० २४ - पज्जून की ( उपर्युक्त ) बातें सुनकर प्रसंग राव मुसकुराया और देव राव बग्गरी ने इशारा करते हुए अपना पैर खींचा ( समेटा ) तथा व्यंग्य पूर्वक कहा - "इस तरह आपस में मेल करके पीछा छुड़ाना क्या ही वीरोचित वाक्य हैं ? [ 'शरीर से शरीर सटाकर वीर गति प्राप्त करने का उपदेश क्या ही वीरोचित वाणी है'-- ह्योनले |] (स्वयं तो ) जब लोहे से लोहा बजकर आँच निकलती है तो वृक्ष के पते सदृश डोलने (काँपने लगता है [अर्थात्-सामने युद्ध होते देख काँपने लगता है ।] सुलतान चढ़कर हमारे सर पर आ गया है। दिल्लीराज भी एक सेना तय्यार कर लें । कठिन मोर्चों पर धैर्य धारण करने वाले हमारे सामंत ( इस गिरी अवस्था में) अब भी उनसे कम नहीं हैं ।" ["दिल्लीराज भी एक सेना अवश्य तय्यार कर लें । शत्रु सैनिकों की संख्या और अपने सामंतों की वीरता बराबर ही समझना चाहिये ।' पोर्नले ]

शब्दार्थ - रू० २४ – सुनिय= सुनकर । वत्तबात । पज्जून == यह या जयपुर के कछवाह राजपूतों की एक शाखा कूर्म या कूरंभ वंश का था । वीर चौहान ने ख्यातनामा एक सौ आठ सरदार उसके साथ कर दिये


थे। अनेक युद्धों में पृथ्वीराज की सेना के एक भाग का संचालन पज्जून की यक्षता में हुआ था। भारत के उत्तरी आक्रमणों में दो वार पज्जून अपनी वीरता का परिचय दे चुका था। एक बार उसने शहाबुद्दीन को ख़ैबर के दरें में पराजित किया और गज़नी तक खदेड़ा था। चंदेल राज महोबा की विजय ने पज्जून की वीरता की धाक बैठा दी थी। पृथ्वीराज की एक बहिन 'पज्जून को ब्याही थी और चौहान नरेश ने उसे महोबा का शासक बना दिया था। कन्नौज के संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में चुने हुए चौंसठ सरदारों में पज्जून भी था और लौटते समय पाँच दिन के युद्ध में प्रथम दिन वीर गति को प्राप्त हुआ था। यह घूँघर या हुँडार का अधिपति था[ Rajasthan. Tod. Vol. II, pp. 249, 350-361]। परन्तु ६५वें सम्यौ में हम पढ़ते हैं कि पज्जूनी पृथ्वीराज की तेरह रानियों में आठवीं विवाहिता रानी थी । पृथ्वीराज ने अठारहवें वर्ष की आयु में पज्जूनी से विवाह किया था -[“अठारमैं बरस चहुनान चाहि । कछवाह वीर पज्जून व्याहि । इक मात उदर धनि गरम सोय। बलिभद्र कुंअर जाप संदीप ॥ सम्यौ ६५, छंद ]। यदि ये दोनों पज्जून एक ही हैं जैसा कि टॉड और ह्योर्नले दोनों महानुभावों का कहना है तो पृथ्वीराज ने अपनी सगी भानजी से विवाह किया। परन्तु ऐसी प्रथा न होने से शंका उत्पन्न होने लगती है अस्तु इन दोनों पज्जूनों में अवश्य भेद होना चाहिये। [ कछवाहों के वि० वि० के लिये देखिये - Races of N. W. Provinces. Elliot ( edited by Beams ). Vol. I, pp. 157- 59 ]। राव परसंग = इसे कीची प्रसंग भी कहते हैं । प्रसंग राव कीची चौहान वंशी कीची प्रशाखा का था [ Rajasthan. Tod Vol. I, pp. 94-97 और भी वि० वि० देखिये - Hindu Tribes and Castes, Vol. I, pp. 160, 168 ]। यह पृथ्वीराज के वीर सामंतों में था और संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में बातों में से एक था[ रासो सम्यो ६१ ]। देवराव are = यह बागरी राव या बागरी देव के नाम से विख्यात है और बागरी जाति का राजपूत था। बग्गरी जाति का पता अब कम चलता संयोगिता हरण वाले युद्ध के ग्राहतों में बग्गरी राव भी था[ बग्गरी जाति के वि०वि० के लिये देखिये - Asiatic Journal. Vol 25, p. 104]। मुसक्यौ मुसकुराया। सैन दे= इशारा करते हुए ।पाव-पैर। कसक्यौ = खींचा। भारथ्थी < भारती वीरोचित वाणी। उड्डत उड़ते ही। चंपि= चौपकर, दाबकर। मुष्य < मुख। मुष्याँ लग्यो बिलकुल सामने (सिर पर) आ गया है। दल बानिबौ = दल बनाये (या सजावे)। भर भीर= भारी भीर ( कठिन मोर्चों पर भी) । श्रबै पटंतर जानिबौ अब भी उनके बराबर जानो । परंतर = बरावर।

नोट -"इस बात के सुनते ही पज्जून राव, प्रसंग राव खीची, देवराव arat आदि सामंत बोले कि यह सब मंत्र तंत्र व्यर्थ है । "भरत" का बचन है कि यह जीवन अग्नि ज्वाला से झुरसे वृक्ष में लगे हुए पत्ते के समान है, न जाने कब वायु लगते ही इसका पतन हो जाय अतएव इस सुअवसर पर चूकना क्या ? जबकि शत्रु साम्हने या गया है तो उससे लोहा लेना ही अच्छा है ।" रासो-सार, पृष्ठ १०० ।

इस 'सार' को काल्पनिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

कवित्त

कहै राव पज्जून, तार कढयौ तत्तारिय।
में[४०] दबिन वै देस, भरि जद्दव पर पारिय[४१]
में[४२] बंध्यो जंगलू, राव चामंड सु सभ्यं[४३]
वंभवानस विरास, वीर बड गुज्जर तथ्थं[४४]
भर विभर से हुआन दल, गोरीदल कित्तक[४५] गिना।
जानै कि भीम कौरू[४६] सुबर जर समूह तरबर किनौ ॥ छं० २५। रू० २५॥

भावार्थ – रू० २५ - पज्जून राव ने उत्तर दिया- " ( इससे पहिले) मैंने तारियों से बचाकर तुम्हें निकाल लिया था। दक्षिण के यादवों पर मैंने चाक्र- मरण किया। चामंडराय के साथ मैंने जंगलियों को हराया ( और उन्हें अपने आधीन किया )। भनवास से मैंने बड़गूजर को निकाल बाहर किया [या- मैंने बड़गूजर के साथ बंभनवास में बिहार किया] चौहान की सेना युद्ध प्रिय वीर सैनिकों की सेना है। गोरी की सेना को तुम क्या समझते हो १ योद्धा भीम कौरवों को अनेक जड़ों वाले एक वृक्ष सदृश जानते थे।"

शब्दार्थ — रु०२५ – तार तारना, त्राण करना । कढ्यौ -निकालना। मैं मैं । दनि दक्षिण । पारिय= डाला । वै=के या को (अर्थों में रासो में आया है जैसे—'गोरी वै गुज्जर गहिय'; = कष्ट । जद्दव < यादव । बंध्यो- बाँधा, 'गज्जन वै पठयो सुबर'; ) । भीर पकड़ लिया । जंगलू = जंगलियों


को। [रासो में पृथ्वीराज का नाम भी कहीं कहीं 'जंगलेश या जंगलो राव' मिलता है । "जंगलदेश पृथ्वीराज के पैतृक राज्य का नाम था, ” Asiatic Journal. Vol. 25]। सथ्यं = साथ । बंभनवास ( < ब्राह्मण वास) = "यह सिंघ का किसी समय का प्रसिद्ध परन्तु अब उजड़ा हुआ नगर है। वंभनवास और यूनानी हरमतेलिया (Harmatelia) एक ही हैं [Ancient Geography of India. Cunningham, Vol. I, pp. 267, 277] । चंद ने पृथ्वीराज रासो के अनेक स्थलों पर बंभनवास का प्रयोग किया है, (०"वंभन सुबास पवन प्रजारि । ता समह भीम मण्डन सुरारि ॥" - रासो सम्यौ १९, छंद ८ ) । महोदय ने जयपुर से कुछ मील की दूरी पर स्थित देवसा नामक एक साधारण ग्राम के वर्णनात्मक नाम को ही भ्रमवश वंभनवास मान लिया है। विरास= (१) निर्वासित करना ( २ ) विलास (विहार) । बड गुज्जर = बढ़गूजर छत्तीस राजपूतों की वंशावली में हैं। अंवर और जयपुर में इनका राज्य था परन्तु कछवाहों ने इन्हें वहाँ से निकाल दिया था । कूरंभ वंशी पज्जून भी कछवाह था । तथ्यं == वहाँ से । कित्तक - कितना । भीम = पाँच पांडवों में से एक जो वायु के संयोग द्वारा कुंती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । ये युधिष्ठिर से छोटे और अर्जुन से बड़े थे तथा बहुत बड़े वीर और बलवान योद्धा थे [वि० वि० - महाभारत ] । कौरु < कौरव सं० कौरव्यये कुरु राजा की सन्तान थे [वि० वि० - महाभारत ] । कुछ विद्वान 'भर विभर सेन चहुआन दल' का "चौहान का दल कठिन मोर्चा लेने में दक्ष है ' ( भर बिभरभर भीर= बड़ी आपत्ति, कठिन मोर्चा; सेन चतुर, दक्ष ) — भी करते हैं ।

कवित्त

तब कहै जैत पंवार सुनहु मिथिराज राजमत ।
जुद्ध साहि गोरी नरिंद लाहौर कोट गत ॥
सबै सेन अपनी राज एक सु किज्जै ।
इष्ट प्रत्य सगपन सुहित (बीर)[४७] कागद लिपि दिज्जै ॥
सामंत सामि इह मंत है अरु जु[४८] मंत चितै नृपति ।
धन र ब्रम्म जस जोग है (अरु) दीप दिपति दिवलोक पति[४९] ।।छं० २६। रू ०२६ ॥

भावार्थ- रू० २६ - तब जैव पँवार ( प्रभार) ने कहा कि हे पृथ्वीराज राजमत यह होना चाहिये । नरेन्द्र को लाहौर के दुर्ग में पहुँच कर शाह गोरी


युद्ध करना चाहिये । [ 'हे राजन्, पृथ्वीराज, मेरी सलाह सुनिये । लाहौर के दुर्ग में पहुँचकर युद्ध में आप शाह गोरी को पकड़ लें ।' ह्योर्नले ] | अपने राज्य की समस्त सेना एकत्रित कर लेना चाहिये और अपने इष्टों, भृत्यों, सों और सुहितों को पत्र लिख देना चाहिये । हे सामंतों के स्वामी, यही राजमत होना चाहिये फिर जो कुछ आप और विचारें । धर्म और यश का योग ही आपका मुख्य धन होना चाहिये क्योंकि आपका तेज इंद्र के समान अक्षय है! [ 'हे सामंतों के स्वामी, यह तो हम सामंतों का मत है और जो बात आप उचित समझें वह की जाय । स्वामिधर्म ( स्वामिभक्ति ) एक पवित्र वस्तु है और राजपूत के लिये यश के योग्य होना ही कल्याण है । राजन् पृथ्वी पर इन्द्र सद्दश तेजस्वी हों । ह्योनले ] ।

शब्दार्थ - रू० २६ - जैत पंवार < जैत सिंह प्रमार- प्रमार- इसका पूरा नाम जैत था और यह प्रसिद्ध श्राबूगढ़ का अधिपति था।जैसा कि इसी सयौ में आगे पढ़ेंगे कि जैत का संबंधी या भाई मारा गया - ( जैन बंध गिरि परौ सुन को जायौ)। उसके पुत्र का नाम सुलख था और पुत्री का इंच्छिनी जिसका विवाह पृथ्वीराज से हुआ था ( रासो सम्यौ २४ ) । पृथ्वीराज ने बारह वर्ष की आयु में इंच्छिनी से विवाह किया था और वह उनकी दूसरी रानी थी --- ["बारमै वरस का सलष सोय । दिनी सु श्राय इंछनी लोय । ग्राबू सु तोरि चालक गंजि । किन्नौ सु ब्याह परिभाष मंजि" रासो सम्यौ ६५, ० ४] | जैत ने बराबर पृथ्वीराज का साथ दिया था । संयोगिता अप हरण विषयक युद्ध में वह भी आहत हुआ था ( रासो सम्यो ६१ ) | वह प्रमार वंशी राजपूत था । प्रमार के बदले पंवार, परमार, पवार, पुत्रार नाम भी रासो में पाये जाते हैं । वार अग्निकुल क्षत्रियों में प्रभार भी हैं ( रासो सम्यौ१) । "यह (प्रमार जाति) अग्निकुलों में सबसे अधिक शक्तिशाली जाति थी और ८५ शाखाओं में विभक्त थी" (Rajasthan. Tod Vol. I, pp. 90-91) ! प्रमार जाति का वर्णन Hindu Tribes and Castes. Sherring. Vol. I, pp. 143-49 में भी मिलेगा । गत=जाकर एक इकट्ठा । सगपन = अपने सगे | मंत सं०' मंत्रणा - सलाह | दीप-तेज| दिपति = दीप्ति- मान । दिवलोक पति इंद्र ( वि० वि० प० में देखिये) ।

कवित्त

वह वह कहि रघुबंस रांम हक्कारि स उठ्यौ ।
सुनौ सब सामंत साहि आयें बल छुट्यो[५०]


गज रुसिंघ सा पुरिष जहीं रुंधै तहं फुज्फै[५१]
समौ[५२] असमौ जानहि न लज्ज पंकै आलूज्फै॥
सामंत मंत जाने नहीं मत्त गर्दै इक मरन कौ।
सुरतान सेन पहिले बंध्यौं फिर बंध्यौं तौ[५३] करन कौ ॥ छं०२७। रू० २७॥

कवित्त

रे गुज्जर गांवांर राज लै मंत न होई।
अप्प मरै[५४] छिज्जै नृपति कौन कारज यह जोई ॥
सब सेवक हुन देस भग्गै धर पिल्लै।
पछि कांम कहँ[५५] करै स्वामि संग्रांम इकल्लै ॥
पंडित भट्ट कवि गाइना नृप सौदागर बारि हुन ।
गजराज सीस[५६] सोभा भंवर क्रन उडाइ वह सोभ लह ॥ छ०२८ । रू०२८

भावार्थ- ६ - रू० २५ - रघुवंशी राम चिल्लाता हुआ उठा और (व्यंग्य पूर्वक) बोला सामंतो सुनो, शाह या गया और वाह वा तुम्हारा बल (साहस) छूट गया (= भंग हो गया)। वीर (पुरुष) हाथी और सिंह सदृश जहाँ कहीं रुँध (= घिर जाता है, वहीं युद्ध में जूक पड़ता है, वह समय समय का विचार नहीं करता और लज्जा के कीचड़ में नहीं फँसता। सामंतों का एक ही मत है और वह है मरना। इसके अतिरिक्त वे दूसरा मत नहीं जानते । सुलतान की सेना को मैंने पहिले बाँध लिया था और अबकी न पकड़ लूँ तो करन (कर्ण) का बेटा नहीं। [सुलतान ने तो अपनी सेना पहले ही से बाँध ली है, अब तुम मी एक तय्यार करना चाहते हो इससे क्या लाभ होगा — धोर्नले ]।

रू० २८ – ऐ गँवार गूजर, राज्य पा जाने से मंत्रणा देना नहीं आ जाता । तुम स्वयं मरोगे और महाराज का भी विनाश करोगे । (ऐसी सलाह देने से ) तुम क्या फल देखते हो ? चौहान के सब सेवक घर चले जायेंगे और महाराज के घर में फूट पड़ जायेंगी। तब फिर क्या होगा ? क्या स्वामी अकेले युद्ध करेंगे ? जिस तरह गजराज अपने मस्तक के सौरों को कान फड़फड़ा कर उड़ाता हुआ शोभित होता है उसी प्रकार राजा अपने पंडित, भट्ट, कवि गायक, सौदागर, वारिवनिताओं आदि सेवकों को भगाकर क्या कभी शोभा पा सकता है ?


शब्दार्थ - रू० २७ - वह वह वाह वा । रघुवंस राम-रघुवंशी राम के लिये आया है जिसके विषय में रासो में लिखा है- 'जिहि नंदिपुर भंजि' । "रघुवंशी राजपूत अपनी उत्पत्ति अयोध्या के रघुवंशी राजा रघु से बताते हैं । रघुवंशी राजपूतों की जाति उत्तरी पश्चिमी प्रदेशों में फैली हुई है। मैनपुरी और एटा के रघुवंशियों का कथन है कि वे राजा जयचन्द के समय कन्नौज से आये थे” [ Hindu Tribes and Castes Sherring. Vol.I, pp. 210-11 ]। हक्कारि स उठ्यौ = चिल्लाता हुआ उठा । साहि श्राये= शाह के आने पर । बल छुट्यौ - तुम्हारा बल छूट गया अर्थात् तुम्हारा साहस जाता रहा । [ साहिये बल छुट्यौ = शाह आ गया है उसकी सेना चल चुकी है --योर्नले ] । 'न'- काकाक्ष अलंकार है; (न समौ समौ जानहि न लज्ज पंकै आलु) । श्रालु उलझना, फँसना । पंकै कीचड़ में । लज्ज-लज्जा ! मत्तमत। गर्दै पकड़ना । तौ करन कौ= तभी कर्ण का बेटा हूँ ।

रु० २८ –रे = ऐ। गुज्जर गांवार-यह खुवंशी राम के लिये यहाँ प्रयुक्त हुआ है । यद्यपि कविता में वक्ता का नाम नहीं दिया पर जहाँ तक सम्भव यह जैत प्रमार ही है । अप्प मरै = श्राप मरोगे । छिज्जे विनाश करना । कौन का यह जोई इससे तुम क्या कार्य होता देखते हो । घर बिल्लै == (१) खिल जाना, फूट जाना (अर्थात् महाराज के घर में फूट पड़ जाय ) (२) घर में जाकर आनंद करें - चोर्नले । कारज <कार्य । पछि = पीछे । काज <कार्य । इल्लै : अकेले । गाइना = गायक । वारि वेश्या । भंबर < सं अमर । कन सं० कर्ण कान। वह सोम तहः (Does he get beauty ? No.) Growse.

प्रस्तुत कवित्त की अंतिम चार पंक्तियों का अर्थ ह्योनले महोदय ने इस प्रकार किया है-“All servants of the Chahuvan will betake themselves to their own country and enjoy themselves at home; afterwards what can the king accomplish being alone in the war ? Scholars, soldiers, poets, singers, princes, merchants constitute (the king's court, adorning it like the black bees on the head of an elephant; when he makes them fly around by flapping his ears, he gets beauty,"

नोट - रू० २३ से रू० २८ तक पृथ्वीराज के लाहौर लौटते समय उनके दरबार की युद्ध विषयक मंत्रणा का हाल है। दरबार दो प्रकार के भाव रखे गये । एक मत यह था कि शीघ्र ही जो कुछ सेना है उसे लेकर पृथ्वीराज गोरी से युद्ध छेड़ दें और दूसरा मत यह था कि पहले पृथ्वीराज अपने इष्ट, मित्र, सामंत आदि सबको बुलावें फिर एक बड़ी सेना तैयार कर शाह से युद्ध करें। इन दोनों मतों पर विवाद होकर पहले मत की विजय रही और शीघ्र ही युद्ध छेड़ने की तैयारी होने लगी, जैसा कि हम आगे पढ़ेंगे ।

दूहा

परी षोर तन दंग मम[५७], अम्ग जुद्ध सुरतान।
अथ इह बिचारिये लरन मरन परवांन ॥" छं० २९ । रू० २९।

दूहा

जन सिंह[५८] प्रथिराज कै, है दिष्षिय परवांन ।
बज्जी पष्षर पंडरै, चाहुवांन सुरतांन ॥ छं० ३० । रू०३०

दूहा

ग्यारह अप्पर पंच षट, लघु[५९] गुरु होइ समान ।
कंठ सोभ वर छंद कौ, नाम कलौ परवांन ॥ छं० ३१ । रू० ३१ ।

भावार्थ -- रू० २१ - [ दरबार में इन दो विभिन्न मतों पर विवाद बढ़ते देखकर पृथ्वीराज ने कहा] -“तुम लोगों के मतभेद की बातें सुन सुन कर मैं परेशान हो गया हूँ। सामने सुलतान से युद्ध है ( अतएव ) अब इसी मत पर विचार करो कि लड़ना और मरना ही निश्चित है । "

रू० ३० पृथ्वीराज का (यह) सिंह गर्जन सुनकर यह बात निश्चित हो गई कि चौहान सुलतान के विरुद्ध बोड़ों के जिरह बख़तर खड़खड़ाये (या कसे ) ।

रू० ३१ - पाँच और छे के क्रम से ग्यारह अक्षर ( जिस छंद में ) हों ( तथा जिसमें ) लघु और गुरु समान हों, ऐसे श्रेष्ठ छंद का नाम कंठशोभा निश्चित है ।

शब्दार्थ -- रू० २३- बोर < खोर <सं० खोट दोष, बुराई [ उ "कौं पुकारि खोरि मोहिं नाहीं ।" रामचरित मानस ] । यहाँ 'बोर' का बुराई अर्थ लेकर 'मतभेद' अर्थ लिया गया है क्योंकि सामंतों में वादविवाद होते-होते बुराई होने लगी थी। वैसे 'बुराई' शब्द का व्यवहार भी अनुचित न होगा । अरग <सं० श्रागे । इह यह । परवान <सं० प्रमाण निश्चित । दंग <फा० (परेशान )।

रू० ३० -गजन गर्जन । कैका । है दिप्रिय परवांन प्रमाणित ( निश्चित ) दिखाई दिया | बज्जी <सं० बाजि = घोड़ा | पष्पर <सं० पक्ष=


जिरह बनतर (घोड़ों का जो बहुधा चमड़े का हुआ करता था ) । षंडरै = खड़- खाना अर्थात् कसना।

रू० ११ - ग्यारह < प्रा० एयारह पा० एकादस सं० एकादश । अध्पर<सं० अक्षर । घट <सं० घट् (√ पत्र ) > प्रा० छ > हि० छ :- छे । पंच (पंच) > प्रा० पञ्च > हि० पाँच।

नोट रू० २९- "Disgrace bas fallen upon us by going into this contention; before us is the war with the Sultan. Now think only of this advice, namely to fight and die.” [Bibliotheca Indica. No. 452. p. 15].

रू० ३०—The horses of the lion of Ghazni and of Prithiraj are clearly seen. Their quilted mail res- ounds as both gallop about the Chahuvan and the Sultan. [Bibliotheca Indica. No. 452. p. 15].

दोहों और कवित्तों में पृथ्वीराज की तयारी का ही वर्णन है तब गोरी और चौहान के घोड़े अभी किस प्रकार देखे जा सकते हैं।

छंद कंठशोभा

फिरे हय बषर पष्षर से । सनों फिरि इंदुज पंप कसे ।
सोई उपमा कवि चंद कथे । सजे मनों पोन[६०] पवंग रथे ॥ छं० ३२।
उप्पर[६१] पुट्टिय दिट्टियता । विपरीत पलंग तताधरिता[६२]
लगैं उड़ि वित्तिय चौन लयं[६३] । सुने खुर केह अत्तनयं ॥छं० ३३।
बंधि सुहेम हमेल घनं । तब चामर जोति पवन रुनं ।
ग्रह अट्ठ सतारक पीत पगे[६४]। मनो सु त के उर भांन लगे । छं ०३४ ।
पय मंडिहि अंसु धरै उलटा ।मनो विट[६५] देषि चली कुलटा ।
मूष कट्ठिन घूंघट अस्सु बाली। मनों घूंघट है कुल बहु चली ॥ छं० ३५ ॥
तिनं उपमा बरनं न धनं । पुजै नन बग्ग पर्वन मनं । छं ०३६॥ रू०३२ ।

भावार्थ:-रू० ३२

नोट -सुलतान से युद्ध होना निश्चित जानकर युद्ध की तय्यारियाँ होने लगों । इस छंद में चंद ने घोड़ों की शोभा का वर्णन किया है।


घोड़े अपने बाखरों-पाखरों सहित ऐसे फेरे जाते हैं मानो गरुड़ (पक्षी) अपने पंख समेटे उड़ रहे हों। चंद कवि उसी की उपमा कहते हैं कि मानो वे प्लवंग के रथ के घोड़ों की तरह सरपट दौड़ रहे हों । उनकी छाती और पुट्ठे ऐसे सुन्दर दिखाई पड़ते हैं मानों पलंग उलट कर रख दिये गये हों। जब बे चौकड़ी भरते हुए पृथ्वी से उछलते हैं तो उनके सोने के खुर खुल जाते हैं (अर्थात् दिखाई पड़ जाते हैं)। उनके श्रागे ( गरदन में ) सोने की घनी हमेलें बँधी हुई हैं जो उनकी चमकती हुई कलगी के साथ हवा में बजती हैं (और हमलों के गोल टुकड़े ऐसे मालूम होते हैं) मानो आठ ग्रह उनकी छाती पर पीली पाग बाँधे अपने तारक मंडल सहित चमकते हुए निकल आये हैं घोड़े अपने पैर ऐसे बना कर चलाते हैं जैसे कुलटा (स्त्री) अपने (वैशिक) नायक को देखकर चलने लगती है। बलवान बोड़ों के मुँह पर भालर पड़ी है और ऐसा मालूम होता है मानो घूँघट खींचे हुए कुल बधुयें चली जा रही हैं। उनकी अनेक उपमाओं का वर्णन नहीं हो सकता और उनकी चाल का कितना ही वर्णन किया जाय मन को संतोष नहीं हो सकता ( या उनकी सरपट चाल की तुलना मन में नहीं आती )।

शब्दार्थ - रू० ३२- फिरे = फेरे गये । हय = घोड़े । बष्वर पष्पर< बाखर पाखर [दे० Plate No. 1] ; [ बाखर ( बखरी ) = वर+पाखर < सं०] पक्ष = जिरह बख्तर ]। इंदु गरुड। ( ह्योर्मले महोदय "फिरि इंदुज" का पाठ “फिरिम दुअ" करके “चिड़ियों का फिरना" अर्थ करते हैं)। आचार्य केशवदास ने अपनी रामचंद्रिका के सुंदरकांड में श्री रामचन्द्र की वानर सेना की उपमा पंख रहित पक्षियों से दी है । यथा-

तिथि विजयदमी पाइ । उठि चले श्री रघुराइ ।
हरि यूथ यूथय सँग । बिन पच्छ के ते पतंग ॥ ७५। ना० प्र० सं० ।

पत्र कसे = पंख समेटे हुए। कथे = कहता है। पोन < सं० प्लवन == सरपट चाल । पवंग <सं० प्लवंग ( या प्लवग ) सूर्य के सारथी और सूर्य के पुत्र का नाम। उरप्पर=उर के ऊपर। पुयि = पुट्ठे। सुट्टिय= सुन्दर। दियिता = दिखाई पड़ते हैं। विपरीत पलंग तत्ताधरिता = पलंग उलट कर रख दिये गये हो। घोड़ों के पुट्ठों की चौड़ाई की उपमा पलंग से देना भाषा का मुहावरा है। छित्तिय <सं० क्षिति = पृथ्वी। चौन लयं = चौकड़ी भरते हैं ।सुने=सोने के। अत्रत्तनयं <सं० आवर्तन = खुलना। अय बंधि आगे बँधी हुई । हेम सोना। हमेल < गले में पहिनने का श्राभूषण। (दे० Plate No. III,। चमर = चँवर ( यहाँ कलंगी से तात्पर्य है )। जोति= चमकती हुई। पवन <सं० पवन वायु। रुनं = बजना । ग्रह ग्रह = आठ ग्रह। सतारक = तारक मंडल सहित। पीत परोपीले रंग की पाग। उर हृदय, वक्षस्थल। भांन=चमकना । विट= वैशिक नायक; कामतंत्र की कला में निपुण नायक का सहायक सखा। कुलटा = दुराचारिणी स्त्री। मुष <मुख। कठिन=काढ़ना, खींचना। घूंघट = यहाँ घोड़ों की झालर से तात्पर्य है। रसु < सं० अश्व। बली = बलवान। कुलबद्ध = कुल बधुयें। बरनं < वर्णन। धनं अधिक। पुजै = बराबरी। न न नहीं। बग्ग पवन < वर्ग प्लवन (यहाँ घोड़ों 'की सरपट चाल से तात्पर्य है)। याग <सं० वर्ग समुदाय समूह। मनं मन।

कुंडलिया

नव बज्जी घरियार घर, राजमहल उटि जाइ ।
निसा अद्ध बर उत्तरे, दूत संपते आइ ॥
दूत संपते आइ, धाइ चहुन सुजग्गिय।
सिंह बि मुकि, साहि साही उर तग्गिय ॥
अट्ठ सहस्र गजराज, लष्ष अट्ठारसु[६६] ताजिय[६७]
उसै सत्त बर कोस, साहि गोरी नव बाजिय ॥छं० ३७ ।रू० ३३ ।

दूहा

बँचि कागद चहुआनं, फिर न चंद सह[६८] थांन।
मनवीर तनु अंकुर, मुगति भोग बनि प्रांन ॥ छं० ३८ । रू० ३४ ।

दूहा

मची दल हिंदु कै, कसैं[६९] सनाह सनाह ।
बर चिराक दस सहस" भइ[७०],बजि निसांन अरि दाह ॥छं० ३६।रू० ३५।

भावार्थ - रू०३३ - पर में बढ़ियाल ने (रात्रि के) नौ बजाये (और पृथ्वीराज ) उठकर राजमहल में गये । जब श्रद्ध रात्रि भली भाँति बीत चुकी थी तब अचानक एक दूत ने आकर शीघ्र चौहान के पास पहुँच उन्हें जगाकर कहा कि अब सिंहों के साथ छेड़छाड़ छोड़ कर शहंशाह गोरी की ओर ध्यान दीजिये। आठ हजार हाथी और अठारह लाख घोड़े लिये हुए गोरी नौ बजे चौदह कोस की दूरी पर देखा गया है।


रू० ३४ - चौहान ने पत्र पढ़ा- [ यह पत्र लाहौर के शासक चंद पुंडीर द्वारा भेजा गया था जो चिनाब नदी के तट पर गोरी का मार्ग रोके खड़ा था ]- कि चंद ( पुंडीर ) अपने स्थान से फिरेगा नहीं, उसके शरीर में (मानो) वीरत्व अंकुरित हो गया है जिससे उसके प्राण मुक्ति का भोग भोगें ।

रू० ३५- ( पत्र सुनकर ) हिन्दुयों के दल में कोलाहल मच गया, सबने कवच कस लिये, ( चारों ओर ) दस सहस्त्र ( अर्थात् अनेकों ) मशालें जल उठीं (और) अरि दाह ( अर्थात् शत्रु को कष्ट देने वाले ) निशान (नगाड़े ) बज उठे ।

शब्दार्थ - रू० ३३ - नव बज्जी = नौ बजे। घरियार = घड़ियाल । निसा < सं० निशा । श्रद्ध<सं० श्रद्ध। वर उत्तरे = भली भाँति उतरी या बीत गई । संपते = अचानक; सं० संप्राप्त । जग्गिय = जगाया। बिथ्ये <सं० विहस्त = छेड़छाड़; व्यस्तता । मुक्किं< मुक्ति = रोकना, छोड़ना । साहि साही= शहंशाह गोरी । उर तग्गियहृदय में तागो (ध्यान दो)। ग्रह सहस= आठ हजार । लष = लाख। अट्ठारसु =अठारह । ताजिय <० (ताज़ी) : = घोड़ा विशेष अरब का । उभै < उभय = दो । सत्त सात। महल राजभवन । नव बाजियन बजे।


रू० ३४ – बँन्त्रि = बाँचकर, पढ़कर। कागद = पत्र। नै=ने । सह < सं० साउस, वह ।थांन <स्थान। वीर = वीरत्व। तन अंकुरै शरीर में अंकुरित हो गया। मुगति <सं० मुक्ति। मुगति भोग बनि प्रांन=प्राण मुक्ति का भोग भोगें।

रू० ३५ – कूह == कोलाहल ( < हि० कूक ), चिल्लाहट । कै= के। सनाह = कवच। कसैकस लिये। ( ह्योर्नले महोदय ने 'करै' पाठ माना है, और 'करै सनाह सनाह' का अर्थ 'कवच लाखो, कवच लायो', करते हैं, जो संभव है ) । चिराक < फा० ही (चिराग़ ) = दीपक (यहाँ मशालों से तात्पर्य है)। दस सहस= दस सहस्त्र अर्थात् अनेकों । निसांन <फ़ा० = नगाड़े (दे० Plate No. IV)। अरि=शत्रु । दाह = जलाना (यहाँ 'कष्ट देने' से तात्पर्य है )।

दूहा

बाबस्सु नृप मुक्कर्ते, दूत आइ तिहिं बार
"सजी सेन गौरी सुबर[७१], उत्तरयौ नदि[७२] पार ॥ छं० ४० । रू० ३६ ।

दूहा

पंच सजि गोरी नृपति, बंधि उतरि नदि पार[७३]
चंद वीर पुंडीर ने, यदि मुके दरबार[७४] ॥छं० ४१ । रू० ३७ ।


कवित्त

षां मारूफ ततार, पान खिलची बर गट्टे ।
चामर छत्र मुजक्क, गोल सेना रचि गट्टे ॥
नारि गोरि जंबूर, सुबर कीना गज सारं ।
नूरी षां हुज्जाब, नूर महमुद सिर भारं ॥
वजीर षांन गोरी सुभर, षांन षांन हजरति षां ।
वि सेन सब्जि[७५] हरबल करिय, तहाँ उभौ सजिरति षां ।। छं ०४२ ।रू० ३८।

भावार्थ - रू० ३६ - उसी समय बाबस्तु नृप द्वारा ( पृथ्वीराज के पास ) मेजा हुआ दूत आया और बोला कि योद्धा गोरी ने सेना सजाकर (चिनाब ) नदी पार कर ली है।

रू० ३७ - [दूत का वर्णन कि गोरी ने किस प्रकार चिनाव नदी पार की ] - हे नृपति, गौरी ने अपनी सेना को पाँच भागों में बाँटकर नदी पार की और उतरने के बाद वे पाँचों भाग फिर एक में बँध (= भिल ) गये ! वीर चंद पुंडीर ने अपने साथियों सहित ( गोरी से ) डटकर मोर्चा लेने के लिये (अपने स्थान से) प्रस्थान किया ।

रू० ३८- तातार मारूफ खाँ और खिलची खाँ मिल गये । सेना को म्यूह बद्ध किये वे खड़े थे; उनके ऊपर चँवर और छत्र था जिसके द्वारा वे पहिचाने जा सकते थे । (या - विशेष छत्र और चमर सहित वे सेना के गोल बनाये हुए खड़े थे ) । हुजाब नूरी खाँ तथा नूर मुहम्मद को बड़ी तोपों, गोलों, छोटी तोपों और हाथियों के विभाग का उत्तरदायित्व सौंपा गया। गोरी के बीर योद्धा वज़ीर खाँ ने और खानखाना हजरन्ति खाँ ने दूसरी सेना का हरा- बल सजा दिया । वहीं सजरत्ति (= शनरत ) खाँ भी उपस्थित था ।

शब्दार्थ- रू० ३६ - बावस्तू यह पृथ्वीराज के किसी सामंत का नाम जान पड़ता है जो चंद पुंडीर के साथ चिनाव नदी के तट पर गोरी से मोर्चा लेने के लिये खड़ा था । 'सामंत चार भागों में विभाजित थे उनमें एक भाग का नाम बबस ( = पैदल ) था और 'बबस' चौहान वंश की प्रशाखा की एक शाखा के राजपूत हैं" (Rajasthan. Tod Vol. I, p. 142 ) । "यह भी संभव है कि 'बाब्बसू' चंद पुंडीर द्वारा भेजे हुए दूत का नाम हो” – ह्योर्नले । मुक्कतें < मुख ते=ोर से । सुबर= सुभट, श्रेष्ठ योद्धा । नदि= नदी ( चिनाब )।


नोट - अगले रू० ५० तक पढ़ने से ज्ञात होता है कि गोरी ने चिनाब नदी रात में पार की थी।

रू० ३७ - पंचा सजि= पाँच भागों में सजाकर । नृपतिराजा ( पृथ्वी- राज के लिये आया है ) । थटि= डटकर । मुक्के (<सं० मुक्ति) = छोड़ा। दरबार- यहाँ चंद पुंडीर के साथियों के लिये आया जान पड़ता है। बंधि बँध जाना ।

रू० ३८ - ततार < तातार ( देश का रहने वाला ) । तातार तुर्क थे। तुर्क जाति की दो मुख्य शाखायें तातार और मंगोल (मुगल) हैं। पिलची < खिलजी ये तुर्कों की प्रशाखा में हैं। विलजियों का संबंध तातारियों और मुग़लों से मिलना अनिश्चित है।(Tabaqat-i-Nasiri. Trans. Raver- ty, pp. 873-78 में खिलजियों का वि० वि० मिलेगा ) । गडे = एकत्र होना चामर छत्र = चाँवर और छत्र | मुजक्क ० <= फल, पहिचान, विशेष । गोल<अ० J৺=विभाग, व्यूह । नारि < नालिक = बड़ी तोप । गोरि= गोली, गोला । जंबूर ८० ४१११ ; छोटी तोप । सुबर = सुसज्जित किया ! गज सारं= गज विभाग, ( 'चुने हुए हाथी', ह्योर्नले )। हुजाब < = खवासों का (या - उत्तरदायित्व सौंपा ) । वज्जीर-- बहुत संभव है कि तबकाते नासिरी विय = दूसरी। सेन सज्ज = सेना सरदार। सिर भारं = सिर पर भार रक्खा यह वज़ीरस्तान का निवासी हो सकता है। वाला असदउद्दीन शेर वज़ीरी यही हो। सजाई। हरबल <ost, (हरावल ) = सेना का अग्र भाग, सेना के अग्रगामी सैनिकों का समूह ( ह्योनले महोदय ने हरबल का अर्थ 'हलबल' करके 'जल्दी या शीघ्रता करना' लिखा है जो यहाँ सार्थक नहीं है )। रासो में हरबल शब्द तुर्की हरावल के अर्थ में अनेक स्थानों पर आया है। उभौ = उपस्थित था।

नोट - ( १ ) - " उसने कहा कि इस प्रकार शाह की अवाई का समा- चार सुनकर पचास हजार सेना के साथ चंद पुंडीर ने नदी का नाका जा बाँधा है और मुझे आपके पास भेजा है। चंद पंडीर को रास्ते में डटा हुआ देखकर शहाबुद्दीन ने मारूफ खाँ, तत्तारखाँ, खिलची ख़ाँ, नूरी ख़ाँ, हुजाब ख़ाँ, महम्मद खाँ आदि सरदारों से गोष्ठी करके अपने सरदारों को दो भागों में बाँटा । महमूद खाँ, मंगोल लारी, सहबाज ख़ाँ, जहाँगीर ख़ाँ, यदि सेना नायक और निज पुत्र सहित एक सेना को लेकर सुलतान ने तो चिनाब पार करने की तय्यारी की और आलम खाँ, मारूफ खाँ, उजबक ख़ाँ श्रादि तीस यवन वीरों को कुछ सेना सहित उस पार अपनी सहायता के लिये रखा ।" हासो-सार, पृष्ठ १००-१०१। स्मरण रहे कि दूसरे दूत के वचन आधे रू० ३६ से प्रारंभ होकर अगले रू० ४१ की समाप्ति की एक पंक्ति कम तक जाते हैं । 'रासो-सार' में केवल एक हो दूत के आने का वर्णन है जबकि दूसरे दूत के आने का हाल रू० ३६ से स्पष्ट है । 'रासो-सार' का उपर्युक्त वर्णन पढ़ने से पता लग जाता है कि उक्त सार लेखक दूसरे दूत के आगमन का हाल नहीं समझ सके और न उसके वर्णन के क्रम का ही । उन्होंने रू० ३८, ३६, ४० और ४१ में आये हुए नाम मात्र समझ पाये हैं ।

(२) "दोहा और दूहा की मात्रा में कुछ भेद नहीं है । दूहा पुराना और दूहा नया प्रयोग है। उनमें से दूहा "दु + कह" से बना है अर्थात् जिसमें दो ऊह हों उसे दूहा कहते हैं । और हिन्दी दोहा शब्द संस्कृत द्वोहा से इस प्रकार बना हुआ जान लेना चाहिए - दु+अ+उ = द्+चा+व= द्व । द्व+ऊहा = द्व+अ + ऊहाँ द्र + ओ + हा = दोहा = हिन्दी दूहा । षटभाषा के प्रचार के समय इसको दूहड़िका वा दोहड़िका भी कहते थे । उसका संस्कृत में लक्षण और उदाहरण यह है- “मात्रा त्रयोदशर्क यदि पूर्व्वं लघुक विराम । पश्चदि- कादशकंतु दोहfer fद्वगुणेन ॥” तथा उसका प्राकृत उदाहरण यह है :- "माई दोहडि पठण शुग हसिश्रो कारण गोवाल। वृन्दावणा घणकुंज वलियो कमल रसाल ।” अस्यार्थ :- हे मातः । दोहड़िका पाठं श्रुत्वा कृष्ण गोपालो हसित्वा कमपि रसालं चलितः कुत्र वृन्दावन घन कुंजे वृन्दावनस्य निवड निकुंजे । राई इति कचित पाठः तन्मतेन राधिकाया दोहड़िका पाठं श्रुत्वा गुरु लघु व्यत्ययेन बहुधा भवति ॥

यह २४ मात्रा का छंद है । उसमें यदि १३/११, १३३११ पर हैं और उसमें ६ ताल होते हैं – ४४, २१२, ४४, ऐसा दोहा गाने में ठीक दीपता है ॥" [ पृ० रा० ना० प्र० सं०, पृष्ठ २८५१ ]

दोहा छंद की विस्तृत विवेचना मेरी पुस्तक "चंद वरदायी और उनका काव्य" पृष्ठ २२० - २१ पर जिज्ञासु देख सकते हैं ।

कवित्त

रचि हरबल सुरतान, साहिजादा सुरतांनं ।
षां पैदा महमूद, बीर बंध्यौ सु विहानं ॥
षां मंगोल लल्लरी, बीस टंकी बर पंचै।
चौतेगी सब्बाज[७६] बन अरि प्रांन सु अंचै ॥


जहगीर पान जहगीर बर, षां हिंदू बर बर बिहर ।
पच्छिमी षांन पट्टान सह, रचि उपभै हरबल गहर ॥ छं० ४३ । रू० ३६

कवित्त

रचि हरवल पान, षांन इसमांन रु गष्षर ।
केली षां कुंजरी, साह सारी दल पष्कर॥
षां भट्टी[७७] महनंग, पान पुरसानी बब्बर ।
हब्सषांन हबसी हुजाब, ग्रब्ब आलम्म जास बर ॥
तिन अग्ग अट्ठ गजराज बर[७८], सद सरक्क पट्टेतिनां ।
पंच बिन पिंड जो उप्पजै[७९], (तौ) जुद्ध होइ लज्जी बिनां ।। ०४४ । रु०४०

भावार्थ--- रू०३६ -- सुलतान ने हरावल रचा और सुलतान के शाहजादे ख़ाँ-पैदा-महमूद ने प्रातःकाल ही वीरों को ( कतार में ) बाँध लिया । बीस खंजरों को खींचने वाला ख़ाँ मंगोल लल्लरी, चार तलवारों का बाँधने वाला तथा वाणों से शत्रुओं के प्राण खींचने वाला सब्वाज, विजयी जहाँगीर खाँ, दगाबाज़ हिन्दू ख़ाँ, पश्चिमी खाँ तथा पठान हरावल रचकर उपस्थित हुए।

रू० ४० – इसमान ख़ौ के पठानों और गबरों (गक्खरों) के हरावल रचते ही केली- खाँ-कुंजरी ने शाह की जिरह बस्तर से सुसजित सेना का संचालन किया । ख़ाँ भष्टी महनंग, ख़ाँ खुरासानी बब्बर और संसार में सबसे अभि- मानी हबशियों का सरदार हबश ख़ाँ वहाँ थे । उनके श्रागे आठ श्रेष्ठ गजराज थे जिनकी कनपटियों से मद जल श्रवित हो रहा था । यह शरीर यदि पंच- तत्वों का मोह छोड़ दे तभी युद्ध में लज्जा बच सकेगी (या तभी योद्धा की लज्जा की रक्षा हो सकेगी) ।

['यदि चार तत्वों के बिना कोई वस्तु बन सकती है तभी बिना लज्जित हुए युद्ध हो सकता है अर्थात् इस युद्ध में लज्जा वचना कठिन है।" धोर्नले ।]

शब्दार्थ –रू०३६——षां- पैदा- महमूद - - यह सुलतान गौरी के शाहजादे का नाम है । वीर=सैनिक । बध्यो = कतारमें बाँधकर खड़ा किया । विहान प्रातःकाल | टंकी = तलवार ( टंक ) या खंजर | पंचै = खींचने वाला या बाँधने वाला | चौतेगी = चार तलवारे वाँधने वाला । बान < वाण । अरि मान = उनसे शत्रुओं के प्राण खींचने वाला । जहगीर पान = जहाँगीर खाँ । जहगीर < जहाँगीर विश्व विजयी | हिन्दू षाँ ख्वारजम और खुरासान के सुलतान तकिश का पोता और मलिकशाह का ज्येष्ठ पुत्र था । उसने अपने चाचा सुलतान महमूद से खुरासान का सूवा लेना


परन्तु असफल रहा। उसने नौकरी कर ली। अंत में अपने देश के शत्रु सुलतान गोरी के यहाँ इसीलिए शहाबुद्दीन के अन्य अफसरों के साथ उस का भी नाम आया है । 'तबकाते नासिरी' में उसकी बड़ी प्रशंसा की गई है। पच्छिमीन = यह पश्चिमी दिशा का ख़ाँ हो या संभव है कि इसका नाम पश्चिम ख़ाँ ही रहा हो । पद्वान सह पठानों के साथ । बिहर = दगाबाज़।

रू० ४० – गष्णर-पृथ्वीराज रासो में गब्बर और घोर दो नाम अनेक स्थलों पर आये हैं। ये दो भिन्न पहाड़ी जातियाँ थीं । अनेक लेखकों ने खोक्खर और क्खर को एक ही मान लिया है। खोक्खर और गखर का मतभेद रैवर्टी महोदय ने 'तबकाते नासिरी' के अनुवाद पृष्ठ ४८४, ५३७, ११३२, ११३६ की टिप्पणियों में बिलकुल मिटा दिया है। अंत में व्याप लिखते हैं-

“Khokhars are not Gakhars, I beg leave to say, although the latter are constantly confounded with them by writers who do not know the former." Tabaq- at--i-Nasiri. Raverty, p. 1136, note 7.

'आइने अकबरी' में Blochmann ने पृष्ठ ४५६, ४८६ और ६२१ में तथा History of the Rise of the Mahomedan Power in India till.... 1612 (Firishta) Briggs ने pp. 182-86 में खोक्खरों का हाल लिखा है परन्तु उन्हें खोक्खर न कहकर गक्खर कहा है । [शक्रों की जाति-पाँति का पता नहीं चलता । यह बर्बर जाति गज़नी और सिंधु नदी के बीच की पहाड़ियों में रहती थी । सन् १०१५ ई० में ये मुसलमान बना लिये गये थे । गोरी को इन्होंने बड़ा कष्ट दिया और अंत में सन् १२०६ ई० में सिंधु तट के रोहतक ग्राम में रात्रि में सोते समय अचानक उसकी हत्या कर डाली।...." Briggs. ( Firishta ) Vol. I, pp. 18286]। सुलतान गोरी ने खोक्खरों का दमन किया था [Tabaqat i-Nasiri. Raverty. pp. 481-83–“उस समय लाहौर और जूद की पहाड़ियों पर रहने वाली पहाड़ी जातियों ने जिनमें स्वेच्छाचारी खोक्खर भी थे विद्रोह किया । उसी वर्ष जाड़े की ऋतु में सुलतान हिन्दुस्तान आया और इसलाम के नियमों के अनु- सार युद्ध करके उसने इन विद्रोहियों के रक्त की नदी बहाई...."] | चंद ने रासो में गवखरों को सुलतान गोरी के पक्ष वाला ही कहा है । रासो सम्यो ६१ मैं हम गब्बरों को जयचंद की ओर से लड़ते हुए पाते हैं । जहाँ तक मेरा अनु मान है चंद बरदाई ने भी भ्रमवश खोक्खरों और गक्खरों को एक ही समझ लिया। वे 'गब्बर' लिखकर 'बोरों' का ही वर्णन करते हैं । साह सारी दल षष्पर=शाह का जिरह स्तर वाला दल ( या सेना ) ।' भट्टी - राजपूतों की एक जाति जो ई० सन् १५ में ग़ज़नी से आई और पंजाब में बसी तथा वहाँ से पश्चिमी राजपूताना पहुँचकर सन् ७३१ ई० में तनोट बसाया । कुछ समय तक लोडोरवा उनकी राजधानी थी। सन् १९५७ ई० में जेसल ने अपने भतीजे भट्टी ( रावल ) का राज्य गोरी की सहायता से छीन लिया और नई राजधानी जैसलमेर की नींव डाली (Rajasthan Tod. Vol. II. pp. 219, 232, 238, 242-43 ) । वर्तमान रेवातट सम्यौ वाले युद्ध काल में जेसल का पुत्र सालवाहन राज्य कर रहा था और उसका भाई श्रन्विलेस पृथ्वीराज का मुख्य सामंत था । भट्टी महनंग, सालवाहन का दूसरा सम्बन्धी था जिसका वर्णन प्राय: पृथ्वीराज की ओर मिलता है— [परि भट्टी सहनंग | छत्र नौ रि सक्किय ॥ रासो सम्यौ ३२, छंद ७७ ] | इसका पिता गोरी का सामंत था । गोरी के पक्ष का होने के कारण ही चंद ने 'भट्टी महनंग' के पहिले 'ब' लगा दिया है । पुरसानी < खुरासान देश का । बब्बर < बबर (शेर ) । हवस ( व हबसी ) <० अम्बर गर्वं । आलम्म < आलम=संसार । सरक= श्रवित होना, चूना । पट्ठेतिनां कन- पटी ( ब० व०) १ डा० ह्योनले संभवत: 'पट्टेतिनां' से 'तलवार चलाने वाले ' अर्थ लेकर इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार करते हैं - In front of them are eight elephants before whose rage swordsmen give way. ' पंच= पंच तत्व ( क्षिति, जल, अग्नि, श्राकाश और वायु) । पिंड शरीर । जुद्ध = (१) युद्ध (२) योद्धा । लज्जी = लज्जा ।

कवित्त

करि तमा इ चौ साहि[८०], तीस तहँ रषि फिरस्ते ।
आलम षां आलम गुमांन[८१], षांन उजबक निरस्ते ॥
लहु मारूफ गुमस्त, पान दुस्तम बजरंगी ।
हिंदु सेन उप्परे, साहि बज्जै रन जंगी ॥
सह सेन दारि सोरा रच्यौ, साहि चिन्हाब सु उत्तरयौ ।”
संभले सूर सामंत नृप , रोस बीर बीरं दुग्यौ ॥ छं० ४५ । रू० ४१ ॥

दूहा

तमसि तमसि सामंत सब, रोस भरिंग प्रिथिराज ।
जब लगि रुपि पुंडीर ने रोक्यौ गोरी साज ॥ छं० ४६ । रू० ४२ ॥


भावार्थ रू० ४१-- चार भागों को पूर्ण कर शाह ने तीस अफ़सर नियुक्त किये जिनके साथ विश्व में अभिमानी आलम खाँ, निर्वासित उजबक खाँ, उपनायक छोटा मारूफ और पहलवान दुस्तम खाँ थे । शाह ने अपने इन सैनिकों के साथ ( या अपनी सेना लेकर) हिंदुओं पर कठिन चढ़ाई कर दी है। शोर मचाते हुए उसने अपनी सेना को आगे बढ़ाया है और इस प्रकार चिनाब नदी पार की है।" [दूत की यह वार्ता सुनकर ] साँभल के शूर, सामंतों के स्वामी और श्रेष्ठ वीर (पृथ्वीराज ) का क्रोध फूट पड़ा ।

रू० ४२ – सब सामंत क्रोधित हो उठे और पृथ्वीराज रोष (क्रोध) से भर गये । इस अरसे तक चंद पुंडीर ने गोरी की सेना को डटकर रोका।

शब्दार्थ - रू० ४१ - तभा <फा०(तमाम ) = पूरा, कुल । वौ=चार | साहि<शाह (गौरी) । [ रासो की कुछ प्रतियों में “चौ' के स्थान पर 'तो' पाठ भी मिलता है । गोरी की सेना के पाँच भाग थे और चार का वर्णन हो चुका है अत: 'च' पाठ अधिक उचित होगा । ह्योनले तथा ग्राउज़ ने भी यह पाठ स्वीकार किया है ] । रषि = रखकर तीस प्रा० तीसा, तीस सं० त्रिंशत् । फिरस्ते < फा० = = देवदूत या दूत । निरस्ते निर्वासित | गुमान फा० ७-३ राय, विचार । आलम <०७ संसार । आतम गुमान - संसारका गर्व; विश्व में सबसे अधिक अभिमानी | लहु < लघु छोटा । गुमस्त < फा०४ 3- एजेन्ट, उपनायक । वजरंगी वज्र के समान अंगों वाला (अर्थात् पहलवान) । साहि बज्जै रन जंगी = शाह ने जंग बजा दी अर्थात् कठिन चढ़ाई कर दी। सोरा रच्यौ = शोर करते हुए। सोरा < फा०उत्तर = उतरा, पार किया। संभले सूर गये । रोस <सं० रोष, क्रोध । वीर वीरं दुर्यो : = फूट पड़ा। जंगी = ज़बरदस्त । दिया अर्थात् भयानक चढ़ाई कर दी। साँभर का शूरमा शूर सम्हल वीरों में वीर (अर्थात् पृथ्वीराज ) । बज्जै रन जंगी - ज़बरदस्त रण बजा दिया अर्थात भयानक चढ़ाई कर दी।

रू० ४२ -- तमसि तमसि = क्रोध युक्त हो । रोष भरिग = रोष में भर गये । रुपिजमकर डटकर । गोरी साज = गोरी का दल।

नोट -- रू० ४१-- "करि तमाय चौ साहि = the Shah formed four squadrons." Growse. Indian Antiquary. Vol III.

चिन्हाव [चना या चिनाव ] <फा० चिनाब = (चीनी + श्राब ) -- पंजाब की पाँच नदियों में से एक जो लद्दाख के पर्वतों से निकल कर सिंध में जा गिरी है । यह प्राय: छे सौं- सील लम्बी है । हिमालय के चन्द्रभाग नामक खंड से निकलने के कारण इसका नाम संस्कृत में चन्द्रभागा था ।

भुजंगी

जहाँ उत्तर साहि चिन्हाव मीरं ।
सहाँ तेज गड्यौ उठुक पुण्डीरं ।
करी यति साहाब सा बंधि गोरी ।
धर्के धींग धींगं धावै सजोरी ॥ छं० ४७ ।
दोऊ दीन दीनं कढी वकि अस्सी[८२]
किधौ मेघ में बीज कोटिनिकरसी[८३]
किये सिप्परं कोर ता सेल अग्गी ।
किधौं बहरं कोर नागिन्न नग्गी ॥ छं० ४८ ।
हव जु मे भ्रमंतं जु छुट्टै ।
मनो घेरनी घुम्मि पारेव तुट्टै ॥
उरं फुट्टि बरही बरं छबि नासी ।
मनों जाल में भी श्रद्धी निकासी ॥ छं० ४६ ।
लटके जुरंनं उड़े हंस हल्लै।
रसं भीजि सूरं चवरगांन पिल्लै ॥
लगे सीस नेजा भ्रमैं भेज तथ्यं[८४]
भषै बाइसं भात दीपत्ति सध्यं[८५] ॥ छं० ५० ।
करै मार मारं महाबीर धीरं ।
भये मेवधारा बरवंत तीरं ॥
परे पंच पुंडीर सा चंद कयौ ।
तबै साहि गोरी चिन्हाव चढ्यौ ॥ छं० ५१ । रु०४३ ।

भावार्थ- रू० ४३-

जहाँ पर गोरी के सेनानायकों ने चिनाब नदी पार की वहीं पुंडीर बरछी गाड़े डटा हुआ था । गोरी सहाब शाह ने हाथियों की सेना तय्यार की [या-सहाव शाह गोरी ने आक्रमण करने वाली सेना ठीक की या सा ( पुंडीर ) ने सहाब गौरी को बाँध लेने की आज्ञा दी ] । ( तदुपरांत) धक्का-मुक्की करते गरजते चिल्लाते वे धागे बढ़े । छं० ४७ ।

दोनों (हिन्दू और मुसलमानों) ने अपने अपने धर्म का नाम लिया और टेढ़ी तलवारें खींच ली (उस समय ऐसा विदित हुआ कि) मानों बादलों से करोड़ों बिज- लियाँ निकल पड़ी हों । सिपर (ढालों) को छेदकर उन बरछियों की नोकें उनमें उसी प्रकार से घुस गई मानों बादलों में पर्वतों की अनेकों चोटियाँ घुस गई हों। छ० ४८ ।


म्लेच्छों ने (हिन्दुओं की सेना पर अपनी सेना से उसी प्रकार ) बड़े साहपूर्वक घेरा डाला मानो घेरनी पक्षी फेरा देकर कबूतर पर झपटा हो । वक्षस्थल को फोड़कर उसकी शोभा नष्ट करती हुई बरछी दूसरी ओर निकल आई मानी जाल से स्वतन्त्र होने के प्रयत्न में आधी निकली हुई मछली हो ।

छ० ४९ ।

एक दूसरे से मिले हुए (एक पंक्ति में) हंस व्यादि जिस प्रकार शोर करते हुए आगे बढ़ते हैं उसी प्रकार रौद्र रस में भीग कर शूरवीर (युद्धभूमि में क्या बढ़ रहे हैं) मानो चौगान खेल रहे हैं। सर में बरछी लगते ही वहाँ पर भेजा निकल पड़ता है जिसको कौए बड़े श्रानन्दपूर्वक भात की तरह खाते हैं । छं० ५० ।

धैर्यवान् योद्धा मारो मारो कहते हैं। (युद्धभूमि में) बारा वर्षा की झड़ी के समान वरस रहे हैं । (अंत में ) पुंडीर वंशी पाँच वीरों के गिरने पर चंद पुंडीर ने मुकाबिला छोड़ दिया और तभी शाह ग़ोरी चिनाब से आगे बड़ा । छं० ५१ ।

शब्दार्थ- रू० ४३ - मीरं < फा० ० (मीर) = सेनानायक। नेज< फा० ४ (नेज़ा)=बरछी [दे० Plate No. III]। गड्यौ गाड़े हुए था । ठक्के = ठिठुके हुए । पुंडीर = पुंडीरवंशी। करी की, ठीक की । आनि=आज्ञा; [आणि] <अनी = सेना। करी < करि= हाथी ]। करी यानि साहात्र सा बंधि गोरी गोरी साहाब शाह ने आक्रमणकारी सेना ठीक की—ह्योर्नले । सजोरी = बलपूर्वक । दीन <० 29 (दीन) = धर्म । दीन दीनं दीन दीन चिल्लाते हुए। कढ़ी निकाली । बंकि <सं० वक्र = = टेढ़ी। अस्सी <सं०] असितलवार। बीज - बिजली । बीजकोटिनिकस्सों-करोड़ों बिजलियाँ निकल आई। सिप्पर <फा० (सिपर) = ढाल विशेष [दे० Plate No. III]। कौर = छेदकर । सेल बरछी । अग्ग= अगली ! बहुरं = बादल। नागिन = अनगिनती । नग्गी [ < नाग (पर्वत)] = पर्वतों की चोटियाँ। किधौं बद्दरं कोर नागिन नग्गी=मानों बादलों को छेदकर अनगिनती बादलों की चोटियाँ घुस गई हों; (मानों नंगी नागिनें बादलों में घुस गई हों --- ह्योर्नले) । हबक्कै हबककर (=बड़े लालच से या बड़े उत्साह से) । मे कँ <सं० म्लेछ । भ्रमंतं जुई छूटकर जो घूमे (अर्थात् जो अपनी सेना से उन्होंने हिन्दुत्रों को घेरा ) । घेरनी = पत्नी विशेष। धुम्मि = घूमकर। पारेव पारावत = कबूतर । तुझे = टूटना, झपटना। उरं फुट्टि= वक्ष- स्थल को फोड़कर । लटक्कै जुनं एक दूसरे से संबद्ध। उड़ हंस हल्लै-हंस (आदि चिड़ियाँ जिस प्रकार ) शोर करते हुए उड़ते हैं। रसं भीजि ( रौद्र रस में भीगकर। सूर=सुरवीर । चग्गान चौगान, पोलो [दे० Plate No. II]। भ्रमें भेज तथ्यं वहीं पर भेजा निकल पड़ता है । भयै खाता है। बाइसं <सं० वायस== कौआ | भात = उबले हुए चावल । दीपत्ति सध्यं प्रसन्नता के साथ | महाबीर धीरं धैर्यवान महान योद्धा । वरवंत बरसते हैं। परे गिरने पर । पंच पुंडीर = पुंडीर वंशी पाँच बीर । चंद कव्यों-चंद पुंडीर ( निकल ) हट आया (अर्थात् मुकाबिला छोड़ दिया ) । चिन्हाव चढ्यौ = चिनाब नदी पार की ।

नोट-भुजंगी छंद का लक्षण - "भुजं प्रयातं यः ।" पिंगलमुनि । अर्थात् जिसके छंद में चार यकार हों वह भुजंगप्रयात् छंद कहा जाता है 1 ह्योर्नले महोदय ने रू० ४३ का इस प्रकार अर्ध किया है-

"Where the chiefs of the Shah crossed over the Chenab, there the Pundir, awaiting (the enemy) had posted himself. The Gori Sabab Shah formed his attacking column, Pushing, shoving, with yells and shouts they press forward in close array. Both Hindus and Musalmans have drawn their curved swords (which appear) like millions of lightning darting in the clouds. The points of their spears pierce through the (inter- posed) shields, resembling naked Naga women piercing through the clouds. As the infidels with a rush gree- dily fall (upon the Hindus), they resemble pigeons which, turning a circuit, settle down. Spears crashing through breasts destory their good shape, and resem- ble fishes that have half escaped from the net. While they are absorbed in the fight, they go along like geese that fly. Excited by the fight, the warriors as it were play at Chaugan. On spears striking heads, brains are scattered about appearing like rice on which crowds of crows feed. The gallant warriors valiantly ory : Slay ! Slay ! The amows are ( plentiful ) like a rain shower from the clouds. On five men of Pundir's race falling, Chand ( Pundir ) himself withdrew, then only the Shah Gori marched onward from the Chenab." [Bibliotheca Indica. No. 452, pp. 23-4,]

कवित

उत्तरि साह चिन्हाम, घाय पुंडीर लुथि पर ।
उप्पारधी वर चंद, पंच बंधव सुपथ्य घर ॥

दिष्षि दूत वर चरित, पास आयो चहुयानं ।
[ तौ ] उप्पर गोरी नरिंद, हास बढ्ढी सुरतानं ॥
बर मीर वीर मारूफ दुरि, पंच अनी एकठ जुरी ।
मुर पंच[८६] को लाहौर तें, मेच्छ मिलानह सो करी ॥ छं० ५२ । रू ०४४।

दूहा

वीर रोस बर बैर वर, झुकि लग्गौ[८७] असमांन ।
तौ नन्दन सोमेस को, फिरि बंध सुरतांन ॥ छं० ५३ । रू० ५४।

दूहा

चंद्रव्यूह नृप बंधि दल, धनि प्रथिराज नरिंद्र।
साहि बंध सुरतांन सों, सेना बिन विधि कंद ॥ छं० ५४ । रू० ४६।

भावार्थ- रू० ४४ - पुंडीर वंशियों की घायल लोथों पर शाह ने चिनाब नदी पार की। पाँच भाइयों के सुन्दर पथ ग्रहण करने पर (अर्थात् मरने पर या वीरगति प्राप्त करने पर) चंद पुंडीर ने मुकाबिला छोड़ दिया । यह वीर चरित्र देखकर एक दूत चौहान के पास गया और यह समाचार दिया कि गोरी आप के बिलकुल ऊपर आ गया है और सुलतान ( को अपनी शक्ति ) का हौसला बढ़ गया है। श्रेष्ठ धैर्यवान वीर मारूफ ख़ाँ ने शीघ्रता पूर्वक पाँचों सेनायें एकमें कर ली हैं और म्लेच्छ ( मारूफ ख़ाँ) ने यह मिलान लाहौर से पाँच कोस आगे किया है [ तात्पर्य यह कि स्लेच्छ सेना लाहौर के बिलकुल समीप आ गई है ]।

रू० ४५—वीर (पृथ्वोराज) का क्रोध और वैर धधक उठा ( जल उठा ) ( और उसकी ज्वाला) आकाश को छूने लगी- [ वीर का क्रोध प्रबल हो आकाश में लग गया -धोर्नले ] ( और उसने कहा ) 'अब मैं गोरी को फिर बाँध लूँ तभी सोमेश्वर का बेटा हूँ।'

रू० ४६–[यह बचन सुनकर ] नृप की चन्द्राकार व्यूह में बँधी सेना ने पृथ्वीराज को धन्य धन्य कहा । और उन्होंने ( सैनिकों ने ) क़सम खाई ( प्रतिज्ञा की कि सुलतान की सेना को छिन्न भिन्न करके शाह को बाँध लेंगे ।

[ह्योर्नले महोदय के अनुसार यह अर्थ है कि स्वनामधन्य महाराज पृथ्वीराज ने अपने सामंतों को चन्द्राकार व्यूह बनाकर खड़ा किया परन्तु सुल- तान शाह ने अपनी सेना को अस्त व्यस्त बिना किसी व्यूह के ही रहने दिया ।]

शब्दार्थ - रू० ४४ - चिन्हाब = (चिनी + प्राब) चिनाब ( फारसी ) | घाय पुंडीर लुथ्थि पर==पुंडीर वंशियों की घायल लोथ पर। उप्पार्थी =


(अपना खीमा) उखाड़ दिया; अपनी रोक हटा दी। पंच बंध = पाँच बाँध के। सुपध्धधर= सुन्दर पथ ग्रहण करने पर अर्थात् मरने पर । दिपि = देख कर । तौ उप्पर=तुम्हारे बिलकुल ऊपर। हास बढ्ढी (< यास बढ़ी-- हौसला बढ़ गया है); हास्य बढ़ गया है। बरमीर = श्रेष्ठ नायक । दुरि= दौड़ कर, जल्दी से । पंच अनी = पाँच सेनायें । एकउ जुरी = एक कर लिया । मुर मुड़कर, पीछे । मिलानह = मिलान ।

रू० ४५ –वीर = योद्धा पृथ्वीराज । वर== श्रेष्ठ । बैर= शत्रुता | बर= बरने (जलने लगा, धधक उठा । असमान < फा० (shaj (आकाश) । भुकिं बढ़ कर । तौ नंदन सोमेस को = तभी सोमेश्वर का बेटा हूँ । बंध बाँध लू | रू० ४६--सों <सौंह < सौगंद = कसम ( प्रतिज्ञा की ) । सेना बिन = सेना रहित । द्विधिकंद = कर डालना ।

कवित

बर मंगल पंचमी[८८] दिन सु दीनौ प्रिथिराजं[८९]
राह केतु[९०] जप[९१] दीन दुष्ट दारे सुभ कार्ज ॥
अष्ट चक्र जोगिनी भोग भरनी सुधिरारी[९२]
गुरु पंचमि[९३] रवि पंचम श्रष्ट मंगल नृप भारी ।।
कैइन्द्र बुद्ध सारथ्य भल कर त्रिशूल चक्राबलिय।
सुभ वरिय राज बर तीन वर चढ्यौ उदै कूरह बलिय ॥

भावार्थ - रू० ४७ - पंचमी तिथि मंगलवार को पृथ्वीराज ने चढ़ाई की आज्ञा दी। शुभ कार्य में दुष्ट फल को टालने के लिये (महाराज ने राहु और केतु का जप कराया । [इस पंचमी तिथि को ] ( शुभ फल देने वाली ) अष्टचक्र योगिनी तथा ( हनन कार्य के कारण शुभ) भरणी नक्षत्र युद्ध में शुभ फल देने वाले थे । [शुभ फलदायक ] पंचम स्थान में गुरु तथा सूर्य थे, और नृप के लिए अशुभ [ परन्तु शुभ होने वाले ] अष्टम स्थान में मंगल थे । युद्ध में भला करने वाले केन्द्र स्थान में बुध व थे जो हाथ में त्रिशूल चिन्ह और मणिबंध में चक्र वाले के लिये शुभ थे । इस शुभमिती से लाभ उठाकर, क्रूर और बलवान ग्रह (सूर्य या मङ्गल )के उदय होने पर महाराज ने चढ़ाई बोल दी।


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( ५ ) 1 T शब्दार्थ----रू० ४७---दीनौ = दिया [युद्ध के लिये श्राज्ञा दी ] । प्रिथि राजं <पृथ्वीराज । राह केतु - राहु और केतु युद्ध लाने वाले पाप ग्रह हैं । जप दीन-जप दिया अर्थात् जप कराया । दुष्ट टारे = दुष्ट फल टालने के लिये (= बुरे फल को हटाने के लिये) । सुभ काज शुभ कार्यं । जोगिनी < योगिनी, [ ज्योतिष के अनुसार ६४ योगिनियाँ हैं जो पूर्व, उत्तर, अग्निकाण, नैऋत्य कोण, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य, ईशान (या प उ च न द प वा ई) इन आठ स्थानों में घूमती हैं। ये आठ स्थान 'अष्ट चक्र' कहलाते हैं ] । भभोग =भ (नक्षत्र) + भोग | भरनी < सं० भरणी [श्विनी श्रादि २७ नक्षत्रों में से दूसरा नक्षत्र ] | सुविरारी= यह 'सुभरारी' के स्थान पर लिखा गया जान पड़ता हैं। (सुभरारी < शुभरारी = युद्ध में शुभ है जो ) । गुरु = बृहस्पति | गुरु पंचमि= पंचम स्थान के गुरु | रवि पंचम पंचम स्थान के सूर्य । अष्ट मंगल = अष्टम स्थान के मंगल । नृप भारी = नृपके लिये अशुभ | कैइन्द्र < केन्द्र | बुद्ध=बुध ग्रह | भारत > प्रा० भारथ्य <हिं० भारथ = युद्ध | भल = भला, अच्छा । कर त्रिशूल = हाथ में त्रिशूल चिन्ह | चक्रावलिय= चलय ( या मणि बंध) में चक्र, [ या चक्र अवली = चक्र की पंक्ति ] | सुभ वरिय <शुभ घड़ी, शुभमिती | राज बर= श्रेष्ठ राजा ( पृथ्वीराज ) । लीन बरश्रेष्ठ या वरदान लेकर अर्थात् लाभ उठा कर । चढ्यौ = चढ़ाई बोल दी । उदै < उदय होने पर | क्रूरह बलिय= क्रूर और बलवान ! मोट -- रू० ४७ का उपर्युक्त भावार्थ निम्नलिखित प्रमाणिक आधारों से अभिश हो जाने पर स्पष्ट हो जावेगा । २ चतुर्थ बुध लग्न 6. सप्तम २० दशम १२ ११ ८ मंगल Ε ________________

( ५३ ) उपर्युक्त दी हुई कुंडली के द्वादश स्थानों के फला देश को कहने के लिए इन स्थानों की संज्ञा हुई जो इस प्रकार है :- लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम [ल च स द ]- इनकी केन्द्र संज्ञा है । द्वितीय, पंचम, अष्टम और एकादश- इनकी पाफर संज्ञा है । तृतीय, षष्टम नवम और द्वादश- इनकी आपोक्तिम संज्ञा है । ( १ ) अष्ट चक्र योगिनी —— पृथ्वीराज को पश्चिम जाना था और योगिनी ( जो तिथि के अनुसार विचारी जाती है ) पंचमी तिथि को ज्योतिष के अनुसार दक्षिण दिशा में स्थित थी, अतएव पृथ्वीराज के बाम भाग में पड़ और काशी नाथ भट्टाचार्य विरचित 'शीघ्र बोध' के श्लोक - योगिनी सुखदा बामे पृष्ठे वांछितदायिनी । दक्षिणे धनहंत्री च संमुखे प्राणनाशिनी ॥ के अनुसार शुभ हुई। (२) भरणी नक्षत्र भरणी नक्षत्र यात्रा के लिये अशुभ है । यथा-- पूर्वासु त्रिषु याम्यर्क्षे ज्येष्ठायां रौद्रभौरगे । सर्वाशासु गते यात्रां प्राणहानिर्भविष्यति || ११ | ६, टीका ॥ ( यात्रा प्रकरण ) 'मुहूर्तचिन्तामणि' । उस दिन भरणी नक्षत्र का भोग था और मंगलवार था अस्तु दोनों की उम्र ( क्रूर) संज्ञा थी । यथा------ पूर्वाश्रयं याम्यमधे उयं क्रूरं कुजस्तथा । तस्मिन्याताग्निशास्यानि विषशास्त्रादि सिध्यति ॥ २ ॥ ४ ॥ ( नक्षत्र प्रकरण ), मुहूर्तचिंतामणि, रामदेवज्ञ । परन्तु यहाँ युद्धरूपी हनन कार्य था इसीलिए भरणी नक्षत्र शुभ हुआ । यथा---'"पूर्वात्रित मित्रभ्यमुग्राख्यमिदं च पंचकं जाम्बम् मारणभेदनबन्धनवित्र- हननं पंचमे कार्यम” (वशिष्ठ ) — और पृथ्वीराज ने यात्रा की । (३) पंचम स्थान के गुरु — पंचमस्थ गुरु त्रिकोण में थे इसलिए लक्ष दोषों के नाश करने वाले थे । यथा- त्रिकोणे केन्द्रे वा मदनरहिते दोषशतकं हरेत्सौम्यः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः |....। ६ । ८६ ॥ (विवाह प्रकरण), मुहूर्तचिंतामणि' । पंचमस्थ गुरु इसी से शुभ हुए। (४) पंचम स्थान के सूर्य पंचमस्थ सूर्य सिंह राशि के थे और उस राशि के स्वामी भी थे इसलिए शुभ फल देने वाले थे । यथा-यौ यौ भाव: स्वामी सौम्याभ्यामदृष्टी युक्तोय मेधते " -- (जातक) 1 ________________

( ५४ ) ( ५ ) अष्टम स्थान के मंगल--- इस यात्रा लग्न में मंगल अष्टम और ज्योतिष के अनुसार अशुभ थे 1 यथा-- “खेटा सर्वे महादुष्टा: श्रष्टम् स्थानमाश्रिता: ” - (जातक) । 1 परन्तु मंगल वृश्चिक राशि के ये [ क्योंकि मेष लग्न थी और मेघ के वृश्चिक राशि अष्टम पड़ती है ] इसलिए उसके स्वामी थे । यथा – “क्षेत्र, वृश्चिकयौं भौम:" – (जातक); श्रस्तु अशुभ होते हुए भी शुभ थे । यही विचार • करके तक्कालीन ज्योतिषियों ने महाराज को चढ़ाई करने की अनुमति दी होगी । (६) केन्द्र स्थान में बुध---- -सूर्य, बुध और शुक्र की गति प्रायः बराबर रहती है । कभी कभी ये परस्पर आगे पीछे हो जाया करते हैं। दी हुई कुंडली के अनुसार बुध कर्क राशि के थे, और कर्क राशि चतुर्थ स्थान में है, जिसकी केन्द्र संज्ञा है, अतएव इस समय बुध का केन्द्र स्थानाभूत होना प्रमाणित हुआ । (७) हाथ में त्रिशूल चिन्ह - सामुद्रिक शास्त्र के श्लोक --- 'त्रिशूल कर मध्ये तू तेन राजा प्रवर्तते । धर्मे च दाने च देव द्विज प्रपूजकः ॥ ' के अनुसार शुभ होता है । (८) चक्र चिन्ह - 'रथ चक्र ध्वजाकारः स व राज्यं लभे नरः ॥ ' सामुद्रिक शास्त्र । इस श्लोक से स्पष्ट है कि चक्र चिन्ह शुभ होता है । (६) उदै क्रूरह बलिय – ह्योर्नले महोदय इससे बली शनि ग्रह का अर्थ लेते हैं परन्तु शनि की पाप संज्ञा है । ज्योतिष के आधार पर शनि, राहु और केतु पाप ग्रह हैं; सूर्य और मंगल क्रूर हैं; बुध, बृहस्पति, शुक्र और चंद्र सौम्य ग्रह हैं, श्रतएव यहाँ 'शनि ग्रह' अर्थ लेना समुचित नहीं है। सूर्य और मंगल क्रूर ग्रह हैं, और इन्हीं का उस समय उदय होना सम्भव है। I नोट- ग्राम असनी, जिला फतेहपुर ( उ० प्र० ) के ज्योतिषाचार्य पं० शिवकुमार द्विवेदी शास्त्री से परामर्श करके इस रूपक का अर्थ निर्णय किया गया है । प्राय: प्रत्येक विषय विवादग्रस्त है परन्तु बहुमत मान्य होता है । जहाँ तक संभव हो सका है इस कवित्त के अर्थों का प्रतिपादन ज्योतिष ग्रंथों की सहायता से किया गया है और प्रकरणानुसार उनका उल्लेख भी कर दिया गया है। 1 ज्योतिष चक्र राशियों के नाम, नक्षत्रों के नामों की भाँति तारा समूह की आकृति के अनुसार ही रखे गये हैं । बारह राशियाँ ये हैं-मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन | ________________

( ५५ ) ज्योतिष चक्र रवि चंद्र मंगल बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु ग्रह श्राफ़ताब माहताब मिरीख उतारुद मुश्तरी ज़ोइरा माहल रास जनब सितारा Sun Moon Mars Mercury Jupiter Venus Saturn Ascending Descending Planets node node सन मून मार्स मरकरी जुपिटर वेनस सैटर्न सेंडिंग नोड | डेसिंडिंग नोड प्लैनेट्स मास दिन मास मास मास मास मास भास भास महाणां एकराशि १ २। १॥ १ १३ १ ३० १८५ १८ मुक्त प्रमाण मेष सिंह कर्क मी० क० ध० मी० वृ० तु० म० कु० कन्या मीन स्वगृहाणि वृध उम्र सौम्य उन शुभ शुभ शुभ पाप पाप पाप सौम्यादि वायव्य दक्षिण उत्तर ईशान्य आग्नेय पश्चिम नैऋत्य नैऋत्य दिशा चंद्रमा के मार्ग को २७ बराबर भागों में बाँट दिया गया है जिन्हें नक्षत्र कहते हैं और प्रत्येक भाग में पड़ने वाले तारा पुंजों की प्राकृति के अनुसार उनका नामकरण किया गया है । उनकी संख्या २७ है तथा नाम इस प्रकार हैं—“श्रविष्ठा या धनिष्ठा, शतभिशक् पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्र पद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी या ब्राह्मी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्व फलगुनी, उत्तर फलगुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा या राधा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वापाढ़, उत्तराषाढ, और श्रवण ” — वृहत् संहिता, वाराह मिहिर । चंद्रमा प्राय: २७ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा कर लेता है । खगोल में यह भ्रमण पथ इन्हीं तारों के बीच से होकर freeaा और सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर नक्षत्र - चक्र कहलाता है ।

नक्षत्र ( Stars ) ग्रहों (Planets ) से भिन्न होते हैं । नक्षत्रों की आपेक्षिक ( Relative ) गति नगण्य होती है। ग्रहों की संख्या हिंदू ज्योतिष के अनुसार है, यथा-: -सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु (तथा पाश्चात्य ज्योतिष के अनुसार १० है, यथा- सूर्य, मंगल, बुध गुरु, शुक्र, शनि, पृथ्वी, यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो )।

नोट - रू० ४७ का झोर्नले महोदय के अनुसार यह अर्थ है-

"Tuesday the fifth was the day on which Prith- viraj gave battle; to Rahu and Ketu he prayed, to avert evil and obtain luck, The eight Chakra Joginis and the position of Bharani are auspicious for the battle, (so also) are Jupiter and Sol both in the fifth compartment, (but) Mars in the eighth is inauspicious for the king. In the central part Mercury is good for fighting for one who bears the marks of the trident and discus in his hand. Taking advantage of this auspi- cious hour, the king set forth at the rise of the power- ful Saturn,"

श्री ग्राउज़ महोदय ने Indian Antiquary Vol. III, p. 341 में डॉoह्योर्नले के इस अर्थ की आलोचना करते हुए अपना अर्थ इस प्रकार लिखा है-

"The company of the eight Yoginis is auspiciously placed and auspicious for battle is the Nakshatra Bharni. The conjunction of Jupiter and the Sun in the fifth house and Mars in the eighth house are also auspicious for the king. Mercury falling in the Kendra, is good for fighting for one who bears the marks of the trident and discus on his hand ( an allusion to the art of pai- mistry or Samudrik). At a favourable hour the great king marched forth with his forces, at sunrise, with “cruel might”. The meaning of the words with cruel might is a little obscure. Krur' is a technical term for the three evil planats the Sun, Mars and the Saturn, and in this sense it seems Professor Hoernle takes it: but questionably, since the 'dies martis' has been speci- fied above as favourable to the king. As to the Yoginis further explanation may be necessary. They are be- lived to be eight in number and to occupy in succes- sion the different points of the compass, moving all together in a body. It is unlucky to face them or have them on the right hand, but lucky to move in such a direction that they are left in the rear or to the left.

उपर्युक्त दोनों अर्थों में थी० याउन महोदय का अर्थ अधिक स्पष्ट आधार भूत है।

दूहा

सो रचि उद्ध अवद्ध अध, उग्गि[९४] महंवधि मंद[९५]
वर निषेद नृप बंदयो, को ज भाइ[९६] कवि चंद ॥छं० ५६ । रू० ४८।

कवित्त

(यो) प्रात सुर बंधई, (ज्यौं) चक्क चक्किय रवि बंछे ।
(यो)[९७] प्रात सूर बबई, (ज्यों) सुरह बुद्धि बल सो इं ॥
(यो)प्रात सूर बंबई, (ज्य) प्रातवर बंधि बियोगी ।
( यों ) प्रात सुर बंबई, ( ज्यौं ) सु बंछे बर रोगी ॥
बंछ्यौ प्रात ज्यो त्यों उनन, (ज्यों) बंछे रंक करन्न बर ।
(यो) बंछयौ प्रात प्रथिराज ने, (ज्यौं) सती सत्त छैति उर ॥ छं० ५७ । रू० ४९।

भावार्थ - रू० ४८ - जब महान अवधि वाला मंद [शनि] ग्रह उदय हुआ तो पृथ्वीराज ने अपने हाथ नीचे से ऊपर उठाये (अर्थात् प्रणाम किया) [और ]


नृप ने अत्यन्त निषिद्ध ( ग्रह शनि) की वंदना की । चन्द कवि कहते हैं कि ऐसा किसे न भावेगा [अर्थात्– पृथ्वीराज की ऐसी दीन भावना किसे न भावेगी ]।

नोट - [महान अवधि वाला मंद ग्रह ज्योतिष में शनि ही कहा जाता है। शनि तीस मास में एक राशि का भोग करता है। और १०७५६ दिनों में सूर्य की परिक्रमा कर पाता है । विवरण के लिए रू० ४७ में दिया हुआ ज्योतिष- चक्र देखिये।

रू० ४६ - शूरवीर प्रातःकाल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जैसे चकवा चकई सूर्य की ( अर्थात् दिन निकलने की क्योंकि रात में उनका वियोग हो जाता है और प्रात: फिर संयोग होता है)। शुरवीर प्रातः काल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार सुरह ( देवता, महात्मा या विद्वान्) अपने बुद्धि बल संवद्धन की। शूरवीर प्रात:काल को उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार वियोगी जन क्योंकि वियोगावस्था में प्रेमियों को रात्रि अति कष्ट दायिनी हो जाती है ]। शूरवीर प्रात:काल को उसी प्रकार इच्छा करते हैं जिस प्रकार कठिन रोगी [क्योंकि प्रातःकाल रोग कम हो जाता है ]। उन्होंने भी प्रातःकाल की उसी प्रकार वांछना की जिस प्रकार दरिद्री दानी -कर्ण से मिलने की करता है। (और) पृथ्वीराज ने भी प्रात:काल की उसी प्रकार इच्छा की जैसे सती स्त्री अपने सतीत्व की।

शब्दार्थ - रू० ४८ - उद्ध <सं० कर्ध्व ऊपर। श्रबद्ध = (१) खुले हुए (२) ग्रायुध हथियार --परन्तु यहाँ हाथों से तात्पर्य है। अध-नीचे। उग्ग= उगना, निकलना, उदय होना। महवधि मह अवधिववि वाला,[ ज्योतिष में सब ग्रहों से शनि की अवधि सव से अधिक अर्थात तीस मास है । तीस मास तक यह एक राशि का भोग करता है। रू०४७ को टिप्पणी में दिए gri ज्योतिष को देखने से भिन्न ग्रहों का भोग समय विदित हो जायेगा ]। बरश्रेष्ठ । निषेद निषिद्ध-बुरा। वर निषेद=भारी निषिद्ध अर्थात् वड़ा ही बुरा। [झोर्नले महोदय ने 'महंबंधि' का अर्थ 'महासागर' किया और 'वर निषेद' का पाठ 'वरनि वेद' करके उसका अर्थ 'अपना खेद ( चिन्ता) वर्णन' किया है ]। मंदमन्द-शनि ग्रह से तात्पर्य है । बंदयो वंदना की । को न= कौन नहीं । भाइ=साई, ( क्रि०) माना,अच्छा लगना ।

रू० ४९ - प्रातः प्रातःकाल सूर <सं० शूर । बंछई बांछना करते हैं। चक्क चकिय= चक्रवाक । रवि = सूर्य । सुरह = (१) देवता (२)<सुराह, पर जाने वाले अर्थात महात्मा (३) स्वर - विद्वान् (ह्योर्नले)। सु उसको अर्थात् प्रात: काल को । बर रोगी-श्रेष्ठ रोगी अर्थात् कठिन रोगी । [वैद्यक ग्रन्थों में कहा गया है कि रात्रि में रोग बढ़ता है और प्रात:काल अर्थात् सूर्य निकलने पर कम हो जाता है। बहुत कम रोगियों की मृत्यु सूर्य निकलने पर होती हुई देखी जाती हैं। यह वैज्ञानिक ग्राधार भूत बात भी है। विषम बीमारी वाले रात्रि भर यही वांछना किया करते हैं कि कब प्रात:काल होगा ] | संस्कृत में जिस प्रकार 'भारी बदमाश' के लिये साहित्यिकों ने 'सुदुष्ट' शब्द का प्रयोग किया है उसी प्रकार चंद ने रासो में 'बर निषेद' अर्थात् 'अत्यंत निद्धि' और 'घर रोगी' अर्थात् 'कठिन रोगी' का । उनन=उन्होंने । रंक = दरिद्री । करन्न < कर्ण - ये सूर्य के वरदान द्वारा उत्पन्न हुए कुंती के पुत्र थे । कुमारी कुंती ने इन्हें नदी में बहा दिया और विरथ राधा ने इन्हें पाला | दुर्योधन ने इनका बड़ा सत्कार किया और उच्च पद दिया । ये बड़े वीर योद्धा थे । सूर्य ने इन्हें एक अमोघ कवच और कंडल दिये थे । महा- भारत के अवसर पर कृष्ण ने ब्राह्मण का रूप रखकर कर्ण से कवच और कुंडल भाँगे और दानी कर्ण ने सारी बातें विचारते हुए भी उन्हें दे दिया। युद्ध भूमि में कर्णं श्राहत पड़े थे अंतिम साँसें चल रहीं थीं | कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण की दानशीलता दिखाने के लिये फिर जाकर दान माँगा । अब बेचारे कर्ण के पास क्या था ? हाँ, याद आया । दाँतों में दो लाल जड़े थे और बाहरे दानी कर्ण, पत्थर से दाँत तोड़करलाल निकाले और कृष्ण को देने लगे । कृष्ण ने मकारी की और बोले कि रक्त से सिक्त वस्तु दान नहीं की जाती । कर्ण ने लेटे लेटे सारी बच्ची खुची शक्ति बटोरकर एक वारा भूमि में मारा, गंगा की धार निकली उसमें लाल वोकर कृष्ण को दे दिये और दम तोड़ दी । [ इस महान दानी का विशेष हाल महाभारत में देखिये ] | सती = पतिव्रता स्त्री; जो अपने मृतक पति के शव के साथ जलने जा रही हो । सत्त< सत्य ( यहाँ सती के सतीत्व से तात्पर्य है ) । उर = हृदय।

नोट- रू० ४८ - He raised aloft his arms from below, (while) Saturn rose form the ocean. Speaking his anxiety, the king prayed (to the planet). "Who will not do so, oh brother !” says the poet Chand. [ Hoernle, pp. 26-27.]

श्री ग्राउज़ महोदय ने अपना मत इस रूपक पर इस प्रकार प्रकट किया है- "उद्ध अध mean 'up and down, 'avadh' round about; in the second line the alternative reading 'bidhi' should be substituted for 'badhi; and 'kaun bhai' in the last line is 'which you please.' The general meaning and style of expression will be best represented by a verse in ballad measure,-

रू० ४९-श्री० ग्राउज़ महोदय ने इस छंद का अत्यंत सुंदर अनुवाद में इस प्रकार किया है, -

"So pants the warrior for the break of day.
As parted love birds for the sun's first ray.
So pants the warrior for the close of the night.
As saints on earth crave heaven's full power and light.
So pants the warrior for the battle morn,
As restless lovers, of their love forlorn.
So pants the warrior for the rising sun
As sick men pray that the long night be done.
So longed the warrior camp for break of day .
As beggars long a prince might pass their way.
So longed the monarch for the orient fire
As faithful widows for the funeral pyre."

F. S. Growse. M, A., B. C. S.
[ Indian Antiquary. Vol III, p. 341.]

"यों प्रात सूर बंछई ज्यौं सु बंछे बर रोगी” इस पंक्ति का सार 'रासो-सार' पृष्ठ १०२ में यह है कि " इतना कहकर पृथ्वीराज रात्रि के शेष दो पहर व्यतीत कर सूर्योदय की इस प्रकार इच्छा करने लगा जैसे कठिन व्याधि पीड़ित रोगी जन वैद्य के द्वार पर जाने के लिए ।” रासो-सार के लेखकों ने सोचा होगा कि आखिर कठिन-व्याधि- पीड़ित रोगी सूर्योदय की इच्छा क्यों करेगा और बिना थोड़ा बहुत विचार किये ही लिख दिया होगा के द्वार पर जाने के लिये । किंचित् शब्दों के अर्थ का विचार कीजिये जो कठिन-व्याधि- पीड़ित है वह शय्या पर करवट तो ले नहीं सकता फिर वैद्य के द्वार तक जाने की सामर्थं कौन देगा।

श्री ह्योनले महोदय 'वर- रोगी' का लाक्षणिक अर्थ न समझ कर 'वर' का वाचक अर्थ 'वरदान' लगाते हैं और लिखते हैं कि “शूरवीर प्रात:काल की उसी प्रकार इच्छा करते हैं जैसे रोगी बर (blessing) की। ________________

( ६१ ) रू० ४६ की इस पंक्ति का 'सु' शब्द बड़ा अर्थ पूर्ण है, “शुर वीर प्रात:काल की उसी प्रकार वांछना करते हैं जैसे सु (उस अर्थात् प्रात:- काल) की वांछना वर रोगी ।" इस रूपक की अंतिम पंक्ति का सार 'रासो-सार' में इस प्रकार लिखा गया है-" (पृथ्वीराज सूर्योदय की उसी प्रकार इच्छा करने लगा ) --जिस प्रकार पतिविहीन स्त्री संसार को असार जानकर पति की मृत्यु के साथ साथ अपने भस्मीभूत शरीर को भी भत्म कर देने की इच्छा करती है ।" छंद दंडमाली भय प्रात रत्तिय जु रत्त दीसय, चंद मंदय चंदयौ । भर तमस तामस सूर वर भरि, रास तामस छंदयौ || बर बज्जियं नीसांन धुनि धन, बीर बरनि अकूरयं । घर घरकि धाइर करपि काइर, रसमि सूरस कूरयं ॥ छं० ५८ । गज घंट घन किय रुद्र भनकिय', पनकि संकर उद्दयो । रन नकि मेरिय कन्ह हेरिय3, दंति दांत धनं दयौ ४ ॥ सुनि वीर सहइ सबद पढ्इ, सह सदर ठंडयौ" । तिह ठौर अदभुत होत त्रप दल, बंधि दुज्जन षंडयौ ॥ छं० ५६ । सन्नाह सूरज सज्जि घाट, चंद ओम राजई | [] मुकुर में प्रतिव्यं राजय, [कै] सन्त धन खसि साई || बर फल्ल बंबर टोप औपत, रीस सीसत आइये । नत्र हस्त कि मन चंपक, कमल सूरहि साइये ॥ बं० ६० । बर बीर धार जुगिंद पंतिय, कब्बि त्रोपम पाइयं । अप्प बंधन हथ्ययं । ताज मोहमाया छोह कल बर, १० घार तियह " धाइयं ॥ संसार संकर बंधि गज जिमि, उनमत्त गज जिसि नंषि दीनी, मोहमाया सभ्ययं ॥ ० ६१ । सूनि आरम देवयो। सो प्रबल महजुग बंधि जोगी, सामंत धनि जिति बित्ति कीनी, पत्त तरु जिमि भेषयो । ० ६२ रु०५०। (१) ए० -- भनषिय (२) ९० -मोरिय (३) ना० होरिय ( ४ ) ए० - धनंजय (५) ना०—सद्द असह इंडयो ( ६ ) [ ] -पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है । झोले महोदय ने अपनी पुस्तक में इसे लिखा है (७) ना०-- थायो (८) ना०--त रोस (१) ना०-धा (१०) ना० - करवल (११) ना०--तिह | भावार्थ – रू० ५० – जब प्रात:काल हुआ और रात रक्कमय दीखने लगी [ऊषाकाल देख पढ़ा], चंद्रदेव मंद होकर अस्त हो गये तब तामसिक वृति वाले योद्धा क्रोध से भर गये । नगाड़ों के जोर जोर बजते ही वीरों में वीर वर्ण अंकुरित हो उठा, पृथ्वी काँपने लगी पर जब चारणों ने कड़खा गाया तो कायरों की दृष्टि भी रौद्र व वीर रस पूर्ण हो गई (उनकी आँखों से भी वीरता टपकने लगी, जोश बढ़ आया) । हाथियों के घंटे घनघोर शब्द करते हुए बजने लगे और जंजीरें खनखनाने लगीं । [ पृथ्वीराज के चाचा ] कन्ह को हाथियों और धन का दान करते देखकर युद्ध के नगाड़े बजने लगे (जिसे सुन कर) बीर गरजने लगे और (ब्राह्मण) मंत्रोच्चार करने लगे । उस स्थान पर नृप [पृथ्वीराज ] का दल दुर्जनों का नाश करने के लिये अद्भुत रूप से सुसज्जित हुआ । शूरों के शिरस्त्राणों पर लगे हुए उड़ते तुरें उनके सिर पर उसी प्रकार से गिरते थे जैसे मानो सूर्य के हस्त नक्षत्र में स्थित होने से चंपा और कमल फूल 'बिखर गये हों । श्रेष्ठ वीरों की पंक्तियाँ योगियों की पंक्तियों सहश थीं और कवि को ऐसी उपमा जान पड़ी कि मानो वे (योद्धा, योगियों की भाँति ) माया मोह और छोह का परित्याग कर तलवार की धार रूपी तीर्थ स्थान पर (की ओर) दौड़ रहे हों (क्योंकि योद्धाओं के लिये तलवार की धार से मरना ही तीर्थ है ] | सांसारिक श्रृंखलाओं में अपने हाँथों (अपने श्राप ) हाथी सहश जंजीरों से जकड़ा जाकर जिस प्रकार योगी अपनी प्रबल तपस्या द्वारा उन्मत्त हाथी के समान मोहरूपी जंजीरों को तोड़कर देवतुल्य यानन्द प्राप्त करता हैं उसी प्रकार सामंतों का स्वामी वृक्ष के पतों सदृश पृथ्वी (अर्थात् पृथ्वी पर रहने वाले दुष्टों) को कुचल कर विजय प्राप्त करता है।

शब्दार्थ - रू० ५०- रतिय <रात्रि = रात । जु जब । रत <रक्त । रक्त दीसय = रक्त वर्ण दीखने लगी अर्थात् ऊषाकाल देख पड़ा। चंद < सं० चंद्र। मंद-मंद होकर। चंदयौ =ग्रस्त हुआ । तमस क्रोध । तामस सूर तामसिक वृत्ति वाले योद्धा । रास तामस = रौद्र और वीर रस । हृदयौ गान । वीर वरन <वर वर्णं । श्रकूरर्य = अंकुरित हो उठा । धर-धरती । नीसांन< फा०= (नगाड़े) | धुनि घनी धुन से अर्थात् बड़े ज़ोर से । धाइर= चारण (युद्ध वाले) । करपि कड़खा (युद्धोत्साह का गीत विशेष ) । रस कुर क्रूर रस अर्थात् वीर व रौद्र रस दृष्टि से तात्पर्य है) । रुद्र मनकिय रसमि< सं० रश्मि = किरण ( परन्तु यहाँ रौद्र शब्द करने लगे । काइर= कायर बनकि = खनखनान । संकर सांकल जंजीरें । रन सं० रण । नकि नगाड़े । मेरिज उठे । कन्ह – सोमेश्वर के छोटे भाई अर्थात् पृथ्वीराज के चाचा [ रासो सम्यो १, संयोगिता नेम समय; Asiatic JournaI. Vol. XXV, p. 284 ] | दंति = हाथी । जयध्वनि की ) । सबद पढ्ढद्द = शब्द सद्दद्द = शब्द किया ( यहाँ वीरों ने पढ़े- अर्थात् मंत्रोच्चारण किया । सद्द सद्दइ इंडयौ = ( दूसरे लोगों ने भी ) बीर नाद किया । दुज्जन <सं की थोर संकेत है ) । पंडयौ = खंडन हेतु, विनाश (सं० ) < हि० सनाह = कवच | सज्जि घाटबाट सजाना दुर्जन दुष्ट (यहाँ शत्रु करने के लिये । सन्नाह ( सुशोभित होना ) । चंद श्रोपम राजई= चंद को ऐसी उपमा सुन्दर लगी । फल्लि बंबर = उड़ते हुए तुर्रे । टोप = शिरस्त्राण [ दे० Plate No. I] 1 पत == पहनना, श्रोढ़ना; आमा । रीस सोसत ग्राइये उनके सर पर झुकते श्राते हैं । नष्पित्र हस्त < हस्त नक्षत्र | भानु= सूर्य । चंपक = पुष्प विशेष ( चंपा ) । सूरहि साइये ( सायए) = शूरोंपर छा गए हैं या विखर गए हैं। रीस < रोसना या रिसना = धीरे धीरे चूना या गिरना । जुगिंद पंत्तिय = योगियों की पंक्तियाँ । ator <कवि । श्रोपम= उपमा । कलवर < करबल = तलवार । कलवर धार तिथयह धाइयं = तलवार की धार रूपी तीर्थ पर दौड़ते हैं । संकर < हि सीकड़, साँकल <सं० श्रंखला । नत्र दीनी नष्ट करना । मचल मह जुग= महान् प्रबल योग (शक्ति) । बंधि जोगी = बंधा हुआ योगी । मूनि <सं० मुनि [ तपस्वी, त्यागी सत्यासत्य का विचार करने वाला ॥ यारम देवयो- देव तुल्य आनन्द पाता है । सामंत धनि = सामंतों में धन्य या सामंतों के स्वामी [ -यहाँ पृथ्वीराज की ओर संकेत है ] । धनि धनी, स्वामी, राजा । जिति षिन्ति = पृथ्वी को जीतकर। वित्ति सं० क्षिति । पत्त तरु जिमि भेवयो = वृक्ष के पत्तों सह कुचल करके।

नोट- रू० ५०- "वे सच्चे स्वामि सेवी एवं समरभूमि में शरीर त्याग कर स्वर्ग में अप्सरा से मिलने की अभिलाषा से भरे हुए राजपूत बच्चे उत्साह प्रोज और प्रातंक सूचक ध्वनि करते हुए शत्रु सेना की तरफ इस तरह बढ़ते जाते थे जैसे मद से भीगे हुए गण्डस्थल वाला मदोन्मत्त मातंग मेघस्पर्शी उत्तंग तरुवर की तरफ उसे तोड़ने के लिये बढ़ता जाता है।" 'रासो-सार', पृष्ठ १०१।

उपर्युक्त विवेचना का अम स्पष्ट है।

दंडमाली छंद - यह हरिगीतिका या महीसरी छंद के बिलकुल अनु- रूप है। हरिगीतिका मात्रिक सम छंद है। रामचरित मानस में यह छंद हमें अनेक स्थलों पर मिलता है। छंद के प्रत्येक चरण में सोलह बारह के विश्राम से इस मात्रायें होती हैं और अन्त में लघु गुरु होते हैं। 'इसका रचना ________________

( ६४ ) क्रम यों है -२, ३, ४, ३,४,३,४,५२८ । जहाँ २ चौकल हैं उनमें 'जन', जगण ( 15! ) ग्रति निषिद्ध है, अन्त में रगण कर्ण मधुर होता है ।' छंदः प्रभाकर, भानु । रासो में आया हुआ दंडमाली छंद इन लक्षणों से मिल जाता है व यह संभावना होती है कि चंद के काल में हरिगीतिका या महोसरी छंद को दंडमाली छंद भी कहते रहे होंगे । आधुनिक छंद ग्रंथों में यह छंद अपने 'दंडमाली' नाम से नहीं मिलता । दूद्दा गाह इक मुगति की, क्यौं करिजै बाषांन । मन नंष सामंत नै, (ज्यौं ) कच करवति पापांन ॥ ० ६३ | ०५१ | दूहा art 3 बी धुंध परिय, बद्दर छाये भांन । कुन घर मंगल बज्जों, के चढ़ि मंगल आंन ॥ ० ६४ | ०५२ । ूहा दिष्ट देषि सुरतांन दल, लोहा चक्कत बांन | हक फेरि उड़ चले, निसि आगम फिरि जांन ॥ ६५।०३। दूहा धजा बाइ बंकुर उड़ति, छवि कविंद इह आइ । उड़ान चंद निरंद विय. लगी मनो' अइ पाइ || छं० ६६ | ०२४ दहा Her संकहि बहि, वाजे कुहक सुगंग । मे सह निसान के, सुने न श्रवन ति अंग ॥ ० ६७ | रू०४५ | दहा अनी दो घनघोर ज्यौं, धाइ मिल कर घाट । चित्रंगी रावर बिना, करें कोन दह वाट ॥ छं० ६ भावार्थ--- रू० ५१ - यह ( युद्ध क्षेत्र) मुक्ति कम रू०४६ । करने का बाज़ार है। जिसका वर्णन नहीं हो सकता । सामंतों का को इस समय आरे के सिल्ली चढ़ जाने के समान हो गया ( अर्थात् ने बलवान और वीर तो थे ही इस क्रोध के आवेश में उनका पौरुष और भी प्रचंड हो उठा ) | (१) हा० ना०क्रम (२) मो० ज्यौ कवकरवती (३) ना०--वाई ( 8 ) को० ए० - जाम (५) ५० मो०- मानों, मानो (६) ना० सुरंग (७) ला० सी० - श्रवननि (८) ना०---घाय मिले कर घाट ए० कृ० को०- धाधा मिलेक वाट कर थाट । रू० ५२--तूफान उठा और चारों ओर अँधेरा छा गया ( मानो ) बादलों ने सूर्य को ढक लिया हो। [ इसे क्या कहा जाय ] यह मंगल सूचक है अथवा मंगल सूचक ?

रू० ५३ - सुलतान के दल वालों ने लोहे के चमकते हुए वाणों को देखकर अनुमान किया कि क्या गरदिश ने चक्कर खाया है जो रात को आया जानकर तारे निकल आये हैं ।

रू० ५४ --- रण बांकुरों की ध्वजा को वायु में उड़ते देख कवि को यह जान पड़ा कि मानों वह तारों और चंद्र देव के पैरों में लग गई है।

रू० ५५ -असंख्य शंख बजते ही अनेक सुरंग वाजे बज उठे जिससे नगाड़ों का शब्द भी दब गया और कानों को कुछ न सुनाई दिया ।

रू० ५६ — दोनों ओर की सेनाऐं कर्तव्य के घाट [ अर्थात् युद्ध क्षेत्र ] पर काले घनघोर वादलों के समान आ मिलीं। चित्रांग [ = चित्तौर ] रावर राजा ] ( समर सिंह ) के बिना ( शत्रु सेना को ) दह वाट [ = दस बाट दस मार्ग-र्थात् तितर बितर ] कौन कर सकता है। [या-- चित्रांग के रावर के बिना कौन मार्ग दिखा सकता है या कौन सेना का संचालन कर सकता है ? ]

शब्दार्थ - रू० ५१ – क्रयं = क्रय करना (खरीदना) । गाह < फा० ३४ == जगह । बाबांन=वर्णन । इक-एक | मुगते <सं० मुक्ति= श्रावागमन के बंधन से छूटना | करवति <सं० करपत्र = आरा । पावांन < पात्राण = पत्थर ।

रू० ५२-बाइ बीष = विषैली वायु, तूफान, अंधड़ । धुंधर=अँधेरा । परि=पड़ गया । बद्दर छाये भान = बादलों ने सूर्य को ढक लिया । कुन क्या} मंगल = (१) शुभ घड़ी ( २ ) युद्ध कारक अशुभ मंगल ग्रह । झांन=आया ।

रू० ५३–दिष्ट देषि=दृश्य देखकर दृष्टि से देखकर । लोहा चकत वांन= लोहे के चमकते हुए वाण । षहक फेरि आसमान उलट गया, गरदिश ने चक्कर खाया | उडगन तारे । निसि श्रागम फिरि जान= रात को फिर आया जानकर।

रू० ५४——वजा < ध्वजा = झंडा, पताका। बाइ < वायु । बंकुर <वक्र टेढ़ी[ 'बंकुर' का अर्थ 'रण बाँकुरे' भी हो सकता है ।]। इह = यह । छवि - यही ध्वजा की ऊँचाई या विशालता से तात्पर्य है । निरिन्द < नरेन्द्र । विष दो । पाइपैर ; 'पाकर' अर्थ भी संभव है । रू० ५५ - सेसनि = शेष, बेशुमार । संकहि-शंख | बहुत हि = बजते ही । कुहक=तुरही; मधुर स्वर; कुहक वाण । सुगंग <सुरंगसुंदर । मेटै सह = शब्द मिटाता है । निसांन के नगाड़ों के । स्रवन < सं० श्रवण = का। ति=उनके।

रू० ५६—अनी=सेना | दोउ=दोनों । घन घीर= घोर (अर्थात् काले ) बादल | बाइ=दौड़कर | कर करना (अर्थात् कर्तव्य ) । कर घाट कर्तव्य के घाट पर । चित्रंगी रावर - [ 'रावर' या 'रावल' <सं० राजकुल ] -को सन् -१२०१ में समरसी के भाई सूरजमल के पौत्र राहुप ने राना कर दिया [(Raj- asthan; Tod. Vol. I, pp. 260-61) ] | चित्रांगी रावर समरसिंह ( ११४ε- ११९२ ) - यह वीर गोरी के उस युद्ध में मारा गया जिसने भारतवर्ष में हिन्दू साम्राज्य का अंत कर दिया। रासो सम्यौ २१ में हम पढ़ते हैं कि पृथ्वीराज की बहिन पृथा इन्हें ब्याही थीं । चौहान इनसे बराबर सलाह लिया करते थे । [Rajasthan, Tod, Vol. I, pp. 254, 256-57 तथा पृ० रा० में]।

नोट रू० ५३ – “सुलतान ने पृथ्वीराज के दल के अगणित वैदीप्य- मान बाणों को देखा और शत्रु के इस प्रबल दल को देखकर उसे प्रतीत होने 1. लगा, कि मानों रात्रि का अंधकार चारो ओर से बिरता चला जाता है, आकाश बदल गया और उसमें फिर से तारे चमकने लगे हैं ।" इस दोहे में इस अर्थ के अनुसार बड़ी ही सुन्दर ध्वनि लक्षित हो जाती है अर्थात् अभी तक सुलतान 'विजयी होता हुआ ही चला श्राता था किन्तु इस दल को देखकर उसके छक्के 'छूटने से लगे । अपनी पराजय की शंका उसे रात्रि के अंधकार के आगमन की सूचना देने लगी । हक फेरि' जिसका अर्थ गरदिश के बदल जाने का है। और जिसका प्रयोग अनेक ध्वन्यार्थों में फारसी और उर्दू साहित्य में निरंतर किया जाता है, यहाँ उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है—अर्थात् सुलतान को आशंका हो रही है कि उसके ग्रह अस्त हो रहे हैं और चमक के मिस मानों शत्रु के • सितारे चमक उठे हैं।

रू० ५४ - कवि केशवदास ने रामचंद्रिका में लिखा है कि रथों की पताकायें सूर्य के घोड़ों के पैरों में लगती हैं। चंद ने भी उसी ध्वनि का प्रयोग इस दोहे में किया है । यहाँ सूर्य के स्थान पर चंद्र लिखा गया है क्योंकि चंद बरदाई "निसि श्रागम" रू० १३ में लिख चुके थे । ध्वनि यह है कि सैनिकों की ध्वजायें 'चंद नरिंद' के पैरों में लगती हैं अर्थात् वे बहुत ऊँची हैं।

रू० ५३ और ५४ से 'रासो-सार' के लेखकों ने पृ० १०.१ पर यह सार निकाला है- "उधर यवन सेना में ऊँचे हाथियों पर बैठे हुए, योद्धाओं के ________________

( ६७ ) मणिमय वस्त्र एवं स्वच्छ चमकीले हथियार ऐसे सुशोभित होते थे मानों मंद ज्योति उड़न समूह सूर्य के प्रखर ताप से उत्तापित होकर पृथ्वी की ओर श्रा रहे हों ।" कवित्त पवन रूप परचंड, घालि असु असिवर भारै । मार मार सुर बज्जि, पत्त त अरि सिर प.रै ॥ कंकर उष्पारे 1 उप्पारे !! फट्टकि' सद्द फोफरार, हुड्डु कटि भसुण्ड परि मुंड, भिंड कंटक बज्जयो विषम मेवारपति, रज उड़ाइ सुरतांन दल । समरध्थ समर मनमथ 3 मिलिय अनी मुष्य पिव्यौ सवल ||०६६|रू५७/ भावार्थ - रू० ५७ - वह [चित्रांगी रावर समरसिंह ] अपने वायु वेगी अश्व पर चढ़कर (शत्रुओं के बीच में कूदता है और तलवार से वार करता है ! उसके मुँह से मारो मारो शब्द घोषित होता है और वह शत्रुओं के मस्तकों को वृक्ष के पत्तों के सदृश तोड़ कर अलग कर रहा है। सैकड़ों फेफड़े फाड़ता हुआ वह हड्डियों को कंकड़ों सदृश उखाड़ता है। उसके भुंड से कट कर (शत्रुओं के मस्तक गिरते हैं जिनको वह काँटों की सीट सदृश फेंकता जाता है । भयंकर मेवाड़पति सुलतान की सेना में धूल उड़ाता हुआ आया । ( इस प्रकार पृथ्वीराज की ) सेना के आगे मन्मथ के समान आता हुआ अपने सामंतों सहित सामर्थ्यवान समरसिंह देखा गया । • शब्दार्थ - रू० ५७ - पवन रूप परचंड वायु सदृश प्रचंड वेग वाला | वालि= कूदना, डालना | असु <सं० श्रश्व = घोड़ा । असिबर श्रेष्ठ तलवार | भारै= झाड़ता हुआ अर्थात् वार करता हुआ। मुर <सं० स्वर | वज्ज्जि - बजना । पारै =अलग करना । फड्डकि = फाड़ता हुआ | सद्द < शत= सौ (यहाँ सैकड़ों से तात्पर्य है ! फोंफरा=फेफड़ा | हुड्डु = हड्डी । कंकर = कंकड़ । उष्पारे = उखाड़ता है । कटिकटकर । भसुँड <सं० भुवुराड = एक काटने वाला स्त्र । परि= गिरना | मंड=सिर | भिंड =भोट, ढेर | कंटक = काँटे । उप्पारै उपारना, नोच फेंकना। वज्रयो युद्ध करने वाला; बजा [ यहाँ वित्रम मेवाड़ पति बज्जयो ( आ- धमका, आया)]। रज उड़ाइ धूल उड़ाता हुया । समरथ्य सं० समर्थ = परा क्रमी । समर = समरसिंह मेवाड़पति --- चित्रांगी रावर -- पृथ्वीराज का बहनोई (१) हा०, ना० फहकि (२) ५० कृ० को ० - फीफरा (३) ए० कृ० को ०- nake मिल, मिली, मिल्यौ, ना० - सम्मर मिलिय ! समर सिंह- "मेवाड़ एवं समस्त राजपूताने में यह प्रसिद्ध है कि अजमेर और दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् चौहान पृथ्वीराज (तीसरे) की बहिन पृथा बाई का विवाह मेवाड़ के रावल समर सी (समर सिंह ) हुआ, जो पृथ्वी- राज की सहायतार्थ शहाबुद्दीन गोरी के साथ की लड़ाई में मारा गया । यह प्रसिद्धि 'पृथ्वीराज रासों से हुई, जिसका उल्लेख 'राजप्रशस्ति महाकाव्य' में भी मिलता है ["तत: समर सिंहाख्यः पृथ्वीराजस्य भूपतेः। पृथाख्याया भगिन्यास्तु परिरित्यतिहार्दतः ॥२४॥ भाषा रासा पुस्तकेत्य युद्धस्योक्लोस्ति विस्तरः ॥२७॥ राजप्रशस्ति, सर्ग ३], परन्तु उक्त पृथ्वीराज की बहिन का विवाह रावल समरसी (समरसिंह ) के साथ होना किसी प्रकार संभव नहीं हो सकता; क्योंकि पृथ्वी- राज का देहांत वि० सं० १२४६ ( ई० स० १९६१-६२) में हो गया था, और रावल समरसी (समरसिंह) वि० सं० १३५८ ( ई० स० १३०२) माघ सुदी १० तक जीवित था (ना० प्र० प० भाग १, पृ० ४१३, और टिप्पण ५७, पृ० ४४६) जैसा कि आगे बतलाया जायगा। सांभर और अजमेर के चौहानों में पृथ्वीराज नामक तीन और बीसलदेव (वित्रहराज नामधारी चार राजा हुए हैं (हिन्दी टॉड राजस्थान, प्रू० ३६८-४०१), परन्तु भाटों की ख्यातों तथा पृथ्वी- राज रासो' में केवल एक पृथ्वीराज और एक ही बीसलदेव का नाम मिलता हैं, और एक ही नाम वाले इन भिन्न भिन्न राजाओं की जो कुछ घटनायें उन को ज्ञात हुईं, उन सबको उन्होंने उसी एक के नाम पर अंकित कर दिया । पृथ्वीराज (दूसरे ) के जिसका नाम पृथ्वीभट भी मिलता है, शिलालेख वि० सं० १२२४, १२२५ और १२२६ (३० स० ११३७, ११६८ और १९६६) के, और मेवाड़ के सामंतसिंह (समत्तसी) के वि० सं० १२२८ और १२३६ (३० स० ११७१ और १९७९ ) के मिले हैं; ऐसी दशा में उन दोनों का कुछ समय के लिये समकालीन होना सिद्ध है। मेवाड के ख्यातों में सामंत सिंह को समतसी trafe को समरसी लिखा है। समतसी और समरसी नाम परस्पर बहुत कुछ मिलते जुलते हैं, और समरसी नाम पृथ्वीराज रासा बनने के अनंतर अधिक प्रसिद्धि में जाने के कारण - इतिहास के अंधकार की दशा में - एक के स्थान पर दूसरे का व्यवहार हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । श्रतएव यद पृथाबाई की ऊपर लिखी हुई कथा किसी वास्तविक घटना से संबंध रखती हो तो यही माना जा सकता है कि अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज दूसरे ( पृथ्वीभट ) की बहिन पृथावाई का विवाह मेवाड़ के रावल समतसी ( सामंत सिंह ) से हुआ होगा। डँगरपुर की ख्यात में पृथाबाई का संबंध समतसी से बतलाया भी गया है।[उदयपुर राज्य का इतिहास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, ________________

( ६६ ) पहली जिल्द, पृ० १५३-५४] । “रावल समर सिंह के समय के आठ लेखों. से यह निश्चित है कि वि० सं० १३५८ ( ई० स० १३०१ ) अर्थात् पृथ्वीराज के मारे जाने से १०६ वर्ष पीछे तक वह ( रावल समर सिंह) जीवित था " [राजपूताना का इतिहास, गौ० ही ० श्रोझा, जिल्द ३, भाग १, पृ० ५१-५२ ] । समतसी तथा समरसी के नामों में थोड़ा सा ही अंतर है इसलिये संभव है कि पृथ्वीराज रासी के कर्ता ने समतसी को समरसी मान लिया हो। बागड़ का राज्य छूट जाने के पश्चात् सामंत सिंह कहाँ गया इसका पता नहीं चलता । यदि वह पृथ्वीराज का बहनोई माना जाय, तो बागड़ का राज्य छूट जाने पर संभव है कि वह अपने साले पृथ्वीराज के पास चला गया हो और शहाबुद्दीन गौरी के साथ की पृथ्वीराज की लड़ाई में लड़ता हुआ मारा गया हो" [ डँगरपुर राज्य का इतिहास, गौ० ही० ओ० पृष्ठ ५३ ] । अतएव रासो में आये हुए समरसिंह को सामंतसिंह ही मानना उचित होगा । मनमथ सं० मन्मथ / से कामदेव का एक नाम । त्त्री पुरुष संयोग की प्रेरणा करने वाला एक पौराणिक देवता जिसकी स्त्री रति, साथी बसंत, वाहन कोकिल, अस्त्र फूलों का धनुपबाण है । उसकी ध्वजा पर मछली का चिन्ह है। कहते हैं कि जब सती का स्वर्ग- वास हो गया तब शिव जी ने यह विचार कर कि अब विवाह न करेंगे समाधि लगाई ! इसी बीच तारकासुर ने घोर तप कर के यह वर माँगा कि मेरी मृत्यु शिव के पुत्र से हो और देवताओं को सताना प्रारम्भ किया। इस दुःख दुखित होकर देवताओं ने कामदेव से शिव को समाधि भंग करने के लिए कहा | उसने शिव जी की समाधि भंग करने के लिये अपने वाणों को चलाया । इस पर शिव जी ने कोपकर उसे भस्म कर डाला। उसकी स्त्री रति इस पर रोने और विलाप करने लगी। शिव जी ने प्रसन्न होकर कहा कि कामदेव से बिना शरीर के रहेगा और द्वारिका में कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के घर उसका जन्म होगा । प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध कामदेव के अवतार कहे गये हैं। चंद बरदाई ने समरसिंह की कामदेव से उपमा दी है। जिससे अनुमान होता है कि चित्रांगी रावर वीर तो था ही बड़ा स्वरूपवान भी था । श्रनी सेना | मुष्य <मुख । अनी मुष्य = सेना के मुख पर अर्थात् सेना के आगे । पिष्यौ = देखा गया । सबल = बल सहित अर्थात् अपने सामंतगणों के साथ | = नोट --- "पावस के प्रबल दल बद्दल रूपी यवन सेना को देखते ही प्रचंड पवन रूपी मेवाड़ पति रावल समरसिंह जी ने उस पर इस वेग से स किया कि वे छिन्न भिन्न होने लगे ।" रासो-सार, पृष्ठ १०१ । ________________

रावर उप्पर धाइ परथौ, तिहि उप्पर चामंड, करयो धकाई धक्काइ, दोउ ' ( ७०. वित्त } पवार जैत विभि । हुस्सेन पांन सजि ॥ हरबल चल पन्च्छ सेन हुट्टि, अनी बंधी श्रालु ॥ गजराज बिसु सुरतांन दल, दह चतुरंग बर बीर बर । धनि धार धार धारह धनी, वर भट्टी उप्पारि करि ॥ छं०७० | रू०५८ भावार्थ - रु० ५८ -रावर के पीछे क्रोधित जैत प्रमार था और उसके पीचे चामंडराय और हुसेन खाँ थे । ये दोनों (चामंड और हुसेन ) हरावल ( सेना ) के बीच में थे । सेना के पिछले भाग से श्राकर इन्होंने अनी ( सेना के सिपाहियों की पंक्ति) को बाँधा और (युद्ध में) उलझ गये। दो हाथियों पर चढ़कर इन श्रेष्ठ वीरों ने सुलतान की चतुरंगिणी सेना को अच्छी तरह व्याकुल कर दिया। (और) अनेक तलवारों के बाँधने वाले स्वनामधन्य धार देश के अधिपति तथा श्रेष्ठ भट्टी ने उन्हें उखाड़ फेंका । शब्दार्थ – रू० ५८-रावर चित्रगी रावर समरसिंह । उप्पर धाइ परयौ=== = ऊपर (= पीछे दौड़ता हुआ । पाँवार जैत- जैतसिंह प्रभार | ि = क्रोधित । तिहि उप्पर = उसके पीछे । चामंड = चामंडराय दाहिम । सजि सजा हुआ । हुस्सेन पांन हुसेन खाँ - यह मीर हुसेन का पुत्र जान पड़ता है और संभव है कि उसी वंश का कोई अन्य संबन्धी हो । जैसा रासो सम्यौ में हम पढ़ते हैं कि मीर हुसेन गौरी के भारत पर आक्रमणों का कारण था । मीर हुसेन, शाह हुसेन या हुसेन खाँ एक वीर योद्धा था जो गोरी का चचाज्ञाद भाई था और उसी (गोरी ) के दरवार में रहता था । चित्ररेखा जिसका वर्णन रासो सयौ ११ में है, सुलतान की रूपवती प्रेयसी वेश्या थी । उसकी आयु पंद्रह वर्ष की थी और वह गान विद्या में निपुण थी। शाह उसको बहुत चाहता था । हुसेन भी चित्ररेखा से प्रेम करने लगा और वह भी हुसेन को चाहने लगी । शाह को यह खबर लगी तो उसने हुसेन को बहुत बुरा भला कहा परन्तु हुसेन और चित्ररेखा का प्रेम कम न हो सका । अंत में हुसेन ख़ाँ को ग़ज़नी छोड़ देनी पड़ी। वह अपना धन, परिवार और चित्ररेखा को लेकर भाग निकला और पृथ्वीराज की शरण में आया । पृथ्वीराज ने कुछ पशोपेश के बाद उसे अभयदान दिया । यह सुनकर गोरी आग बबूला हो गया और चौहान पर (१) ना० - बोइ । ________________

( ७१ ) चढाई कर दी। युद्ध में बडी वीरता दिखाकर हुसेन खाँ वीर गति को प्राप्त हुआ । गोरी पकड लिया गया। चित्ररेखा हुसेन की कब में दफन हो गई । पाँच दिन का दवाना भुगत कर गोरी हुसेन वॉ के पुत्र ग्राजी को लेकर और कमो युद्ध न करने का वचन देकर राज़नी लौट गया, गाजी ( या हुसेन ग्लॉ) को गोरी ने राजनी जाकर कैद में डलवा दिया। एक महीने पाँच दिन बाद हुसेन ग्यॉ क़ैदखाने से भाग निकला और पृथ्वीराज के पास या गया [मास एक दिन पंच रहि बद्धि धाइ हुसैन, परा लग्यौ चौहान के राज प्रसन्निय वैन || " समय १०, छं० २] । मीरहुसेन 'तत्रकाते नासिरी' में वर्णित नासिरुद्दीन हुसेन है जिसे फारसी इतिहासकारो ने छिपाने का बडा प्रयत्न किया है [Tabaqat-1- Nasiri. Raverty. pp. 322-23, 332] | धक्काई धकार = धक्का मुक्की करते हुए । दोउ हरबल बल मज्मे = दोनो हरावल सेना के बीच मे, [ दोनो हलचल मचाती हुई सेना के बीच से' ह्योर्नले ] । पच्छ सेन= सेना के पीछे । आहु=ि दौडकर, ग्राकर; ('याहुद्दि' एक योद्धा भी है)। अनी बंधी सेना को बॉवा । श्रालुज्फे = उलझ गये । वियदो । सुलतान दल दह= सुलतान की सेना को कष्ट देते हुए | बर=भलीभाँति, अच्छी तरह । बीर वर= श्रेष्ठ वीर । धार धार तलवारे । धारह धनी = धार देश का अविपति (जैतसिंह प्रमार ) | बर भट्टी = श्रेष्ठ भीमराव भट्टी । उप्पारि करि= उखाड फेका । कवित्त छत्र मुजीक सु अपि जैत दीनो सिर छ । चन्द्रव्यूह अङ्करिय राजु, हुअ तहाँ इकत्रं ॥ एक हुस्सैन', वीय अह पुण्डीरं । मद्धि भाग रघुवंस, राम उपभोः बर बीरं ॥ सांपला सूर सारंग दे, उररि वान गोरीय मुष । हथ नारि जोर जंबूर घन, दुहॅू बॉह उपभेति रुष ॥ ६०७११ रु०५६ कवित्त छट्टि अ बरघटिय, चढ्यौ मध्यांन भांन सिर । सूर कंध बर कट्टि मिले काइर " कुरंग बर ॥ at e er r लोह सो, लोह जुरुक्के । मन र मिले, चित्त में कंक परके ॥ (१) ना०---- -हुसैन (२) ना० (३) ना० गोर; ए० कृ० को जो, जोरो (४) ना०-ति (२) ना० रष कु०स (६) मा०---- कहि (७) हा० । उभौ ________________

( ७२ ) पुंडीर मीर मंजर भिरन, लरन तिरच्छो लग्गयो । व बघू जे संका सुबर, उदौ जानि जिमि भग्गयौ ॥ इं० ७२ १८०६० । भावार्थ-- ई --- रू०५६ - हृढ़ (= मुख्य ) छत्र अपने सर पर धारण कर जैत सेनापति बना और उसने सेना को चन्द्रव्यूह में खड़ा किया । वहाँ सब राजे महाराजे एकत्रित हुए । एक सिरे पर हुसेन ख़ाँ था और दूसरे सिरे पर पुंडीर था और बीच में वीर योद्धा रघुवंशी राम था । साँखल का योद्धा और सारंग दे गोरी के संमुख पड़े ( या गोरी के ख़ानों पर सामने से आक्रमण करने के लिये प्रस्तुत थे) । वे दोनों (चामंड और हुसेन ख़ाँ ) दोनों सिरों पर बहुत सी छोटी और बड़ी तोपें लिये हुए क्रोधित खड़े थे । रू० ६०-- छठी घड़ी आधी बीती थी कि मध्याह्न का सूर्य सर पर श्रा गया । शूरों ने कायरों के कंधे सर से काट दिये जब वे हरिणों के समान उन के आगे पड़ गये । पूरी आधी घड़ी तक तलवार से तलवार बजती रही । ( शूरवीरों की) अभिलाषा थी कि सामने शत्रु मिले और उनका ध्यान तल- बारों की मूठों पर था । युद्ध में शत्रु के दल का नाश करने वाले पुंडीर ने जब एक पक्ष से बार किया तो गोरी की सेना इस प्रकार भाग खड़ी हुई जिस प्रकार नव वधू सूर्योदय देखकर अपने पति के पास से लज्जावश भाग जाती है । शब्दार्थ --- रू० ५६ -- मुजीक मुख्य से तात्पर्य है); ह्योर्नले ने< (मुज्जक्क्का ) == हृढ़; यहाँ (मुज़ायका ) से जो उत्पत्ति की है वह यहाँ ठीक नहीं है । सुबह । अप्पि अपना; अर्पित । दीनों सिर सिरपर छत्र लगाया अर्थात् सेनापति बना | अङ्कुरिय= अङ्कुरित हुआ। राजु = राजा गण । हु तहाँ इकत्रं = वहाँ एकत्रित हुए । एक अत्र - एक सिरे पर । वीय ग्रह दूसरे सिरे पर। पुंडीर बंद पुंडीर । मधि मध्य | उपभो (या उभ्भो) ==उपस्थित | सांघलो सूर साँखलका योद्धा; साँखलौ --- राजपूतों की एक जाति भी कही जाती है जिसका ठीक पता नहीं चलता । दॉड ने ( Rajasthan. Vol. I, p. 93 में ) और उनके अनुकरण पर शेरिंग ने (Hindu Tribes and Castes Vol, I, p. 146 में ) इन्हें प्रभार जाति की ३५ शाखाओं में से एक तथा मारवाड़ निवासी और पूगल का अधिपति बताया है। दूसरी ओर ( Asiatic Journal, Vol. XXV, pp. 106 में ) टॉड का कथन है कि साँखला, परिहार जाति की एक प्रशाखा है और शेरिंग ने (वही, पृ० १५१ में ) झाँसी जिले के परिहारों के पूर्वजों में एक 'सारंग दे' का नाम लिया है । सारंग दे यह वीर Hindu Tribes and Castes. p. 151 और ________________

( ७३ ) Asiatic Journal, Vol. XXV, P, 108 में वर्णित परिहार जाति का नहीं वरन् कोई दूसरा वीर है जो सोलंकी या चौहान वंश का था । उररि उलारे = झपटना | दुहुँ बाँह दोनों सिरों पर । उपभेति रुष = क्रोधित उपस्थित थे । रू० ६० - छट्टि छठवीं । घटिय=बड़ी | कंध कंधे । कट्टि काटना | कुरंग = हरिण । लोह सों लौह जुरुक्के = लोहे से लोहा रुकता रहा । कंक तलवार की मूठ । परक्के = खरकती थी। चित्त में कंक परककेचित्त में तलवार की मूठ खटकती थी अर्थात् ध्यान तलवार की मूठ पर था। भीरदल के दल । भंजर = मंजन करने वाला । लरन तिरच्छो लग्गयो - जब उसने तिरछे पक्ष से लड़ना प्रारंभ किया अर्थात् जब उसने एक पक्ष से वार किया । जेम - जिस प्रकार । संका < सं० शंका ( शंकित होकर या लज्जित होकर ) । सुबर == स्वामी, पति । उदौ < उदय ( सूर्योदय ) । जानि =जानकर । जिमि = जैसे भाग जाती है । नोट- रू० ६० - की अंतिम दो पंक्तियों का अर्थ ह्योर्नले महोदय ने इस प्रकार किया है.--- "Pundir seeing the slaying and fighting multitude, drew aside from fighting, just as a newly married woman, from shyness towards her husband, makes off on noticing the sun's rising." "वंद पुंडीर ने छक्क पाकर यवन सेना पर तिरछे रुख से इस प्रकार धावा किया कि उनके पैर उखड़ गये ।" रासो-सार, पृ० १०१ । छंद भुजंगी मिले चाइ चहुत सा चाँपि गोरी । स्वयं पंच कोरी निसानं अहोरी || बजे व संभरे श्रद्ध कोसं । तिनं' अग् नीसांन मिति श्रद्धकोसं ॥ इं० ७३ बरं बरं चौर माहीति साई । हले छत्र पीतं बले यार धाई ॥ बुलै सूर हक्के हहक्केर पचारं । घले बथ्थ दोऊ घरं जा अषारं ॥ ई० ७४ ।. (१) ना०-- घने (२) ना०--हक (३) ए० -- अपारं | ________________

( ७४ ) उतंसंग तुट्ट परै औन धारी । बारी ॥ भारी । मनो दंड की अगी बाइ न कंध बंध हर्के सीस तहाँ जोगमाया जकी सी' विचारी ।। ० ७५ चढ़ी सांग लग्गी बजी धार धारं । हां से दूनू करै मार मारं ॥ नचे रंग भैरू है ताल बोरं । सुरंग अच्छरी बंधि नारद तीरं ॥ ॐ० ७६ । इसी जुद्ध व उबद्धउ भानं । भिरै गोरिया सेन अरु चाहुत्रानं ॥ करें कंडली तेग वग्गी श्रमानं । मनो मंडली रास तं कन्ह ठानं ॥ छं० ७७ । फुटी आवधं माहि सामंत सूरं । बजे गोर और मनो बज्ज भूरं ॥ लगै धार धारं तिनै धरह तुट्टै । दुहुँ कुम्भ भग्गै करके अहुई । इं० ७८ । फुटी श्री भोमं अपी४ बिंब राजं । मनो मेघ बुड्ढें प्रथम्मी" समाजं ॥ पराक्रम्म राजं प्रथीपत्ति रूठ्यौ । रनं रुधि गोरी समं जंग जुठ्यौ ॥ छं० ७६ रू० ६१ । हा तेज छुट्टि गोरी सुबर, दिय धीरज तत्तार । मो उपभै सुरतान को, भीर" परीइ न बार ॥ इं०रू० ६२ भावार्थ - रू० ७३ 1 गोरी चौहान से भिड़ने की इच्छा से बढ़ा। उसके साथ पाँच कोटी धनुर्धर थे । साँभर के सैनिकों के आयुधों की खनखनाहट या कोस तक जाती थी और इस (धे कोस ) के श्राधे कोस और श्रागे नगाड़े सुन पड़ते थे । ०७३ । ( १ ) मो० - जुकीयं विचारी ( २ ) ए० कृ० - पमानी ( ३ ) ना० वानं (४) कृ० ए० - अपी; नापं (५) ना०-प्रथीमों (६) नाव - सह (७) ना- उम्मै (८) ९० -भरी । ________________

( ७५ ) अनेकों तुरें व वर सूर्य किरणों से उनकी छाया कर रहे ये । पीले छत्र हिल रहे थे । शूरवीर उत्साह से पुकार कर मारो मारो कहते थे। दोनों ओर की सेनायें युद्ध भूमि में उसी प्रकार दौड़ रहीं थी मानों अखाड़े में उतर रहीं हों । या- दोनों ओर के शूरवीर ( परस्पर) चिल्लाकर बुलाते और गरजते हुए ललकारते थे और ( मल्लों सदृश ) कसर में हाथ डाले ( युद्ध भूमि रूपी) अखाड़े में जा धरते ( लड़ने लगते ) थे । ०७४ | I सर कटते ही रक्त की धारा वह निकलती थी मानों आग की ज्वाला निकल रही हो । कबंध नाचते थे और कटे हुए सिर चिल्लाते थे । वहाँ योग माया (दुर्गा) भी ( यह दृश्य देखकर ) स्तंभित हो विचार में पड़ जाती थीं । ०७५ साँग बढ़कर घुस जाती थी, तलवार से तलवार बज रही थी और दोनों सेनायें मारो मारो चिल्ला रहीं थीं । भैरव प्रसन्न होकर नाच रहे थे, गण ताल दे रहे थे और सुंदर अप्सरायें नारद के समीप खड़ी थीं। छं० ७६ । तथा गोरी और चौहान की इसी युद्ध काल में सूर्य अस्त हो रहे थे सेनायें लड़ रहीं थीं । सैनिक तलवार को ऐसा कृष्ण ने रास-मंडल ठाना हो । छं० ७७ । कंडलाकार घुमाते थे मानों सामंतों और शूरों द्वारा फेंके आयुध गोरी की ओर जलते हुए बज्र के समान लगते थे । तलवारों से तलवारें बजकर धड़ करते थे, दोनों कुंभ फूटते थे और खोपड़े टूटते थे । छं० ७८ पृथ्वी पर रक्त की बहती हुई धार ऐसी सुंदर मालूम होती थी मानों बर्षा काल में बीरबहूटियाँ इकट्ठी हो गई हों । पराक्रमी महाराज पृथ्वीराज युद्ध में गोरी से क्रोध पूर्वक भिड़े रहे । छं० ७६ । रू० ६२–६० ८०--सुभट गोरी का तेज (साहस) छूट गया [तब ] aar [ मारूफ खाँ ] [ यह कहकर ] धैर्य दिया ( = प्रबोधा ) कि मेरे रहते सुलतान पर भीर पड़ी ही नहीं (या - मेरे रहते हुए सुलतान पर कष्ट नहीं पड़ aar) । [ तक मैं उपस्थित हूँ तब तक सुलतान के पास सेना है"- थोर्नले ] । शब्दार्थ -- -- रू० ६१ – मिले चाइ - मिलने के चाव से । वाँपि=दवाना, बढ़ना ! पंच कोरी=पाँच कोड़ी-सौ । निसानं श्रहोरी (निशान अहेरी)= अचूक निशाना मारने वाले अर्थात् धनुर्धर सैनिक । श्रवधं < श्रायुध = अस्त्र शस्त्र 1 नीसान << फा०/*=नगाड़े | तिनं अग्ग उनके आगे । बंबर = तुरें | चौर 1 ________________

{ ७६ ) } चँवर | होति=सूर्य किरण | साई = छाया । हले = हिलते हैं । छत्र पीतं = पीले छत्र । वले <फा० ८ =अच्छा बोले । यार < फा० ) = मित्र । यार बाई= यार घाव करो | हक्के-बुलाना । पचारं < प्रचारना = ललकारना । हहक्के पचारें= उत्साह से चिल्लाना । वले डालकर । बथ्थ सं० वस्ति = कटिं । श्रवारं= अखाड़ा | उतं = उस ओर । मंग माँग, सर । उतमंग (डिं० ) <सं० उत्त- माङ्ग = शीर्ष, सिर, मस्तक, ( उत्तमँगि किरि अम्बार धोध माँग समारि कुमारमग। ८५ । वेलि क्रिसन रुकमणी री ) । तु = टूटता है । अगी बाइ बंधं सीस कटे हुए सर । भारी हर्के यहाँ कबंध, धड़ । जकी = स्तब्द ; जोर से स्तम्भित । वारी = श्राग जल रही हो । चिल्लाते हैं। कंध = कंधे, जोगमाया = योगमाया दुर्गा जो योगिनियों के साथ युद्ध भूमि में घूमने वाली कही जाती हैं ( वि० वि० प० में देखिये ) । साँग = एक प्रकार का शस्त्र [ दे० Plate No. III ] | बजी धार धारं = तलवार से तलवार बजी, (घड़बड़ा कर घुस गई ह्योर्नले) | मार मारं = मारो मारो। भैरू [<भैरव]-- शिव के एक प्रकार के गण जो उन्हीं के अवतार माने जाते हैं । पुराणानुसार जिस समय क राक्षस के साथ शिव का युद्ध हुआ था, उस समय अंधक की गदा से शिव का सिर चार टुकड़े हो गया था और उसमें से लहू की धारा बहने लगी थी । उसी धारा से पाँच भैरवों की उत्पत्ति हुई थी। तांत्रिकों के अनुसार और कुछ पुराणों के अनुसार भी भैरवों की संख्या साधारणत: आठ मानी जाती है जिनके नामों के संबंध में कुछ मतभेद है । कुछ के मत से महा भैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रुरु भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव सितांग भैरव, ताम्रचूड़ और चंद्रचूड़ तथा कुछ के मत से असितांग, रुद, चंद, क्रोध, उन्मत्त, कपाल, भीषण और संहार ये आठ भैरव हैं। तांत्रिक लोग भैरवों की विशेष रूप से उपासना करते हैं। गर्दै ताल वीरंगण ताल दे रहे हैं। सुरंग = सुन्दर । अच्छरी < अप्सरा स्वर्ग की नर्तकी । इंद्र की सभा में नृत्य करने वाली देवांगना परियाँ जो समुद्र मंथन काल मैं समुद्र निकली थीं और इंद्र को मिली थीं (विष्णु पुराण -- ११६/६६ | नारद देवर्षि का नाम जो ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे जाते हैं (वि० वि० प० में) । तीरं = समीप । बद्धं बँधकर लगकर । उबउ <सं० उपातिक > प्रा० अप उबधि ; [ या उमद्धेर <सं० श्रपवाधितक > प्रा० प० श्रधित्रौ ] | उबद्धे भानं = सूर्य अस्त होते हैं । कुंडली = कुंडलाकार । वग्गी <वर्गी सैनिक ( Growse ) | मंडली रास 1 से रास मंडल | कन्ह कृष्ण | ठानं ठाना हो । फुठी-फूटी, फूटना | माहि<सं० मध्य में । बजै गोर औरं = गोरी की ________________

७७ ) ओर लगते हैं । बज्ज <वज्र । भूरं = सूखे ( यहाँ 'जलते हुए' का संकेत है ) । तिनं घरह तुट्ट उनके धड़ टूटते हैं । दुहुँ दोनों । कुम्भ कनपटी । भग्गै << [सं०] भग्न । करक = हड्डी : ( उ० -- 'लेखनि करौ करंक की' जायसी ) । : = फूटना । श्रोन ८ श्रोणित = रक्त ! भोमं= पृथ्वी । अपो बिंव राजं == ऐसी सुन्दरता हो जाती है। मेघ बुडढे = मेघ की बुढ़ियाँ, बीर बहूटियाँ । पराक्रम्म राजं= पराक्रमी राजा । प्रथीपत्ति < पृथ्वीपति: पृथ्वीराज । रूट्यौ रूठना ( यहाँ 'क्रोध पूर्वक' का संकेत है ) । रुधि = रुँधकर । समं = साथ ! जंग <फा० ji =युद्ध | जंग जुट्यौ = युद्ध में भिड़ा रहा । = रू० ६२ -- तेज छुट्टि - साहस भंग हो गया। सुवर <सुभट = श्रेष्ठ वीर । दिय धीरज = धैर्य दिया, प्रबोधा । ततार = तातार मारूफ खाँ । मो = मेरे । उपभै (उभ्भै ) = उपस्थित होते । भीर= कष्ट । परीइ न वारु = इसबार पढ़ी ही नहीं । छंद मोतीदाम रतिराज रु जोवन राजत / जोर । चंप्यो ससिरं उर सैंसर कोर ॥ उन मधि मद्धि मधू धुनि होय । तिनं उपमा बरनी कवि कोय' ॥ छं० ८१ । सुनी बर आगम जुब्बन कबहूँ न चैन । म मैंन ॥ कबहुँ दुरि क्रेनन पुच्छत नैन । दुरि बैन ॥ बं० ८२ | सज्जि || रज्जि । भज्जि । छं० ८रें । रज्जि । नन्जि || aat for a दुरी ससि रोरन सैसव दुंदुभि बजि । उभै रतिराज स जोवन कही वर औन सुरंगिय चपे नर" दो बनं बन इय् मीन नलीन भये अति भय् विश्रम भारु परीवहि मुर् मारुत फौज प्रथमं चल्लाइ । गति तजि सकुच्छि कल्ले मिति श्राइ ॥ छं० ८४ । (१) ए० कृ० को ० - कोह, कोय, होह; ना०---- जोय (२) ए० – जुडन (३) भो० ए० को ० -पुच्छन ( ४ ) – सुजोवन, ए०-सजीवन (१) ना० रन, ए० कृ० को ० --- नर ( ६ ) ना० - रत (७) ना०--परी गहि नज्ज, हा०-परी न हि मंजि (८) हा०-- -- चहाइ (१) ना० - संकुचि, हा०-- ० - संकुचि । ________________

( ७ ) दहि सीतम धूप न कंदहि जीव । प्रगटै उर तुच्छ सोऊ उर भीव ॥ बिन पल्लव कोर हिता रहि संभ' । गहना बिन बाल बिराजत श्रंभ ॥ छ० ८५ कति कंठन कंठ सज्यौ अलि पंप । न उड्डिय भ्रंग नवेतिय श्रं ॥ सजी चतुरंग सज्यो बजी इन बनराइ | उप्पर सैसब जाइ ॥ छं० ८६ । कवि मत्तिय जूह तिनं वहु चोर | नंतर वैसंधय चंद्र कठोर ॥ छं० ८७ । रू० ६३ | भावार्थ - ०६३- -- जिस तरह ऋतुराज ( वंसत ) ने शिशिर को दबा लिया है उसी प्रकार यौवन ने शैशवावस्था को दबा दिया है और ग्रव ऋतुराज और यौवन का जोड़ा सुशोभित हो रहा है। उन ( वसंत और यौवन ) के बीच मधुर वार्ता - लाप होता है और उनकी कुछ उपमायें कवि वर्णन करता है | छं० ८६ | यौवन का सुंदर श्रागमन जानकर क्या कामदेव उत्साहपूर्वक नहीं नाचने लगता ? कभी कान नेत्रों से जाकर पूछते हैं कि देखो दौड़ता हुआ कौन आ रहा है ? छं० ८२ । यह शिशिर का शब्द है या शैशव की दुंदुभी बज रही है ? या दोनों ऋतुराज और यौवन ( युद्ध के लिये ) सज रहे हैं ? ( नेत्र कानों को उत्तर देते हैं कि ) लाल रंग से अलंकृत होकर (या सुंदर वस्त्राभूषणों से सजकर ) दोनों ( मनुष्य ) [ऋतुराज और यौवन ] वन को भाग गये हैं । छं० ८३ । नोट - [ इय मीन नलीन भये अति रज्जि' इस पंक्ति से प्रस्तुत रूपक की अंतिम पंक्ति तक एक पंक्ति में यौवन और दूसरी में ऋतुराज वा वसंत का क्रमशः वर्णन है । ] (वसंत ऋतु में) मछलियों (कमल के डंठलों के समीप ) रहकर प्रसन्न होती हैं । ( यौवन काल में ) भय और विभ्रम ( संदेह ) का भार लज्जा ढोती है । ( वसंत में अपनी बारी पर प्रथम मारुत देव अपनी (मृदुल वायु) चलाते हैं । ( यौवन में ) लज्जित चाल और संकोच इकडा हो जाते हैं । (१) ना० --- कोरहि तारहि रंभ; ए० -- कोरहि तारै संभ (२) नार-वर्ग तथ संघ चंद कठोर | ________________

(SE) (वसंत में) शीत से दग्ध प्राणियों को धूप से कष्ट नहीं होता है। ( यौवन में) प्रेम का संचार मन में होता है और वही उर (हृदय) में भय का संचार करता है | ( वसंत में ) वृक्षों में पतझड़ हो जाता है परन्तु पत्तों के निकलने की फिर आशा रहती tar में) भूषण विहीन होने पर भी बाला का मुँह सुंदर रहता है । ( वसंत में ) कोयले अपना स्वर और भ्रमर अपने पंख सजाते हैं । ( यौवन में ) उड़ते हुए भौरों के स्थान पर नवेलियों की काली आँखें दिखाई पड़ती हैं। अपने लिये चतुरंगिणी सेना सजाने के लिये ( वसंत ने ) वन के वृक्षों की पंक्तियाँ सजाई हैं और ( यौवन पर ) आक्रमण करने के लिये शैशव ने (दुंदुभी या ढोल ) बजा दिया है । कवि की बुद्धि अनेक उपमाद्यों का कथन नहीं कर सकती । इन दो अवस्थाओं (शैशव और यौवन) के मिलन ( वयःसंधि ) का वर्णन चंद के लिये कठिन है । शब्दार्थ ----- -- ० ६३ - रतिराज < ऋतुराज वसंत (कामदेव का साथी ) । जोबन < यौवन । राजत== मुशोभित । जोर=जोड़ा। चंप्यौ = दाबकर, समाप्त करके । ससिरं=शिशिर ऋतु । उर शैशव कोर= शैशव के हृदय को छेदकर अर्थात् शैशव काल को दबाकर । उनी मधि मद्धि-उन (ऋतुराज और यौवन) के बीच में | मधू धुनि होय = मधुर वार्तालाप होता है। जुब्बन << योवन | बैन < वचन= शब्द | उद्दिम <सं उद्यम ( उत+ यम + अल ) = उत्साह पूर्वक | मैंन < सं० मवन = कामदेव | दुरि= दौड़कर | क्रेनन < कर्ण = कान | दुरी दुरि== 1 हुआ; दौड़ता हुआ । ससि रोरन = शिशिर का शब्द । उभै < उभय = दोनों । श्रौन < श्रवण–कान | सुरंग्गिय= सुरंग (लाल रंग जो होली के अवसर पर फेंका जाता है) । रज्जि=सजकर । नर दोउदोनों मनुष्य (ऋतुराज और यौवन ) । चपे= दब गये ( यहाँ छिप गये से तात्पर्य है ) । मीन = मछलियाँ | नलीन < नलिन = कमल । अति रज्जि = अत्यंत ( रंजित ) प्रसन्न होकर । विभ्रम= संदेह | भारु भार, बोझ । परीवहि < परिवाह वहन करना, ढोना ! भवभय । तुच्छ — यह प्रेम' के लिये प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है । नज्जि < सं०/नज: = शरमाना, लजाना; तज्जा । मारुत वायुदेव का नाम | मुर= मुड़ना; अपनी बारी आने पर । फौज ८ श्र० = सेना । सकुच्छि < संकोच | कछेकठे = एक साथ इकट्ठे । दहि = जलाना | कंदहि = कष्ट पहुँचाना; नाश करना | सोतम=शीत | अंष = आँखें । मत्तियमति, बुद्धि । जूह सं० यूथ > जूथ = समूह | अनंत = वर्णन । वैसंवय <सं० वयःसंधि दी arrari शैशव और यौवन का ---मिलन | चंद कठोर = चंद कवि के fat afores है । فوج ________________

( 50 ) नोट- मोतीदान छंद का लक्षण-- यह वार्णिक छंद है । इसके प्रत्येक छंद में चार जगण होते हैं । (१) ‘प्राकृत पैङ्गलम्' में मौक्तिकदान [ मोतिदान - मोतियदाम' मोतीदाम=मोतियों की माला ] छंद वर्यवृत्त के अंतर्गत माना गया है और इसका लक्षण इस प्रकार कहा गया है --- पोहर चारि पसिद्धह ताम ति तेरह मत्तह मोत्तिय दाम । पुब्वहि हारुण दिज्जइ यंत वि स ( अर्थात् चार पयोधर वाला, ल छप्पण मत्त || II, १३३ ॥ तेरह मात्रात्रों का मोतीदाम छंद होता है । प्रत्येक चरण के आदि अंत में लघु रहते हैं । १६ चरणों के इस छंद में कुल २५६ मात्रायें होती हैं । ) (२) रूप-दीप-पिंगल में इसका निम्न लक्षण दिया है --- "कली मधि च्यार जगन बनाय करो षि मन्त से षोडश पाय । बतावत शेस सुनो शुभ नांम कहावत छंद सु मोतियदाम । (३) 'भानु' जी ने अपने 'छंद: प्रभाकर' में इस छंद को चार जगण (ISI) वाला मात्र कहकर समाप्त कर दिया है । छंद रसावला बोल पुच्चै धनं । स्वामि जपे मनं । रोस लग्गे तनं । सिंह मर्द' मनं ॥ ० छोह मोहं षितं । दांन छुट्टे ननं । नाम राजं धनं । प्रम मेच्छ बाहं बिनं । रत कंध दल्ल जा ढाहनं । जीव ता बांन जा संवनं । पंषि जा सातुक्कनं ॥ छं ध | न नं । सा हनं ॥ ६० । बंधनं ! श्याम सेतं अनी । पीत रक्तं घनी ॥ छं० ६१ । वह मच्ची घरी । रोस दंती फिरी । फौज फट्टी पुनं । सूर उपभे धनं ॥ छं० ६२ । (१) ना - मंदं (२) ना० - उम्मे । ________________

( ८१ ) I लेहु लेहु करी । लोह काढे कन्ह जा संभरी | पाइ मंडै अरी । फिरी ॥ छं० ६३ । बीर हक् करी | नेंन स्तं बरी | बीर बज्जे भार पंड जा षोलियं । बीर सा बोलियं ॥ ६४ ॥ धुरं । दंति कट्टे कुरं । कोरियं । फौज विष्फौरियं ॥ छ० ६५ । दंति रुद्वी परे । अग्ग फूलं झरे । पन्नारियं । जावकं ढारियं ॥ ० ६६ । आननं हंकयं । अंग जा संचयं । सत्त सामंतयं । बोन सा पथ्थयं ॥ छंद ६७ । फौज दोऊ फटी | जांनि जूनी टटी । 1 || २०६८ रु०६४ ३ भावार्थ- ई-रू० ६४ - खच्च खच्च का शब्द अत्यधिक बढ़ गया । स्वामी ( पृथ्वीराज ) अपने मन में प्रार्थना करने लगे । उनको क्रोधावेश हो आया और मन में सिंह का साहस भर गया तथा माया मोह क्षीण हो गये । खूब दान दिये गये। राजा की प्रशंसा होने लगी । योद्धाओं ने सात्विक धर्म का ध्यान रक्खा । म्लेच्छों के हाथ काट डाले गये और उनके कंधों से रक्त की धारा बहने लगी । जिसकी ढाल गिर पड़ी उसके प्राण चले गये । (धनुष में) प्रत्यंचा पर संधाने हुए बाण जाल में फँसे हुए पक्षियों सदृश लगते थे। काली और सफेद (श्वेत) सेनायें थीं तथा पीले व लाल रंग की भरमार थी। काली पोशाक यवनों की, सफेद क्षत्रियों की तथा लाल पीला रंग रक्त व मांस का जान पड़ता है] । घोर कोलाहल मचने लगा, (गोरी के हाथी क्रोधित होकर इधर उधर दौड़ने लगे ( जिसके कारण) फौजें फट गई और शूर वीर स्थान स्थान पर झुंडों में खड़े हो गये । पकड़ो पकड़ो की पुकार मन्त्र गई (और) तलवारें निकल आई । [ यह देखकर ] कन्ह (अपने धनुष क.) प्रत्यंचा सँभाल इधर उधर दौड़ने लगे । वीर गरजे और उनके नेत्र रक्त वर्ण हो गये । खाँडे निकल व्याये ( और सैनिक ( 1 } गण ) वीरों के समान बोलने लगे तथा क्रूरता पूर्वक लड़ने लगे । तलवारों के इधर उधर बार पढ़ने से हाथी घायल हो गये तथा फौज छितरा गई। (अंत में ) हाथी अवरुद्ध हो गये ( तब उनपर ) आग के शोले फेंके गये । सोने की पारियों से गुलाल डाला गया । ( कटे हुए) मुँह ( सिर) चिल्लाने लगे और (१) ५० --जामं वयं । ________________

( ८२ ) बंधनाने लगे । सात सामंतों ने शाह का मार्ग ( खाई सदृश ) रोक बन कर रोका और दोनों सेनायें अपने सामने टट्टी घड़ी देख कर अलग हो गई । 1 कहने मन में सिंह का सा साहस भर गया । घिनं <क्षीण कम हो गया। दांन अवसर पर शकुन के लिए तथा शब्दार्थ - रू० ६४ - बोल = शब्द | बुच्चै खच्च खच्च-अस्त्र द्वारा मांस कटते समय की आवाज़ | वनं = घना, अधिक । स्वामि स्वामी (पृथ्वी- राज)। जंपे मन= मन में जपने लगे वा प्रार्थना करने लगे या मन लगे । महंमद साहस । सिंह मद्द मनं छोह = ममता । छोह मोहं = माया मोह । छुट्टे ननं = खूब दान दिये गये [ – युद्ध haara को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मणों को दान दिये जाने के वर्णन मिलते हैं ] | राजे राजा ( पृथ्वीराज ) । श्रमधर्मं । सातुकनं <सात्विक । नम 'सातुकनं = सात्विक धर्म पर दृष्टि रखी गई अर्थात् योद्धाओं ने सात्विक धर्म (-युद्ध में विपक्षी के कमर से नीचे वार न करना आदि ) निबाहा । बाहं = बह, भुजायें । मेछ बाहं बिनं = म्लेच्छ हाथ रहित हो गये अर्थात् उनके हाथ काट दिये गये । ['म्लेच्छ बाहन (= सवारी) रहित कर दिये गये ' -- ह्योर्नले ] | रत्त कंर्धं ननं कंधों से अत्यधिक रक्त बहने लगा; [ 'अनेक गरदनें रक्त से लाल हो गई'--ह्योर्नले] । दलढाल | जा = जिसकी । ढाहनं= गिर गई । जीव=प्राण | ता=उसका । हनं=मारना । संघनंसंधानना ( बारा को धनुष पर चढ़ाना ) । पंषि < पक्षी । बंधनं = जाल; बँधे हुए । सेतं < श्वेत = सफेद । पीत रतं = पीला और लाल । फौज फट्टी पुनं= फौज फट गई; [- हाथियों के क्रोधपूर्वक दौड़ने से सेना में भगदड़ मच गई] । उपभे (उभ्भे) = उपस्थित | सूर उपभे धनं शूर बने उपस्थित हुए अर्थात् योधागण झुंडों में खड़े हो गये । लेहु लेहु करी (करि=) हाथियों को लोलो (पकड़ी पकड़ो): [या-लोलो करने लगे ] | लोह का री= शत्रु ने तलवारें खींच ली या शत्रु के विपक्ष में तलवारें खिंच गई। कन्ह पृथ्वीराज के चाचा | 'कन्ह जा संभरी । पाइ मंडै फिरी - कन्ह अपना धनुष सम्हाले हुए पैर स्थिर करने लगे अर्थात् इधर उधर दौड़ने लगे । जा < सं० ज्या=प्रत्यंचा | हक्के-चिल्लाना । नैन नयन = नेत्र | रतं बरी रक्तवर्ण होना । खंड < खाँड़ा-सीधी दुधारी तलवार [ दे० Plate No. III ] | सा= . समान । बीर सा बोलियं = वे वीरों के समान बोलने लगे । वीर बज्जे धुरं वीर क्रूरता पूर्वक लड़ने लगे । दंति कटटे छुरं हाथियों को छूरों (= तलवारों) .से काट दिया। भार संकोरियं=इधर उधर से वार करके । विष्फौरिय= फोड़ना । फौज बिष्फोरियं = फौज को छितरा दिया । रुद्धी परे= अवरुद्ध हो गये ! अग् ________________

(८) 1 फूल भरे = आगे आग के फूल या शोले झाड़े ( डाले ) गये । हिम = सोना | पन्नारियं = पनारियों से । जाबकं ढारियं श्रालता डाला गया । जावकं आ०, अप जावय <सं० यावकालता, लाख का रंग। श्रानंनं हंकयं =मुख चिल्लाये । अंग = शरीर | अंग जा नंचयं = कबंध नाचने लगे। सत्त सामंतयं = सात सामंतों ने शाह की प्रथम बाढ़ में इन्हीं सात सामंतों को वीर गति प्राप्त हुई थी ] | वन जाल, चटाई। चांन सा पथ्थयं = शाह के पथ को रोक सी बनकर रोका | सा= वह; सदृश । पथ्थयं = पथ, मार्ग । फौज दोऊ फटी दोनों फौजें अलग थलग हो गई। जानि जूनी टटटट्टी श्री हुई जान कर । नोट -- रसावला छंद का लक्षण - इस नाम के छंद का पता उपलब्ध छंद ग्रंथों में नहीं लगता परन्तु इसका लक्षण विमोहा छंद के सर्वथा अनुरूप है । 'विमोहा के नाम जोहा, विजोहा द्वियोधा और विजोदा भी मिलते हैं - छंद: प्रभाकर, भानु । 'विमोहा' वर्ण वृत्त है | ‘प्राकृत पैङ्गलम्' में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है--- अक्खरा जं छत्रा पाच पाचं ठिया । मत्त पंचा दुग्गा विरिण जोहा गरणा ।। II, ४५॥ [ अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में है अक्षर दस मात्रायें और दो गण (SIS ) हों | ] संभव है कि रासोकार के समय में यह विमोहा छंद 'रसावला' नाम से भी प्रख्यात रहा हो। वित्त सोलंकी माधव नरिंद्र, [षांन] बिलची मुष लग्गा । सुबर बीर रस बीर, बीर बीरा रस पग्गा ॥ दुन बुद्ध जुध तेग, दुहुँ हथन उपभारियर । तेग तुट्टि चालुक, बध्थ परि कढि कटारिय || अग अग रुक्कि ठिल्ले बलन, अधम जुद्ध रागे लरन । सारंग बंध घन वा परि, गोरी वै दिन्नौ मरन || इं० ६६० ६५। भावार्थ- रू० ६५- सोलंकी माधव राय का खिलजी खाँ से मुकाबिला पड़ा । दोनों श्रेष्ठ वीर थे ( अत: आमने सामने आते हो ) वीर रस में पग (१) 'जन' पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है परन्तु डा० ह्योनले ने इसे दिया है। (२) ना० उभारिय (३) ए० कृ० को ० - दीनो, ना० “दिन्नौ । ________________

( ८४ ) गये । युद्ध में प्रवल दोनों वीरों ने दोनों हाथों से तलवारें उठा ली। ( अंत में लड़ते लड़ते ) चालुक्य की तलवार टूट गई और तब उसने कमर से कटार खींच ली। परन्तु बैरियों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और धम युद्ध होने लगा। सारंग के बंधु के अनेक घाव लगे जिससे यह गिर पड़ा और गोरी ने उस पर मरने वाला वार किया ( अर्थात् गोरी ने उसे मार डाला ) 1 शब्दार्थ – रू० ६५ -- सोलंकी ( या चालुक ) – राजपूतों की जाति विशेष | अन्हिलवाड़ापन गुजरात में राज्य करने वाले इसी राजपूत कुल के थे । सीमदेव द्वितीय उपनाम भोला जयचंद के बाद पृथ्वीराज का भयानक 1 प्रतिद्वंदी था । अपने पिता सोमेश्वर की हत्या का बदला लेने के लिये चंद कवि का कथन है कि पृथ्वीराज ने भीमदेव को युद्ध में मार डाला ( रासो- सयौ ४४ ) | यह बात 'रासमाला' (Rasmala. Forbes Vol. 1, pp. 221-30 ) से भी प्रतिपादित होती है। साथ ही चंद ने सीमदेव के पुत्र कचरा चालुकराव या कचराराय - चालुक पहु के विषय में लिखा है कि संयोगिता पहरण वाले युद्ध में वह भी पृथ्वीराज के साथ था और उसी युद्ध में गंगा में डूब गया [रासो सम्यो ६१ तथा Asiatic Journal, Tod, Vol. XXV, pp. 106, 282] | कुछ भी हो यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि सोलंकी वंश के अनेक राजकुमार पृथ्वीराज के सामंत थे । माधव सोलंकी भी इन्हीं में था और दूसरा सारंग था जिसका वर्णन अगले ६० ७० में श्राता है। सोलंकी या चालुक्य राजपूत वंश छत्तीस उच्च राजवरानों में था तथा श्रर अग्नि कुलों में एक था । [ सोलंकियों का वि० वि० देखिये -- Rajasthan Tod. Vol. I, pp. 27, 100; Hindu Tribes and Castes. Sherring. Vol. I, pp. 156-58; Races of N. W. India, Elliot, Vol. I, p. 50 ]| बिलची = खिलजी ख़ाँ । सुष लग्गा == सामने आया: मुकाबिला हुआ । सुवर बीर रस बीर - सुभट वीररस में तो बीर थे हो । बीर वीरा रस परगा वीर वीर रस में पग गये । दुधन बुद्ध जुध युद्ध में दक्ष दोनों ने। उभारी अर्थात् उठाई। तुहि टूट गई । तेग == तलवार | उपभारिय चालुक्य -- सोलंकी माधव राय के लिये याया है । बध्य <सं० वस्ति = कमर | [ बध्य < बक्षस्थल = छाती ] । कढि = काढ़ना, कटार [] दे० Plate No. III ] | सारंग बंध खींच लेना | कटारिय== सारंग का संबंधी; सारंग ( तलवार ) + बंध (बाँधने वाला ); सारंग (तलवार) + बंध (बार, धात्र ) । दिन्नौ मरन = मरने वाला आघात किया । ________________

( ८५ ) कवित्त 'टकि जुटिक, जमन सेन समुद्र गजि । हयगय बर हिल्लोर, गरु गोइंद दिष्षि सजि ॥ are ठेल अभंग, नीर असि मीर समाहिय । अति दल बल हुट्टि, पच्छ लज्जी परवाहिय || रज तज्ज रज्ज मुक्ति न रह्यौ, रज न लगी रज रज भयौ । उच्छृंग अच्छरसों लयौ, देव बिमानन चढ़ि गयौ || छं०१०० | रू०६६ । भावार्थ --- रू० ६६ -- जब वह ( ख़ान गोरी या खिलजी ) तलवार रोक कर खड़ा हुआ तो यवन सेना समुद्र की भाँति गरजने लगी । हाथी और घोड़ों को बड़ी लहर सदृश आते देख गस्य गोइंद ने अपने को ( आगे बढ़कर युद्ध करने के लिये ) सजाया । अगम्य, ठेल, अभंग जल की धार सदृश मीर सामने आये [ या-अगम्य अटेल अभंग जल की भाँति अस्सी मी गे बढ़े ] और अत्यधिक दल बल से ग्राहुडि ( ग गोइंद ) को लज्जित कर प्रवाहित कर दिया [अर्थात् हुट्ठि को मार डाला ] । यद्यपि उसका ( पृथ्वी का राज्य ) चला गया परन्तु राजा होने से वह न रुक सका । उसके धूल नहीं लगी (अर्थात् इस प्रकार के विषम युद्ध से वह भयभीत हो विमुख नहीं . हुआ वरन् वीरता पूर्वक युद्ध करके वीर गति को प्राप्त हुआ; वा- 'रजन लग्ग' का अर्थ 'धूल में लगकर या गिरकर' भी लिया जा सकता है) या [-- वैरी के बड़े दल बल को रोकने में समर्थ होकर उसने अपने पक्ष की लज्जा को धो दिया ] 1 राज्य (वैभव ) त्याग रूपी रज्ज (< रज्जु = रस्सी) उसे रोक न सकी, वह रज रज (टुकड़े टुकड़े) हो गया परन्तु उसने अपने रज (धूल) न लगने दी; (और) वह रज (= श्राकाश= स्वर्ग) में पुन: रज (= राजा या राज्यपद पर) हो गया । श्रप्सरात्रों ने उसे गोद में ले लिया और देवताओं के विमान पर चढ़कर वह ( स्वर्ग लोक ) चला गया । नोट-यवन सेना के कई एक सिपाहियों ने मिलकर माधवराय को मार डाला । यह देखते ही गोइंद राव का भाई यवन दल रूपी समुद्र को दीर्घकाय मगर की भाँति मथता हुया खिलजी खाँ के ऊपर टूट पड़ा परन्तु उसे भी कई एक मुसलमान सिपाहियों ने काट कर टूक टूक कर दिया ।" रासो-सार, पृष्ठ १०२ । प्रस्तुत कवित्त में दीर्घकाय मगर या उसका पर्याय- aat कोई शब्द नहीं है । रासो-सार लेखकों की 'मगर' की उपमा सचमुच (१) ना० - षग्य, हा०---- ( २ ) ना०-- समंद (३) ना० - अनम ________________

( ८६ ) अनूठी है। पानी की धार का वर्णन ता इस रूपक में है ही अब पानी में रहने वाला भी कोई होना चाहिये और वह 'दीर्घकाय मगर' से अच्छा और कौन कहा जा सकता था । शब्दार्थ ----र - रू० ६६ - खग्य <सं० खड्ग = तलवार [ दे० Plate No. III ] | हटकि = रोकना । टिक = टिकना -- ( यहाँ स्थिर होकर खड़े होने से तात्पर्य है)। जमन <सं० यवन । समुंद : समंद) < समुद्र | गजि = गरजना | हय =घोड़े । गय <सं॰ गज=हाथी । वर हिल्लोर श्रेष्ठ हिलोर अर्थात् बड़ी लहर | गर गोइंद- -- यह पृथ्वीराज के प्रसिद्ध सामंतों में था । अन्य राजात्रों के साथ इसने भो रायल समरसिंह को दहेज दिया था [“दियौ राज गौइंद= श्राहुह राजं । दियं तीस हथ्थी महा तेज सार्ज । " सम्यौ २१, छं० १०८ ] | इसने दो बार गोरी को पकड़ा था ["गोद राव गहिलौत नेस। जिन दोव फेर गज्जन गहेस" ॥ सम्यौ २१, ०६३८ ]। साधारणत: इसके ये नाम मिलते हैं -- गोविन्द राव, गोविंद राय, गोविन्द राज । यह गुहिलोत (गुहिल पुत्र) वंश का था अतएव गुहिलोत राजवंशी उपाधि 'आहुड' भी इसको मिली थी ( "शोनंद राजा हुड पति" ) । गरु गोइंद की मृत्यु इसी कवित्त में स्पष्ट वर्णित है इसलिये यह प्रसिद्ध गोविन्दराज गुहिलोत नहीं है वरन् उसका भाई या अन्य संबंधी है। प्रसिद्ध गोविन्दराज संयोगिता अपहरण के अवसर पर पृथ्वीराज के साथ था ["entre गोद कहि । वर ढिल्ली सुर पान | हथ्य वीर विरुभाइ चलि | वर लग्गै सुरतान ||” सम्यौ ६१] | चंद बरदाई ने उसकी प्रशंसा इस प्रकार की है [गुरूराव गोवंद चंदे सु इंदं । सुतं - मंडलीकं सबै सेन चंद ॥” सम्यौ ६१, छं० १११] । अंत में इसी युद्ध में बड़ी वीरता से लड़कर वह पंचल को प्राप्त हुआ ["उठे हक्कि करि भारि कोपेज डालं । हये प्यार मीरं दुवाहंड ढालं || उरं लग्ग जंबूर थारास बानं । पर्यो राव गोवंद दिल्ली रुजानं ॥" सम्यो ६१, छंद १४७२] | वह पृथ्वीराजके बहनोई समरसिंह गुहिलोत का निकट संबंधी रहा होगा । "उसने पृथ्वीराज की बहिन से विवाह किया", [ Races of N. W. Provinces of India, Elliot, Vol. I. p. 90 ] 1 इलियट महोदय ने समरसिंह गुहिलोत तथा गोविंद गुहिलोत नामों को समझाने में भूल कर दी इससे भ्रमवश ऐसा लिख गये हैं। अगले रू० ८४ में हत वीरों के साथ प्रस्तुत कवित्त में वर्णित गरु गोइंद, 'जैत गोर (गरुवा)' के नाम से थाता है । दिवि सजिसजा हुआ दिखाई पड़ा। नीर= जल । सि= (१) धार (२) अस्ती (३) तलवार । समाहिय ( <० समाधित - : समाधिस्थ) = इकट्ठे हुए, दौड़े, सामने आये । लज्जी = लज्जित कर दिया। परवाहिय: T ________________

( ८७ ) प्रवाहित कर दिया, बहा दिया। रज= पाँच 'रज' आये हैं जिनके अर्थ क्रमश: इस प्रकार किये गये हैं- (१) रज = राज्य, वैभव (२) रज्ज = राजपद, रस्सी (३) रज = धूलि, (४) रज = प्रकाश (स्वर्ग), धूलि कण (५) रज = राजा, धूलि कण । ‘रज—रज' का ‘टुकड़े टुकड़े' अर्थ भी किया गया है । उच्कंग <सं उत्संग-गोव; [ कुछ विद्वान् उच्छंग का संबंध सं० उत्साह से भी अनुमान करते हैं ] | अच्छर <अप्सरा । सों लयो = [ह्योर्नले महोदय इसका 'सो लयम' पाठ करके 'सुला लिया' अर्थ करते हैं ] । अच्छर उच्छृंगन सों लयो = अप्सराद्यों ने उसे गोद में ले लिया अप्सराओं ने उसे बड़े उत्साह से उठा लिया । देव विमानन चढ़ि गयो == देव विमानों में चढ़ कर गया । कवित्त परि पतंग जै सिंघ, (पै) पतंग अपुन तन दज्मे । (इन) नव पतंग गति लोन, करे अरि रि' धज धजे ॥ (उह) तेल ठांम बाति, अनि एकल विरुज्माइय । (e) पंच पर अरि पंच, पंच अरि पंथ लगाइय ॥ २ रनि चारी, बर बरयौ, दइ दाहन दुज्जन दबन । जीव असुरे महि मंडल, और ताहि पुज्जै कवन ॥ छ०१०१ । रु०६७॥ मात्रार्थ - - रू० ६७ - पतंग जयसिंह मारा गया । उसने अपना शरीर पतिंगे के समान [युद्ध रूपी दीपक की लौ पर कूद कर ] जला दिया। शत्रुनों की धज्जी धज्जी उड़ाकर वह पतंग (सूर्य) की गति में लीन हो गया [अर्थात् सूर्य लोक को चला गया ] | जिस प्रकार [जुगनू ] अकेले ही दीपक बुझा देता हैं उसी प्रकार उसने भी [ मरते मरते ] अपने पाँच शत्रुत्रों के पंच ( पंच तत्वों से निर्मित शरीर ) को पंच (पंच तत्वों) में मिला दिया, तथा दुर्जनों (= शत्रुओं) को दवन (अग्नि) का दाहन ( = चाहुति ) देकर रण रूपी श्रेष्ठ कुमारी (कन्या) का वरण किया, महि मंडल के असुरों (यवनों) को उसने जीता (अर्थात् पराजित कर दिया), कौन उसकी बराबरी कर सकता है १ नोट -- (पै), (इन), (उह) पाठ ना० प्र० स० की प्रतियों में नहीं हैं, डॉ० ह्योर्मले है। (१) 'यारे चारे के स्थान पर अन्य प्रतियों में केवल एक 'टिं मिलता है ( २ ) ना० - बासीय ( २ ) ना० : मो० प्रगति ( ४ ) ना० - अप (२) ना०--पंच (६) ना०--- { ________________

( 55 ) शब्दार्थ- 1- रू० ६७ -- परि गिर पड़ा अर्थात् मारा गया । पतंग जैसिंव = पतंग जयसिंह नामक पृथ्वीराज का वीर सामंत था । पतंग का एक अर्थ सूर्य भी होता है जिससे अनुमान होता है कि जयसिंह सूर्यवंशी राजपूत था | पतंग = पतिंगा । अणुन तन=अपना शरीर । दज्भे < दहू = जलाना । नव = नया | पतंग = सूर्य । गति लीन = गति में लीन होकर । (नोट- भारतीय शूरवीरों का यह विश्वास था कि वीर गति पाकर योद्धा सूर्य लोक जाते हैं और सूर्य लोक की प्राप्ति बड़े ही पुरुष व तपस्या द्वारा होती मानी गई है। "वेवे जात मंडल अखंड अरकन के ।" गंगा-गौरव, जगन्नाथदास रत्नाकर ) 1 ठाम < थान < स्थान | तेल टांम= तेल का स्थान अर्थात् दीपक । वाति = बत्ती । श्ररानि < सं० श्रग्नि; ग्रगनि= जुगुनू । 'तेल ठांम बाति ग्रगनि सकल विरुज्भाइव'= जुगुनू जलता हुआ दीपक अकेले बुझा देता है । [ नोट-जुगुनू का दीपक बुझाना अशुभ सूचक माना गया है ]। एकल = केले । श्रप < अप्प अपना | विरुज्भाइय= बुझा देना । रनि रण । कूंचारी=कुमारी कन्या | 'पंच लगाइय' का 'पंथ लगाइय' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ मार्ग पर लगा दिया अर्थात् 'मार डाला' होगा । बर= श्रेष्ठ | बरौ वरण किया । दैइ == देकर । दाहन == (संज्ञा) जलाने का (समिधा या याहुति से तात्पर्य है ) । दुज्जन < दुर्जनशत्रु | दवन < दव = दावाग्नि ! जीतेवजीत लिया । ताहि = उसकी | पुज्जै = बरावरी । कवन = हि० कौन <प्रा० कवन, कवण, कोउण <० कः पुनः । नोट- इस रू० का ह्येोर्नले महोदय द्वारा किया हुआ अर्थ जान लेना भी उचित होगा--- "Patang Jaysingh fell; he burns his body like a moth (into a flame ); a new existence he obtained in the sun having torn many enemies in shreds. (Just as that (moth) by itself puts out the flame of the wick of on oil lamp (by falling into it ) ; so (he), while being killed himself, also killed the enemy, folling five of them to the ground. War he wedded as a virgin, scorning fate and destroying enemies, he defeated the demons on earth. Who else can equal that. pp. 42.48. कवित्त रूपौ बीर पुंडीर, फिरी पारस सुरतांनी । सत्र बीर चमकत, तेज आरुहि सिर ठांनी ॥ (१) ना०-- शस्त्र (२) ए० - तानी । ________________

(GE) दोष औप तुटि किरच, सार सारह जार भारे । मिलि नच्छित्र रोहिनी, सीस ससि उडगन चारे ॥ उठि परत भिरत भंजत अरिन, जै जै जै सुरलोक हुन । कमंपल पंच चव, कौंन साइ कंप्पौ जु धु ॥ छं० २०२ । रु० ६८ । भावार्थ – रू० ६८ - जहाँ वीर [मान ] पुंडीर डटा हुआ था वहाँ सुलतान की सेना ने उसे बेर लिया और अपने चमकते हुए तेज़ शस्त्रों से उसके सिर पर वार किया। उन्होंने अपने भालों से उसका चमकदार टोप टुकड़े टुकड़े कर दिया (उस समय ऐसी शोभा हुई मानों ) रोहिणी नक्षत्र के योग से सर रूपी चंद्रमा के चारों ओर तारे घूम रहे हों। वह गिरता पड़ता और भिड़ता हुआ शत्रु का नाश कर रहा था, [ यह दृश्य देखकर ] सुरलोक में जय जय को ध्वनि हो उठी । [अंत में मारे जाने पर ] उसका कबंध चार पाँच पल तक खड़ा रहा । हे भाई, ध्रुव को कौन टाल सकता है ? शब्दार्थ—रू० ६८-रूप्पौ रोपना, स्थापित करना (यहाँ ' डटे रहने ' पुंडीर है वरन पुंडीर वंशी कोई अन्य बीर है । जहाँ तक अनुमान है से तात्पर्य हैं) । बीर पुंडीर - - यह न तो चंद पुंडीर है और न चामंडराय फिरी = घूमी | पारस = चारों ओर ; पारसी ); [ < प० पालास < प्रा० जिससे मंडल, चक्र की रू० ८४ में वर्णित यह भान पुंडीर है । ( < पार्श्व = निकट); (सं० < पारस्य पल्लास <सं० पर्यास (/परि + स= घूमना ) = घेरा भाँति जत्था या सेना अर्थं निकाले जा सकते हैं ) ] । [ नोट-चंद ने 'पारस' शब्द का व्यवहार रासो के अनेक स्थलों पर किया है । उ०- सम्यो ६१, छ० १६२२-१६२३--" इसी राति प्रकासी । सरं कुमुदिनी विकासी ॥ मंडली सामंत भासी 1 afat कल्लोल लासी ॥ पारसं रज्जि चंदम् । ताररंस तेज मंदम् ||" (प्रभात की शोभा वर्णन) - अर्थात् इस प्रकार रात्रि प्रकाशित हुई, सरों में कुमुदिनी विकसित हुई, सामंतों की मंडली भासित हुई, कवियों ने अपनी कल्लीलें सुनाई, चंद्रदेव का पारस (= घेरा) रुपहला हो गया, तारा- गणों का तेज मंद हो गया । सम्यौ ६१, ० १६२६ -- "पारसयं पसरी रस sir | जनक देव कि सेव पडलि || हालि हलाल रही चव कोदिय । दीह भयौ निस की दिति मंदिय ॥" और सम्यौ ६१ -- "फिरि रुक्यौ प्रथिराज सबर पारस पहुषंगिय । " 'पारस' का अर्थ 'पारसी' नहीं लिया जा सकता । सच बात तो यह है कि 'पारस' शब्द के व्यवहार में न होने के कारण उचित (१) ना० कबंध (१) ना० कोन भाइ कप्प ________________

( ६० ) अर्थ नहीं किये जा सके । 'फिरी पारस सुरतानी' का अर्थ 'सुलतान की सेना तेज < फा० (तेज़) । आरहि < प्रकाश । सार सारह = टुकड़े टुकड़े । ने उसे घेर लिया' ही उपयुक्त होगा ] । सं० आरोह = उठाना | औप <ोप मिलि = मिलने पर । नच्छित्र रोहिनी-रोहिणी नक्षत्र । ससि < शशि - चंद्रमा उडगन < उड्डुगण = तारे । [नोट-रोहिणी नक्षत्र तलवार है, पुंडीर का सर चंद्रमा है, टोप के टुकड़े तारे हैं। कबंध = धड़ | पंच= पाँच । चत्र (चौ) = चार पल पंच चव चार पाँच पज्ञ तक। कौंन = कौन । भाइ= भाई। कंप्पौ = हिलाना, कँपाना, डिगाना । धु ध्रुव । कौंन भाइ कंप्पौ जु घु = हे भाई ध्रुव को कौन टाल सकता है । उठ्यौ उठा रहा अर्थात् खड़ा रहा । जरि जड़ना, मारना । भारे भाले = बरछे । जरि भारे-भाले जड़ कर या मार कर । तेज <सं० तेजस् = आभा, प्रकाश ! कबित दुज्जन सल कूरंभ, बंध पल्हन हकारिय' । सम्हो षां घुरसान, तेग लंबी उपभारियः ॥ टोप डुट्टि बर करिय, सीस पर तुट्टि कर्म । भार मार उच्चार, तार तं नंचि कमधं ॥ तहँ देषि रुद्र रुद्र हस्यो', हय हय हय४ नंदी कह्यौ । कवि चंद सयल" पुत्री चकित, पिषि बीर भारथ नयौ ||कं० २०३ | रु०६६। कवित्त सोलंकी सारंग, धांन पित्तची मुष लगा । वह पंगा नौ ग्रत इतें चहुआन है कंपन दिय पाय, कन्ह उत्तर बिय बिलग्गा ॥ बाजिय । गज गुंजार हुँकार, धरा गिर कंदर गाजिय || जय जयति देव जय जय करहि, पहुपंजलि पूजत रिनह । ss परयौ त सोधै सकल, इक रह्यौ बंधे घुनह ||०१०४ रू०७०/ भावार्थ- रू० ६६ - दुर्जनों को सालने वाले पल्हन के बंधु (=भाई या संबंधी ] कूरंभ ने हाँक लगाई ( या चुनौती दी ) । खुरासान खाँ ने उसका सामना किया और (अपनी) लंबी तलवार ऊपर उठाई तथा (उस पर बार किया जिससे उसका ) टोप [ = शिरस्त्राण ] टूट कर बिखर गया और कबंध से (१) ना० -- सक्कारिय] ( २ ) ना० उभ्भारिय (३) मो० --- भयौ, हा०--- --हहरघौ (४) मो० - हयं ह (३) ना० शैल ए० सवल क्रू० को संयल ! ________________

( ? ) सर टूट गया [अर्थात् धड़ से सिर कट गया ] । ( फिर जब तक कटे हुए लुंठित सिर से) मारो ! मारो ! की ध्वनि उच्चरित होती रही (तब तक उसका ) धड़ ( इस आवाज की ) ताल पर नाचता रहा । यह दृश्य देखकर रुद्र ने भयंकर अट्टहास किया—[ 'वहाँ भयंकर रुद्र यह दृश्य देखकर दुख के आवेग में रो उठे' - थोर्नले । नोट —— 'रुद्र का रोना' अर्थ समुचित नहीं है क्योंकि ऐसा वन हमें पुराणों आदि में नहीं मिलता, शिव का अट्टहास ही प्रसिद्ध है ।] और नंदी हाय हाय करने लगा । चंद कवि कहते हैं कि शैल पुत्री (पार्वती जी) यह नया महाभारत देखकर चकित रह गई । रू० ७०—–[अपने हत बंधु के शव को हूँढ़ते हुए ] सोलंकी सारंग ( अचानक ) खिलजी ख़ाँ के सामने श्रा गया । वह पहले पंगा ( जयचंद ) का भृत्य था परन्तु इस अवसर पर चौहान की ओर था । कन्ह (सारंग के प्राण संकट में देख ) दो घोड़ों के कंधों (= पीठ) पर पैर रखकर खड़े हो गये और हाथी के समान चिग्धारने और गरजने लगे जिससे पृथ्वी, पर्वत और कंदरायें गूँज उठीं । (शत्रु का ध्यान अवश्य ही बँट गया और सारंग बच गया । यह कौतुक देखकर) देवताओं ने जय जय का घोष किया और युद्ध की पूजा में (अर्थात् प्रशंसात्मक युद्ध के लिये) पुष्पांजलि दी । एक (सारंग) सारा खेत (= क्षेत्र, युद्ध क्षेत्र) दूँढ़ता रहा और एक ( कन्ह) चिल्लाने की धुन बाँधे रहा । शब्दार्थ- - रू० ६१-- दुज्जन < दुर्जन । सल सालना, कष्ट देना, छेद करना; (सल <सं० शल्य = भाला) । कूरंभ - अगले रू० ८४ की २१वीं पंक्ति सें हमें इसका दूसरा नाम माल्हन मिलता है। कूरंभ, पल्हन का भाई या निक संबंधी था । बंध < बंधु = भाई, संबंधी । पल्हन --- पृथ्वीराज का वीर लड़ाकू सामंत था । और संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में मारा गया था [ रासो सम्यौ ६१, छं० १४६०-६१ तथा--- परे मध्य विप्पहर । पल्हू पज्जून बंध बर । रज रज तन किय हटकि। कटक कमधज्ज कोटि भर || ईस सीस संहर्यौ । हथ्थ सों हथ्थ न मुक्क यौ सुख हो । वीर वीरा रस तक, मारत रिन कूरंभ कि । ते रवि मंडल मेद्रियें सूर 1 यौ B 1 डोल्यौ न रथ्य संपल्यौ । कित्ति कला नह देपियै ॥ छं० १४६२ । गंग डोलि ससि डोलि । डोलि ब्रांड सक्र डुल । 1 अष्ट थान दिगपाल | चाल चंचाल विचल थल || ________________

(ER) फिरि रुक्यौ प्रथिराज | सबर पारस पहु पंगिय । च्यारि च्यारि तरवारि । बीर कूरंभति सजिय || यि पहुप इक चंदने । एक कित्ति जंपत बयन हथ्थ दरिद्री द्रव्य ज्यौं । रहे सूर निरषत नयन || छ०१४६३ | सं०६१। सम्हो = सामने | उपभारिय= उभारी उठाई। बर करिय= बरकना, बिखरना दुहि = टूटना । तुट्टि=टूटना, कटना । सीस <सं० शीश = सर । टोप = शिरस्त्राण [दे० Plate No. I, राजपूत योद्धाओं के शिरस्त्राण लगे हैं ] ! कर्मध < कबंध = धड़ । तार < ताल | नंचि= नाचता रहा । रुद्र = एक प्रकार के गरण | शिव का एक नाम ; ( वि० वि० प० में देखिये ) । रुद्रह हस्यो भया- नक रूप से हँसने लगे (अर्थात् भयंकर अट्टहास करने लगे) । नंदी - [ <सं० नंदिन] - (१) शिव के एक प्रकार के गण । ये तीन प्रकार के होते हैं— कनक- नंदी, गिरिनंदी और शिवनंदी । (२) यह शिव के द्वारपाल बैल का नाम भी हैं जिसे नंदिकेश्वर कहते हैं । प्रस्तुत कवित्त में शिव के गण से ही तात्पर्य समझ पड़ता है । सयल पुत्री < शैल पुत्री पार्वती; ये हिमालय की कन्या प्रसिद्ध हैं। पिष्पि <सं० प्रेक्ष्य देखकर । वीर = बोरों का । भारथ (अप० ) [ < प्रा० भारह सं० भारत = युद्ध, संग्राम ] = महाभारत । ( उ० - भारथ होय जूझ जो श्रधा । होहिं सहाय श्राय सब जोधा ।' जायसी) । नयो नया - करते उसे रू० ७० --- सोलंकी सारंग = इस वीर के विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि यहीं मारा गया और वे प्रस्तुत कवित्त की अंतिम पंक्ति का अर्थ एक सब के सामने खेत रहा और एक गरजने की धुन बाँधे रहा" हैं; परन्तु इस वीर की मृत्यु यहाँ नहीं हुई है । अगले रासो-सम्यौ में हम पाते हैं। संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में वह पृथ्वीराज की ओर से बड़ी वीरता पूर्वक लड़कर मारा गया था-- "ब्रह्म चालुक ब्रह्म चार । ब्रह्म विद्या वर रष्चिय ॥ केस डाभ अरि करिय । रुधिर पन पत्र विसिप्रिय ॥ are गहिंग अंजुलिय | नाग गहि नासिक तामें ॥ धन सिर फेरि र दुहुँ श्रवन | जाप जापं सुत्र राम || सम्हों परयौ । दुअन तार मन उल्हसिया || मी जुद्धथमि । सुर पुर जा सारंग वसिय ॥ " छं० १५२४, सं० ६१ । नौ भृत-नया भृत्य (नौकर) [नौकरसे सामंत अथवा सैनिक का तात्पर्य है < = घोड़ा। उत्तर = है]। विलग्या <हि० विलग = पार्थक्य, अलग ________________

( ६३ ) उतरा । विय वाजिय = दो घोड़े । उत्तर विय बाजिय= दो घोड़ों पर चढ़ा । धरा=पृथ्वी । गिर < गिरि= पर्वत । कंदर = कंदरा, गुफा | गाजिय= गूँज उठीं। पशुपंजलि < पुष्पांजलि | पूजत = पूजा की, प्रशंसा की। रिनह <रण (की) = युद्ध (की) । इक < अप० इक <प्रा० एक, एक्को, एगो, एओ< संग एक == हि० एक । परयौ सोधे सकल = सारा दूँढ़ता पड़ा रहा। घेत-खेत < क्षेत्र | बंधे=धे | धुनह= धुन | नोट रू० ७० - "इधर जब खिलजी खाँ के मुकाबले में दो तीन अच्छे अच्छे बीर काम आये तब सारंग देव ने उस पर आक्रमण किया, सारंगदेव ने अपने घोड़े को एड़ देकर खिलजी खाँ के हाथी के मस्तक पर जा टपकारा | इस अद्भुत कौशल से इधर तो हाथी चिकार उठा उधर सारंगदेव ने खिलजी खौं को मार कर दो कर दिया ।" रासो-सार, पृष्ठ १०२ । रू० ६६ में जिस प्रकार दीर्घकाय मगर की कल्पना की गई है उसी हँग की एक मौलिक उद्भावना यहाँ भी है। & कवित्त करी मुष्ष आहुर, वीर गोइंद सु अष्ष । कबिल पील जनु कन्ह, दंत दारुन दहि' नब्बै ॥ सुंड दंड भयै पंड, पीलवानं गज मुक्यौ । गिद्ध सिद्ध र वेताल, आइ अषिन पल स्क्यौ ॥ बर वीर परयो भारथ्य बर, लोह लहरि लग्गत * भुल्यौ । तत्तर पान संम्ह सुत" सिंह हक्कि अंबर डुल्यौ ॥ छं० १०५ । २०७१ । भावार्थ - रू० ७१ - वीर गोइंद के संबंधी बहु ने एक हाथी की सूँड वैसे ही पकड़ कर खींची ( या अक्षय वीर गोइंद के संबंधी ने एक हाथी की सूँड़ वैसे ही आहुड (ऐंठ) दी ) जैसे कृष्ण ने कुवलयापीड़ के भयानक दाँत तोड़े थे । सुँड के दाँत टूट जाने पर पीलवान ने उसे छोड़ दिया तथा गिद्धों, सिद्धों और वेतालों ने आकर उस पर दृष्टि जमाई 12 ( परन्तु ) इस वीर युद्ध में श्रेष्ठ योद्धा ( = कनक आहुड) गिर पड़ा, तलवारों के बारों से वह मरी हो गया था, तत्तार खाँ के सामने उसने अपनी वीरता दिखाई थी (और) उसका सिंह सहश गर्जन सुनकर आकाश भी काँप उठता था । शब्दार्थ –६० ७१ -- करी = हाथी । मुष्णन्मुख (यहाँ हाथी की सूँड़ से तात्पर्य है । यह पृथ्वीराज का वीर सामंत था । अगले रू० ८४ (१) ना०--नाहि (२) ना० – गिद्धि सिद्धि (३) ना०--लहरी (३) ना०- लगात (१) ना----सम्हौ सुक्रत - सम् सुकृत । ________________

( ९४ ) 1 - में हम इसका नाम कनक छ पढ़ते हैं । यह गुहिलोत वंश का था । गुहिलोत राजपूतों की एक पदवी थी जिसका प्रयोग समरसिंह और गरुत्र्या गोविंद के साथ अधिक मिलता है । रातो में आ पति और बहु नरेश नाम भी पाये जाते हैं। प्रस्तुत कवित्त में आया हुआ 'गोइंद' प्रसिद्ध गा गोविंद समझ पड़ता है और यदि यह सच है तो उसके दो संबंधी इस युद्ध में मारे गये । [ हु का अर्थ 'ऐंठना' संभव तो था परन्तु 'हुड' सामंत का पूरा विवरण मिल जाने से 'ऐंठना' अर्थ अच्छा नहीं है । 'आह'= ऐंठना--- अर्थ करके भी अनुवाद में अर्थ लिख दिया गया है परन्तु उसका विशेष मूल्य नहीं है ] । अ ( या अंचे ) <सं० श्रा+कृश खींचना । [अ < संश्रय ] | कविल पील <कुवलया पीड़ - यह कंस का हाथी था जिसे कृष्ण ने दाँत तोड़कर मार डाला था । वास्तव में यह दैत्य था परन्तु शाप यश हाथी हो गया था [वि० वि० - महाभारत, भागवत दशम स्कंध ] | दारुन दहि=दारुण कष्ट देकर । दंत = दाँत । नष्= नष्ट करना, तोड़ना । सुंड - हाथी । षंड=खंड, टूटना | मुक्यौ=छोड़ना । गिद्ध = पक्षी विशेष जो बड़ी दूर तक देख सकता है । मरे हुए पशु ही इसका श्राहार हैं। सिद्ध - जिसने योग या तप द्वारा अलौकिक लाभ या सिद्धि प्राप्त की हो । सिद्धों का निवास स्थान सुवर्लोक कहा गया है। 'वायु पुराण' के अनुसार इनकी संख्या ग्रहासी हज़ार है और ये सूर्य के उत्तर और सप्तर्षि के दक्षिण अंतरिक्ष में वास करते हैं ! ये एक कल्प भर तक के लिये अमर कहे गये हैं । कहीं कहीं सिद्धों का निवास स्थान गंधर्व किन्नर आदि के समान हिमालय पर्वत भी कहा गया है । परन्तु प्रस्तुत कवित्त में वर्णित शव भक्षी सिद्ध, कापालिक या वोर पंथी योगियों से तात्पर्य है । सिद्ध का अर्थ 'सिद्धि' भी हो सकता है। ये 'सिद्धि', खप्पर वाली योगिनियाँ हैं जो दुर्गा की परिचारिकायें कही जाती हैं तथा युद्ध भूमि में घूमने वाली मानी गई हैं। बेताल - <सं० बेताल - पुराणों के अनुसार भूतों की एक प्रकार की योनि । इस योनि के भूत साधारण भूतों के प्रधान माने जाते हैं और स्मशानों में रहते हैं । श्राह पिन पल रुक्यौ = श्राकर आँखों के पास रुक गये ( या- श्राकर उसपर अपनी दृष्टि जमाई ) कि कन यह मरे और खाने को मिले । लोह = तलवार | लहरि लहर, (यहाँ तलवारों के 'वार' से तात्पर्य है | ) लग्गत = लगने से । भुल्यौ == भूल गया था अर्थात् स्थान स्थान पर घाव लगने से भँझरी हो गया था। संम्ही सामने। सुक्रत सुकृत = सुंदर (वीरोचित ) कार्ये । सिंह हकि = सिंह सदृश हुंकारा (या गरजा ) 1 अंबर == आकाश | डुल्यौ डोल गया, काँप उठा । ( ________________

( १५ ) नोट- प्रस्तुत कवित्त की अंतिम दो पंक्तियों का अर्थ ह्योनले महोदय ने इस प्रकार लिखा है— "The brave warrior fell in this brave fight, reeling under the repeated strokes of the sword (of his enemy). Tartar Khan in fro t him roared like a lion over his. success, ( so loudly that ) the heavens shook." कवित्त पोलि षभ्ग नरसिंघ, पीि तुटि धर धरनि परंत, परत P. 46. पल सीसह भारि । संभरि कट्टारिय ॥ चरन अंत जरत, वीर कूरंभ तेग थाइ चुक्कत, करौ झरी भर लोह सँभारी ॥ न हय वर चल गयो न क्रमन, क्रम्म न चलै, डुल्यौ न, डुलत तिन परत वीर दाहर तनौ, चामंडां बज्जी लहर || छं० १०६ । रू० ७२ ॥ भावार्थ - रू० ७२ - नरसिंह ( के संबंधी ) ने क्रोधावेश में तलवार खींच ली और खल ( शत्रु ) के सर पर वार किया जिससे उसका धड़ कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा परन्तु गिरते गिरते उसने (नरसिंह के संबंधी के) कटार मार दी । (कटार लगने से इस वीर के) पैर विकट वीर कूरंभ की लोथ की अंतड़ियों से उलझ गये । उसने तलवार का सहारा लेना चाहा परन्तु चूक गया और ( स्वयं अपनी तलवार से घायल जाने के कारण उसके ) लोहू की धार झर झर करके वह चली [ या - ( झरी झर= ) गिरते गिरते उसने तलवार से सहारा लेना चाहा परन्तु चूक गया और बुरी तरह घायल हो गया ] | वह एक पग भी न चल सका न वह हिला और न उसके श्रेष्ठ हाथ ही हिले । उसको गिरते देखकर दाहर का पराक्रमी पुत्र चामंड दुख से परिपूरित हो गया [ या उसके गिरने पर दाहर का वीर पुत्र चामंड युद्ध की लहर ant अर्थात् भयंकर युद्ध करने लगा ] । शब्दार्थ - रू०७२- पति पर उलझ तलवार निकालकर । नोट प्रस्तुत रू० में जिस बोर की मृत्यु का वर्णन है वह अगले रू० ८४ के आधार पर नरसिंह का संबंधी और दाहिम जाति का राजपूत था । इस रू० में चामंड- राय - पुंडीर - दाहिम का नाम, चामंदां, आाया है जिसका वर्णन पढ़कर अनुमान होता है कि वीरगति पाने वाला योद्धा अवश्य ही चामंडराय का संबंधी था । (१) ना० पिझि बज (२) ना० ना०---क्रमन क्रम्मन (४) ना० घाइ (३) मो०-न क्रमन क्रमनव नडुल्ल एन डुलतन । यह वीर नरसिंह नहीं है जैसा कि रासो-सार में लिखा है और जैसा प्रस्तुत 'कवित्त' पढ़ने से जान पड़ता है। नरसिंह नागौर का राजा था ['नरसिंघ एक नागौर पत्ती। रिनधीर राज लीयै जुगत्ति।' रासो सम्यौ ६१, छं॰ ६४५]। नरसिंह का जन्म स्थान समियान गढ़ था और बलभद्र का जन्म स्थान नागौर था 'समियांन गढ्ढ नरसिंघ राइ। पित मात छोरि आए सु भाइ॥' रासो सभ्यौ १, छंद ५८७]। नरसिंह नागौर का शासक था और बलभद्र कूरंभ सभियान गढ़ का; परन्तु Indian Antiquary. Vol Ι, p. 279 में इसका बिलकुल उलटा लिखा है, जो अशुद्ध है। नरसिंह संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में पृथ्वीराज के साथ था और लड़ते हुए मारा गया था। (रासो सम्यौ ६१, छंद १४८२)। षिज्झि=खीझकर। पल सीसह झारिय=खुल के शीश पर वार किया। तुटि धर धरनि परंत=(उसका) धड़ टूटकर (कटकर) धरती पर गिर पड़ा। परत संभरि कट्टारिय=गिरते गिरते उसने कटार मार दी (या—गिरते हुए भी वह कटार सम्हाले रहा)। कूरंभ=यह वही योद्धा है जो पल्हन का संबंधी था और जिसकी मृत्यु का वर्णन पिछले रूपक ६९ में हो चुका है। करारौ=करारा, तगड़ा; कगार, यहाँ लोथ से अभिप्राय जान पड़ता है। कूरंभ करारौ=करंभ की लोथ। झरी कर लोह सँभारी=(१) गिरते गिरते उसने तलवार से सहारा लेना चाहा (२) झर झर लोहू कीधार वह चली। थाइ<स्था=सहारा। चुक्कंत=चूक गया। तेग=तलवार। तिन परत उसके गिरने पर। दाहर तनौ (<तनय)=दाहरराय का पुत्र। चामंडा=चामंडराय। चामंडा बज्जी लहर=(१) चामंड ने तलवार बजाई (२) चामंड (युद्ध की) लहर में बज्जी (<बज्झी=उलझ गया) (३) 'चामंड दु:ख के आवेश से भर गया, (ह्योर्नले)। अंत=अंतड़ियाँ, आँतें।

नोट—"कूरंभराव के पुत्र नरसिंह ने खाँड़ा खींचकर ख्वाजा की खोपड़ी पर मार उसे एक ही बार में खपाना चाहा परन्तु उसने गिरते गिरते नरसिंह के पेट में कटारी भोंक दी जिससे उसके पेट की अंत मेद मज्जा आदि बाहर निकल पड़ी। वह वीर उसकी कुछ भी परवाह न कर करारे वार करता ही रहा।" रासो-सार, पृष्ठ १०२।

प्रस्तुत रूपक के शब्दार्थ में यह बात सप्रमाण निर्दिष्ट की जा चुकी है कि लड़ने वाला वीर नरसिंह नहीं था वरन् नरसिंह का संबंधी था। नरसिंह की मृत्यु का वर्णन रासो-सम्यौ ६१ में इस प्रकार है—

लग्यौ दल सिंघ करपि सु वीर।
वँपे चव सिंघ सु भग्गिय मीर॥

पर्यौ नरसिंह नरव्वर सूर।
तुटै सिर आबध जाम करूर ॥छं॰ १४८२॥

पृ॰ रा॰ ना॰ प्र॰ सं॰ में छं॰ १०६ की प्रथम पंक्ति में 'बल' पाठ की जगह 'पज' है जिसका अर्थ रासो-सार में 'ख्वाजा' किया गया है। पेट में कटार भोंकने और पेट की अंत मेद मज्जा आदि निकलने का वर्णन जैसा रासो-सार में है, प्रस्तुत रू॰ ७२ के आधार पर नहीं है। रासो-सार के अनुसार यह वीर मरा नहीं है परन्तु रू॰ ७२ में उसकी मृत्यु का और अधिक स्पष्ट वर्णन ही क्या किया जा सकता था। सबसे विचित्र बात तो यह है कि रासो-सार वालों ने नरसिंह को कूरंभ का पुत्र तक कह डाला।

भुजंगी

छुटी छंद[९८] निच्छंद सीमा प्रमानं।
मिली ढालनी माल राही समानं ॥
निसा मांन नीसांन नीसांन धूअं।
धूअं धुरिनिं भूरिनं पूर कूत्रं ॥ छं॰ १२७।
सुरत्तान फौजं तिनें पंत्ति फेरी।
मुर्ख लग्गि चहुआंन पारस्स घेरी ॥
भये प्रात सुज्जात संग्राम पालं।
चहुव्वांन उट्ठाय सालो पिथांलं ॥ छं॰ १०८। रू॰ ७३।

भावार्थ—रू॰ ७३—[रात्रि] उनकी इच्छा या अनिच्छा से अपनी सीमा को प्रमाणित करती हुई (अर्थात् अपना कृष्ण अबर फैलाती हुई) आई और फौजों को उसी प्रकार मिली जिस प्रकार थके हुए पथिकों को मिलती है। निशा को आया जानकर दोनों ओर के नगाड़ों पर चोट पड़ी। [फौजों के फिरने और शांति स्थापित होने पर] धूल का अंधड़ (ऊपर से नीचे की ओर) मुड़ा चौर (इतनी धूल लौटी कि) कुएँ भर गये। सुलतान की फौज की पंक्तियाँ पीछे लौटीं और चौहान की सेना ने आगे बढ़कर घेरा डाल लिया [या घेरे के आकार का पड़ाव डाला] (दूसरे दिन) जब रणस्थल में सुंदर प्रात:काल हुआ तो वीर चौहान विशाल शाल वृक्ष सद्दश (युद्ध के लिये) उठा।

शब्दार्थ—रू॰ ७३—छुटी=आई, फैली। छंद निच्छंद=इच्छा या अनिच्छा से। सीमा प्रमानं=सीमा को प्रमाणित करती हुई। ढालनी=ढाल वाले अर्थात् योद्धा या फौज। मालराही=माल ले जाने वाले रास्तागीर अर्थात् कुली। समानं=समानरूप से उसी प्रकार। निसा मांन=निशा को मानकर या आया जानकर। नीसांन=नगाड़े। नीसांन (क्रिया)=निशान पड़ना या चोट पड़ना। धुअं=धुआँ, अंधड़। घूरिनं=धूल। मूरिनं<मुड़ि नम=मुड़कर; [श्री केलाग महोदय 'नम' को कृदंत मानते हैं]। पूर कूअं=कुएँ पूर दिये या भर दिये। पंत्ति=(१) पंक्ति (२)<सं॰ पदाति=पैदल सेना। मुखं लग्गि=आगे बढ़कर। पारस्स=चारों ओर, चक्र और मंडल सदृश, इसका अर्थ सेना भी लिया जा सकता है [कुछ विद्वान् 'पारस्स' को 'परस्पर' का अपभ्रंश भी मानते हैं।] घेरी=घेरा बना लिया। भये=होने पर। प्रात=प्रात:काल। सुज्जात=√जन धातु से क्त वत् सुजात् अर्थात् 'सुंदर उत्पन्न प्रात:काल' हुआ; [सुज्जात<सु+जात (पैदा)]। पालं=खाल (=गड़हा)। पालं<सं॰ स्थल। चहुव्वांन=चौहान। उठ्ठाय=उठा। सालो=शाल वृक्ष। पिथालं (अप॰)<सं॰ पृथुल=मोटा, विस्तृत, विशाल।

नोट—(१) गाथा और प्राकृत की रीति छंद पंक्ति के अंतिम शब्दांतों में अनुस्वार जोड़ने की है इसीलिये हम प्रमानं समानं, धूअं, कुअं, पालं, पिथालं आदि शब्द रासो में पाते हैं।

(२) भानु जी ने अपने ग्रंथ 'छंद: प्रभाकर' में भुजंगी छंद का लक्ष्या 'तीन वराण तथा लघु गुरु' बताया है। रेवातट समय में भुजंगी छंद का नियम भुजंगप्रयात का अर्थात् चार यगण वाला है, अस्तु इस विषय में भ्रम नहीं होना चाहिये। कवि ने भुजंगप्रयात को ही भुजंगी नाम से प्रयुक्त किया है।

(३) पिछले रू॰ ६१, छं॰ ७४ में आये हुए 'बले' शब्द का अर्थ 'फिर' है। वले (गु॰) [<सं॰ वलय]=समय का पुनरावर्तन, फिर; [उ॰—'वली बाढ दे सिली सिली वरि, काजल जल वालियौ किर' ॥८६॥; 'करि इक बीड़ौ वले वाम करि, कीर सु तनु जाती क्रीढ़न्ति'॥९९॥ वेलि क्रिसन रुक्मिणी री। "वाणी जगराणी वले, में चींताणी मूढ॥२॥ वीर सतसई, सूर्य्यमल्ल मिश्रण]। बले<फा॰ (बले) [=लेकिन]> प॰ (बले)=हाँ।

कबित्त

जैत बंध ढहि परयौ, सुलष[९९] लष्षन कौ जायौ।
तहँ झगरी महमाय[१००], देवि हुंकारौ पायौ॥
हुंकारै हुंकार, जूह गिद्धनि उड्डायौ।
गिद्धिनि तें अपछरा, लियो चाहतौ न पायौ॥

अवतर न सोइ उतपति गयौ, देवथांन विभ्रंम बियौ[१०१]
जम लोक न सिवपुर ब्रह्मपुर मान थांन मानै भियौ[१०२] ॥छं॰ १०९।रू॰७४।

भावार्थ—रू॰ ७४—(इस दूसरे दिन के युद्ध में) सुलष को पैदा करने वाला लखन जो जैत का संबंधी था मारा गया। देवी महामाया ने उस (के शव) को हुंकारते और झगड़ते हुए पाया। अपनी हुंकार से उन्होंने (लाश से) गिद्धों के यूथों को उड़ा दिया। गिद्धों से एक अप्सरा ने उसे लेना चाहा परन्तु न पा सकी [महामाया दुर्गा उसे ले गई]। आवागमन के बंधन से मुक्त होकर वह ऊपर चला गया और देवस्थान वालों को इस बात का बड़ा आश्चर्य हुआ कि (वीर लखन) यम लोक, शिव लोक और ब्रह्म लोक न जाकर (सीधा) सूर्य लोक जाकर सूर्य हो गया (अर्थात् सूर्य लोक में स्थान पा गया)।

शब्दार्थ—रू॰ ७४—जैत—जैतसिंह प्रमार। बंध=भाई या अन्य संबंधी। सुलप—लखन का पुत्र था और लखन प्रमार वंश का था (अगले रू॰ ८४ में लिखा है—'पर्यौ जैतबंधं सु पावार भानं')। अतएव सुलख भी प्रमार वंश का था और जैतसिंह प्रमार का संबंधी था। सुलव प्रसार (पावार या परमार) की वीरता के प्रकरण रासो के अन्य आगे के सम्यौ में पाये जाते हैं। संयोगिता अपहरण में पृथ्वीराज की सहायतार्थ यह भी गया था ['परमार सलष जालौर राह। जिन बंधि लिद्ध गजनेस साह।' सम्यौ ६९, छं॰ ६४५] और वीरता पूर्वक युद्ध करके मारा गया ['करि नृपति सार नृप पंग दल। अब्बुअ पति जप सब्ब किय॥ उग्रह्यो ग्रहनु प्रथिराज रवि। सलष अलव भुज दान दिय।' सन्यौ ६१, छं॰ २३६२]। ह्योर्नले महोदय का कथन है कि सुलख इसी युद्ध में मारा गया और यह बात उपर्युक्त प्रमाणों से असत्व सिद्ध होती है। वास्तव में सुलष का पिता लखन प्रमार मारा गया है जिसके लिये ह्योर्नले महोदय ने सम्यौ ६१ के प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि लखन जीवित रहा और सुलख मर गया—परन्तु ये प्रमाण तो उनकी बात का प्रतिपादन करने के स्थान पर उसका खंडन करते हैं क्योंकि ६१ वें सम्यौ का लखन, प्रमार वंश का नहीं वरन् ववेल था। सुलख के मारे जाने के बाद—"दियौ दान पम्मार बलि। अरि सारंग सम षेल॥ मरन जानि मन मझ्झ रत। लरि लष्षन बघ्घेल॥" सम्यौ ६१, छं॰ २३६३। और फिर भीषण युद्ध करके बतघेला वीर भी खेत रहा। यथा—

जीति समर लष्षन बघेल। अरि हनिग षग्ग झर।
तिधर तुट्टि धरनहि धुकंत। निवरंत अद्ध घर॥

तहँ गिद्धारव रुरिग। अंत गहि अंतह लग्गिग।
तरनि तेज रस वसह। पवन पवनां घन वज्जिग॥
तिहि नाद इस मथ्यौ धुन्यौ। अमिय बुंद सति उल्लस्यौ॥
विडर्यौ धवल संकिय गवरि। टरिय गंग संकर हस्यो॥सम्यौ ६१ , छं॰ २३७२।

लष्षन=सुलख प्रमार का पिता और बाबू तथा वार के प्रमार वंशी राजकुमार जैतसिंह का संबंधी था। झगरी=झगड़ते हुए। महमाय देवि=देवी महामाया—दुर्गा। ये भी युद्ध में पहुँचने वाली कही गई हैं [वि॰ वि॰प॰ में देखिये]। नोट—[यदि अप्सरा वीर लखन को ले जाती तो उसे पुनर्जन्म लेना पड़ता परन्तु महामाया के ले जाने से वह आवागमन के बंधन से मुक्त हो गया]। अवतर न=अवतार (=जन्म) न लेना। उतपति गयौ=उत्पत्ति से बच गया। विभ्रंम=आश्चर्य। जम लोक=<सं॰यमलोक—वह लोक जहाँ मरने के उपरांत प्राणी जाते हैं। शिवपुर=(शिवलोक)—शिव जी का लोक, कैलाश। [उ॰—सोने मँदिर सवाँरई और चँदन सब लीप। दिया जो मन शिव लोक महँ उपना सिंहल दीप॥ जायसी]। ब्रह्मपुर=सं॰ ब्रह्मलोक—(१) वह लोक जहाँ ब्रह्मा रहते हैं (२) मोक्ष का एक भेद। कहते हैं कि जो प्राणी देवयान पथ से ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं उन्हें इस लोक में फिर जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता। भान थांन=सूर्य स्थान अर्थात् सूर्य लोक। भानै भियौ=सूर्य में ही प्रवेश कर गया। बियौ<सं॰ वप्=उगा, उत्पन्न हुआ।

नोट—(१) श्री॰ टाँड महोदय ने इस कवित्त का अनुवाद इस प्रकार किया है—

"The brother of Jait lay slain in the field, Sulakh the seed of Lakhan. Where he fell Mahamaya herself descended and mingled in the fight, uttering horrid shrieks. Innumerable vultures took flight from the field. In her talons she bore the head of Sulakha, but the Apsaras descended to seize it from the unclean, Her heart desired but she obtained it not! Where did it go? For Sulakha will have no second birth. It caused amazement to the gods, for he entered none of their abodes. He was not seen in Yama's realm, not in the heaven of Siva, not in the Moon, nor in the Brahmapur, nor in the abode of Vishnu, Where then had be gone? To the realm of Sun," (२) विभिन्न लोकों के वर्णन 'विष्णु पुराण' (२/७/३-२०) में पढ़ने को मिलेंगे, परन्तु विभिन्न पुराणों में भिन्न भिन्न कथायें मिलती हैं और चंद वरदाई का मत भी अपना निराला है।

(३) अगले रू॰ ७५ से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सुलख नहीं मारा गया है वरन् उसका पिता मारा गया है—

"तिहित वाल ततकाल सतष बंधव ढिग आइय" अर्थात् एक वाला तत्काल सुलष के बाँधव के पास आई। आश्चर्य तो यह है कि ह्योर्नले महोदय ने भी इसका यही अर्थ लिखा है परन्तु रू॰ ७४ के अर्थ में सुलख की मृत्यु लिख गये हैं। जहाँ तक मेरा अनुमान है उन्हें सुलख और सलख तथा लखन प्रसार और लखन बघेल के समझने में भ्रम हो गया है।

कवित्त

तन झंझरि पंवार पर्यौ घर मुच्छि घटिय[१०३] बिय।
वर अच्छर बिटयौ, सुरग मुक्के न सुर गहिय[१०४]
तिहित बाल ततकाल[१०५], सलप बंधव ढिग आइय।
लिषिय अंग बिह्य[१०६] हथ्थ, सोई वर बंचि दिषाइय॥
जंमन मरंन[१०७] सह दुह सुगति, नन मिट्टै भिंटह न तुअ।
ए बार सुवर बंटहु नहीं, बंधि लेहु सुक्की बघुअ॥ छं॰ ११०। रू॰ ७५ ।

दूहा


रांमबंध कौ सीसवर, ईस गह्यौ कर चाइ।
अथ्थि[१०८] दरिद्री ज्यौं भयो, देपि देपि ललचाइ ॥ छं॰ १११। रू॰ ७६।

दूहा


जाम एक दिन चढ़त वर, जंघारौ झुकि बीर।
वीर प्रेम तत्तौ पर्यौ, धर अष्णारे मीर॥ छं॰ ११२। रू॰ ७७।

भावार्थ—रू॰ ७५—पामार का शरीर झँझरी हो गया और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा दो घड़ी तक मूर्छित पड़ा रहा। अप्सरायें (स्वर्ग में रहते रहते और देवताओं का वरण करते करते) कब उठीं अतएव उन्होंने स्वर्ग का बास और देव वरण छोड़ दिया (और नीचे मृत्युलोक में युद्धस्थल पर आई। एक बाला तुरंत सुलख के बांधव (पिता लखन प्रमार) के पास आई और उसके ललाट पर लिखा हुआ विधि का विधान पढ़ कर सुनाया। (फिर बोली कि) जन्म और मरण साथ ही साथ हैं; (परन्तु) वीरों के लिये ये दोनों सुगतियाँ हैं: ये अवश्यंभावी हैं (मिटने वाली नहीं हैं), तुम अपनी मृत्यु पर निराश न हो। [जान पड़ता है कि सुलख के बाँधव ने पहले उसके प्रस्ताव का विरोध किया था क्योंकि वह कहती है कि] हे प्रिय, इस बार मेरे प्रस्ताव का विरोध न करो और मेरे समान सुख देने वाली (या सुन्दरी) बधू को स्वीकार ही कर लो।

रू॰ ७६—ईश (शिव) ने राम के संबंधी का श्रेष्ठ सर [अपनी मुंड-माला में डालने के लिये] बड़े चाव से उसी प्रकार लेना चाहा जिस प्रकार दरिद्री मनुष्य धन देखकर ललचाता है (और उसे लेना चाहता है)।

रू॰ ७७—एक याम (=पहर) दिन चढ़ने पर वीर जंधारा युद्ध में झुका या कूदा (परन्तु) मीर से युद्ध करके वह जलते हुए बारा सदृश पृथ्वी पर गिर पड़ा।

शब्दार्थ—रू॰ ७५—पांबार=प्रमार। पर्यौ धर=पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुच्छि=मूर्च्छित। घटिय=घड़ी; (यह चौबिस मिनट का समय माना गया है)। विय=दो। विटयौ<(मराठी) विटनेम=ऊवना। सुरंग मुक्के=स्वर्ग [धि॰ वि॰ प॰] छोड़ दिया। सुर गहिय=देव वरण। तिहित=तहाँ; उन्हीं में से। बाल=बाला। ततकाल<तत्काल। बंधव<बांधव=बंधु, भाई, नातेदार। सलष बंधव=लखन का बांधव (पिता) लखन प्रमार। ढिग आइस=निकट आई। अंग=शरीर (यहाँ ललाट से तात्पर्य है क्योंकि ब्रह्मा की रेखायें वहीं पर लिखी हुई मानी गई हैं)। बिह्य<विधि=ब्रह्मा। हृथ्थ=हाथ। वर=श्रेष्ठ। वंचि दिपाइय=बाँच कर दिखाया। जंमन=जन्म। सह=साथ। दुह=दोनों। सुगति=सुन्दर गतियाँ। नन मिट्टै=न मिटने वाली अर्थात् अवश्यंभावी। मिंटह न तुअ=तुम निराश न हो। एवार=इस बार। सुबर=सुन्दर वर (अर्थात् प्रियतम)। वंदहु<(मराठी) बाटणेम=झगड़ना। बंटहु नहीं=झगड़ा न करो। बंधि लेहु=बाँध लो या स्वीकार कर लो। सुक्की वधुअ=सुख देनेवाली बधू।

रू॰ ७६—राम बंध=राम का बंधु—(यह रघुवंशियों की जाति का राम है जिसका विवरण पीछे दिया जा चुका है। उसके बंधु (संबंधी) का नाम प्रिथा या प्रथा था। अगले रू॰ ८४ में वर्णित मरे हुए योद्धाओं में वह तीसरा है)। इस=शिव। गह्यौ कर चाइ=हाथ में चाव से पकड़ना चाहा।अथ्थि<सं॰ अर्थ=धन; [अथ्थि<सं॰ अस्थि=हड्डी-ह्योर्नले]।

रू॰ ७७—जाम<सं॰ याम (तीन घंटे के बराबर समय)=प्रहर (विकृत रूप पहर)। [नोट—सूर्योदय होने पर अर्थात् लगभग छै बजे (दूसरे दिन) युद्ध प्रारंभ हुआ था। पहले घंटे में जैत का संबंधी गिरा दूसरे में लखन प्रमार और तीसरे में राम का संबंधी]। झुकि=झुका (युद्ध के लिये)। तीर=बाण। जेय था जेम=तरह, समान, भाँति। तत्तौ=गरम या जलता हुआ। तत्तौ पर्यौ=जलता हुआ गिरा। घर=भूमि, धरती। अप्पारे=अखाड़ा करके अर्थात् युद्ध करके। जंघारौ=योगी जँवारा। जंबारा—यह रुहेल खंड के दक्षिण पूर्व के तुअर वंशी राजपूतों की एक बड़ी और लड़ाकू जाति है। भूर और तरई जँवारे इसकी दो शाखायें हैं। धप्पूधाम की अध्यक्षता में ये इस देश में आकर बसे थे। धप्पूधाम की वीरता और बदायूँ के नायक से भीषण मोर्चा लेने पर उनकी अनेक कवितायें सुनी जाती हैं। एक समय कोइल (अलीगढ़) के समीप ये बड़े शक्तिशाली थे और इनकी चार भिन्न चौरासियाँ थीं। पुंडीरों के साथ इनके बराबर के संबंध होते हैं। ये अपनी लड़कियाँ चौहानों और वड़गूजरों को देते हैं तथा भाल, जैत और गुहिलोतों की लड़कियाँ पाते हैं। [Races of N.W.Provinces of India, Elliot, Vol І, p. 141]। जंवारा जो इस युद्ध में मारा गया है, उसका मूल नाम न तो इसी रूपक में है, न अगले रू॰ ७८ में और न रू॰ ८४ में ही। जंवारा जाति के वीर पृथ्वीराज की सेना के नायक रहे हैं। भीम जंवारा जिसका वर्णन रासो सम्यौ प्रथम में है, पृथ्वीराज के साथ कन्नौज गया था और उसने लौटते समय बड़ा वीर युद्ध करके प्राण दिये थे [रासो सम्यौ ६१, छं॰ ११६, २४५०-५४]—

घरिय च्वार रवि रत्त। पंग दल बल आहट्यौ॥
तब जंघारौ भीम। घ्रंभ स्वामित तन तुट्यौ॥
सगर गौर सिर मौर। रेह रष्षिय अजमेरिय॥
उड़त हंस आकास। दिट्ठ घन अच्छरि वेरिय॥
जंधार सूर अवधूत मन। असि विभूति अंगह घसिय॥
पुच्छ यौ सुजान त्रिभुवन सकल। को सु लोक लोकैं बसिय॥छं॰ २४५४॥

नोट—रू॰ ७५—के अंतिम दो चरणों का अर्थ डॉ॰ ह्योनले के अनुसार इस प्रकार है—"Birth and death these two painful states, do not cease in meeting with thy (नतुअ<नतिअ, नाती=दौहित्र और इसीलिये संबंधी) kinsmen; this time beloved, do not dispute (the matter,) but accept in me a resplendent wife," ।

और रू॰ ७६ का अर्थ उन्होंने इस प्रकार किया है—

"The head of the kinsman of Rama now Isa with his hand desired to take, like a man who has become a beggar covets a bone whenever he sees it," p. 49.

कवित्त

जंधारौ जोगी जुगिंद, कढ्यौ कट्टारौ।
फरस[१०९] पानि तंगी त्रिसूल, पष्षर[११०] अधिकारौ॥
जटत बांन सिंगी विभूत, हर बर हर सारौ।
सबर सद्द बद्दयौ, विषम दग्गं धन झारौ[१११]
आसन सदिट्ठ निज पत्ति में, लिय सिर चंद अम्रित अमर।
मंडलीक राम रावत[११२] भिरत, न भौ बीर इत्तौ समर॥छं॰ ११३। रू॰ ७८।

भावार्थ—रू॰ ७८—जंघार (या=जंघारा), योगियों में योगीन्द्र (शिव) सदृश दिखाई पड़ा; (उसके एक हाथ में) खुली हुई कटार थी, एक हाथ में फरशा, (पीठपर) ऊँचा त्रिशूल और बाधँवर था। सर पर जटाओं का जूट बाँधे, बाण तथा सिंगी बाजा लिये, और (शरीर में) भभूत मले हुए वह सर्व नाशक शिव सदृश दिखाई पड़ता था। उसने शाबर मंत्रों का उच्चारण करके विषम मद में भरने वाली वायु फैला दी। [अब वीर गति प्राप्त हो जाने पर] वह (स्वर्गलोक में) अपनी (योगियों की) पंक्ति में देखा जा सकता है; उसके सिर पर अमरत्व प्रदान करने वाला अमृत से युक्त चंद्रमा सुशोभित है। मंडलेश्वर राम और रावण के युद्ध के बाद संसार में ऐसा युद्ध अब तक न हुआ था [बा—राम रावत के युद्ध से अब तक समर भूमि में ऐसी वीरता न देखी गई थी—ह्योर्नले]।

शब्दार्थ—रू॰ ७८—जोगी जुगिंद=योगियों में योगीन्द्र सदृश। कढ्यौ कट्टारौ=कटार काढ़े हुए। फरस=फरशा। पानि<सं॰ पाणि=हाथ। तुंगी<तुंग ऊँचा। त्रिसूल<सं॰ त्रिशूल। पष्षर=जिरह बखतर, (यहाँ बाधं बर)। अधिकारौ=अधिकार में (अर्थात् सुसज्जित)। जटत=जटाओं का जूड़ा। बांन<बाण। सिंगी=सींग का वाद्य विशेष। बिभूत=भभूत। हर बर=श्रेष्ठ शिव। हर सारौ=सब हरने वाले या सर्वनाशक। सबर<सं॰ शाबर=मंत्र तंत्र (उ॰—'शावर मंत्र जाल जेहिं सिरजा।' रामचरित मानस)। सद्द<सं॰ शब्द। बद्दयों (बढ्ढयो)=बढ़ाया। सवर सद्द बदयौ=शाबर मंत्रों का उच्चारण किया। विषम दाग्गं घन झारौ=(१) एक प्रकार की मद में भरने वाली वायु फैल गई (२) विषम (दग्गं<दृग) नेत्रों से अग्नि भरने लगी। सदिट्ठ<सदृष्टि=देखा गया। अम्रित<अमृत। अमर=अमरता (देने वाले)। मंडलोक=मंडलेश्वर। राम=अयोध्या के राजा इक्ष्वाकु वंशी महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र जो ईश्वर या विष्णु भगवान् के गुरू अवतारों में माने जाते हैं। रावन<सं॰ रावण (=जो दूसरों को रुलाता हो)। लंका का प्रसिद्ध राजा जो राक्षसों का नायक था और जिसे युद्ध में भगवान् रामचन्द्र ने नारा था। राम रावत—पृथ्वीराज की सेना का एक वीर योद्धा था। [रावत—यह छोटे राजपूतों की उपाधि है। गढ़वाल के राजपूत कस्सी नामी पहाड़ी जाति से विवाह संबंध करने के कारण बहिष्कृत किये गये थे। इनमें जो अच्छे रह गये उन्होंने 'रावन' उपाधि ग्रहण कर ली। चंदेल राजपूतों की चार शाखायें भी राजा, राव, राना और रावत हैं। Races of N. W. Provinces of India. Elliot, Vol. І, pp. 24, 72, 116, 293 में रावतों का वि॰ वि॰ है]। ह्योर्नले महोदय का मत है कि जंधार भी रावत था परन्तु जोगी होने के कारण जाति च्युत हो गया था। इत्तौ=इतना;ऐसा।

नोट—'रावन' और 'रावत' पाठों में 'रावन पाठ अधिक उचित और उपयुक्त है। राम रावण का युद्ध प्रसिद्ध है और राम रावत को जानने वालों की गणना नगणय है।

कवित्त

सिलह सज्जि सुरतांन, झुक्कि बज्जे रन जंगं।
सुने अवन लंगरी, वीर लग्गा अनभंगं॥
वीर धीर सत मध्य, वीर हुकंरि रन धायौ।
सामंतां सत मद्धि, मरन दीन भय सायौ॥
पारंत धक्क हालात रिन[११३], षग[११४] प्रवाह पग पुल्लयौ।
बिव्भूति[११५] चंद अंगन तिलक, वह्रि वीर हकि दुल्लयौ॥छं॰११४। रू॰ ७९॥

भावार्थ—रू॰ ७९—सुलतान कवच और अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर शुद्ध भूमि में जंग करने के लिये झुका। अपने कानों (यह) सुनकर [या—यह सुनकर] वीर लंगरी राय मुकाविले के लिये चला। सात धैर्यवान योद्धाओं के बीच (=साथ) वह वीर हुङ्कारता हुआ रण में दौड़ा (अर्थात् युद्ध भूमि में कूदा)। सात सामंतों के बीच (=साथ) उसने (शत्रुओं में) मृत्यु का दीन भय छा दिया। [रणभूमि में] धक्का देते और हाँक लगाते हुए उसने अपनी तलवार चलाने की कुशलता से (शत्रुओं की) तलवारों (की मूठें) ढीली कर दीं। (तब) चंद कवि कहते हैं कि तिलक लगाये और अंगों में विभूति युक्त वीर ने हँसते हुए हाँक लगाई[या—'तब चंद<चंद्र=(स्वच्छ) विभूति अंगों में मले हुए वीर ने हँसते हुए हाँक लगाई' या—('उसकी यह अनुपम वीरता देवकर) अंगों में भभूत मले हुए और ललाट पर चंद्रमा सुशोभित किये हुए (शिव ने) उसे हँसते और पुकारते हुए उत्साहित किया', ह्योर्नले]।

शब्दार्थ—रू॰ ७९—सिलह<अ॰ =कवच। झुकि बज्जे रन जंगं=रण में जंग करने के लिये झुका। सज्जि=(अस्त्र शस्त्र से) सुसज्जित होकर। श्रवन<सं० श्रवण=कान। लंगरी=लंगरी राय का वर्णन पहले आ चुका है। अगले रू॰ ८० में लंगा नाम मिलता हैं और रू॰ ८१ में लंगा—लंगरी राय आया है। लंगरी जाति के राजपूतों का ठीक पता नहीं चलता। "लंगह, चालुक्य या सोलंकी वंश के राजपूतों की एक शाखा थे। लंगह राजपूत मुलतान के समीप रहते थे। इनका पता अब नहीं चलता, कुछ मार डाले गये और कुछ मुसलमान बना लिये गये," [Rajasthan, Tod. Vol. I, p. 100]। लंगह और लंगा नामों में बहुत कुछ अनुरूपता है। ह्योर्नले महोदय का अनुमान गलत हैं कि लंगरी राव इसी युद्ध में मारा गया। प्रभाग अगले रूपक ८१ की टिप्पणी में देखिये। लग्गा=(युद्ध में) लगा। अनभंगं=पिना (साहस) भंग हुए, अर्थात्, निर्भयता से। धीर=धैर्यवान्। मध्य (मद्धि)=बीच में (यहाँ 'साथ' से तात्पर्य है)। सानंतां सत मद्धि=सात सामंतों के बीच(=साथ)। मरन दीनं भय सायौ=मरने का दीन भय छा दिया। पारंत धक्क=धक्का देते हुए। हाकंत रिन=रण में हाँक लगाते हुए। पग प्रवाह पग बुल्लयौ=तलवार के प्रवाह से तलवारें खोल दीं अर्थात् तलवार चलाने की कुशलता से तलवारों की मूठें ढीली कर दीं। पारंत धक्क हकंत रिन=उनके हृदयों को विचलित करते हुए और रण में हाँक लगाते हुए। हसि=हँसते हुए। (बहसि=बदावदी करते हुए)। हकि=चिल्लाकर। बुल्लयौ=बुलाया। अंतिम पंक्ति का व्यर्थ एक विद्वान् के अनुसार यह भी हैं—भभूत, चंदन और तिलक से सुशोभित लंगरी ने अपने साथियों को प्रोत्साहित किया (या) शिव ने हँसकर उसे अपने पास बुला लिया (कि इसको मेरे गणों में होना चाहिये)। परन्तु लँगरी राय अभी मरा नहीं है अतएव दूसरा अर्थ करना असंभव है।

नोट—"उसके पश्चात् सुन्दर केशर मय चंदन की खौड़ दिये, हिये पर पुष्प माला धारण किये हुए, वीरता के छत्तीसों वस्त्र लिये लंगरी राय ने पसर की।" 'रासो-सार', पृ॰ १०२ ।

कबित्त

लंगा लोह उचाइ, पर्यौ घुम्मर घन मज्झै[११६]
जुरत तेग सम तेरा, कोरे बद्दर कछु सुज्झै[११७]
यौं लग्गौ सुरतांन, ज्यों[११८] अनल दावानल दंगं[११९]
ज्यों लंगूर लग्गया, अगनि अग्गै[१२०] आ लंगं[१२१]
इक मार उझार अपार मल, एक उभार सम्झारयौ[१२२]
इक वार तर्यौ दुस्तर रूपै, दूजै तेग उमारयौ॥ छं॰ ११५ ।रू॰ ८०।

भावार्थभावार्थ—रू॰ ८०—लंगा तलवार उठाये हुए शत्रुओं के बीच में घूम रहा था। तलवार पर तलवार के वार पड़ने से (उसी प्रकार की बिजली की लपक निकलती थी जैसी कि) बादलों के किनारे के समीप दिखाई पड़ती है। (लंगा) सुलतान (गोरी) से (युद्ध में) उसी प्रकार लगा जिस प्रकार अग्नि दावाग्नि में दग उठती है (अर्थात दावानल वन में लग जाती है)। लंगा उसी प्रकार आगे बढ़ा जिस प्रकार लंगूर (वीर हनुमान) (लंका में) आग लगा कर बड़े थे। एक बार में उसने अखाड़े के मल्लों (अर्थात् विपक्षियों) को उझाल दिया और दूसरे बार में उसने उन्हें झाड़ कर एक जगह इकठ्ठा कर दिया। जब उसने एक बार किया तो (उसके सामने शत्रुओं का) रुकना ही कठिन हो गया और फिर दुबारा उसने तेग उठाई (अब शत्रु की रक्षा कैसे होगी)। या—'एक बार तो वह कठिनाई से (शत्रु के बार से) बक्षा परन्तु तुरंत ही उसने फिर तलवार ऊपर उठाई'—ह्योर्नले।

शब्दार्थ—रू॰ ८०—लंगा=वीर लंगरी राय। लोह=तलवार। उचाइ=उठाये, ऊँचा किये। घुम्मर=घूमता हुआ। मज्झै<मध्ये=बीच में। बद्दर=बादल। यौं लाग्गौ सुरतांन=सुलतान के वह इस प्रकार लगा। दंगं=दग उठना दावानल=दावाग्नि। लंगूर=हनुमान, जिन्होंने लंका में आग लगा दी थी, [वि॰ वि॰ प॰ में]। इक मार=एक मार में अर्थात् तलवार के एक बार में। उझार=उझाल देना, विखराना, तितर बितर करना। अषार=अखाड़ा [यहाँ युद्धभूमि से तात्पर्य है]। मल<मल्ल= योद्धा। एक उझार=एक उझाल अर्थात् बार में। सज्झारयौ=[पंजाबी सम्झ=साझा] भाड़ कर एक स्थान पर कर देना, इकठा कर देना। इक वार=एक (तलवार के) बार में; एक बार। तर्यौ=तरना, बचना (या) तरा, बचा। दुस्तर=कठिन। रुपै=रूप। दूजै=दूसरी बार। उभारपौ=उठाई, उभारी।

नोट—डॉ॰ ह्योर्नले प्रस्तुत रूपक की अंतिम दो पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार करते हैं—

"Like a wrestler in the arena he with one stroke scattered (his enemies), with another sweep he gathered them; at one moment with difficulty he escaped (his enemy's stroke), at the next he again uplifted his sword." p. 52.

कुंडलिया

तेग झारि उज्झारि बर, फेरि[१२३]उपम कवि कथ्थ।
नैंन बांन अंकुरि बहुरि (परैं), तन तुट्टै यहि हथ्थ॥
तन तुट्टै वहि हथ्थ, फेरि बर वीर सवीरह।
मरन चित्त संचयौ, जनम तिन[१२४] तजी जंजीरह[१२५]
हथ्थ बथ्थ अहित्त फिर[१२६], तक्के उर बहु वेगा।
लंगा लंगरि राय, बीर उच्चाइसु तेगा ॥ छं॰ ११६।रू॰ ८१।

भावार्थ—रू॰ ८१—[लंगा लंगरीराय शत्रुओं को] अपनी श्रेष्ठ (अच्छी, मज़बूत और तेज़) तलवार झाड़ करके (या तलवार के वार करके) उझाल रहा था। कवि उसकी फिर उपमा कहता हैं। (कुछ समय बाद लंगरी के) नेत्र मैं एक बाण घुस गया और शरीर से वायाँ हाथ कट गया (या—शरीर का बायाँ हाथ टूट गया)। (यद्यपि) शरीर से वायाँ हाथ कट गया फिर भी उसका वीरोचित उत्साह कम नहीं हुआ। उसने मन में विचारा कि (युद्ध भूमि में) मृत्यु होने से (फिर) जन्म लेने का बंधन छूट जायेगा। उसका हाथ और कमर (या-बथ्थ=वक्षस्थल) वायरल हो चुके थे फिर भी उसने (लंगरीराय ने आवागमन से मुक्त होने की बात पर दृढ़ निश्चय करके और मृत्यु की परवाह न कर ) ( शत्रु के ) वक्षस्थल [ का निशाना ] ताक कर तलवार ऊपर उठाई।

शब्दार्थ--रू० ८१.-उपस =उपमा । कथ्थ ( प्रा० )<सं० कथ्=कहना । नैंन = नेंत्र । बांन=वाण । अंकुरि=घुसना । बहुरि=फिर । तुई-= टूटना, कटना । बहि=बहना (ह्योर्नले); वायाँ । बहि हथ्थ = बायाँ हाथ । फेरि बर वीर सवीरह=फिर भी श्रेष्ठ वीर सबीरह (अर्थात् वीरता पूर्ण रहा); फिर भी उल श्रेष्ठ वीर का वीरोचित उत्साह कम नहीं हुआ । मरन चित्त सिंचयौ=उसने अपने मन में मरने की बात सिंचयो (सोची) । जनम तिन तजी जंजीरह=उसने जन्म [ अर्थात् वीरता पृथ्वी पर पुन: जन्म लेने ] की बेड़ी त्याग दी । (साधारणत: मृत्यु होने पर आवागमन लगा रहता है परन्तु युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त होने पर मुक्किं हो जाती है और अवागमन की बंधन छुट जाता है-- ऐसा तत्कालीन क्षत्रिय योद्धाओं का विश्वास था)। हथ्थ (प्रा०)<सं० हस्त=हाथ । बथ्थ(प्रा०)<सं० वसि्त= कमर । आहित<सं० आहत । बथ्थ हित= उसका हाथ और कमर (या वक्षस्थल) घायल हो चुके थे; (फिर उसने अपना हाथ कमर पर रक्खा–होनले)। फिर तक्के=फिर (निशाना) ताककर । उर=हृदय या छाती । बहु बेगा=बड़े वेग से। फिर तक्के उर बहु वेगा= फिर बड़े वेग से ( शत्रु के ) बक्षस्थल ( का निशाना ) ताककर । वीर उचाइसु तेग = बीर ने तलवार उठाई। फिर तक्के उर बहु बेगा--कुछ विद्वान् ‘उर' का 'ओर' शाब्दिक अर्थ लेकर इस पंक्ति का अर्थ करते हैं कि—फिर बड़े वेग से उस ओर ताककर।

टिप्पणी--(१)"The interpretation of this whole stanza is very obscure". Hoermle, परन्तु ऐसी कोई कठिनाई इसके शब्दार्थ और भावार्थ में नहीं प्रतीत होती है।

(२) डॉ० ह्मोर्नले महोदय का अनुमान है कि लंगरी राय की इस युद्ध में नृत्यु हो गई परन्तु यह भ्रम पूर्ण है। लंगरी-राय संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में था और बड़ी वीरता पूर्वक लड़कर ( रासो सम्यौ ६१, छं० ६७३-१००४ ) मारा गया, (संजमह सुअन लैं चली रंभ । सब लोग मद्धि हूँऔ अचंभ ।' छं० १००४) । किस प्रकार यह उद्भभट वीर पंगदल को परास्त कर राजमहल में घुस पड़ा और किस प्रकार उसका आधा धड़ लड़ता रहा, यह वहीं पढ़ने से विदित होगा। चंद वरदाई ने उसी स्थल पर लंगरी राय की प्रशंसा में निम्न तीन वित्त कहे हैं...

एक जुद्ध लंगरिय । आय चौकी सम जुट्यौ ।।
एक अंग लंगरिय । तीन लष्पह ही पुट्यौ।।
सार सार उछरंत । परी गिद्धारव भप्पन ।।
गज बाजित्र निहाय । वजि उत्तराधि दण्जिन ।।
इम भिर्यौ लंग पंगहि अनी । हाय हाय मुघ फुट्टयौ ।।
हल हलत सेन असि लष्य दल।चौकी चौरंँग जुट्टयों।।छं०१००६।।

मंत्री राव सुमंत। हथ्थ विंटचौ सचलंतौ।।
दुजाई दिल्लीप कोप । ओप कुझरनि बढ्तौ ।।
हालो हल कनवज । मंझ केहरि कूकंदा ।।
संजम' राव कुमार । लोह लग्गा लूसंदा ।।
न्च हुशान महो। जुद्ध हुथ। ग्रेहा गिद्ध उड़ाईयाँ।।
चहुआन महोवैं युद्ध हुआ ।ग्रेहा गिध्द उड़ाइयाँ ।।छं० १७०७ ।।

एक कहै अप्पान । एक कहि बंधि दिवाना ।।
बंधौ वंधन हार । मार लध्दी सिर कान्हा ।।
वावारौ बर तुंग । घग्ग साहै विरुझाना ।।
लंगी लंगर राव । श्रध्द राजी चहुआना ।।
उरतान ढंकि कमधज्ज दल । संजम राव समुध्द हुआ ।।
प्रारंभ जुद्ध जुड़े सवले । चलि अलि बीर भुजंग हुआ।।धं०१००८।।

अगले रासो सम्यौ ३१ में भी लंगरी राय के युद्ध का वर्णन मिलता है--

'लग्यौं लंगरी लोह लंगा प्रमानं ।
पगे पेत पंडबौ पुरासान पानं ।।'छं०१४४।।

'रासो सार' भी लंगरी राय की मृत्यु का वर्णन इस युद्धकाल में नहीं करता।

(३) लंगरी राय---पृथ्वीराज के सौ सामंतों में संजमराय का यह पुत्र भी था । यह बड़ा ही पराक्रमी तथा पक्का धनुर्द्धर् था---

'संजन राय कुमार बल। करि संगम नृप द्रंम।।
इक्क मिक्क एकत भए। अप्प चम्मर् पसु चम्मर्।। छं० ३१।।
गजन कुंभ जिस हथ्थ हनि। फारि चीर धरि डार।।
संजम राय कुमार सौ। वथ्थन मारि पछारि।। छं० २२।।
रीछ रोझ: वाराह हनि। दठ्ठन बढ्ढे कोरि ।।
तिते जीव उर मझझत। कढि जम दढ्ढे फोरि'।। छं० २३।।

गिरि परवत नद वोह सर ! लंधत लगी न वार ।।
लंगा इक्कन लंघयौं । अनी धार धर घार ।। छं०२४।। सम्यौ ५।।

इसका पिता संजन राय कम स्वामिभक्त नहीं था ! महोबा युद्ध में पृथ्वीराज के मूच्छित होने पर एक गिद्भिनी उनके सर पर आ बैठी और आँख निकालने लगी । संजम राय में यह दृश्य देखकर गिद्धन को अपने शरीर का मांस काट काट कर खिलाना प्रारंभ कर दिया और इसी में प्राण दे दिये---

लोह लागि चहुबान । परे मूरछा हैं धरतिय ।।
उड़ गीधनि बैठि कै । चुंच बाहैति विरत्तिय ।।
देष्यौ संजम राय । नृपति इग दाढ़ति पंछिन।।
अपने तन कौ मासु । काटि भषु दियौ ततच्छिन्न ।।
अपने सु नयन देष्यौ नृपति ! अंत समय भ्रम मल्लियव।
आये विवान बैकुंठ के । देह सहत धरि चल्लियव ।। छं० ८१३, महोवा समय ।।

पृथ्वीराज ने संजमराय के इस अपूर्व वलिदान पर उसके पुत्र(लंगरीराम) को आधी गद्दी का आसन और आधे राज का पट्टा दिया---

संजम राय कुंदर कौ । बोलि हजुर नरेस । हय गय मनि मानिक वकसि । अध आसन देस।। छं०८२८ ।

महोबा समय ।'

शशिव्रता हरण में गये हुए सामंतों के साथ लंगरी राय भी देवगिरि गया था--

चढ्यौ लंगरी राय लंगा सुबीर ।।
किधौं बाय वढ्यौ बुअं जानि धीरे ।।" छं० २१३, सभ्यौ २५ ।।

प्रस्तुत समय २७ में हमने लंगरी राय की बीरता का हाल पढ़ा ही हैं। लंगरी राय की मृत्यु इस युद्ध में नहीं हुई जैसा कि कुछ विद्वानों का अनुमान है, वह बहुत बुरी तरह से घायल अवश्य हो गया था । अगले समय ३१ में उसके पराक्रम का हाल फिर पढ़ने को मिलता है-

'लग्यो लंगरी लोह लंगा प्रमानं।
पगे घेत पंड्यौ पुरासान पानं ।।छं० १४४, सम्यौ ३१।'

समय ४३ में जो शहाबुद्दीन से युद्ध का वर्णन है उसमें भी लंगरों का नाम आता है---[ जू चल्यौ लंगरीराइ रन्न जंग ।। छं० ३१ ]।'भीम वध' समय में भी लंगरी राय चौहान के साथ था--- लंगरी शव तहँ बैठि आई। जगि जुद्ध सभय जनु अगनि बाइ॥ छं॰ १३, सम्यौ ४४]। 'दुर्गा केदार' समय में भी लंगरी राय संभरी-नाथ के साथ गया था और गोरी से लड़ा था—[सत तुंग भपन लंगरी राव। छं॰ १७, सम्यौ ५८]। अंत में कनवज्ज समय में हम वीर लंगरी राय की अंतिम वीरता और मृत्यु का हाल पढ़ते हैं। पृथ्वीराज के पूर्व पुरुषों में पप्पयराज नाम का कोई प्रतापी पुरुष हो गया था। उसके दो पुत्र थे जिनमें एक के वंश में पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर थे और दूसरे का वंशज संजमराय था जिसका पुत्र लंगा लंगरी राव था। पृथ्वीराज चंद के साथ भेष बदले हुए हैं, यह जानकर जयचंद ने चंद कवि का पढ़ाव चारों ओर से घिरवा लिया। अब युद्ध के सिवा दूसरा उपाय ही क्या था। सामंत भी कमर कस कर तैयार हो गये। संजय राय का पुत्र लंगरी अपना नमक अदा करने के लिये सबसे पहले उठ और शत्रुओं को चीरता फाड़ता राज महल में पैठ पड़ा (छं॰ ९८३-८९, सम्यौ ६१)। उसका शरीर बीच से चिर कर दो हो गया। एक धड़ तो वहीं पड़ा रहा परन्तु दूसरा महल की पहली चौक में घुस गया और मार काट करने लगा (छं॰ ९९१-९३)।रनिवास की स्त्रियाँ झरोखों से यह कौतुक देखने लगीं। सैकड़ों का वारा न्यारा करता हुआ वह जयचंद के मंत्री सुमंत के सामने सामने आया, और अंत में दोनों गिर गये।

किलकिला नाल छुट्टी आग्राज।
लै चली लंग पर महल साज॥
दस कोस परे गोला रनक्कि॥
परि महल कोट गज्जी धनक्कि॥छं॰ १००३॥
संजमह सुअन लै चली रंभ।
सब लोक मद्धि हुऔ अचंभ॥छं॰ १००८, सम्यौ ६५१॥

लंगरी राय ने जयचन्द के तीन हजार योद्धा, मंत्री पुत्र, भानजे और भाई आदि मारे। क्यों न हो अखिर स्वामी की रक्षा में गिद्धिनी को अपने मांस वाले का ही पुत्र था।

कविता

(तब) लौहांनौ महमुंद[१२७], बांन मुक्के बहु भारी।
फुट्टि सु ढढ्ढर वहि जुबान[१२८], पिट्ठ ऊरद्ध निकारी॥

मनों किवारी लागि, पुट्ठि षिरकी उघ्घारिय।
कट्टारी[१२९] वर कट्ठि, वीर अवसान सँभारिय॥
एक झर मीर उज्झारि झर[१३०], करि सुमेर परिअरि सुफिरि।
चवसट्टि पांन गोरी परे, तीन राइ[१३१] इक राज परि॥छं॰ ११७। रू॰ ८२।

भावार्थ—रू॰ ८२—तब लोहाना ने महमूद पर एक बड़ा भारी बाण चलाया जो (उसका वक्षस्थल) फोड़कर धड़धड़ाता हुआ घुस गया और ऊपर पीठ में आ निकला मानों दरवाज़ा बंद देखकर उसने पीठ में खिड़की खोल दी। [महमूद जब इस प्रकार आहत हो गया तो लोहाना ने म्यान से] कटार काढ़ ली और उसका अंत करने के लिए सँभला (बढ़ा)। (यह देख कर गोर के एक) मीर ने (तलवार के) एक बार से उझाल कर उसे गिरा दिया (मार डाला) और वह (लोहाना सुमेरु की परिक्रमा करने चला गया। [अभी तक रण क्षेत्र में] ग़ोरी के चौंसठ ख़ान मारे गये तथा [पृथ्वीराज की ओर] एक और तीन अर्थात् तेरह राव राजे काम आये (या) एक राजा और तीन राव खेत रहे।

शब्दार्थ—रू॰ ८२-लोहांनौ—लोहाना, पश्चिमी भारत, सिंध और कच्छ में फैली हुई जाति का नाम है। "पहले ये राठौर वंशी राजपूत थे जो कन्नौज से सिंध प्रदेश में खदेड़ दिये गये थे और तेरहवीं शताब्दी में सिंध से कच्छ चले गये थे। उस समय ये भंसालियों की भाँति जनेऊ पहनते थे और अपने को क्षत्रिय कहते थे।" [Hindu Tribes and Cates. Sherring. Vol. II, p. 242]। सिंध की हिन्दू आबादी में सबसे अधिक ये ही लोग हैं (वही, पृ॰ ३७१)। इनमें से कुछ सिख धर्मानुयायी भी हैं (वही, पृ॰ ३७५)। "लोहाना जाति घाट और तालपुरा में विस्तार से फैली हुई है। पहले ये राजपुत थे, परन्तु व्यापार करने के कारण कुछ समय बाद वैश्य हो गये"—[Rajasthan. Tod. p. 320]। "पृथ्वीराज के राजस्व काल में ये कन्नौज के समीप ही रहते होंगे जहाँ से मुसलमानों की विजय के बाद राठौरों के निर्वासित किये जाने पर बाहर चले गये"—ह्योर्नले। चंद ने अपने महाकाव्य में लोहानों का वर्णन किया है। लोहाना वंशी एक वीर पृथ्वीराज के साथ संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में भी था और उसी युद्ध में पराक्रम दिखा कर खेत रहा [रासो सम्यौ ६१, छं॰ १४६३-६४]। महमुंद<महमूद—(रासो की प्रतियों में 'महसुंद' पाठ भी हैं)—यह वीर, शाहज़ादा खाँ-पैदा-महमूद है जिसका वर्णन पिछले रु० ३६ में आ चुका है। अगले ८४ में भी इसका वर्णन है कि---

"परयौ वीर बानैत नादंत नादं ।
जिने साहि गोरी भिल्यौ साहिबादं ।।

‘वानैत’ योद्धा बिड्डर ही था जिसने शाहजादा महमूद का सामना किया था। मुक्के <मुक्के==छोड़ना। पिटृ =पीठ। फुट्टि (कि०) = फोड़ा। सु = वह'ढढ्ढर='घड़धड़ाता हुआ। ऊरध्द<सं०उर्व=ऊपर। मनो किवारी लागि =मानो दरवाज़ा बंद देखकर! पिरकी: खिड़कीं। अवसान =अंत मरण। संभारिय= सँभार करना। बारिय=उधारदा, खोलना। कट्टारी=कटर। कहि (या कढिढ़)=काढ़कर, खींचकर। अवसान =अंत, मरण। संभारिय =संँभार करना। सुमेर <सं० सुभेरु=एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने को कहा गया है [वि० वि० १० में। परिअरि अप०) (परिकरि)< स० परिक्रमा। कुरि सुमेर परिश्ररि सुफिरि =फिर वह सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करने चला गया। ( नोट---सुमेरु की परिक्रमा करने वाले सूर्य कहे गये हैं। लोहाना की सुमेरु व्ही परिक्रमा करने चला गया अर्थात् तोहाना सूर्यलोक में स्थान पा गया। चवसट्टि <सं० चतुष्पष्टि-चौंसठ। परे=मारे गये। तीन राइ इक राज परि=(१) एक राजा और तीन राव गिरे (२) एक और तीन अर्थात् तेरह राव राजे गिरे। नोट---इस दूसरे अर्थ में एक और तीन का अर्थ तेरह करने की रहस्य यह है कि अगले रू० ८४ में इस युद्ध में धराशायी होने वाले तेरह सामंत मात्र का स्पष्ट उल्लेख है और यहाँ इस रूप में केवल एक और तीन अर्थात् चार ही होते हैं। यह विषमता मिटाने के लिये एक और तीन अर्थात् तेरह की कल्पना कर ली गई है। अब रहा पहला अर्थ, वह भी ठीक है;(पृथ्वीराज के जितने वीर काम आये इनमें) तीन राव इक राज परि (=एक राजा और तीन राव थे)----इस प्रकार प्रथम अर्थ की पुष्टि भी हो जाती है।

नोट (१)---"इस तरफ अजानबाहू लोहान अजब ही मजा कर रहा था । वह जिस लंबे चौड़े काबुली बीर के सीने में कटर मार के वारा पार कर देता तो ऐसा मालूम होता था कि सानों किसी दृढ़ दुर्ग का द्वार खोल दिया गया हो।' रास-सार, पृष्ठ १०२।

यहाँ आजानवाहु, लंबे-चौड़े-काबुली वीर, कटार और दृढ़-दुर्ग शब्द ध्यान देने योग्य हैं। 'महमुद'[का महसुंद’ (मह= बड़ा + सुंद<सुइ=हाथ) अर्थात् बड़े हाथ] पाठ करके 'आजानवाहु’ की उत्पत्ति हुई है। लंबे-चौड़ेकाबुली-वीर और दृढ़-दुर्ग के पर्य्यायवाची शब्द इस रूपक में कहीं नहीं आये हैं। फिर कवित्त से यह भी स्पष्ट है कि लोहाना ने छाती के बार पार वाण मारा था न कि कटार।

(२) लोहाना आजानुवाहु—यह वीर लोहान अद्वितीय पराक्रमी था। एक दिन महाराज पृथ्वीराज सायंकाल सोलह गज ऊँची चित्रशला की गौरव में सामंतों सहित खड़े थे। एक चित्रकार ने एक चित्र पेश किया। उसका संभरीनाथ देख रहे थे कि वह चित्र हाथ से छूट पड़ा परन्तु लोहाना आजानुवाहु ने उसे अधविच में ही झड़प लिया—('ठढ्ढों सु इक्क लोहान भर। कहर कबुतर कुद्दयो॥ जो नेक चूकि ऐसी गिर्यौ। साप अंब हू हल्लयौ॥' छं॰ २, सम्यौ ४) तभी पृथ्वीराज ने इसे आजानुबाहु वाम दिया था (सम्यौ ३, छं॰ ५७)। इसने ओड़छा के राजा का दुर्ग भी छीना था (सम्यौ ४)। पृथ्वीराज इसका बड़ा सन्मान करते थे। अंत में अंतिम युद्ध में आजानुबाहु स्वामी के लिए पराक्रम से भिड़कर [तबै गज्जियं वीर आजान बाहं। मिल्यौ मीर अड्डो सुरं जुद्ध राहं॥' छं॰ १२९३, सम्यौ ६६] वीरता पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया—

पर्यौ होंय आजान। वाह त्रयपंड धरन्नी॥
जै जै जै जंपंत। मुष्ष सब सेन परन्नी॥
धनि धनि जंपि सुरेस। सु धुनि नारद उचारं॥
करिग देव सब कित्ति। बुद्धि नभ पुहुए अपारं॥
कौतिग्ग सूर थक्यौ सुरह। भइय टगटृग भुअ भरनि॥
आसंसि करै अच्छर सयल। गयो भेदि मंडल तरनि॥ छं॰ १३०५। सम्यौ ६६।

कविता

मंनि[१३२] लोह मारूफ, रोस बिड्डर गाहक्के।
मनो पंचानन बाहि, सद्द सिरसद्द[१३३] हहक्के॥
दुहूं मीर बर तेज, सीस इक सिंघह्व बाही।
टोप टुट्टि बर करी,[१३४] चंद उप्पमा सु[१३५]पाई॥
मनु सीस बीय श्रँग बिज्जुलह, रही हेत तुटि भाम न[१३६]हति।
उतभंग सुहै बिव टूक ह्वै, मनु उडगन नृप तेजसति। छं॰ ११८। रू॰ ८३।

भावार्थ—रू॰ ८३—विड्डर अपनी तलवार चलाने की कुशलता पर विश्वास करके मारूक की और क्रोधिपूर्वक लपका (और गरजा) मान सिंह वाहिनी [ दुर्गा ] अपने अनेक मुखों से हुंकारी हो । [ युद्ध छिड़ गया ] एकै और दो तेजस्वी श्रेष्ठ मीर थे और दूसरी ओर सिंहवाहिनी ( की उपमा पाने वाले या सिंहवाह राजपूत का) का एक सर था [अर्थात् दुसरी और अकेला विदुर था]। [आखिरकार बिड्डर का] शिरत्राण टूट कर बिखर गया और चंद को उससे उपमा मिली। उसके सर के दो टुकड़े करता हुआ भाला वैसे ही लगा मानों पर्वत श्रृंग पर बिजली गिरी हो, परन्तु उस ( सिर की शोभा नष्ट नहीं हुई, सिर दो टुकड़े होकर भी ऐसा शोभायमान रहा मानों तेजस्वी उड्डुगण नृप (अर्थात् चंद्रमा) हो।

शब्दार्थ--- रु०८३- मनि लोह = लोह ( तलवार ) मान के अर्थात् अपनी तलवार चलाने की कुशलता पर विश्वास करके। मारूफ = तातार मारूफ खाँ । बिड्डर = सिंघवाह नाम की एक राजपूत जाति कही जाती है परन्तु अब उसका कहीं पता नहीं लगता। संभव है कि विदुर सिंधवाह राज- पूत था, तभी चंद का कथन है कि सिंधवाह (= सिंह पर चढ़ने वाला) विड्डर उसी प्रकार गरजा जैसे सिंहवाहिनो हुंकारती हैं। एक और दो मीर थे और दूसरी ओर सिंहवाही [अर्थात् सिंघवाह राजपूत या सिंहवाहिनी दुर्गा की उपमा पाने वाले] का एक सर था - अर्थात् विड्डर अकेला था। चंद ने 'सिंहवाह' शब्द के अर्थ का चमत्कार प्रस्तुत रूपक में दिखा दिया है । गाहक्के < हिं॰ गहकना = लपकना ( बड़े चाव से )। पंचानन = सिंह [ नोट- सिंह को पंचानन कहने के दो कारण कहे जाते हैं। कुछ लोग 'पंच' शब्द का अर्थ 'विस्तृत' करके पंचानन का अर्थ 'चौड़े मुख वाला' करते हैं, और कुछ लोग चारों पंजों को जोड़कर पाँचवाँ मुँह गिना देते हैं ]।वाहि= वाहिनी । पंचानन वाहि= सिंहवाहिनी ( दुर्गा ) [ वि० वि० प० में ] ( उ०--- 'रूप रस एवी महादेवी देव देवन की सिंहासन बैठी सोहैं सिंहबाहिनी ।' देव )। सद्द <स० शब्द । सद्<सद् <स० शत= सौ। सिर सद्= सौ सिर (अर्थात् अनेक सर )। --हहक्के=हहकना, गरजना, हुंकारना बरकरी= बरक गया । टोप टुट्टि बरकरी टोप टूटकर बिखर गया । हेत< सं० हेति = भाला। तुटि= टूटना। शब्द। बीय = दोनों । श्रंग< सं० शृङ्ग = पर्वत की चोटी । बिज्जुलह= बिजली। भाम= शोभा। न=नहीं। हति= [हतना (= नष्ट करना) के भूत कालिक कृदंत का स्त्री लिंग रूप है,] नष्ट हुई। भाम न हति = शोभा नष्ट नहीं हुई। उत= उधर। मंग = माँग ( यहाँ सिर से तात्पर्य है ) । उतमंग= सस्तक। सुहै- शोभायमान हुआ। विव= दो। टूक हो= टुकड़े होकर। उडगन नृप = चंद्रमा। तेजमति = (तेजम + अति ) अति तेजस्वी । इस कवित्त की अंतिम पंक्ति के अंतिम चरण का कुछ विद्वान् अर्थ करते हैं कि—मानों चंद्रमा टुकड़े-टुकड़े हो गया हो। कवित्त में आये हुए 'वीय' और 'विव' का संबंध 'बिंब' से जोड़कर ह्योर्नले महोदय 'गोल' अर्थ करते हैं जो संभव होने पर भी आवश्यक नहीं प्रतीत होता।

नोट—ह्योर्नले महोदय ने प्रस्तुत कवित्त के अंतिम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया है—

"It was as if the sword had descended on his head like lightening on a mountain peak, yet its beauty was not destroyed; but his round head, having been broken into pieces, appearad like a multitude of stars; such a glorious lord was he," p. 45.

नीचे नीट नं॰ ३२७ में अपने लिखा है—"But I confess, the meaning of the whole verse is not quite clear to me"

छंद भुजंगी

परे षांन चौहट्ठि गोरी नरिंदं।
परे सुभ्र[१३७] तेरह कहै नाम चंदं॥
परे लुथ्थि लुथ्थिी जु सेना अलुज्झै।
लिषे कंक अंकं बिना कौंन बुज्झै॥छं॰ ११९॥
पर्यौ गोर जैतं मधिं सेस ढारी।
जिनं राषियं रेह अजमेर सारी॥
पर्यौ कनक आहुट्ठ गोविंद बंधं।
जिनें मेछकी पारसं सब्ब षद्धं॥छं॰ १२०॥
पर्यौ प्रथ्थ बीरं रघुव्वंश राई।
जिनें संधि षंधार गोरी गिराई॥
पर्यौ जैत बंधं सु पावार भानं।
जिनें भेजियं मीर बांनेति बानं॥छं॰ १२१॥
पर्यौ जोध संग्रांम सो हंक मोरी।
जिनें कड्ढियं बैरगो दंत गोरी॥
पर्यौ दाहिमौ देव नरसिंह अंसी।
जिनैं साहि गोरी गिल्यौ[१३८] षांन गंसी॥छं॰ १२२॥
पर्यौ बीर बांनेत नादंत नादं।
जिनें साहि गोरी मिल्यौ[१३९] साहिजादं॥

पर्यौ जावलौ जल्ह ते सेंन भष्षं।
हुए सार मुष्षं निसंकंत[१४०] नष्षं॥छं॰ १२३॥
पर्यौ पल्हनं बंध माल्हंन राजी।
जिनें अग्ग गोरी क्रमं सन्त भाजी॥
पर्यौ बीर चहुआंन सारंग सोरं।
बजे दोइ देंहज आकास तोरं॥छं॰ १२४॥
पर्यौ राव भट्ठी बरं पंच पंचं।
जिनें मुक्ति के पंथ चल्लाइ संचं॥
पर्यौ भांन पुंडीर ते सोम कामं।
जिनें जुंझते बज्जयो पंच जाभं[१४१]॥छं॰ १२५॥
पर्यौ राउ परसंग लहु बंध भाई।
तिनं मुक्ति अंसं छिन मद्धि[१४२]पाई॥
पर्यौ साहि गोरी भिरै चाहुआनं।
कुसादे कुसादे चबै मुष्ष पांनं॥छं॰ १२६। रू॰ ८४॥

भावार्थ—रू॰ ८४—गोरी के चौंसठ खान मारे गये। और नरेन्द्र (पृथ्वीराज) के तेरह श्रेष्ठ वीर खेत रहे। चंद (कवि) उनके नाम कहते हैं क्योंकि जो लोथों में उलझे हुए पड़े हैं उनके जातिगत और व्यक्तिगत नाम लिखे बिना उन्हें कैसे पहिचाना जा सकता हैं। छं॰ ११९।

(१) अजमेर की लाज बचाने वाला जैत गौर (गरुआ) (लाशों के) अवशेषों के बीच में गिरा। (२) गोविन्द का संबंधी कनक आहुट्ठ गिरा जिसने म्लेक्षों की सब [अधिकांश] सेना को नष्ट कर डाला था। छं॰ १२०।

(३) रघुवंशियों का राजा, वीर प्रथा गिरा जिसने कंधार में घुसकर गोरी को पराजय दी थी। (४) प्रमार वंश का सूर्य जैत का संबंधी [लखन] गिरा जिसने प्रसिद्ध धनुर्द्धर मीर को एक बाण से (स्वर्ग) भेज दिया था। छं॰ १२१ ।

(५) संग्राम स्थल में हुंकारने वाला योद्धा [जंधारा जोगी] गिरा जिसने अपनी तपस्या के बल से गोरी का दाँत खींच लिया था। (६) नरसिंह देव का अंशी (साझीदार) दाहिम गिरा जिसने गोरी के खानों को बाणों की नोक से निगल लिया था (अर्थात् वाणों से मार डाला था)। छं॰ १२२।

(७) हुंकारने और नाद करने वाला वीर बानैत (धनुर्द्धर) गिरा जिसने शाह ग़ोरी के शाहज़ादे [खाँ पैदा महनूद] का सामना किया था। (८) उनकी सेना को भक्षण करने वाला जाबल वंशी जल्द गिरा जिसने (गोरी के) घोड़-सवारों के सरदार को निश्शंक होकर नष्ट कर डाला था। ई० १२३।

(९) पल्हन का संबंधी राजा माल्हन गिरा जिसके सामने से गोरी के सात थोद्धा एक के बाद एक भाग खड़े हुए थे। (१०) सारंग ( सोलंकी) का संबंधी [माधव] जो चौहान के साथ रहने लगा था शोर करता हुआ गिरा; जिस समय उसने आकाश तोड़ा (स्वर्ग में प्रवेश किया) उस समय दो बजे थे। छं० १२४।

(११) पाँच श्रेष्ठ वीरों को पंचत्व में मिला, उन्हें मुक्ति के मार्ग पर चला कर सुख पाने वाला राव भट्ठी भी गिरा (१२) चंद्रलोक की इच्छा करने बाला पुंडीर वंशी भान गिरा, जिसे युद्ध करते करते पाँच याम बीत गये थे। छं० १२५।

(१३) प्रसंग राव का लघु वघुं [ विड्डर ] गिरा और उसने क्षण भर में ही मुक्ति का अंश पा लिया [ अर्थात् यह क्षण भर में ही मुक्त हो गया ]। चौहान (की सेना) से भिड़ कर ग़ोरी के इतने ख़ान मारे गये कि मुंह प्रसन्नता से उनका वर्णन कर सकता है । छं० १२६।

शब्दार्थ-रू० ८४--सुन्ने<सुभर< सुभट=श्रेष्ठ वीर, [सुभ्र=< सं० शुभ्र= श्वेत-ह्योर्नले ]। नरिंद<नरेन्द्र ( पृथ्वीराज के लिए प्रयुक्त हुआ है ) । तेरह (प्रा०) <० तेरस<सं० त्रयोदश-=(हिं०) तेरह । लुथि्थ लुथ्थी= लोर्थों में । अलुज्झै == उलझे हुए। कंक अंक= भाग और चिन्ह अर्थात् उनके जातीय और व्यक्तिगत नाम । बुज्झै=बूझना, जानना । मधि=मध्ध में । सेस=अवशेष (लोथो का) । ढारी<(ढारना)=गिरा। जिनं=जिसने । राषियं = रखीं । रेह=धूल । जिने राषिर्य देह अजमेर सारी= जिसने अजमेर की सारी मिट्टी रखी अर्थात् जिसने अजमेर की लाज रस्त्र । गोर=इस जाति के राजपूतों का मुख्य स्थान अजमेर पाया जाता है। सारे प्राचीन इतिहास में हम 'अजमेर के गोर” लिखा पाते हैं जिससे विश्वास हो जाता है कि चौहानों के बाद देश का शासन सूत्र इन्हीं के हाथ में छाया । पृथ्वीराज की लड़ाइयों में गोरों का नाम ख्यातनामा योद्धाओं की भाँति लिया गया है। मध्य भारत में इनका एक छोटा राज्य था जो सात सौ वर्षों की मुसलमानी अमलदारी में अपना अस्तित्व बनाये रहा । सन् १८०६ ई० में सिंधिया ने गोरों की राजधानी सुपूर पर अधिकार करके उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर डाला"।[Rajasthan, Tod.Vol, I, p. 116 and Vol. II, p. 449] । अजमेर के गोर पृथ्वीराज के साथ कन्नौज गये थे और इनके नायक का नाम गौरांग गरूअ था---"गौरंग गरूअ अजमेर पति। रष्षि नृपति पच्छिम सघन॥” सम्यौ ६१)। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गोर, गौर या गरु सब एक ही थे। रासो में इसका गुरु रूप भी मिलता है। (सं० गुरु > प्रा० गरु, गरुअ)। इसका एक संस्कृत रूप गौरव निकला जो साधारण बोल चाल में गौर रह गया जिसका प्राकृत रूप गोर हुआ [वररुचि, प्रथम भाग, पृ० ४१]। जैत गोर= उपर्युक्त व्युत्पत्ति तथा ऐतिहासिक आधार से यह वीर गोविंद का संबंधी रहा होगा जिसकी मृत्यु का वर्णन पिछले रू० ६६ में है। गोर या गौर राजपूत, गुहिलोत राज- पूतों की एक शाखा है क्योंकि गरुन गोविंद गुहिलोत भी पाया जाता “इनकी पाँच शाखायें—योंतिहर, सिल्हल, तूर, दूसेन और बोदनो हैं" Rajasthan. Tod. Vol. I, p. 116 ] इन्हें गाड़ राजपूत न समझना चाहिये जैसा कि (Hindu Tribes and Castes. Sherring, Vol. I, p. 171; Races of The N. W. Provinces. Elliot Vol. I, p. 105 ) में लिखा है । “गौरूअ राजपूत आगरा और मथुरा से नौ सौ वर्ष पूर्व जयपुर चले गये” ( Elliot ibid. p. 115 )“गौर और गोर एक ही हैं । गरुन्या से या तो गौरा हो गया था गौर संस्कृत गौरव का विकृत रूप है ।" "गोर जाति का राजस्थान में एक समय बड़ा आदर था यद्यपि उसे विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई । बंगाल के प्राचीन राजे इसी जाति के थे और उन्होंने अपने नाम से लखनावती राजधानी बसाई" (Rajasthan Tod. Vol. I, p. 115)। टॉड महोदय की पहली बात तो ठीक है परन्तु दूसरी बात गौर और गौड़ (गाड़) को एक ही मान लेने के कारण हुई है। लखनावती का प्राचीन नाम गौड़ था। “गौरअ की उत्पत्ति विचित्र है परन्तु यह विकृत रूप है। यह साधारण पदवी है। गौर की उतनी ही शाखायें हैं जितनी ठाकुरों की। गौरुय राजपूतों को हम ठाकुरों की भाँति अपने को कछवाह, जसावत, सिसौदिया यादि कहते हुए पाते हैं। सिसौदिया गौरयों को बच्छल भी कहते हैं। बच्छल, 'सेही' के वच्छवन से निकला है जहाँ उनके गुरू रहते हैं। उनका कहना है कि सात या सौ वर्ष पहिले हमने चित्तौर छोड़ दिया था परन्तु अधिक संभावना इस बात की है कि वे सन् १३०३ ई० में अलाउद्दीन के चित्तौर घेरने पर निकले होंगे । मथुरा जिले की अपनी भूमि का नाम इन्होंने कानेर रखा इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि सन् १२०२ ६० के पहले ये नहीं गये । सन् १२०२ ई० में चित्तौड़ के राजा ने रावल के स्थान पर राना उपाधि ग्रहण की। चाता परगना में आज भी इनके चौबीस गाँव हैं और जिला मैनपुरी के भोगाँव और वेवर परगनों में इस जाति के ८७२ व्यक्ति हैं ( Ancient History of Muttra, Growse.)। चित्तौड़ के राजपूत गुहिलोत थे। रेह प्रा०< सं० रेखा। कनक= यह वही वीर है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू० ७१ में आ चुका है। 'आहुटृ', गुहिलोतों की उपाधि थी। समरसिंह और गरूअ गोविन्द भी गुहिलोत थे, [वि० वि० पीछे दिया जा चुका है]। पारसं = सेना; [रासो में प्राय: इसी अर्थ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है इसी को मान लेना उत्तम होगा]। पद्धं = यह पंजाबी और गुजराती 'खा' (== खाना) का भूत- कालिक कृदंत है। इसका 'काघा' रूप भी मिलता है। मथ्य= प्रथा, रघुवंशी राजपूत था और इसीलिये राम का संबंधी रहा होगा जिसकी मृत्यु का वर्णन रू० ७६ में है। ‘प्रिथीराज' का विकृत रूप प्रथा' होना भी बहुत संभव है। चंद ने भी कहीं-कहीं पिथ, पिथ्थ औौर पिथल लिखा है। संधि (क्रिया) = सेध, छेद करना, खोदना। गोरी गिराई=गोरी को गिराया अर्थात् गोरी को परा- जित किया । सु पावार भानं = प्रमार वंश का सूर्य । जैत बंध - यह जैतसिंह और सुलब का संबंधी लखन है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू०७४-७५ में है। बानेति = धनुर्द्धर ['कमनैत' और 'वानैत' का अर्थ एक ही है]। जिने भेजियं मीर बांनेति बानं = जिसने (प्रसिद्ध) धनुर्द्धर मीर को एक वाणा से ( स्वर्ग ) भेज दिया। भेजियं = भेजना, [यदि 'भेजियं', अंजियम का दूसरा रूप हो तो पूरी पंक्ति का अर्थ--'उसने एक के बाद दूसरे मीर को बाणों से मार डाला या उसने धनुर्द्धर मीर को एक बाण से मार डाला' होगा]। जोध< सं० योद्धा; [नोट ——यह वीर 'जंघारा जोगी' है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू० ७७- ७८ में हो चुका है। जंघारा झगड़ालू या योढा । इस रूपक में भी रू० ७८ की भाँति वह बैरगो ( < वैराग्य अर्थात् वैरागी ) कहा गया है। बैरागी वैष्णव होते हैं और जोगी शैक। परन्तु योगी और वैरागी दोनों शब्द तपस्वियों और महात्माओं के लिये भी प्रयुक्त होते हैं। पृथ्वीराज को कन्नौज वाले युद्ध में एक हजार वैरागियों से मुकाबिला करना पड़ा था-- बातें संघ विरद्द धर। बैरागी जुध धीर ॥ सूर संघ निप नामि सिर । भर पहु भजन भीर ॥ रासो सम्यौ ६१, छं० १७८६ )। ये युद्ध करनेवाले वैरागी अपने तथा अपने घोड़ों के सरों पर मोर पंख बाँधते थे- मोर चंद मध्यै धरिय। जटा- जूट जट बंधि।। संख बजावत सव्व भर।। सेवें जाइ कमंद।। सम्यौ ६१, छं० १८१२ ।। पर्यौ जोध संग्राम सो हंक मोरी'-- (में मोरी या मोर <सं० मयूरिका से संबंधित हैं। हंक= चिल्लाना।। मोरी=मुड़ना) = उस योद्धा ने हुंकार कर (शत्रुओं को) संग्राम से मोड़ दिया या भगा दिया। जिर्ने कढि्ढयं बैरगो दंत गोरी = जिसने वैराग्य (=योग चल) द्वारा गोरी का दाँत तोड़ दिया। दाहिनौ--यह वही दाहिम है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू० ७२ में हो चुका है। दाहिम होने के कारण यह प्रसिद्ध दाहिम बंधु कैमास, चामंड और चंद पुंडीर का संबंधी रहा होगा। यह नरसिंह देव का अंसी। (<अंशी= साझी-दार ) भी था। नरसिंह का विस्तृत वर्णन पीछे किया जा चुका है। गिल्यौ= खा डाला, निगल लिया ( अर्थात् मार डाला ) । गंसी > हि० गाँसी =बाण के समान नोकदार, पैना। जिनें साहि गोरी गिल्यौं पान गंसी-- जिसने शाह गोरी. के ख़ानों को गंसी से मार डाला। वीर ( बानेत नादंत नादं ) = यह वीर जो. बांनत कहा गया है और कोई नहीं लोहाना है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू०८२ में है। उक्त रू० में लिखा है कि लोहाना महमूद के साथ भारी बाण चलाता हुआ भिड़ा | महमूद= शहाबुद्दीन ग़ोरी के भाई गियासुद्दीन का पुत्र था और वह इस युद्ध में नहीं मारा गया था अतएव हम सब रासो प्रतियों और ना० प्र० सं० रासो के गिल्यौ ( = मार डाला ) पाठ को 'मिल्यौ' किये देते हैं । ( मिल्यौ= मिला या सामना किया। यह भी संभव है कि मिल्यौ के स्थान पर लिखने वाले भ्रमवश गिल्यौ लिख गये हो क्योंकि 'ग' और 'ख' में केवल एक 'पड़ी पाई' का भेद मात्र है)। नादंत नादं= नाद करता हुआ; हुंकारता हुआ। जावलौ जल्ह=इस नाम के योद्धा का युद्ध वर्णन पिछले रूपकों में नहीं किया गया है। संभव है कि यह लंगरी राम हो,' ह्योर्नले । परन्तु लंगरी राय का वर्णन फिर अगले सम्यौं ३१, छं० १४४ में है--( लग्यो लंगरी लोह लंगा प्रमानं । षगे षते पंड्यौ दुरासान पानं ) और उसकी मृत्यु का वर्णन सम्बौ ६१ में जैसा कि पीछे टिप्पणी रू० ८१ में प्रमाणित किया जा चुका है, पाया जाता है। 'जब तिलंग परलोक गय। दय दक्षिण जावलम।' (सम्यौ ६१ ) अर्थात् जब प्रमार राजा तिलंग परलोक गया तो उसने दक्षिण देश जावल को दिया। इससे स्पष्ट है कि जावल दक्षिणी राजपूतों में थे। लंगरी भी दक्षिणी राजपूत था इसीलिये ह्योर्नले महोदय ने जावल को लंगरी मानने की संभावना की है। एक जावत जल्ह का वर्णन संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में भी आया है–- (सज्यौ जीवलो जल्ह चालुवय भारी ।” सम्यौ ६१ छं० १२२ ]। इस युद्ध में मल्ह की मृत्यु भी हुई थी [ 'परयौ जावलौ जल्ह सामंत भारे | जिनैं पारिया पंगपंधार सारे ॥' सम्यौ ६१, छं० १९२८]। भष्यं< सं० सक्ष्य = खाना। हुए सार मुष्ष= घोड़ों के सार ( शक्ति ) का मुख ( प्रधान ) अर्थात् घुड़सवारों का सरदार । निसंकंत< (सं०) नि:शंक= निडर, निर्भय। नवं <नष्ट (करना)।माल्हंद= पल्हन का बंधु: इसकी मृत्यु का वर्णन रू० ६६ में है। राजी= राजा, नायक | क्रमं सत्त भाजी=क्रम से (एक के बाद एक) सात (गोरी के योद्धा) भाग खड़े हुए। सारंग=यह सारंग सोलंकी (या चालुक्य ) माधव का संबंधी है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू० ७० में हो चुका है। वहीं हम पढ़ते हैं कि वह चौहान के साथ रहने लगा था। सोरं <फा०,=शोर करता, चिल्लाता हुआ। भट्टी-- अभी तक भट्टी नाम का कोई वीर नहीं मारा गया है। जहाँ तक अनुमान है यह रू०६७ में वर्णित पतंग जयसिंह के लिये चाया है जिसकी जाति का नाम वहाँ नहीं बताया गया है। यहाँ इस भट्टी के लिये लिखा है कि उसने मरते मरतें पाँच शत्रुओं को मार डाला और यही बात हम जयसिंह के विषय में पढ़ते हैं। यह भी संभव है कि यह रू० ५८ में आने वाला भट्टी हो। भान पुंडीर-- यह वही वीर है जिसकी मृत्यु का वर्णन रू०६८ में है। सोम=चंद्र। कामं=इच्छा। सोम कामं = चंद्रलोक की इच्छा करने वाला; या-- [सोम (< सं० सौम्य ) + कामं (<कार्य=काम) करने वाला]। जुझते <जूते युद्ध करते करते। बज्रयौ= बज गये ( या बीत गये)। पंच जामं = पाँच पहर (याम)। राउ परसंग लहु बंध भाई यह संभवत:बिडर के लिये आया है जिसकी मृत्यु रू० ८३ में वर्णित है। 'भाई' का 'संबंध' न लेकर भाई लेने से यह ऋतुविधा सामने है कि राव परसंग चौहानों की एक शाखा 'स्त्रीची' वंश का राजपूत था और विडर 'सिंघवाह' राजपूत था । जिनं मुक्कि अंसं छिनं सद्धि पाई- जिसने क्षण भर (के मंझ बीच) में मुक्ति का अंश पाया अर्थात् जो क्षण भर के अंदर (आवागमन से) मुक्त हो गया (था, जो क्षण भर के अन्दर मारा गया)। कुसादे <फाo: [Infinitive us से Pastt ense sus बना और उससे Past participle 05 (Having opened) बन गया]। चवै (चवय)< सं० श्रव = चूना, बहना, (परन्तु यहाँ 'कहना' से तात्पर्य है)। मुहि० मुख = मुँह।

नोट- प्रस्तुत कवित्त में ह्योर्नले महोदय का निम्न नौट सहायक होगा-

"The object of the following lines is, as Chand himself tells us, to identify the thirteen chiefs who fell on the present occasion. For there is con- siderable difficulty in making the list, given here, to agree with the preceding narrative, which the list is apparently intended to sum up. There are only eight men in the present list, who can with certainty be identified in the preceding narrative; these are І, Màdhava, the Solanki, the kinsman of Sarang; No. І in the narrative (v.65) and No. 10 in the list. 2, Bhàn, the Pundîr, No. 4 in the narrative (v.68) and No. 12 in the list; 3, Màhlan, the Kürambh, the kinsman of Pahlan, No. 5 in the narrative (v. 69) and No. 9 in the list; 4, Kanak, the kinsman of Govind Abuttha, No. 6 in the narrative (v.71) and No. 2 in the list; 5, the kinsman of Narsingh, the Dahima, No. 7 in the narrative (v.72) and No. 6 in the list; 6, Sulakh, the kinsman of Jaitsingh, the Pramàr, No. 8 in the narrative (v.74) and No. 4 in the list; 7, Prathà, the kinsman of Ram, the Raghuvansi, No. 9 in the narrative v.76) and No. 3 in the list; and (probably) 8, Jait, the Gor or Garua, the kinsman of Govind, No. 2 in the narrative (v.66) and No. І in the list. Again there are two men in the present list, of whom apparantly no name whatever is given; viz. Nos. 5 and 7, whom I am inclined to identify with the Janghàr and the Lohàna, (v.v. 77 and 82 in the narrative) respectively. Lastly, there are three men in the list who bear different names from those given to them in the narrative. These are No. 6 Jalha, the Jàbala; No. ІІ, Rao Bhatti and No. 13 the kinsman of Rao Parsang, whom I incline to identify with the Langari Rai (v. 79), Jaisingh (v. 67) and Biddar (v. 83) respectively in the narrative."

[Bibliotheca Indica, New series, No, 452, Note p. 55.]

कवित्त

दस हथ्थी सु बिहांन, साहि गोरी मुष किन्नौ।
कर अकासवादी ततार, सोर चवकोद सदिन्नौ॥
नारि गोर जम्बूर, कुहक बर बांन अघातं।
गज्जि भग्ग प्रथिराज, चित्त करयौ अकुलातं॥
सो मोह कोह बर बज्जि कें, ब्रज उन धार[१४३]धमंसि कैं।
सामंत सूर बर बीर बर, उठे बीर बर हमहि कैं॥ छं॰ १२७। रू॰ ८५।

[नोट--यहाँ से तीसरे दिन के युद्ध का वृत्तांत प्रारम्भ होता है। पिछले रू० ८४ में दो दिन के युद्ध में मरे हुए वीरों की हालत सूक्ष्म रूप से बता दिया गया है।]

भावार्थ---रू० ८५--दूसरे दिन प्रात:काल शाह गोरी ने दस हाथी ( सेना के) आगे रक्खे। और तातार खाँ ने आकाश वाणी सदश चारों ओर चिल्लाकर (युद्ध प्रारम्भ करने की) आज्ञा दी। (जिसे सुनकर) कुहक वाणा तथा छोटी और बड़ी तोपों से गोले फेंके जाने लगे। (गोलों की बाढ़ से घबड़ा कर) पृथ्वीराज का हाथी (युद्ध भूमि से) भागने लगा और (यह देखकर) उनका चित्त ब्याकुल हो उठा। [महाराज को अस्थिर देखकर] सामंत और श्रेष्ठ शूर वीर अपने उत्तम वीरत्व को और हुमसा कर आगे बढ़े तेथ। मोह का परित्याग कर क्रोध पूर्वक वज्र के समान तलवारें चलाने लगे।

शब्दार्थ----रू० ८५--दुसरे (प्रा०)<सं० दश>हिं० दस । हथ्थी प्रा० <सं० हस्तिन=हि० हाथी । बिहान (देशज) (सं० विभात)=सवेरा (यहाँ दूसरे दिन से तात्पर्य हैं)। मुघ किनौं=सामने किये करे अकासवादी=आकाश वाणी करते हुए । सोर<फा० "(शोर)। चव=चार । कोद (कोध) [देशज] <(सं० कोण, कुत्र)=दिशा,और, कोना । अव कोद=चारों ओर। दिन्नौ=दिया, दी। कर अकासवादी तातार सोर चवकोद स दिन्नौं=विवादी तातार खाँ ने आकाश की और हाथ उठा कर चारों दिशयों में ज्ञौर से आज्ञा दी , ह्योनले] । नारे<अ०==बड़ी तोप । जंबूर<अ० १); (ज़बूरह)छोटी तोए । कुक-=कुहक बाण ! ३० Plate No,III] । अतं (<सं० आघात)=मारना । गजि (प्रा०)<सं० गज-हाथी । भाग= भाग ३ चित करयो अकुलात=चित व्याकुल कर दिया। अकुलातं<८० आकुलन=बचड़ाना, बेचैन होना, व्याकुल होना । मोह (सं०)= देह और जगत की वस्तुओं को अपना और सत्य जानने की दुखद भावना; (उ०--‘मोह सकल व्याधिन कर मूला’ रामचरितमानस)। कोह< सं० क्रोध; (उ०--सूध दूध मुख कुरिय न कोहू-- रामचरितमानस)। बजि के<बरजि के=छोड़ करके । ब्रज = वज्र।धार तलवार। धनसि कैं-धमसकर। सूर बर=श्रेष्ठ शूर । वीर बर=श्रेष्ठ वीर; बीरे बर= उत्तम वीरता (या वीरत्व) । मसि कैं (देशज) = हुमसा कर; हिलाकर। उठे=अगे बढ़े। उठे बीर बर हमल कैं=उत्तम वीरत्व को और अधिक बढ़ा कर आगे बढे।

नोट---ह्योनले महोदय ने प्रस्तुत कवित के अंतिम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया है---"Then abandoning emotions of love and anger, and brandishing their swords like thunderbolts, the Samantas, warriors and heroes rose up." p.59.

युद्ध में मोह को छोड़ना तो ठीक है परन्तु क्रोध का त्याग संभव नहीं है। 'क्रोध' रौद्र-रस का स्थायी भाव' है अतएव युद्ध में क्रोध का रहना आवश्यक है।

कवित्त

अद्ध अद्ध जोजनह, मीर उड़ि संगा फेरी[१४४]
तब गोरी सुरतान, रोस सामंतह घेरी॥
चक्र श्रवन चौडोल, अग्ग सेखन[१४५] पंच सौ।
सूर कोट ह्वै जोट, सार मरनह हुल्लासौ[१४६]
बर अगनि बगी हल्यौ[१४७] नहीं, पद्धर[१४८] कोट सुजोट हुअ।
बर वीर रस समरह परिय,सार धीर[१४९] बर कोट हुअ[१५०]॥छं॰ १२८।रू॰ ८६।

भावार्थ—रू॰ ८६—(उस समय जब) मीर आधे-आधे योजन इधर उधर दौड़कर साँग चलाने लगे तब सुलतान गोरी पचास (या पाँच सौ) शेख़ों के आगे चक्र चलाने वालों की चार पंक्तियाँ करके (पृथ्वीराज के) सामंतों को क्रोध पूर्वक (चारों ओर से) घेरने लगा। शूरों (=सामंतों) ने कोट बना लिया और (यह विचार कर कि युद्ध का) सार मृत्यु है [अर्थात् वीरगति पाकर मुक्ति मिल जायगी] वे (अपने मन में प्रसन्नता के कारण) हुलस उठे। (चारों और युद्ध करने की) अग्नि (ज्वाला) धधक रहीं थीं परन्तु वे (अपने स्थान से किंचित् मात्र) नहीं हिले, उनका फद्भर (उनकी रोक) दृढ़ कोट [=दुर्ग] सदृश हो गया। समर भूमि में वीरों का रास (नृत्य) होने लगा परन्तु (पृथ्वीराज के सामंतों का) कोट [=व्यूह] धैर्य का सार बन गया।

शब्दार्थ—रू॰ ८६—अद्ध अद्ध जोजनह मीर उड़ि संगा फेरी=मीर आधे योजन इधर उधर दौड़ कर साँग चलाने लगे। [इस में कुछ अतिशयोक्ति मालूम होगी परन्तु यह तो सुलतान गौरी के लड़ने का और अपने विपक्षी को एक प्रकार से धोखा देने का एक ढंग था। Finisata, (Briggs) Vol. I, (1829), pp. 183-84]। अद्भा=आधा। जोजनह<सं॰ योजन (--- चार या आठ कोस की दूरी) । उड़ि=उड़कर अर्थात् दौड़ कर। [संग फेरी=साथ साथ फिरना---और इस प्रकार पूरी पंक्ति का अर्थ होगा, मीर आधे योजन इधर और आधे योजन उधर शीघ्रता पूर्वक साथ-साथ (या पंक्ति बद्ध ) बढ़े हैं] । संगी=साँक या साँग<सं० शंकु-चौड़े फल वाला भाला, [दे० Plate No, III]। [नोट-ग़ोरी का विचार अपनी सेना की भुजायें शीघ्रता पूर्वक बढ़ाकर और पृथ्वीराज की थोड़ी सी सेना को घेरकर प्रथम तो युद्ध प्रारंभ करने का था और फिर चक्र चलाने वालों को पीछे करके पराक्रमी पाँच सौ शे द्वारा आक्रमण करवा के राजपूतों को बाँध लेने, मार डालने या अत्म समर्पण करना लेने का था । पृथ्वीराज के सामंत एक प्रकार का चौकौर व्यूह बाँधे लड़ रहे थे—ह्योनले । रोस<सं० रो=क्रोध । चक्रअस्त्र विशेष जो फेंक कर मारा जाता था, । [दे० Plate No. III]। अवन<लाव=बहना, निकलना । चक्र श्रवन चक्र चलाने वाले । चौडोल<चोड़ोल=चौ पंक्ति, चार पंक्ति ) ( ह्योर्नले महोदय ने चौडौल को अर्थ पीछे की सेना' न जाने क्यों विचार कर किया है)। अग्ग ( (प्रां०)<सं० अग्न--आगे। सेखन-शेखों को । शेख, पैगंबर मुहम्मद के वंशज मुसलमानों की उपाधि है। मुसलमानों के चार वर्गों में ये श्रेष्ठ कहे गये हैं। शोरी की सेना के लड़ाकू सैनिकों में ये अग्रगण्य थे। पंचाशत से ०>प्रा० पंचासा ( जिसकी पंचासौ होना संभव है )>हिं० पचास; [ या पंचा सौ = पंचxसौ ( शत )= पाँच सौ ] । कोट= दुर्ग ( यहाँ व्यूह' से तात्पर्य है । सामंतों ने दृढ़ व्यूह बना लिया) । जोट = जुटना [ (१) इकट्ठा होना (२) युद्ध करना ] । सार (तं०)=मूल, तत्व । [ कोट है जोट= जुट कर कट बना लिया । जोट सार= जुटने अर्थात् युद्ध करने का सार (तत्व) ]। मरन=सरना ही; मृत्यु । हुल्लासौ=हुलसना अर्थात् प्रसन्न होना । नोट---[युद्ध में मृत्यु होना क्षत्रिय बीर बड़े सौभाग्य की बात मानते थे क्योंकि इस मृत्यु द्वार। संसार के आवागमन से छूटने में उनका विश्वास था। युद्ध काल में यह विचार कर कि अब मृत्यु होगी वे प्रसन्न होते थे। चंद वरदाई ने तत्कातीन क्षत्रिय वृत्ति का अच्छा परिचय दिया है । युद्धारित क्षत्रिय के लिये सुखांत है इसीसे चंद प्रस्तुत कवित्त में उसे बर (श्रेष्ठ) अगनि (अग्नि) कहते हैं।]। बगी (> हिं० क्रिया बगना)<सं० बक-घूमनी, फिरना । बर अगनि बगी=श्रेष्ठ अनि (युद्ध की) फैल रही थीं या धधक रही थी। हल्यौ नहीं नहीं हिले. (अपने स्थान से) । पद्धर < सं० पधारणा =रोक ! पद्धर कोट= रोकने वाला मोर्चा लेने वाला)+कोट (=व्यूह) । सुजोट अ=भली भाँति जुट गया (अर्थात् दृढ़ हो गया)। रास (सं०)= प्राचीन काल की एक क्रीड़ा, जिसमें मंडल बाँध कर नाचा जाता था। परिय=पड़ा। समरह परिये = समर भूमि में होने लगा। नोट---[यहाँ चंद ने इस युद्ध को रास कहकर बड़ी ही सांमविक उपमा दी है। सामंत गणों की गोरी की सेना चारों ओर से घेर रही थी और यह युद्ध एक प्रकार से रास हो था। सार धीर-धैर्थ का सार (तन्त्र)। नोट--[यहाँ 'सार धीर’ भी ‘बर' की भाँति कोट’ का विशेषण हैं। सामंतों का कोट स्वयं धैर्य का समूह बन गया]। सार धीर बर कोट हुआ= सामंतों का व्यूह धैर्य का सार बन गया--अर्थात् अति धैर्यवान सामंत खूब वीरता पूर्वक लड़ने लगे और उनके शरीरों द्वारा निर्मित वह 'सार धीर कौट' टूटना कठिन हो गया है।

नोट-कवित्त के प्रथम तीसरे चरण का अर्थ ह्योनले महोदय यह लिखते "Those skilled in the use of the chakra-weapon (he placed) in the rear , in the front five hundred Shekhs." p. 60.

परन्तु विचारणीय बात है कि चक्र अस्त्र है और बाणों की भाँति फेंक कर चलाया जाता है। जिस तरह तत्कालीन युद्ध में सब से आगे धनुर्द्धर रहते थे उसी प्रकार चक्र चलाने वाले भी रहते होंगे । आगे अन्य सैनिकों को कर के पीछे चक्र वालों को करने का स्पष्ट अर्थ है आगे बालों के चक्र बालों से मरवाना और ऐसी मूर्खता कोई सेनापति नहीं कर सकता है।

ह्योनले महोदय की इस भूल का कारण चौडोल का ग़लत अर्थ करना हैं। चौंडोल को वे चंडोल करके उसका संबंध सं० चंडावल (चंड + अवलि) से कर सेना के पीछे का भाग अर्थात् हरावत का उलटा' अर्थ लग गये हैं। परन्तु चौडोल या चौड़ोल देशज शब्द है जिसका एक अर्थ चौ पंक्ति में होता है और चौडोल इसी अर्थ में प्रस्तुत रूपक में प्रयुक्त हुआ है।

(२) कुहक बाण---"एक तीन हाथ लंबे बांस के टुकड़े में पंदे की तरफ एक चमड़े का थैला ताँत से कसा जाता है। इस थैले की लंबाई एक फुट से लेकर डेढ़ फुट तक और गोलाकार मुंह की चौड़ाई दो से तीन इंच तक होती हैं। इसमें करीब एक सैर बारूद धाँस धाँस कर भरी जाती है और ऊपर से ताँबे, लोहे, सीसे और काँच के छोटे-छोटे टुकड़े भरकर मुंह बंद कर दिया जाता है और बाँस की नली के भीतर से एक बारूद को भगा धागा आर पार लग रहता है। बाँस के दूसरे सिरे पर एक झेडी रहती है। बारूद के धागे मैं आप देने से थैली की बारूद अनार दाने की तरह शब्द' करके लौ छोड़ने लगती है। जब ज़ोर पर आता है तो चलाने वाला हाथ से वाण को छोड़ देता है उस समय वह हाथी को भी वेध डालता है और जहाँ तक उक्त थैला पट नहीं पड़ता तहाँ तक सीधा जाता है फिर आप ही आप बड़े ज़ोर से चक्कर खाने लगता है। थैले के छरें मील भर पर्यन्त विथर कर सैकड़ों आदमियों को बेकाम कर देते हैं। आगे यह किले और मैदान दोनों की लड़ाई में काम आता था।" रासो-सार, पृष्ठ ३२६। इसे अग्निवाण और वानगीर भी कहते थे। Plate No.III में नं॰ ६ कुहक बाण है।

छंद रसावला

मेलि साहं भरं। षग्ग षोले रुरं॥
हिंदु मेच्छं जुरं। मन्त जा जं भरं॥छं॰ १२९।
दुन्त कट्ढे करं। उप्पमा उप्परं॥
कंद[१५१] मीले जुरं। कोपि कठ्टे करं॥ छं॰ १३०।
कंध नं नं धरं। पंष जष्षं[१५२] फिरं॥
तर नषै करं। मेघ बुट्ढे बरं॥ छं॰ १३१।
आवधं संझरं। बङ्क तेयं करें॥
चंद बीजं वरं। अद्ध अद्धं धरं॥ छं॰ १३२।
बीय बन्धं धरं। कित्ति जंपै सरं॥
अस्सु दुस्ढै फिर। रंभ बंछै वरं॥ छं॰ १३३।
थान थानं नरं। धार धारं तुदं॥
भुंम बासं छुटं।... ... ...॥छं॰ १३४।
साह गोरी बरं। षग्ग षोले करं॥
... ... ...। ... ... ...॥छं॰ १३५। रू॰ ८७।

भावार्थ—रू॰ ८७—

शाह के योद्धा तेज़ तलवारें निकालकर बढ़े। हिन्दू और म्लेक्ष एक दूसरे से भिड़ गये। जिस वीर को जैसा समझ पड़ा उसने वैसी किया। छं॰ १२९।

(किसी ने हाथियों के) दाँत हाथ से खींच लिये तो ऐसी उपमा जान पड़ी कि मानों भीलों ने क्रोधपूर्वक हाथ से कंद उखाड़ लिए हों [(या) किसी ने हाथियों के दाँत तोड़ दिये मानों भीलों ने कंद उखाड़ लिये हों और (किसी ने) क्रोध करके (हाथियों के) कर (सूँड) काट लिए]। छं॰ १३०। कंध धड़ रहित हो गये। उनके (हाथियों के) पक्ष ज़ख्मों से फट गये; तीरों से उनकी सूँडें घायल हो गई और मेघ व सदृश आयुध चलने लगे । द्वितीया के सुन्दर चन्द्रमा की तरह टेढ़ी तलवारें निकल आई और शरीर झांधे आधे होने लगे तथा (आत्मा) दूसरे बंधन (शरीर) ग्रहण करने लगी है। सिर कीर्ति वखानने लगे। या, कटे हुए सिर विजय विजय चिल्लाये ।। (सवार के भरने पर) अश्व उसे ढूँढ़ने लगे? ( स्थान स्थान पर पड़े हुए मनुष्यों में) रंभा अपने लिए वर खोजने लगीं । छं० १३१-३३ ।।

स्थान-स्थान पर तलवारों से कटे हुए नर (योद्धा) पड़े थे, उनका भ्रम पूर्ण वास समाप्त हो गया था। (अर्थात् वे वीर गति प्राप्त होने के कारण मुक्त हो गये थे) । छं० १३४ ।।

(यह दृश्य देखकर) शाह गोरी ने हाथ में नंगी तलवार लो ( या अपने हाथ में (स्थान से) तलवार निकाली। छं० १३५ ।

शब्दार्थ---रू० ८७--मेलि=मिले या भिड़े ! भरं <भट = वीर। जुरं= जुड़ना (यहाँ युद्ध करनों से तात्पर्य है)। मंत= मत। जा जं=जिसको जैसा। भरं = वीर। मंत जा जं भर भयावान विचारे यस्य भटस्थ अशीत तावत तेन कृतम्। करं-यह करि (= हाथी के स्थान पर प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। उप्पम उप्परं-इसके ऊपर उपसा देने के लिए। कंद = विना रेशे की गूदेदार जड़ जैसे मूली गाजर, शकरकंद इत्यादि । भील-भील एक पहाड़ी जंगली जाति है। ये राजपूताना के आदिम निवासी थे। पृथ्वीराज की लड़ाइयों में बहुधा इनका वर्णन आता है । भील<सं० भिल्ल-एक जंगली जाति । भीलों का वि० वि० देखिये---Hindu Tribes and castes. Sherring. Vol. II, pp. 328-29, 21-300। कंध नं नं धर= कंधे धड़े रहित हो गये अर्थात् शरीर बुरी भाँति घावों से भर गया यो, कंधों से धड़ पृथक हो गया ( सिर कट गया )। नोट:--रास के अन्तर्गत युद्ध काल के वर्णन के साथ इस पद का प्रयोग बहुलता से मिलता है) । 'पंष< सं० पक्ष । अषं<फा० s) = घाव। फिर=फिर ( था फिर” अथवा “फर’, ‘फट” (=फटना) के स्थान पर लिखा गया भी संभव है जैसे भट' के लिए चंद ने भर लिखा है। तीर= बाण ( कुछ प्रतियों में तौर’ पाठ भी मिलता है परन्तु वह अशुद्ध है)। नंबै करे नष्ट करना या घायल करना, चोट पहुँचाना । मेघ=वर्षा । आबधं<सं० आयुध । सं झर-झरना, गिरना । चंद<सं० चंद्र। बीजं<वीयं <द्वि= दो। चंद बीजं बरं =द्वितीया कु सुन्दर चंद्रमा:। अध्द अद्ध धर शरीर अधेि आधे हो गये। कित्ति<सं॰ कीर्त्ति<यश। जंपै=जपना, कहना। कित्ति जंपै सरं=सिर कीर्त्ति कहने लगे, (या) [कटे हुए] सिर बिजय बिजय चिल्लाने लगे। अत्सु<सं॰ अश्व=घोड़। रंभ<रंभा=स्वर्ग की एक अप्सरा। बंछै बरं=वर (पति) की वांछना। थान<सं॰ स्थान। वीय बंधं धरं=दूसरा बंधन धरना अर्थात् दूसरे शरीर रूपी बंधन में पड़ना। थान थानं=स्थान स्थान पर। नरं (ब॰ व॰)=नर (योद्धागण)। धार धारं तुटं=तलवार की धार से टूटकर (=कटकर)। भ्रंम वास छुट=भ्रंम पूर्ण वास छूट गया। जन्म लेने का अर्थ है प्रपंच अन्य संसार के विगिमन में पड़ना। 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' है, जो बीर यहाँ से चल दिया उसने तो सचमुच ही संसार रूपी अज्ञानमय स्थान से विदाई ले ली। षग्ग षोले करं=हाथ में तलवार निकाल ली। रुरं=रुरे, [रूरा (<सं॰ रूढ़=प्रशस्त) को बहुवचन=उत्तम, सुंदर]; उ॰—राज समाज विराजत रूरे, रामचरितमानस।

नोट:—(१) ह्योर्नले महोदय ने स्वसंपादित रास में प्रस्तुत रूपक का नाम रसावली लिखा है। रसावला से अलग यह कोई छंद नहीं है। दोनों के एक ही लक्षण हैं, नाम का किंचित् भेद है और वह लिपि कर्त्ताओं के अज्ञानवश हो गया समझ पड़ता है।

(२) प्रस्तुत रूपक में छं॰ १३४ का अंतिम एक चरण और छं॰ १३५ के अंतिम दो चरण, जितनी रासो की प्रतियाँ उपलब्ध हो सकीं किसी में नहीं मिले अतएव उनके स्थान पर ये.....चिह्न लगा दिये गये हैं।

कवित्त

षां षुरसांन ततार, षिज्झि[१५३] दुज्जन दल भष्षै।
बचन स्वामि उर षदकि, हटकि तसबी कर नंषै॥
कजल पंति गज बिथुरि, मध्य सेना[१५४] चडुआंनी।
अजै मानि जै रारि, बिय स तेरह चँपि प्रानी॥
धामंत फिरस्तन कढ्ढि असि[१५५], दहति पिंड सामंत भजि।
बर बीर[१५६] भीम बाहन करह[१५७], परे धाइ चतुरंग सजि॥ छं॰ १३६। रू॰ ८८।

भावार्थ—रू॰ ८८—खुरासान (का) तातार ख़ाँ क्रोध पूर्वक दुर्जनों ( शत्रुओं अर्थात् पृथ्वीराज) का दल भक्षण करने लगा (अर्थात् विनाश करने लगा)। स्वामी के बचन उसके हृदय में खटके और उसने हाथ से अपनी तसवीह (सुमिरनी) तोड़ डालीं। चौहान की सेना के मध्य में (गौरी के) हाथियों की काली पंक्ति (घुस कर) फैल गई और दो सौ तेरह आणी (योद्धा) दब कर मर गये, (उस समय ऐसा विदित हुआ कि) इस युद्ध में (पृथ्वीराज की) हार होना मानी हुई बात है [अर्थात्—इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार होना अवश्यंभावी है, ऐसा मालूम पड़ा]। (ग़ोरी के हाथियों के पीछे पृथ्वीराज की सेना में) फ़िरिश्ते तलवारें खींचे हुए घुस पड़े और दौड़ दौड़ कर सामंतों को मारने लगे। (इस विकट संकट काल में) श्रेष्ठ वीर भीम,(सेना के एक भाग को) चतुरंगिणी बना कर हाथी पर चढ़ कर (उनके मुक़ाबले के लिये) दौड़ पड़ा।

शब्दार्थ—रू॰ ८८—दुज्जन<दुर्जन (यहाँ ग़ोरी के लिये दुर्जन रूप शत्रु पृथ्वीराज के सैनिक थे)। स्वामि<स्वामी (ग़ोरी सुलतान)। पटकि=खटकना। हटकि=रोकना। तसबी<फा॰, (तसबीह) सुमिरनी, जप करने की छोटी माला। कर नंष्षै=हाथ से तोड़ा। कजल<सं॰ कज्जल=काला। पंक्ति<सं॰ पंक्ति। बिथुरि=फैलना। सध्य सेना चहुआांनी=चौहान की सेना के मध्य में। अजै<अजय=हार। मानि जै=मान लिया गया। रारि=युद्ध। दिय=दो। बिय स तेरह=दो सौ तेरह। चँपि प्रानी=प्राणी चँप गये (दब गये)। धामंत=दौड़ते हुए। फिरस्तन<फ़ा॰ (फ़िरिश्ता) फ़िरिश्तों ने। कढ्ढि असि=तलवार काढ़ (खींच) ली। दहति पिंड=शरीर जलाना (यहाँ मारने से तात्पर्य है)। सामंत भजि=भागने वाले सामंतों को (या) दौड़ दौड़ कर सामंतों को। भीम—रघुवंशी राजपूत योद्धा जिसकी मृत्यु का वर्णन अगले रू॰ में है। बाहन (क्रिया)=चढ़ कर। करह (<सं॰ करभ) करिह=हाथी को। परे धाइ=दौड़ पड़ा। चतुरंग सजि=एक चतुरंगिणी सजा कर।

नोट—युद्ध फल पलटने में सफल वीर भीम रघुवंशी इस युद्ध मारा गया। चंद वरदाई ने उसकी मृत्यु का अन्य कुछ योद्धाओं की भाँति विविध वर्णन न करके अगले रू॰ ८९ के प्रारम्भ में ही कह दिया है—'पर्यौ रघ्घुबंसी अरी सेन जाडी।' इससे स्पष्ट है कि भीम इस मोर्चे पर खेत रहा।

भुजंगी

पर्यौ रघ्घुवंसी अरी सेन जाडी[१५८]
हुतौ बाल वेसं मुषं[१५९] लज्ज डाढी[१६०]
बिना लज्ज पष्षै सचि ढुंढी पिष्यौ॥
मनो डिम्भरू जानि कै मीन ऋष्यौ॥छं॰ १३७।

पर्यौ रूक रिन बट्ट अरि सेन गाही[१६१]
मनो एक तेगं झरी नीर दाही॥
फिरे अड्ड बड्ढे उपन्मा न बट्ढै।
विश्वंक्रम्म बंसी कि दारुन्न गट्ढै[१६२]॥ छं॰ १३८।
परे हिंदु मेच्छं उलथ्ये पलथ्थी।
करै रंभ भैर ततथ्थे ततथ्थी॥
गहैं अंत गिद्धं वरं जे कराली।
मानों नाल[१६३] कढ्ढें कि सोभै म्रनाली॥ छं॰ १३९।
तुटै एक टंगा टिकै[१६४] षग्ग धायौ।
मनो बिक्रमं राइ गोइंद पायौ॥
गहै हिंदु हथ्थं मलेच्छं भ्रमायौ।
जनौ भीम हथ्थीन उप्पम्म पायौ॥ छं॰ १४०।
ननं मानवं जुद्ध दानब्ब ऐसौ।
ननं इंद तारक्क भारथ्थ कैसौ॥
भुकं[१६५] बज्जि झंकारचं झंपि उट्ठै।
बरं लोह पंचं बधं पंचं छुट्टै[१६६]॥छं॰ १४१।
मनो सिंघ उज्झै अरुज्झन्त छुट्टै।
रनं देवसांई सए आब षुट्टै॥
घतं घोर दुण्ढंत उतकंठ फेरी[१६७]
लगै झग्गरै हंस हज्जार एरी॥छं॰ १४१।
तुटै रुंड मुंडं बरं जे[१६८] करेरी।
बरद्दाइ रिज्झैं दुहूं दीन्न भेरी॥छं॰ १४३। रू॰ ८९।

भावार्थ—रू॰ ८९—शत्रु सेना का संहार करता हुआ वीर रघुवंशी (भीम) मारा गया। वह अभी बिलकुल बालक था और उसके मुँहपर डाढ़ी लज्जित हो रही थी (अर्थात् डाढ़ी के कुछ कुछ चिह्न दिखाई पड़ते थे)। शची ने लज्जा का परित्याग कर उसे ढूँढना प्रारंभ किया और अंत में उसे (एक स्थान पर) देखकर उसी प्रकार खींचा जैसे मछली अपने बच्चे को खींचती है। उस (भीम) ने (बढ़ती हुई) शत्रु सेना पर आघात कर उसका युद्ध मार्ग उसी प्रकार रोका था मानो किसी ने (बढ़ती हुई) जल धारा सुखा दी हो। वीरों को इधर उधर दौड़ते देखकर (इसके अतिरिक्त और) कोई उपमा नहीं समझ पड़ती मानो विश्वकर्मा के वंशज लकड़ी गढ़ रहे हों। [युद्ध मार काट करके] हिंदू और म्लेच्छ उलटे पुलटे पड़े थे तथा रंभा और भैरव ताताथेई ताताथेई करके नाच रहे थे। कराल गिद्धों ने (मरे हुओं की) अंत- ड़ियाँ खींच लीं तो ऐसी शोभा मालूम हुई मानो नाल सहित कमल उखाड़ जिये गये हों। टाँग टूटने पर तलवार का सहारा लेकर (वीर योद्धा) दौड़े मानो उन्होंने गोविन्द का पुरुषार्थ या लिया हो। हिंदुओं ने म्लेच्छों को हाथ पकड़ चारों ओर घुमा कर भीम द्वारा हाथियों को घुमाने की उपमा प्राप्त कर ली। यह मानवों का युद्ध न था वरन् दानवों का सा युद्ध था या इन्द्र और तारकासुर के युद्ध सदृश था । युद्ध में आयुध परस्पर लगकर भंकृत होते थे, बंद हो जाते थे और (वार पड़ने पर) पुन: झनकार उठते थे। उन (सामंतों) के पाँच प्रकार के आयुधों की मार से (शत्रु के) पंचतत्व हो जाते थे (अर्थात् शत्रु की मृत्यु हो जाती थी)। जिस तरह सिंह छलांग मारकर और कूद कर (शिकार पर) टूटता है उसी प्रकार देवताओं के स्वामी युद्ध भूमि में आकर लड़ने लगे। घनघोर युद्ध में उत्कंठा से फिर कर ढूंढ़ते हुए शिव और इंद्र भगड़ने लगते थे। करौली के वार से जब धड़ से कटकर सिर गिरता था तब दोनों वरदाई (वीर; वरदानी) रीझ करके भेरी बजाने लगते थे ।

शब्दार्थ---रु.० ८६---रघुबंसी = यह भीम के लिये आया है जिसके लिये पिछले कवित्त में लिखा है कि उसने एक चतुरंगिणी सजा कर सुलतान की बाढ़ का मुक्काबिला किया। अरी से शत्रु सेना। जाडी (पंजाबी) = मारना। हुतौ= था। बाल बेसं <वाल वयस=नव युवक। मुष्षै लज डाढ़ी = मुख पर डाढ़ी लजित हो रही थी अर्थात् मुँह पर थोड़ी सी डाढ़ी निकली थी। बिना लज = बिना लज्जा के अर्थात् निर्लज होके।पष्षै <सं० प्र + कृश= पकड़ना; [प्रकृश से ‘पषै’ उसी प्रकार हो गया है जिस प्रकार सं० प्रकर्कश्य > प्रा० पअकवख (या) पकुबस]। सच <० चिद्राणी। ढुंँढ-ढूँढ़ कर। पिष्यों (=पेखा या देखा) <सं० प्रेक्षण। डिम्मरू= बचा। ऋष्यौ= खींचा। (नोट-मछली अपने ही बच्चों को खा जाती है। 'मीन ऋष्यौ' से यह ध्वनि भी घोषित होती है) रूक रोककर। रिन <सं० रण। बटा < बाट मार्ग ।गाही <सं० ग्रह =पकड़, घात। तेगं भरी= तलवार का बार। नीर दाही= जल सुखा दिया। अड्ड बंड्डे<अंड बंड =इधर उधर। उपम्मा न बंट्ढै--उपमा नहीं बढ़ती अर्थात् उपमा नहीं देने बनता । विश्वंक्रम्म < विश्वकर्मा । वंशी= वंशज, राज, बढई, लुहार आदि विश्वकर्मा के वंशज कहे जाते है। दास्न < दारु (==लकड़ी) का बहु वचन है। गरौं या गहू =गढना। अंत= अंत. ड़ियाँ। कराली = भयंकर। मनाली सं० मृणाल = कमल नाल। उलध्ये पलथ्थी = उलटे पुलटे। विक्रमं <विक्रम=पुरुषार्थ। गोइंद (< गोबिंद) =यह नाम विष्णु के वामनावतार की थोर संकेत करता है। "कश्यप और अदिति के पुत्र बामन ने तीन पगो मे सब लोको को जीत लिया और उन्हे पुरंदर को दे दिया" (विष्णु पुराण)। विष्णु पुराण में इस अवतार का केवल इतना ही हाल मिलता है, विशेष विवरण भागवत, कूर्म, सत्स्य और वामन पुराणों में है। श्रीमद्भागवत मे यह कथा संक्षेप में इस प्रकार वर्णित है--- विरोचन के पुत्र बलि ने तपस्या और यशो द्वारा इन्द्रादिक देवताओं को वश मे करके आकाश, पाताल और मृत्यु लॉक पर कर लिया। देव- तो की प्रार्थना पर विष्णु ने कश्यप और अदिति के घर जन्म लिया । कश्यप का पुत्र बौना होने से वामन कहलाया। एक दिन वामन ने वलि से दान मागा। दैत्यो के गुरू शुक्र के मना करते हुए भी बत्ति ने वामन को मुँह मागी मुराद पूरी करने का वचन दे दिया। वामन ने तीन परा पृथ्वी मागी और बल के एवमस्तु कहते ही चामन ने अपना इतना आकार बढाया कि तीनो लोक भर गये। अंत में बलि और उनके पूर्वज प्रह्लाद की प्रार्थना पर बलि को पाताल का राजा बना दिया गया--'बलि' चाहा आकास को हरि पठवा पाताल'। यह भी कथा है कि वामन का एक पैर लकडी का डंडा था। 'प्राशुलभ्ये फले लोभदुदाहुवि वामन--रघुवंश।[ये विभिन्न कथाये देखिये -- Sanskrit Texts. J Muir. Vol. IV, p 116ff.]। गहै:= पकडकर। हथ्थ प्रा० < सं० हत्त = हि० हाथ। अमायौ = भीम-पांडवो के भाई भीमसेन के लिये लिखा है कि वे महाभारत मे कौरवो के हाथियों को सॅड पकडकर घुमाते थे और फिर उन्हें पृथ्वी पर पटक कर मार डालते थे (महाभारत)। सं० हस्तिन > मा० हथ्वी > हि० हाथी- ['हथ्थोन','हाथी' का बहुवचन है] दानबदनु के पुत्र।कश्यप की स्त्री दनु के चौदह पुत्र हुए जो दानव कहलाये (विष्णु पुराण १।२११४-६) । सं० भारत> प्रा० भारथ्य> हि० भारत, भारथ = घोर युद्ध।तारक=तारकामुर, राक्षस तपस्था द्वारा देवताओं से भी अधिक शक्ति प्राप्त की और फिर सबको त्रास देने लगा, तब इन्द्र ने शिव के पुत्र कार्तिकेय की सहायता से उसका बध


किया, [वि० वि० प०, मत्स्य पुराण कुमार संभव- कालिदास]। सुकं = घुमाया । सुकना। बजि=बजकर। झंकारयं=झंकार की ध्वनि। झंपि=झँपना, बंद होना। झुकं बजि झंकारयं झंपि उट्ठे=युद्ध में (अस्त्र शस्त्र परस्पर) बजकर झंकार उठते हैं, बंद होते हैं और झनझना उठते हैं। लाह=लोह (तलवार या आयुध)। लोह पञ्चं=पाँच आयुध (तलवार, ढाल, भाला, कटार, बाण)। इनके नामों के विषय में मतभेद है। तलवार, ढाल, धनुष, डंडा और भाला—ये पाँच आयुध Spence Hardy's Manual of Buddhism. p. 290 में मिलते हैं। बधं=बध करना। पञ्च छुट्टै=पंचत्व [पृथ्वी, जल, वायु, आकाश] छूट जाते हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं। या 'पंच छुट्टै' का अर्थ 'आत्मा का पंचत्य (शरीर) से छूट जाना' भी संभव है। उज्झै—उझल या उछल कर। देवसांई=देवताओं के स्वामी=इन्द्र। उतकंठ<सं॰ उत्कंठा। घनं घोर=घन घोर (युद्ध में)। लगै झागरै=झगड़ने लगना। हंस शिव (ह्योर्नले)। हज्जार= (सं॰ सहस्राक्ष) इन्द्र का एक नाम। इन्होंने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या से ऋषि का छद्म वेश रखकर पापाचार किया था। गौतम ने यह जान कर शाप दिया कि रे योनि प्रेमी अधम, तेरे शरीर में एक सहस्त्र योनि सदृश छिद्र हो जावें। तभी इन्द्र का नाम 'सयोनि' पड़ा। कुछ समय पश्चात् उन्हीं ऋषि की कृपा से ये योखिों के रूप में बदल दी गई और तब इन्द्र का नाम सहस्राक्ष पड़ा, (वि॰ वि॰ पुराणों और महाभारत में देखिये)। बरद्दाइ=वरदाई (१—वीर, २—वरदानी)। रिज्झैं=रीझते हैं। दीन्न भेरी=भेरी बजाने लगते हैं। भेरी=बड़ा नगाड़ा, ढोल, दुन्दुभी। करेरी> हि॰ करौली<सं॰ करवाली=एक प्रकार की छोटी तलवार, कटार।

कवित्त

पच्छैं भो संग्राम,अग्ग अपछर विच्चारिय।
पुछै रंभ मेंनिका, अज्ज चित्तं किम भारिया॥
तब उत्तर दिय फेरि, अज्ज पहुनाई आइय।
रथ्य बैठि औथान, सोझ तह कंत न पाइय॥
भर सुभर परे भारथ्थ भिरि, ठांम ठांम चुप जीति सधि[१६९]
उथकीय पंथ हल्लै चल्यौ, सुथिर संभौ द्वेषीय नथि[१७०]॥छं॰ १४४।रू॰ ९०।

भावार्थ—रू॰ ९०—संग्राम पीछे हुआ इससे आगे (पूर्व) अप्सराओं ने विचार किया [अर्थात् अगले दिन युद्ध छिड़ने के पूर्व अप्सराओं में कुछ वार्तालाप हुआ]। रंभा ने मेनका से पूछा कि तुम्हारा चित्त क्यों भारी है ? मेनका ने उत्तर दिया कि “आज पहुनाई करने का दिन आया है;( पाहुन) रथों [ विमानों में बैठकर अन्य स्थानों को जा रहे हैं, तहाँ (युद्ध भूमि में खोजकर) मैंने अपने कंत को नहीं पाया; श्रेष्ठ वीर योद्धा युद्ध में लड़भिड़ और विजय प्राप्त कर [–-विजयी इसलिये कि शत्रु को मार कर मरे हैं—] स्थान स्थान पर चुपचाप पड़े हैं तथा उधर वाले मार्ग पर [ अर्थात् स्वर्गलोक की ओर] तापूर्वक चले जा रहे हैं; (मेरे लिये) सुरिता की संभावना नहीं दिखाई पड़ती (या मेरे लिये सुस्थिरता का समय नहीं दीखता) ।”

शब्दार्थ--रू० ६०--पच्छैं=पीछे ।भी (< सं० भव) = हुआ। अग्ग< सं० अग्र=आगे या पहले‌। विचारिय=विचार किया। पुछै=पूछा पूछती है। रंभ = रंभा (एक अप्सरा)। मेनिका (सं० मेनका= स्वर्ग की एक अप्सरा जो इंद्र की आज्ञा से विश्वामित्र का तप भंग करने के लिये गई थी और विश्वामित्र के संयोग से जिसने शकुंतला नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी। सं० अद्य > प्रा० अज्ज > हि० आज। चित्तं किस भारिय-चित्त क्यों भारी है अर्थात् तुम उदास क्यों हो। पहुनाई = (हिंदी पहुना + ई प्रत्यय) अतिथि सत्कार। आई=आया,आई। रथ्थ<स०रथ,यहाँ विमान से तात्पर्य है)। औथान < उत्थान =ऊपर उठना (स्वर्गलोक की ओर), (या =औथान स्थान )। सोझ= ( १ ) [हिंदी सुकना = दिखाई पड़ना] (२)> सोध < सं० शोध = खबर, टोह। कंत=प्रिय। तह = तहाँ ( अर्थात् युद्ध भूमि में)। भर < भट। सुभर < सुभट। भिर=लड़भिड़ कर। ठांम ठांस ठाँक ठाँव अर्थात् स्थान स्थान पर। जीति = विजयी होकर। चुप चुप्पी साधे हुए अर्थात् चुपचाप । उयकीय=पूर्वी बोली में एथकई ओथकई का अर्थ इधर उधर है, अतएव उधकीय (या उथकी) का अर्थ इधर उधर= 'उधर' हुआ। सं० 'इत:+तत:' से इत उत, एतकी-ओथकी, एकैती-ओकैती,इत्त-उत्त आदि शब्द निकले हैं। हल्लै चल्यौ = हल्ला मचाते चले गये या शीघ्रता पूर्वक चले गये (क्योंकि विमानों में गए थे)। सुधिर (< सुस्थिर=जो भली भाँति स्थिर हो)= शांति। संभौ= (१) समय, ('समौ' का बोल चाल में 'संभौ' भी होता है); (२) संभावना। देषीय = दिखाई पड़ना।सं० नास्ति > प्रा० नत्यि > अप० मथि नहीं है।

नोट--(१)--युद्ध से आशान्वित होकर अप्सराओं ने अपने घर वीर गति पाने वाले योद्धाओं के स्वागतार्थ सजा रखे थे। परन्तु युद्ध के दिन इन वीरों को अपने घर के सामने से निकलकर अन्य लोकों को जाते देख मेनका बड़ी निराश हुई (रू॰ ९०)। रंभा ने मेनका को यह कहकर प्रबोधा कि ये वीर हमारे लिये बहुत बड़े हैं और तुम्हारा प्रिय इन्द्राणी द्वारा वरण किया जा चुका है (रू॰ ६१)। संभवत: मेनका, वीर योद्धा भीम रघुवंशी को वरण करना चाहती थी जिसे इन्द्राणी पा गई (छं॰ १३३, रू॰ ८९)।

(२) कर्नल टॉड (Colonel Tod) ने रू॰ ९० और ९१ का अंग्रेजी में इस प्रकार अनुवाद किया है—

"The Apsaràs invain searched every part of the field. Rambhà asked Menaka, 'Why thus sad today?" 'This day' said she 'I expected guests.' I descended in my chariot. The field have I searched, but he whom my soul desires, is not to be found: therefore, am I sad! chiefs, mighty warriors, strew the ground, who conquered victory at every step! My feet are weary in tracing the paths in which fell the brave; but him whom I seek, I cannot find. 'Listen, Oh sister,' said Rambhà, 'he who never bowed the head to a foe, will not be found in this field. To convey hence the pure flame, the chariot of the planets descended. He even avoided the heaven of Brahma and of Siva; his flame, has gone to be united to the Sun, to be worshipped by Indrani. On earth he will know no second birth."

[Transactions of the Royal Asiatic Society. Vol. I, Comments on a Sanskrit Inscription. pp. 151-52]

(३) प्रस्तुत रूपक से रेवातट-समय के चौथे दिन के युद्ध का वर्णन प्रारम्भ हो गया है।

कुंडलिया

कहै रंभ सुनि मेनका[१७१], एरहु जिन मत जुथ्थ।
अरिय अंनमति जांनि करि, जोति आवै ग्रह रथ्थ॥
जोति आवै ग्रह रथ्थ, ब्रह्म सिव लोकह छंडी।
(कै) बिश्न लोक ग्रह करै, (कै) भांन तन सों तन मंडी॥
रोमंच्चि तिलक्कं बसि बरी, इंद्र बधू पूजन जहीं।
ओपंस जोग न न हुआ बहुरि, अवतार न बर है कहीं[१७२]॥ छं॰ १४५ रू॰ ९१।

कवित्त

षां हुसेन ढरि पर्यौ, अस्व फुनि पर्यौ सार बहि।
झुज्झ[१७३] फेरि सत सीव, षांन उजवक्क षेत्त[१७४]रहि॥
षां तातार मारूफ, षांन षांन घट घुम्मै।
तब गोरी सुबिहांन,आइ दुज्जन मुष झुम्मै॥
कर तेग झल्लि मुट्ठिय[१७५]सुवर, नहीं सउरतआनह पन करी।
आदि हार दीह पलटे सुबर, तबहिं साहि तब फिर पुक्करी॥छं॰ १४५|रू॰ ९२।

भावार्थ—रू॰ ९१—रंभा ने कहा कि मेनका सुनो, "उस जुथ्थ (लाशों के ढेर) में उस (अपने कंतु) को मत खोजो। उसे शत्रु के संमुख न झुका जानकर ग्रह से रथ जुत कर आया था। ग्रह से रथ जुत कर आया और (उसे बिठा कर) ब्रह्म और शिव लोक छोड़ता हुआ चला गया। अब या तो वह विष्णु लोक में वास करेगा या सूर्य के शरीर में अपना शरीर मिलाकर शोभित होगा (अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा)। सुंदर इंद्र बधू (इन्द्राणी) प्रसन्नता से रोमांचित हो, (अपने माथे पर) वश में करने वाला (सिंदूर) बिंदु लगा कर उसकी पूजा करने गई हैं। उस (वीर की उपमा नहीं दी जा सकती, वैसा कोई न हुआ है और न कहीं अवतार (जन्म) लेगा [या—उसकी बराबरी के योग्य जन्मा हुआ कोई नहीं है]।"

नोट—अगले दिन युद्ध आरंभ हो गया—

रू॰ ९२—(गोरी का योद्धा) हुसेन ख़ाँ (आक्रमण करने के लिये आगे) दौड़ पड़ा और (उसके पीछे) घोड़सवार सेना चल पड़ी। युद्ध पलटने के लिये [या—युद्ध से भागने वालों को पलटने के लिये या—हारता युद्ध जीतने के लिये] उजबक्क ख़ाँ रणक्षेत्र में (पीछे) सीमा बनाये (अर्थात् रोक लगाये) डटा रहा। तातार मारूक ख़ाँ तथा अन्य ख़ान एक साथ घूमने लगे, (उसी समय) ग़ोरी भी शीघ्रता से आगे बढ़ कर शत्रु (पृथ्वीराज की सेना) के सामने झूमने लगा। सुभट (ग़ोरी) ने हाथ में तलवार लेकर मुट्ठी घुमाते हुए प्रण किया कि 'मैं सुलतान न रहूँगा यदि आज (का दिन) पलटने (अर्थात् शाम) तक (शत्रु को) भलीभाँति पराजित न कर दूँगा (और इतना करने पर) तभी फिर शाह पुकारा जाऊँगा।' शब्दार्थ---रु.० ६१---एरहु = हेरहु, खोजो जिन <जिन अध्ययन [हि० जनि] = मत, नहीं| भत= नहीं। चंद ने Double negatives का प्रयोग बहुधा किया है; उ० – 'न न'; रातो में इसकी भरमार है; वैसे ही यहाँ आया हुआ 'जिनमत' भी है)। रि, शत्रु। अनंति = (अ+ नमति) न भुकने वाला। ग्रह=घर। [ऋह से यहाँ विष्णु लोक से तात्पर्य है जहाँ से बारगति पाने वालों के लिये विमान आते हैं]। छंडी=छोड़ता हुआ। (कै)=या तो। (कै) भान तन सो तन मंडी =या तो सूर्य के शरीर में अपना शरीर मिला देगा अर्थात् सूर्य लोक में वास करेगा। भान < मानु सूर्य। रोमंचि=रोमांचित हो; [रोमांच अधिक प्रसन्नता, भय, दुःख दि के वेग में होता है। यहाँ इन्द्राणी इतना बड़ा वीर पाकर प्रसन्नता से रोमां- चित हो उठीं थीं]। तिलंक = तिलक, (यहाँ सिंदूर बिंदु से तात्पर्य है जिसे स्त्रियाँ अपने माथे पर लगाती हैं)। बसि < वश। वरी= श्रेष्ठ, सुंदरी (--वर का स्त्रीलिङ्गरूप 'वरी' है)। तिलक बसि=वश में करने वाला बिंदु [नोट - इस लाल बिंदु में पुरुषों को आकर्षित करने की बड़ी शक्ति होती है और इसके लगाने से स्त्रियों की सुंदरता अत्यधिक बढ़ जाती है। इस बिंदु की महिमा कवि बिहारीलाल ने इस प्रकार बखानी है--

कहत सबै बेंदी दिये,आँक दस गुनी होत।

तिम शिलार बेंदी दिये,अगनित होत उदोत।।


इंद्र बधू = ( सं० शचि )---इंद्र की पत्नी इंद्राणी,दानयराज पुलोमा की कन्या थीं। उनके पर्यायवाची नाम — सन्ची, ऐंड्री, पुलोमजा, माहेन्द्री, जयवाहिनी भी हैं। ओपंग जोग= उपमा देने के योग्य । न न हुबहु नहीं हुआ। बहुरि (या बहुर) [देशज] [हिं० बहुरना < सं० प्रघूर्णन] उ०---बहुर लाल कहि बच्छ कहि; आगे चले बहुरि रघुराई-- राम चरित मानस । नन को न न पढ़ना चाहिये जो (Double negatives) हैं । अवतार (रत येति अवतारः )---जन्म। अवतार न बर है कहीं = (१)---न कहीं जन्म लेगा ( २ ) जन्मा हुआ कहीं नहीं है।

रू० ९२–--ढरि परथौ=दौड़ पड़ा ; [ययाँ हरि परथौ का अर्थ मारा गया लेना उचित न होगा क्योंकि अगले रू०६४ में हमें फिर हुसेन खाँ का हाल मिलता है]। अश्व सारव सवार= घोड़सवार सेना से तात्पर्य है। सार= शक्ति।पुनि <० पुनः फिर पथौ बहि= बह पड़ी अर्थात् आक्रमण किया। मुझ < जुल्म < जुद्ध < युद्ध। फेरि= फेर देना पलट देना । सीव< सीमा । पेत रहि = खेत ( युद्ध क्षेत्र ) में रहा । घट घुम्मै= इकडे होकर घूमने लगे। सुविहांत=मात:काल;[यहाँ शीघ्रता से तात्पर्य है ।। बिहान < पंजाबी विहानस = बीत जाना। आइ=आकर। दुजन मुष झुम्मै=दुर्जनों (=शत्रुओं) के संमुख मूमने लगा। कर तेग हाथ में तलवार लिये हुए ! भलि मुहिमु हिलाता हुआ। नहिं सुरतानह= सुलतान नहीं हूँ, (सुलतान न कहलाऊँगा या सुलतान न रहेगा)। पन करी=पण किया। आदि <स० अध> प्रा० अज्ज<हि० आज !हार दीह = दी हुई हार ; पराजित करना।सुबर = (१) सुभट (२) अलीभाँति। तबहिं साह फिर पुकरी = तभी वह फिर शाह पुकारा जायगा (अर्थात् केवल तभी वह शाह कहलावेगा अन्यथा नहीं)।

नोट---(१) "दूसरे दिन मीर हुसेन के पुत्र हुसेन खाँ ने मारूफ वाँ का मुकाबिला किया और उसे घायल करके गिरा दिया, यह देखकर उजबक खाँ उसके सुकाबिले पर आया। दोनों में चड़ी देर तक बड़ी ताक झाँक होती रही अंत में उजवक ने एक ऐसा हाथ मारा कि जिससे हुसेन खाँ के भी गहरी चोट लगी और उसका घोड़ा कटकर ज़मीन पर लोट गया। इस युद्ध में शहाबुद्दीन बिकट व्यूह से रक्षित तलवार लिये मरने मारने पर उद्यत था रासो-सार, पृष्ठ १०२।

प्रस्तुत रू० में आया हुसेन लॉ गोरी का योद्धा है जिसके लिये अगले रू०६४ में लिखा है कि गहि गोरी सुरतान पान हुस्सेन उपारयौ ।' यदि हुसेन ख़ाँ ( चाहे वह मीर हुसेन का पुत्र हो या कोई अन्य हो) वही है जिसके लिये रासो-सार कहता है कि पृथ्वीराज की ओर से उसने मारूफ़ ख़ाँ का मुकाबिला किया तो फिर पृथ्वीराज ही की सेना सुलतान को पकड़ने के बाद उसे क्यों 'उपार' देती [ उखाड़ देती ( हरा देती ) ; नष्ट कर देती या मार डालती ] । इस प्रकार हुसेन ख़ाँ के गोरी पक्ष का सैनिक सिद्ध होते ही रासो-सार का उपयु के वर्णन अनुचित सिद्ध होता है।

(२) एक 'हुसेन खाँ' तातार मारूफ़ख़ाँ का भी भाई था और जहाँ तक संभव है वह हुसेन ख़ाँ वही था --[ऋषू तम्मि आपैंति वार। सम लाल पान

हस्सन हकार ॥” छंद १६, रासो सयौ ४३]।

कवित्त

तब साहिब गोरी नरिंद, सत्त बानं जु समाही[१७६]
पहल[१७७] बान बर बीर, हुने रघुवंस गुरांई[१७८]
दूजै बांत तकंत[१७९], भीम भट्ठी बर भंजिय।
चहुआंन तिय वांन, षांन अर्द्ध घर रंज्जिय॥
चहुआंन कमांन सुसंधि करि, तीय बांन हथह थहरिय[१८०]
तब लग्गि चंपि प्रथिराज नें, गोरी वै गुज्जर गहिय॥ छं॰ १४७। रू॰ ९३।

भावार्थ—रू॰ ९३—तब साहब शाह ग़ोरी ने सात बाण स्थिर किये [या सात बास्य धनुष पर चढ़ाये]। पहले बाण से उसने श्रेष्ठ वीर रघुवंश गुराई को मार डाला, दूसरे बाण से उसने निशाना लगाकर श्रेष्ठ भीम भट्टी को मारा और ख़ान (गोरी) ने तीसरे बाण से चौहान के शरीर का मध्य भाग घायल किया। चौहान ने (भी) धनुष सँभालकर तीन बाण हाथ में लिये। (परन्तु) जब पृथ्वीराज यह करने में लगे थे तो गुज्जर ने ग़ोरी को पकड़ लिया।

शब्दार्थ—रू॰ ९३—तत्त वानं=सात बाण। समाही<सं॰ समाहित=समाविस्थ, स्थिरीकृत, (उ—भुज समाहित दिग्वसना कृतः'—रघुवंश)। सत्त बानं जु समाही=सात बाण स्थिर किये अर्थात् सात बाण धनुष पर चढ़ाये। पहल बान=पहला बास। हने=मार डाला। 'गुराई', गोराज का विकृत रूप है। (गोराज या गोविन्द=गायों का स्वामी)। रघुवंस गुरांई=गुराई, रघुवंशी राजपूत विदित होता है। इस प्रकार अभी तक तीन रघुवंशी योद्धा मारे गये—(१) प्रथा (रू॰ ८४), (२) भीम (रू॰ ८९); (३) गुराई (रू॰ ९३)। दूजै बांन तर्कत=दूसरे वाण से ताककर अर्थात् निशाना लगाकर। भंजिय=नष्ट किया। तिथ वांन=तीन बाण। पांन=यह शाह ग़ोरी के लिये आया है। ग़ोरी के लिये अभी तक सहाब, शाह आादि पदवियों का प्रयोग होता रहा है, परन्तु यहाँ पर ख़ान का प्रयोग क्यों हुआ यह विचारात्मक है। संभव है कि सुलतान ग़ोरी की प्रतिज्ञानुसार कि यदि आज दिन पलटने तक शत्रु को भलीभाँति पराजित न कर दूँगा मैं सुलतान या शाह न कहलाऊँगा (रू॰ ९२), चंद बरदाई ने उसके लिये 'षांन' का प्रयोग किया हो। चहुआंन=पृथ्वीराज (परन्तु यह भी संभावना है कि यह चौहान वंशी कोई अन्य युद्ध हो)। अर्द्ध धर<अर्द्ध धड़=आधे धड़ में या शरीर के मध्य भाग में। [नोट— 'घर' की जगह 'घर' पाठ भी मिलता है; और 'घट' (=शरीर) से 'घर' होना उसी प्रकार संभव है जिस प्रकार रासो में 'भट' से 'भर' होना]। 'रंजिय' को यहाँ रंजन से संबंधित न कर यदि फारसी 'रंज' (दुख, कष्ट) से निकला मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं दीखती और अर्थ भी अच्छा हो जाता है। रंजिय<फा॰ =कष्ट। अर्द्ध घर रंजिया=आधे घड़ को कष्ट दिया अर्थात् शरीर का मध्य भाग बायल किया। कमान मुसंधि करि= धनुष सम्हाल कर। सुसंधि=भली भाँति संधानना; (संधान=निशाना लगाना) अतएव 'कमान सुसंधि करि' का अर्थ 'धनुष संधानना' नहीं वरन् "धनुष सम्हालना होगा', क्योंकि बाग संधाना जाता है, धनुष नहीं। थहरिय<ठहरिय। हथह थहरिय=हाथ में ठहराये या लिये। हथह=हाथ में। लग्गि=लगे हुए। चपि=दवना। लगिंग चंप=लगे दबे थे अर्थात् व्यस्त थे। गहिय=पकड़ा। गुज्जर=यह संभवत: पृथ्वीराज का वही सामंत है जिसका वर्णन प्रस्तुत रासो-समय के रू॰ २७ और २८ में आ चुका है। 'वह वह कहि रघुवंस राम हक्कारि स उठ्यौ' तथा गुज्जर गांवांर राज लै मंत न होई' के आधार पर उसका नाम 'राम रघुवंशी गूजर (गुर्जर)' होना चाहिये।

नोट—"राजपूत वीरों की विकट मार के मारे जब यवन सेना पस्त हिम्मत हो उठी तो कुछ सामंतों ने मिलकर शहाबुद्दीन पर आक्रमण किया और उसे घेर कर पकड़ना चाहा। यह देखकर शाह ने एक वान से रघुबंस राम गुसाई को मारा और दूसरे से भीम भट्टी को घायल किया तीसरा वाण जब तक चढ़ता था कि पृथ्वीराज ने आकर उसके गले में कमान डाल दी।" रासो-सार, पृष्ठ १०३।

कवित्त

गहि गोरी सुरतान, षान हुस्सेन उपाध्याय।
षां ततार निसुरत्ति, साहि झोरी कारि डार्यौ॥
चामर छत्र रषत्त, वषत लुट्टे सुलतानी।
जै जै जै चहुआन, बजी रन जुग जुग बानी॥
गजि बंधि बंधि सुरतांन कों, गय ढिल्ली ढिल्ली नृपति।
नर नाग देव अस्तुति करैं, दिपति दीप दिवलोक पति॥ छं॰ १४८।
रू॰ ९४।

दूहा

समै एक बत्ती नृपति, बर छंड्यौ सुरतान।
तपै राज चहुआन यौं[१८१], ज्यों ग्रीषम मध्यांन॥ छं॰ १४९। रू॰ ९५।

भावार्थ—रू॰ ९४—सुलतान ग़ोरी को पकड़ लिया, हुसेन ख़ाँ को नष्ट कर डाला, (फिर) तातार निसुरति ख़ाँ को झोली बना कर बाँध लिया। सुलतान के चमर और छत्र रखने का समय लुट गया (=चला गया)। रणभूमि में स्थान व स्थान पर चौहान की जय जयकार होने लगी। दिल्लीश्वर, बँधे हुए सुलतान को हाथी पर बाँध कर दिल्ली (ले) गये । नर, नाग और देवता स्तुति करने लगे कि (महाराज पृथ्वीराज का) तेज पृथ्वी पर इंद्र के समान प्रकाशमान हो [या—महाराज पृथ्वी पर इंद्र सदृश यशस्वी हों]।

रू॰ ९५—कुछ समय बीतने पर पृथ्वीराज ने सुलतान को मुक्त कर दिया। चौहान राजा उसी प्रकार तप रहा था जिस प्रकार ग्रीष्म (ऋतु) में मध्याह्न का सूर्य [अर्थात् चौहान का बल और पुरुषार्थ ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल के सूर्य के समान था]।

शब्दार्थ—रू॰ ९४—उपार्यौ=नष्ट कर दिया या उखाड़ दिया। रषत्त=रखने का। बषत<फा॰ =समय। लुट्टे=लुट गया। सुलतानी=सुलतान गोरी का। जुग जुग=जगह जगह; युग युग। वानी <सं॰ वाणी। गय=गये। ढिल्ली=दिल्ली, [वि॰ वि॰ प॰ में]। ढिल्ली नृपति=दिल्ली नृप (अर्थात् पृथ्वीराज)। दिपति=प्रकाशित हो, दिपै। दीप=प्रकाश, तेज, यश। दिव-लोकपति=इन्द्र। रक्त बषत<रख़त बख़त डेरा डंडा।

रू॰ ९५—समै<समय। बत्ती<सं॰ वार्ता। बसी<सं॰ व्यतीत=बीता। छंड्यौ=छोड़ दिया, मुक्तकर दिया।

नोट—(१) रू॰ ९४ के प्रथम दो चरणों का अर्थ ह्योर्नले महोदय ने इस प्रकार लिखा है—"The Gori Sultan being captured, Husain Khan now prevailed (in the battle); and the Tattar Nisurati Khan, making up a litter, put the Shàh on it" PP. 66-67.

(२) रू॰ ९४ में 'रषत्त बषत' शब्द का एक साथ अर्थ करने से 'डेरा डंडा' होता है और इसी अर्थ में पृ॰ रा॰ में हम इसका प्रयोग पाते हैं—

[उ०—'चामर छत्र रपत्त। सकल लुट्टे सुरतानं॥' छं॰ २४८, सम्यौ १९,
'चामर छत्र रपत्त। बपत लुट्टे रन रारी॥' छं॰ २६४, सम्यौ २४, 'हसम हयग्ग्यय लुट्टि। लुट्टि पष्षर रषतानं॥' छं॰ ६०९, सम्यौ ५२,
'चामर छत्र रपत्त। तषत लुट्टे सुलतानी॥' छं॰ २६५, सम्यौ ५८,

यदि प्रयोग भी रासो में हैं]।

अतएव प्रस्तुत रूपक के प्रथम तीसरे चरण का अर्थ यह भी होगा कि—सुलतान का चँवर, छत्र और डेरा डंडा सब लुट गया।

कवित्त

मास एक दिन तीन, साह संकट में रुंधौ[१८२]
करी अरज उमराउ, दंड हय मंगिय सुद्धौ॥
हय अमोल नव सहस, सत्त से दीन[१८३]ऐराकी।
उज्जल दंतिय अट्ठ, बीस मुरु[१८४] ढाल सु जक्की॥
नग मोतिय मानिक नवल, करि सलाह, संमेल करि।
पहिराइ[१८५]राज मनुहार कर, गज्जनवै पठयौ सु घर[१८६]॥ छं॰ १५०। रू॰ ९६।

भावार्थ—रू॰ ९६—एक महीना और तीन दिन तक ग़ोरी बंदीगृह में पड़ा रहा। जब उसके अमीरों ने प्रार्थना की और दंडस्वरूप घोड़े देना स्वीकार किया तब वह मुक्त किया गया। (दंड में अमीरों ने) नौ हज़ार अमूल्य बोड़े और सात सौ ऐराकी घोड़े दिये; आठ सफेद हाथी और बीस ढली हुई अच्छी ढालें दीं तथा गजमुक्ता और नये माणिक्य दिये। (इस प्रकार) मुलह कर और शांति स्थापति करके राजा ने गज्जन [ग़ज़नी नरेश] को पहिना ओढ़ा तथा चादर सत्कार करके उसके घर भेज दिया।

शाबदार्थ—रू॰ ९६—संकट में रुंधौ=संकट में रुँधा रहा (अर्थात् बंदी- गृह में पड़ा रहा)। अरज<अ॰ (अर्ज़)=प्रार्थना। उमराउ<अ॰ [(उमरा) (अमीर) का बहु वचन हैं]। हय=घोड़े। सुद्धौ=शुद्ध हुआ (अर्थात् बंदीगृह से मुक्त हुआ); शुद्ध=निर्मल। नव सहस< सं॰ नव सहस्त्र=नौ हज़ार। सत्त सै=सात सौ। दीन=दिये। ऐराकी=इराक़ देश के (घोड़े)। उज्जल दंतिय आट्ठ=सफेद हाथी। मुरु=मुड़ना (यहाँ ढालना से तात्पर्य समझ पड़ता है)। ढाल=ढालें। विंशति (सं॰)<पा॰ विसति<प्रा॰ वीसा, बीसइ<हि॰ बीस। जक्की<अ॰ (ज़की)=तेज़; (यहाँ अच्छी बनी हुई दालों से तात्पर्य है)। नग मोतिय<नग मोती=गज मुक्ता। मानिक<सं॰ माणिक्य। नवल=नये। सलाह<फा॰=सुलह। संमेल करि=मेल करके, शांति स्थापित कर। पहिराइ=पहिना ओढ़ा कर। मनुहार=(हि॰ मन+हरना) आदर सत्कार करना। गजनवै=ग़ज़नी के ईश अर्थात् ग़ोरी को; ग़ज़नी में। सु घर=उसके घर। पठयौं=भेज दिया। ग़ज़नी=अफगानिस्तान का एक नगर, [वि॰वि॰ प॰ में]।

इति श्री कविचंद विरचिते प्रथिराज रासा के।
रेवातट पातिसाह ग्रहनं नांभ
सतावीसमो प्रस्ताव सपूरणं।२७।

रेवातट सम्यौ समाप्तं।०।
 

  1. ना०---राय
  2. ना०--- श्राय
  3. ना०--' पनी संपादित पुस्तक में 'तो' लिखा है !-'तो' नहीं है, डा० होर्नले ने अपनी संपादित पुस्तक में 'तौ'लिखा है।
  4. ना० - एरापति
  5. ना०-तिहि
  6. ना०-को
  7. ना०- उतंग
  8. ना०- मतंग
  9. ए० मो०- तयारी
  10. को० ए० मंड
  11. ना० - चिगछग्गुन; हा०-चिया छगुन
  12. ए० - ढलं, ढाल, छल, ह्रा० फुलं
  13. ना०—फली
  14. हा० - तनयं
  15. ना० ब्रह्मा
  16. ना० - ठाम।
  17. ना० - तार्थे
  18. ना०--वरसंत
  19. ना०- पहपंगी
  20. ना० पर्वतह
  21. मो०-सु
  22. ना० -वानंडराय
  23. ना० - श्रगनेव
  24. ना०- खिल्लई
  25. ना० उप्परा बस रसी ।
  26. ए० सुसाफ
  27. ना० नन; ए० कृ० को०-वन
  28. ना०-मैं
  29. ना० - लैहैं
  30. ना०- चहुप्रानं
  31. ए० - उथानं
  32. ना० ---धूप ।
  33. ता० - मंड
  34. ए०-धधार ।
  35. मो०.-बल
  36. मो०- सहैं लीजै, पु० -सद सदें ।
  37. मो०- सुसक्यौ
  38. ए०-सटि
  39. नां०—मुषां ।
  40. ना० – मैं
  41. मो०- परिहरिय
  42. ना०- मैं
  43. ना०- मो०- जु सथ्ये
  44. ना - तथ्ये
  45. मो०- किन्ती,
  46. ए० -कौरु, कौरु -कौरु।
  47. हा०- (बीर) पाठ मानते हैं जो छंद भंग करने के अतिरिक्त ना० प्र० सं० वाली प्रतियों में भी नहीं पाया जाता
  48. ए० – अरु जुद्ध
  49. ना०- दिति दीप दिव लोक पति।
  50. ए० - बच्चौ ।
  51. ना० - सुक्कै
  52. ए० कृ० को० - समौ, असमो
  53. ना० --बंध तो
  54. ना० - अप मर
  55. ना० कह
  56. सा० सोस।
  57. ए० - मम ; ना० गम हा०--गम
  58. ना०--गजत संग; ए० कृ० को०- १०-गजन सिंग
  59. ना० - लहु ।
  60. ना०- -पोम
  61. ए० कृ० को -उर उप्पर पुडिय दिट्टियत ; ना०- उर पुट्टिय सुहिय दिट्टियता
  62. ना० -वपरी पय लंगत ता धरिता
  63. ५० - दो नलंय, दौ नलयं
  64. ना०--- ग्रह अट्ठस तारक वीत पगे ए० कृ० को०- पीत्र पगे
  65. ए० - उड़े; ना० -विंदय ।
  66. ना०-- अट्ठारह
  67. ए० कृ० को राजिय
  68. क्रू० - सर क्रू० - सर
  69. ए० कृ० करै सनाह सनाह
  70. ए० कृ० को ० दस-दस ;
  71. ना० - सुभर
  72. ना० - नहिं
  73. ए० –उत्तर यौ नदि पार
  74. मो०- घट मुक्यौ दरबार ।
  75. ना०- बिय सजि सेन ।
  76. ना० -चौ तेगी सहवाज।
  77. हा० - सही
  78. ना० - बल
  79. ना०- ऊपजै
  80. ए० - करत भाइ चौसाहि;ना०- करितं माय बहु साहि
  81. ना०-- श्रलभ पान गुमान । ।
  82. हा०-अस्सिं
  83. हा०-निकस्सिं
  84. ना० - भेजि तथ्ये
  85. ना०--सथ्य्ये
  86. ए० -खंच
  87. ना०-लग्गे ।
  88. हा० - पंचमि सजुद्ध
  89. हा०—प्रथिराज
  90. हा० और ना०--केत।
  91. ना०- जय
  92. सुभ रारी
  93. ना० - पंचम
  94. ए०-लगी
  95. ए० - मंडि, कृ० - मंदि, मंड, ना० - विधि कंद
  96. ना०- भाय कवि
  97. 'यों' और 'ड्यौं' अन्य प्रतियों में नहीं हैं, ह्योनले महोदय ने इन्हें अपनी पुस्तक में केवल लिखा है ।
  98. (१) ए॰—छंदानं कृ॰ मो॰—छदनी, छदनीमा (२) ए॰ कृ॰ को—पंति।
  99. (१) ना॰—लप्प
  100. (२) दा॰—तहां झंगरि महामाया।
  101. बं॰—भयौ
  102. हा॰—भयौ।
  103. गु॰—घटय
  104. भा॰—वर अच्छर विंटयौ। सुरँग मुक्के सुरँग हिय
  105. मो॰—तिहित काल सत बाल
  106. ना॰—विय अथ्थ
  107. ना॰—जमन मरन
  108. मो॰—अथिर।
  109. ना॰–परस
  110. ना॰–मष्षर
  111. ना॰–विषम मद्गंधन झारौ
  112. मो॰–रावन; ना॰–रावत।
  113. ए॰—रिन, तरिन
  114. ना॰—पर
  115. ना॰—विभ्भूत।
  116. ना॰—मझ्झै
  117. ना॰—सुझ्झै
  118. 'ज्यौ' पाठ ना॰ में नहीं है
  119. ना॰— दगां
  120. ना॰—अगे
  121. ना॰—आलग्गं
  122. ना॰—सुझारयौ।
  123. कृ॰—फेरि उपम, ना॰—फिरि उपमा
  124. ए॰ कृ॰ को—तिन; ना॰—जिन
  125. ना॰—ज जीरह
  126. ना॰—फेरि।
    (परैं) पाठ अन्य प्रतियों में नहीं हैं केवल हा॰ ने दिया है।
  127. ना॰—लोहानौ सदमंद, हा॰—जोहांनौ महसुंद
  128. ना॰—फुट्टि सु
    ढढ्ढर ज्वान।
  129. ना॰; हा॰–बट्टारी
  130. ए॰–कर
  131. ना॰–तिन रावन; ए॰ कृ॰ को॰—तीन राई। (तब)–पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है केवल हा॰ ने दिया है।
  132. ना॰–मानि;
  133. ना॰–सिर हद्द; भो॰–सिरद्दस, सिरद्दसु
  134. ना॰–वहकरी,
  135. ना॰–छंद ओपमता पाई; ए॰ कृ॰ को॰ –उपमा सु, उपमा सुई;
  136. ना॰—'भाम न' के स्थान पर 'भान' पाठ है।
  137. ना॰–सुभर
  138. ए॰–मिल्यौ।
  139. ना॰; हा॰–गिल्यौ।
  140. ना॰—निकस्संत; मो॰—तिसक्कंत।
  141. ना॰—झिले जुम्झयं बज्जयौ पंच जंमं; ए॰—जिने जुझ्झतें बज्जयो पंच जंमं।
  142. हा॰—संझ।
  143. ना॰—धारय।
  144. ना॰—केरी
  145. ए॰—नेषन
  146. ना॰—सारनह हुलासौ
  147. मो॰ —हस्यौ
  148. ना॰—पद्दर
  149. ना॰—धार; ए॰ कृ॰ को॰—धरि
  150. ए॰—तुव।
  151. ना॰—केद
  152. ना॰—जष्ष।
  153. ना॰—षिझ्झि
  154. ना॰—सैनी ए॰—सैना
  155. ना॰—कढ़ि असी
  156. ना॰—भीर
  157. ए॰—करह; ना॰—कहर।
  158. ना॰—जाड़ी
  159. ना॰—सषं
  160. ना॰—डाढ़ी।
  161. ना॰—माही
  162. ना॰—गढ्ढै
  163. ए॰ को॰—भाल
  164. ना॰—तुटै एकटं गाढ़ि कै षग्ग धायौ
  165. ना॰ झकं
  166. ना॰—मनों सिंघ उझ्झै अरुझ्झंत छुट्टै
  167. ना॰—घर्म घोर ढुंढं उतक्कंठ फेरी
  168. ना॰—जो।
  169. ना॰—संथ
  170. ना॰—तथ; ए॰ कृ॰ को॰—नथ।
  171. ना॰—मेनकनि
  172. ना॰—अब तारन बर है कहीं। (कै) पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है केवल ह्योर्नले में इसे दिया है।
  173. ना॰—शुझ्झ
  174. ना॰—पेत
  175. मो॰—पुट्ठिय।
  176. ना॰—सतवान समाहिय
  177. ना॰—पहिल
  178. ना॰—गुसाँइय
  179. ना॰—दूजै वान्त कंठ
  180. ना॰—तीय वान हथ हथ रहिय।
  181. ना॰—यौ
  182. ना॰—रुंद्धौ
  183. ना॰=दिन
  184. ना॰=मुर
  185. ना॰—परि राइ
  186. ना॰=सुधरि।