रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/७. रेवातट
रेवा-तट
श्री जान बीम्स ने वृहत् रासो के 'यादि पर्व' के प्रथम १७३ छन्द सम्पादित करके एशियाटिक सोसाइटी नाव बंगाल की बिब्लिओका इंडिका, न्यू सीरीज़, संख्या २६६, भाग १, फैसीक्यूलस १ में सन् १८७३ ई० में प्रका- शित करवाये थे तदुपरान्त रेत्ररेन्ड डॉ० ए० एफ० स्टॉल्फ होर्नले ने 'पृथ्वी- राज रासो' के बृहत् रूपान्तर की विविध हस्तलिखित प्रतियों की सहायता से उसके 'देवगिरि सम्यो' से लेकर 'कांगुरा जुद्ध प्रस्ताव' तक अर्थात् दस प्रस्तावों का वैज्ञानिक संस्करण प्रस्तुत करके उक्त सोसाइटी की बिब्लिश्रो का इंडिका, न्यू सीरीज़, संख्या ३०४, भाग २, फैसीक्यूलस १, सन् १८७४ ई० में प्रकाशित करवाया, और वहीं की बिब्लिओका, न्यू सीरीज़, संख्या ४५२५ भाग २, फैसीक्यूलस १, सन् १८८१ ई० में 'रेवातट सम्यो २७' की कथा और गद्यानुवाद तथा 'अनंगपाल सम्यो २८' की कथा और उसके प्रथम तीन छन्दों का गद्यानुवाद अंग्रेजी भाषा में वांछित, भाषा वैज्ञानिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक टिप्पणियों सहित प्रकाशित करवाया था। डॉ० ह्योर्नले के कार्य को प्रशंसा की अपेक्षा नहीं, वह एक सिद्ध शोधकर्ता प्राच्य विद्या-मनीषी की कृति है ।'पृथ्वीराज रासो' पर अनुसन्धान कार्य करने और रेवातट आदि का पुन: सम्पादन करने के मूल प्रेरक डॉ० ह्योर्नले के निर्दिष्ट ग्रन्भ मे ।
यद्यपि प्रो० बूलर, कविराज श्यामलदान, डॉ० प्रभा प्रभृति विदेशी और देशी विद्वान् रासो की अनैतिहासिकता का नारा बुलंद कर चुके थे फिर भी उनका निर्णय सर्वमान्य नहीं था। भारत के विविध विश्वविद्यालयों में जहाँ कहीं हिन्दी पढ़ाने का प्रबन्ध था वहाँ हिन्दी - विभाग के अध्यक्ष ने रासो के अंश एम० ए० के पाठ्यक्रम में प्राचीन हिन्दी प्रश्नपत्र के अन्तर्गत अनि- वार्य रूप से सम्मिलित कर रखे थे | इतिहासानुरागी रासो का नाम लेते ही जहाँ नाक-भौं चढ़ाने लगता था वहाँ हिन्दी-साहित्य-सेवी उसे अपने साहित्य- कोष की अमूल्य निधि मानता हुआ उस पर गर्व करता था। दोनों पक्ष अपने अपने तर्कों और भावना में अटल थे । सन् १६३६ ई० में मुनिराज जिन- विजय जी द्वारा शोधित रासो के चार अपभ्रंश छन्दों ने स० म० गौरीशंकर हीराचंद श्रोमा सह इतिहासकार को भी रासो पर अपना पूर्व मत अंशत: परिवर्तित करने के लिए विवश कर दिया था । म० स० पं० मथुराप्रसाद दीक्षित और प्रभा जी के रासो विषयक उत्तर प्रत्युत्तर में सरस्वती और सुधा में प्रकाशित संघर्षात्मक लेखों ने इस काव्य पर पुन: विचार हेतु नवीन प्राण फूके । परन्तु सन् १६३६ ई० तक भावना-चेतन करने वाली इस सामग्री के अतिरिक्त 'पृथ्वीराज रासो' पर कार्य के सहारे के लिये उसका 'सभा' द्वारा प्रकाशित वृहत् रूपान्तर मात्र हो सुलभ था । ७००० छन्द संख्या प्रमाण वाले रासो की चर्चा तो छिड़ी परन्तु यथेष्ट यत्न करने पर भी उसके दर्शन न हो सके | अस्तु विवश होकर डॉ० झोर्नले द्वारा सम्पादित रासो, सभा प्रकाशित रासो और बम्बई विश्वविद्यालय तथा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे ब्रांच के बृहत् रासो के हस्तलिखित ग्रन्थों से 'रेवातट सम्यो २७' के पाठान्तरों का उल्लेख करते हुए, और उनमें से अधिक अर्थ संगत को प्रधा- नता देते हुए, रासो का वर्तमान 'रेवातट' प्रस्तुत किया गया। डॉ० ह्योर्नले द्वारा 'रेवाट सम्बो' के अनुवाद में निर्दिष्ट ग्रन्थों को मूल रूप में देखकर तथा सन् १६४९ ई० तक प्रकाशित अन्य सम्बन्धित, सुलभ और उपयोगी ग्रन्थों से भी सहायता ली गई तथा इंडियन ऐन्टीक्वेरी और जर्नल ग्राव दि रायल एशियाटिक सोसाइटी या बंगाल के ग्रहों में प्रकाशित श्री ग्राउन और जॉन बीम्स के इस प्रस्ताव के आशिक अनुवाद में पोर्नले से यत्र-तत्र भेद का भावार्थ में यथास्थान उल्लेख कर दिया गया ।
'रेवाट प्रस्ताव' में अपने गुप्तचरों द्वारा दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान कोरेषा (नर्मदा ) नदी तट स्थित वन में मृगवान्मग्न सुनकर शहाबुद्दीन का सदल-बल आक्रमण और पृथ्वीराज के शी ही पलट कर उससे मोर्चा ने और रण में उसकी सेना को विच्छिन्न करके उसको बन्दी बनाने का विवरण है | इस प्रस्ताव का अधिक अंश युद्ध का वर्णन करता है जिससे इसके 'रेवातट' नाम की सार्थकता का साक्षात् किंचित् विभ्रम में डाल देता हैं परन्तु यह विचारते हो कि सुदूर रेवातट पर मृगया- विनोद रत अचिन्त चौहान सम्राट् प्रबल विपक्ष के वातात्मक अभियान से विचलित न होकर उससे सहर्ष सोत्साह जा भिड़े, उसका निराकरण कर देता है ।
'रेवातट' नाम का कोई स्वतन्त्र समय ७००० छन्द संख्या वाली थोरि- यन्टल कॉलेज लाहौर की तथा १५०० छन्द संख्या वाली बीकानेर की रासो प्रतियों में नहीं हैं और १३०० छन्द संख्या वाली धारणोज की प्रति में उसकी स्थिति का पता नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में यह कहना अनिश्चित ही है कि उपर्युक्त तीनों वाचनाथों में 'रेवातट' की कथा यदि स्वतन्त्र रूप से पृथक प्रस्ताव में नहीं दी गई है तो क्या यह अंशतः किसी अन्य कथा के साथ मिश्रित भी नहीं है। चाचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्वसम्पादित 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो' में 'रेवातट सभ्यो' को स्थान नहीं दिया है । परन्तु उनका यह विचार कि 'पृथ्वीराज रासो' का मूल रूप उनके द्वारा सम्पादित रातों के आस-पास होना चाहिये, कोई विशेष विग्रह नहीं खड़ा करता जब उक्त पुस्तक की भूमिका के अन्त में हम पढ़ते हैं- 'विद्यार्थी को इस संक्षिप्त रूप रासो की सभी विशेषताओं को समझने का अवसर मिलेगा और वह उस ग्रन्थ की साहित्यिक महिना के प्रति अधिक जिज्ञासु और श्राग्रहवान होगा' । 'आसपास' के घेरे की परिधि विस्तृत हो सकती है जिसका स्पष्टीकरण उनकी पुस्तक के शीर्ष 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो ' का 'संक्षिप्त' शब्द भी करता है। मूल रासो की खोज के इस प्रकार के विद्वत् प्रयत्न सराहनीय हैं परन्तु इस समय यतीव श्रावश्यकता इस बात की है कि इस काव्य की चारों विश्रुत वाचनायें प्रकाश में लाई जाये तभी अधिक अधिकारपूर्वक चर्चा सम्भव और समीचीन होगी ।
प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका और परिशिष्ट कवि चन्द की कृति को समझने का मौलिक प्रयास है जिसे 'कर घरवाल'(कवि धनपाल) के विनम्र शब्दों -'बुधजन संभालमि तुम्ह तेत्थु' (अर्थात् -हे बुधजन, तुम उसे सँभाल लेना) सहित समाप्त कर रहा हूँ ।
विपिन विहारी त्रिवेदी
द्वितीय भाग