रामनाम/५
हा, यह जरूर सच है कि लाधा महाराजने जब कथा आरम्भ की थी, तब अुनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराजका स्वर मधुर था। वे दोहा-चौपाअी गाते और अर्थ समझाते थे। खुद अुसके रसमे लीन हो जाते और श्रोताओको भी लीन कर देते थे। मेरी अवस्था अुस समय कोअी तेरह सालकी होगी, पर मुझे याद है कि अुनकी कथामे मेरा बहुत मन लगता था। रामायण पर जो मेरा अत्यन्त प्रेम है, अुसका पाया यही रामायण-श्रवण है। आज मै तुलसीदासकी रामायणको भक्तिमार्गका सर्वोत्तम ग्रथ मानता हू।
'आत्मकथा' से
नीतिरक्षाका अुपाय
मेरे विचारके विकार क्षीण होते जा रहे है। हा, अुनका नाश नही हो पाया है। यदि मै विचारो पर भी पूरी विजय पा सका होता, तो पिछले दस बरसोमे जो तीन रोग—पसलीका वरम, पेचिश और 'अपेडिक्स' का वरम—मुझे हुअे, वे कभी न होते।[१]मै मानता हूं कि नीरोगी आत्मा का शरीर भी नीरोगी होता है। अर्थात् ज्यो-ज्यो आत्मा नीरोग—निर्विकार होती जाती है, त्यो त्यो शरीर भी नीरोगी होता जाता है। लेकिन यहा नीरोगी शरीरके मानी बलवान शरीर नही है। बलवान आत्मा क्षीण शरीरमे ही वास करती है। ज्यो-ज्यो आत्मबल बढता है, त्यो त्यो शरीर की क्षीणता बटती है। पूर्ण नीरोगी शरीर बिलकुल क्षीण भी हो सकता है। बलवान शरीरमे बहुत अशमे रोग रहते है। रोग न हो, तो भी वह शरीर सक्रामक रोगोका शिकार तुरन्त हो जाता है। परन्तु पूर्ण नीरोग शरीर पर अुनका असर नही हो सकता। शुद्ध खूनमे जैसे जन्तुओ को दूर रखनेका गुण होता है।
ब्रह्मचर्यका लौकिक अथवा प्रचलित अर्थ तो अितना ही माना जाता है मन, वचन और काया के द्वारा विषयेन्द्रियका सयम। यह अर्थ वास्तविक है। क्योकि अुसका पालन करना बहुत कठिन माना गया है। स्वादेन्द्रियके सयम पर अुतना जोर नही दिया गया, अिससे विषयेन्द्रियका सयम ज्यादा मुश्किल बन गया है—लगभग असभव हो गया है।
मेरा अनुभव तो अैसा है कि जिसने स्वादको नही जीता, वह विषयको नही जीत सकता। स्वादको जीतना बहुत कठिन है। परन्तु स्वादकी विजयके साथ ही विषयकी विजय बधी हुअी है। स्वादको जीतनेके लिअे अेक अुपाय तो यह है कि मसालोका सर्वथा अथवा जितना हो सके अुतना त्याग किया जाय। और दूसरा अधिक बलवान अुपाय हमेशा यह भावना बढाना है कि भोजन हम स्वादके लिअे नही, बल्कि केवल शरीर-रक्षाके लिअे करते है। हवा हम स्वादके लिअे नही, बल्कि श्वासके लिअे लेते है। पानी जैसे हम प्यास बुझानेके लिअे पीते है, अुसी प्रकार खाना महज भूख बुझानेके लिअे खाना चाहिये। दुर्भाग्यसे हमारे मा-बाप लडकपनसे ही हममे जिससे अुलटी आदत डालते है। हमारे पोषणके लिअे नहीं, बल्कि अपना झूठा दुलार दिखानेके लिअे, वे हमे तरह-तरहके स्वाद चखाकर हमारी आदत बिगाडते है। हमे घरके अैसे वायुमडलके खिलाफ लडनेकी आवश्यकता है।
परन्तु विषयको जीतनेका स्वर्ण नियम रामनाम अथवा दूसरा कोअी अैसा मत्र है। द्वादश मत्र[२] भी यही काम देता है। अपनी-अपनी भावनाके अनुसार किसी भी मंत्रका जप किया जा सकता है। मुझे लड़कपनसे रामनाम सिखाया गया। मुझे अुसका सहारा बराबर मिलता रहता है। जिससे मैने अुसे सुझाया है। जो मत्र हम जपें, अुसमे हमे तल्लीन हो जाना चाहिये। मत्र जपते समय दूसरे विचार आवे तो परवाह नही। फिर भी यदि श्रद्धा रखकर हम मत्रका जप करते रहेगे, तो अतमे सफलता अवश्य प्राप्त करेगे। मुझे जिसमे रत्तीभर शक नही। यह मत्र हमारी जीवन-डोर होगा और हमे तमाम सकटोसे बचावेगा।[३]अैसे पवित्र मंत्रका अुपयोग किसीको आर्थिक लाभके लिअे हरगिज न करना चाहिये। अिस मंत्रका चमत्कार है हमारी नीतिको सुरक्षित रखनेमे। और यह अनुभव प्रत्येक साधकको थोड़े ही समयमे मिल जायगा। हां, अितना याद रखना चाहिये कि तोतेकी तरह अिस मंत्रको न पढ़े। अिसमे अपनी आत्मा पूरी तरह लगा देनी चाहिये। तोते यत्रकी तरह अैसे मंत्र पढ़ते है। हमे अुन्हे ज्ञानपूर्वक पढ़ना चाहिये––अवांछनीय विचारोंको मनसे निकालनेकी भावना रखकर और मंत्रकी अैसा करनेकी शक्तिमे विश्वास रखकर।
हिन्दी नवजीवन, २५-५-१९२४
- ↑ मै तो पूर्णताका अेक विनीत साधक मात्र हू। मै अुसका रास्ता भी जानता हू। परन्तु रास्ता जाननेका अर्थ यह नही है कि मै आखिरी मुकाम पर पहुच गया हू। यदि मै पूर्ण पुरुष होता, यदि मै विचारोमे भी अपने तमाम मनोविकारो पर पूरा आधिपत्य कर पाया होता, तो मेरा शरीर पूर्णताको पहुच गया होता। मै कबूल करता हू कि अभी मुझे अपने विचारो को काबूमे रखनेके लिअे बहुत मानसिक शक्ति खर्च करनी पडती है। यदि कभी मै अिसमे सफल हो सका, तो खयाल कीजिये कि शक्ति का कितना बडा खजाना मुझे सेवा के लिअे खुला मिल जायगा। मै मानता हू कि मेरी अपेडिसाअिटिसकी बीमारी मेरे मनकी दुर्बलताका फल थी और नश्तर लगवानेके लिए तैयार हो जाना भी वही मनकी दुर्बलता थी। यदि मेरे अदर अहकारका पूरा अभाव होता, तो मैने अपनेको होनहारके सुपुर्द कर दिया होता। लेकिन मैने तो अपने अिसी चोलेमे रहना चाहा। पूर्ण विरक्ति किसी यात्रिक क्रियासे प्राप्त नही होती। धीरज, परिश्रम और अीश्वरआराधनाके द्वारा अुस स्थितिमे पहुचना पडता है।—हिन्दी नवजीवन, ६-४-१९२४।
- ↑ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
- ↑ अेक ब्रह्मचारीको ब्रह्मचर्य सिद्ध करनेके अुपाय सुझाते हुअे गांधीजीने लिखा था
"आखिरी अुपाय प्रार्थनाका है। ब्रह्मचर्य साधनेकी अिच्छा रखनेवाला हर रोज नियमसे, सच्चे हृदयसे रामनाम जपे और अीश्वरकी कृपा चाहे।"––यंग अिण्डिया, २९-४-'२६
अेक प्रयत्नशील साधकको गांधीजीने लिखा था
"रामकी मदद लेकर हमे विकारोके रावणका वध करना है, और वह सम्भवनीय है। जो राम पर भरोसा रख सको तो तुम श्रद्धा रखकर निश्चितताके साथ रहना। सबसे बड़ी बात यह है कि आत्म-विश्वास कभी मत खोना। खानेका खूब माप रखना, ज्यादा और ज्यादा तरहका भोजन न करना।"––हिन्दी नवजीवन, २०-१२-'२८
"जब तुम्हारे विकार तुम पर हावी होना चाहे, तब तुम घुटनोके बल झुककर भगवानसे मददकी प्रार्थना करो। रामनाम अचूक रूपसे मेरी मदद करता है। बाहरी मददके रूपमें कटि-स्नान करो।"––'अनीतिकी राहपर' के दूसरे सस्करणकी भूमिका (१९२८) से।