रामचरितमानस
तुलसीदास, संपादक महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य 'वीर'

प्रयाग: बेलवेडियर प्रेस, पृष्ठ १ से – ४९ तक

 

श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास-कृत
रामचरितमानस

प्रथम सोपान

बालकाण्ड

अनुष्टुप्-वृत्त।

श्लोक — वर्णानामर्थसङ्घनां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥

अक्षर, अर्थ-समूह, रस, छन्द और मङ्गल के करनेवाले सरस्वती और गणेशजी को मैं प्रणाम करता हूँ॥१॥

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥

श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी-शङ्कर की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने हृदय में स्थित ईश्वर को नहीं देखते ॥२॥

श्रद्धा में पार्वती के आरोप और विश्वास में शिवजी के आरोप से 'सम अभेद रूपक अलङ्कार' है। उत्तराद्ध में अर्थ का श्लेष है अर्थात् जिस श्रद्धा-विश्वास के बिना और जिन पार्वतीशिव के बिना सिद्ध पुरुषों को हृदयस्थ ईश्वर नहीं देख पड़ते।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं, शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥

ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वंदना करता हूँ, जिनका आश्रित हो कर टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥३॥

ज्ञानरूप नित्य गुरु में शङ्कर का आरोप 'सम अभेद रूपक' है । शिवजी के गुण से टेढ़े चन्द्र का गुणवान होना 'प्रथम उल्लास' है। संज्ञा साभिप्राय है, क्योंकि गोस्वामीजी अपनी बुद्धि को मलिन मान कर वन्दना करते हैं कि जिन्होंने वक्र चन्द को वन्दनीय बनाया वे मेरी मति निर्मल कर देंगे 'परिकराङ्कुर अलंकार की ध्वनि' है।

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥

सीता और रामचन्द्रजी के गुण-समूह रूपी पवित्र वन में बिहार करनेवाले विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर (वाल्मीकि मुनि) और कपीश्वर (हनूमानजी) की मैं वन्दना करता हूँ॥४॥

मुनि और बन्दर कानन-विहारी होते हैं, इसलिये सीताराम के गुण-ग्राम में वन का आरोपण किया गया है। सब वन पुनीत नहीं होते, पर इसमें पवित्रता का गुण 'अधिक अभेद रूपक' है।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥

उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली, फ्लेशों के हरनेवाली, सम्पूर्ण कल्याणों के करने वाली, रामचन्द्र की प्रियतमा सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥५॥

शार्दूलविक्रीडित-वृत्त।

यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुराः।
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाऽहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लव एक एव हि भवास्सोधेस्तितीविताम्।
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥

जिनको माया के वश में सम्पूर्ण संसार ब्रह्मादिक देवता और देत्य हैं, जिनके बल से झूठा यह सारा जगत् रस्सी में साँप के भ्रम के समान सत्यप्रतीत होता है। जिनके चरण ही संसार-सागर से पार जाने की इच्छा रखनेवालों के लिये एकमात्र नौका-स्वरूप है, समस्त कारणों से परे जिनका नाम राम है, उन ईश्वर विष्णु भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ॥६॥

ग्रन्थारम्भ में नमस्कारात्मक, वस्तु निर्देशात्मक और आशीर्वादात्मक तीन प्रकार के मङ्गलाचरण होते हैं। गोस्वामीजी ने नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण किया है।

वसन्ततिलका-वृत्त।

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखायतुलसी रघुनाथगाथाभाषानिवन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥७॥

नाना पुराण वेद और शास्त्र की सम्मति के अनुसार तथा जो रामायणों में वर्णित है, और कुछ अन्यत्र से भी श्रीरघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा की रचना से विस्तृत करता है॥७॥

'कचिदन्यतोऽपि' पर लोग शङ्का करते हैं कि जब वेद, शास्त्र, पुराण, रामायण कह चुके तो "कुछ अन्यत्र" से कौन सा तात्पर्य है? उत्तर -स्मृति, नाटक आदि, लोकोक्तियाँ और अपना विचार रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि।

सोरठा-जेहि सुमिरत सिधि होइ, गन-नायक करि-बर-बदन।
करउ अनुग्रह सोइ, बुद्धि-रासि सुभ-गुन-सदन॥

जिनके स्मरण ले (सम्पूर्ण मनोरथ) सिद्ध होते हैं, गुणों के मालिक, हाथी के समान सुन्दर मुखवाले बुद्धि की राशि और अच्छे गुणों के स्थान श्रीगणेशजी मुझ पर कृपा करें।

'बुद्धिराशि', 'सुभ-सुगुन-सदन' और 'गननायक' संज्ञाएँ साभिप्राय है, क्योंकि बुद्धि की राशि ही बुद्धि निर्मल कर सकती है। शुभ-गुणों का स्थान ही गुणवान् बना सकता है और गणों का स्वामी ही कामना सिद्ध करने में समर्थ हो सकता है। यह 'परिकराङ्कर अलंकार' है।

मूक होइ बाचाल, पङ्गु चढ़इ गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवउ सकल-कलिमल-दहन॥

जिनकी कृपा से मूंगा बोलनेवाला होता है और पंगुल दुरारोह पहाड़ पर बढ़ जाता है, कलि के सम्पूर्ण पापों को जलानेवाले वे (सूर्य भगवान) मुझ पर प्रसन्न हों।

गूंगे को वाचाल कथन और पंगु को ऊँचे दुर्गम पर्वत पर चढ़नेवाला कहने में किया विरोध का आभास 'विरोधासास अलंकार' है। इसमें भी सब संज्ञाएँ साभिप्राय हैं, रामचरित वर्णन करने में गोसाँई जी, अपने को मूक, पंगु और कलिमल-ग्रस्त मान कर वन्दना करते हैं। जिनकी कृपा से मूक वाचाल होता है; वही बोलने की शक्ति प्रदान करने से समर्थ हो सकता है, जो पंगुल को पर्वत विहारी बनाता है, वही गमन-शक्ति प्रदान कर सकता है और पापों को जलानेवाला ही निष्पाप बना सकता है, यह 'परिकरराङ्कुर अलंकार' है। कोई कोई 'मूक करोति वाचालं' के आधार पर विष्णु भगवान् पर अर्थ घटाते हैं पर विष्णु की वन्दना नीचे के सोरठा में की गई है।

नील-सरोरुह-स्याम, तरुन-अरुन-बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम, सदा छीर-सागर-सयन।

जिनका शरीर नील-कमल के समान श्याम है और नवीन लिखे हुए लाल कमल के समान नेत्र हैं, जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे (विष्णु भगवान्) मेरे हृदयमन्दिर में निवास करें।

जो क्षीर सागर में शयन करते हैं वे हृदय मन्दिर में निवास कर उसे शुद्ध बनावे, परिकराङ्कुर की ध्वनि है। गुण और निवासस्थान कह कर विष्णु का परिचय कराना, किन्तु नाम न लेना 'प्रथम पर्यायोक्ति अलंकार' है।

कुन्द-इन्दु-सम देह, उमा-रमन करुना-अयन।
जाहि दोन पर नेह, करउ कृपा मर्दन-मयन॥

कुन्द के फूल और चन्द्रमा के समान देहवाले, उमावर, दया के स्थान, कामदेव को भस्म करनेवाले, जिन्हें दीनजनों पर स्नेह है, वे (शिवजी मुझ पर) कृपा करें।

बन्दउँ गुरु-पद-कञ्ज, कृपा-सिन्धु नर-रूप-हरि।
महामोह-तम-पुञ्ज, जासु बचन-रबि-कर-निकर॥

मैं गुरुजी के चरण-कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूपी हरि है, जिनके वचन रूपी सूर्य की किरणों से प्रधान रूपी अन्धकारसमूह नष्ट हो जाता है।

चौ॰—बन्दउँ गुरु-पद-पदुम-परागा। सुरुचि-सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरि-मय चूरन चारू समन सकल-भव-रुज-परिवारू॥१॥

श्रीगुरु महाराज के चरण-कमलों की धूलि को मैं प्रणाम करता हूँ, जो सुरुचि (प्राप्त होने की उत्कण्ठा) रूपी सुगन्ध और प्रेम रूपी रस से भरी है। वह अमृत को जड़ से बना हुआ चूर्ण है, जिसके सेवन से संसार-सम्बन्धी रोग (काम, क्रोधादि) नष्ट हो जाते हैं॥१॥

सुकृत सम्भू-तन विमल बिभूती। मज्जुल मङ्गल-मोद-प्रसूती॥
जन मन मज्जु मुकुर मल हरनी। किये तिलक गुन-गन बस करनी॥२॥

पुण्य रूपी शङ्कर के शरीर पर शोभित होनेवाली यह स्वच्छ विभूति है और सुन्दर कल्याण तथा आनन्द की माता (उत्पन्न करनेवाली) है। भक्तों के मन रूपी दर्पण की मैल को दूर करनेवाली है और तिलक करने से सम्पूर्ण गुणों को वश में करनेवाली है॥२॥

सुकृत में शम्भु तन का आरोप और गुरु-पद-रज में निर्मल विभूति का आरोपण है। प्रथम रूपक के अन्तर्गत दूसरा रूपक उत्कर्ष का हेतु होने से 'परम्परित' है।

श्रीगुरु-पद-नख मनि-गन-जोती। सुमिरत दिव्य-दृष्टि हिय होती।
दलन मोह-तम सासु प्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥३॥

श्रीगुरु महाराज के चरण-नखों का प्रकाश समूह मणियों का उजाला है, जिसका स्मरण करने से हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है। वह अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य का प्रकाश है। जिसके हृदय में यह प्रकाश आ जाय उसके बड़े भाग्य हैं॥३॥

उघरहिँ बिमल बिलोचन ही के। मिटहिँ दोष दुख भव-रजनी के॥
सूझहिँ रामचरित-मनि-मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥४॥

इस ज्योति के हृदय में आते ही हृदय के नेत्र खुल जाते हैं और ससार रूपिणी रात्रि के विकार तथा कष्ट मिट जाते हैं। तब रामचरित रूपी मणि-माणिक छिपे हुए जो जहाँ जिस खानि के हैं, ये दिखाई पड़ने लगते हैं॥४॥

दो॰—जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग, साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखहिँ सैल बन, भूतल भूरि निधान॥१॥

जैसे चतुर साधक सुन्दर (सिद्धता का) अञ्जन आँखों में लगा कर सिद्ध हो जाते हैं, फिर पर्वत, वन और पृथ्वीतल के अनन्त स्थानों का खेल देखते हैं॥१॥

ऊपर कह आये हैं कि गुरु चरण-नख का सूर्यवत् प्रकाश जिसके हृदय में होता है, उसके अन्तःकरण के नेत्र खुल जाते हैं और गुप्त खानियों में छिपा रामचरित रूपी रत्न उसे सूझ पड़ता है। इस बात की समता विशेष से दिखाना कि जैसे चतुर साधक सिद्धाजन आँख में लगा कर पृथ्वी, वन, पर्वत का कुतूहल बैठे बैठे देखता है 'उदाहरण अलंकार' है।

चौ॰—गुरु-पद-रज मृदु मञ्जुल अञ्जन। नयन-अमिय दृग दोष बिभञ्जन।
तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ रामचरित भव-मोचन॥१॥

गुरुजी के चरणों की धूलि सुन्दर और मुलायम अञ्जन है, वह 'नयनामृत' आँख के दोषों का नाश करनेवाला है। उससे ज्ञान रूपी नेत्रों को निर्मल कर के संसार के आवागमन को छुड़ानेवाला रामचरित मैं वर्णन करता हूँ॥१॥

बन्दउँ प्रथम महोसुरचरना। माह जनित संसय सब हरना॥
सुजन-समाज सकल-गुन-खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥२॥

पहले मैं पृथ्वी के देवता (ब्राह्मण) के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सम्पूर्ण सन्देहों के हरनेवाले हैं। सज्जनों की मण्डली सारे गुणों को खानि है, मैं सुन्दर वाणी से प्रीति-पूर्वक उसको प्रणाम करता हूँ॥२॥

वन्दना तो गणेश, सरस्वती, शिव-पार्वती आदि कितने ही देवताओं की कर चुके हैं, फिर यहाँ प्रथम कहने का क्या कारण है? उत्तर-अब तक स्वर्गीय देवताओं की वन्दना की, अब पृथ्वीतल के देवताओं की वन्दना प्रारम्भ की, इनमें सर्वश्रेष्ठ देवता ब्राह्मण है। इसलिए पहले ब्राह्मणों को प्रणाम करते हैं।

साधु चरित सुभ सरिस कपासू। निरस बिसद गुन-मय फल जासू॥
जो सहि दुख पर-छिद्र दुरावा। वन्दनीय जेहि जग जस पावा॥३॥

सज्जनों का चरित्र कपास के समान कल्याणकारी है जिसका फल रसहीन (सूखा) होने पर भी उज्ज्वल गुण (डोरा और सद्वृत्ति) से मिला हुआ होता है। जो स्वयं दुःख सह कर दूसरों के छेद को ढ़ँकता है, जिससे जगत् में सराहने योग्य यश पाता है॥३॥

साधु चरित-उपमेय, कपास-उपमान, सरिस-वाचक और शुभ-साधारण धर्म 'पूर्णापमालंकार' है। उसके फल नीरस, उज्ज्वल और गुणमय है – इन तीनों विशेषणों के श्लेष अर्ध कपास फल तथा साधुचरित दोनों पर लगते हैं तब उपमा सिद्ध होती है, छिद्र शब्द भी श्लिष्ट है। यहाँ उपमा और श्लेष में अद्गद्गीमाच है। गुटका में 'साधु चरित शुभ चरित कपासू' पाठ है।

मुद-मङ्गल-मय सन्त-समाजू। जो जग जङ्गम तीरथराजू॥
रामभगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म-विचार-प्रचारा॥४॥

आनन्द मङ्गलमय सन्तों को समाज जो जगत् में चलता फिरता नीर्थराज-प्रयाग है। जिसमें रामभक्ति गङ्गाजी की धारा (अखण्ड प्रवाह) है और ब्रह्मविचार का फैलाव सरस्वती है॥४॥

यहाँ से सन्त-समाज और तीर्थराज का साङ्गरूपक वर्णन है। तीर्थंराज स्थायी है; किन्तु साधु-मण्डली रूपी प्रयाग में चलने फिरने का अधिकत्व है। जैने सरस्वती अदृश्य है तैसे ब्रह्म विचार गूढ़ तत्व है।

विधि-निषेध-मय कलिमल-हरनी। करम कथा रविनन्दिनि बरनी॥
हरि-हर-कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल-मुद-मङ्गल देनी॥५॥

करने और न करने योग्य कर्मों की कथा का वर्णन कलि के पापों को हरनेवाली यमुना नदी है। विष्णु भगवान और शिवजी की कथा त्रिवेणी रूप विराजती है, जो सुनते ही आनन्द मङ्गल देती है॥५॥

बट बिस्वास अचल निज-धर्मा। तीरथराज-समाज सुकर्मा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत साइर समन कलेसा॥६॥

अपने धर्म में अचल विश्वास अक्षय-बट है और सुकर्म तीर्थराज के समाज (अन्यान्य तीर्थ स्थल) है। यह प्रयाग सब को सब दिन और सभी देशों में सहज ही प्राप्त होनेवाला है, आदरपूर्वक सेवा करने से क्लेशों का नाश कर देता है॥६॥

स्थावर तीर्थराज को लोग चल कर एक ही स्थान में पाते हैं और उसका महत्व मकर के दिनों में अधिक कहा जाता है, परन्तु सन्त-समाज रूपी प्रयाग स्वयम् चल कर सब देशों में सब को बारहों महीने समान रुपसे प्राप्त होनेवाला है। वे तीर्थराज स्नान करने से कालान्तर में फल देते हैं और इस प्रयाग की सेवा करते ही तत्क्षण क्लेश का नाश हो जाता है। गुटका में तीरथसाज समाज सुकरमा' पाठ है।

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रमाऊ॥७॥

यह तीर्थराज अवर्णनीय और लोकोत्तर है, तत्काल फल देने में इसकी महिमा विख्यात है॥७॥

दो॰ – सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग।
लहहिं चारि-फल अछत-तनु, साधु-समाज प्रयाग॥२॥

जो मनुष्य प्रसन्न मन से साधु-समाज प्रयाग के उपदेश को अत्यन्त प्रेम से सुन कर समझते हैं वे स्नान करते हैं और चारों फल (अर्थ, धर्म', काम, मोक्ष) शरीर रहते ही पाते हैं (कालान्तर में नहीं, तुरन्त फल मिलता है)॥२॥

चौ॰ – मज्जन फल पेखिय ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करइ जनि कोई। सत-सङ्गति-महिमा नहिँ गाई॥१॥

स्नान का फल तत्काल देखने में आता है कि कौए कोयल और बगुले हंस हो जाते हैं। यह सुन कर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्सङ्ग की महिमा छिपी नहीं है॥१॥

सन्तसमाज रूपी प्रयाग के संसर्ग से कौए और बगुले का दोष दूर हो कर उनका गुण-गान होना 'प्रथम उल्लास अलंकार' है।

बालमीकि नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़-चेतन जीव जहाना॥२॥

वाल्मीकि, नारद और अगस्त ने अपनी अपनी उत्पत्ति अपने ही मुख से कही है। संसार में जलचारी, भूमिचारी और आकाशचारियों में नाना प्रकार के जितने जड़ चेतन जीव हैं॥२॥

वाल्मीकि मुनि बिल से, नारद दासी से और अगस्तजी घड़े से उत्पन्न हैं। इनकी उत्पत्ति के योग्य एक भी कारण पर्याप्त न होना 'चतुर्थ विभावना अलंकार' है।

वाल्मीकि मुनि ने रामचन्द्रजी से कहा था कि मैं किरातों के बीच रह कर चोरी ठगहारी करता था। एक बार सप्तर्षियों के दर्शन हुए, उनके उपदेश से आप का उलटा नाम 'मरा मरा' जप कर इस पदवी को पहुँचा हूँ। देवर्षि नारद ने वेदव्यासजी से कहा था कि मैं पूर्व जन्म में वेदवादी ऋषियों की दासी का पुत्र था। महर्षियों के सत्सङ्ग के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो गया। काल पा कर वह शरीर छोड़ कर मैंने वर्तमान तनु पाया और निरन्तर हरिभक्ति के आनन्द मग्न रहता हूँ। अगस्त ऋषि ने शिवजी से कहा था कि मेरे पिता मित्रावरुण एक बार रम्भा पर मोहित हुए, जिससे उनका वीर्यपात हो गया। उसको उन्होंने घड़े में रख दिया, उसी से मेरी उत्पत्ति हुई। सत्सङ्गके प्रभाव से मेरी बुद्धिः सन्मार्ग में प्रवृत्त हुई और मैं मुनीश्वर पद को प्राप्त हुआ।

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सतसङ्ग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ॥३॥

बुद्धि, कीर्ति, मोक्ष, ऐश्वर्य और कल्याण आदि जब कभी जिस किसी उपाय से जिसने जहाँ पाया है वह सत्संग ही की महिमा समझनी चाहिये। इनके मिलने का लोक और वेद में दूसरा उपाय ही नहीं है॥३॥

बिनु सतसङ्ग बिबेक न होई। राम-कृपा-बिनु सुलम न सोई॥
सतसङ्गति मुद-मङ्गल मूला। साइ फल सिधि सब साधन फूला॥४॥

बिना सत्संग के ज्ञान नहीं होता और बिना रामचन्द्रजी की कृपा वह (सत्संग) महज में प्राप्त नहीं होता। आनन्द-मङ्गल रूपी वृक्ष की जड़ सत्सग ही है, सब साधन फूल हैं वही एक सिद्ध फल है ॥४॥

बिना सत्सङ्ग के ज्ञान नहीं होता और बिना राम-कृपा के सत्सङ्ग नहीं मिलता 'द्वितीय कारणमाला अलंकार' है।

सठ सुधरहिँ सतसङ्गति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई॥
विधि बस सुजन कुसङ्गति परहीं। फनि मनि सभ निज गुन अनुसरहीँ॥५॥

दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस पत्थर के छु जाने से लोहा सुन्दर धातु (सुवर्ण) बन जाता है। दैवयोग से सज्जन कुसङ्गमें पड़ते हैं, तब वे सर्प के मणि के समान अपने ही गुणों का अनुकरण करते हैं॥५॥

सत्सङ्ग पाकर शठों का सुधरना उपमेय वाक्य है और पारस के स्पर्श से कुधातु का सुधातु होना उपमान वाक्य है। बिना वाचक पद के दोनों वाक्यों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव झलकना 'दृष्टान्त अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में कुसङ्गका दोष न ग्रहण कर अपने ही गुणों का अनुकरण करना 'अतद्गुण अलंकार' है। पारस पत्थर प्रसिद्ध है, कहते हैं उसमें लोहा छू जाने से सोना बन जाता है।

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु-महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसे। साक-बनिक मनि-गन-गुन जैसे॥६॥

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि, विद्वान और सरस्वती साधुओं की महिमा कहने में लजा जाते हैं। वह मुझसे कैसे नहीं कही जाती, जैसे साग का बेचनेवाला (कुंजड़ा-खटिक) मणियों का गुण नहीं कह सकता॥६॥

दो॰ – बन्दउँ सन्त समान चित, हित अनहित नहिं कोउ।
अञ्जलि-गत सुभ-सुमन जिमि, सम सुगन्ध कर दोउ॥

मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनका चित्त समान है और जिनका कोई शत्रु या मित्र नहीं है। जैसे दोनों हथेलियों में प्राप्त सुन्दर फूल बराबर ही सुगन्ध देते हैं।

सन्त सरल चित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु।
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि, राम-चरन-रति देहु॥३॥

सन्तों को चित्त सीधा है, वे जगत् के हितकारी हैं और परोपकार में स्नेह रखते हैं, उनका ऐसा स्वभाव जान मैं विनती करता हूँ। इस बालक की प्रार्थना सुन कर और अच्छी रुचि लख कर रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति (होने का वर) दीजिए॥३॥

जो संसार के हितैषी हैं, वे मेरी भी भलाई करेंगे यह ध्वनि है। समदर्शी पुरुषों से अधिक विनती का प्रयोजन नहीं, वे अवश्य ही दया करेंगे। प्रार्थना व दुष्ट आचरण वाले विषमवर्ती जनों से करना आवश्यक है।

चौ॰ – बहुरिवन्दि खलगन सतिभाये। जे बिनु काज दाहिनेहुँ बाँये।
पर-हित-हानि लाभ जिन्ह केरे। उजरे हरष विषाद बसेरे॥१॥

फिर मैं सरत भाव से खलों के झुण्ड की वन्दना करता हूँ, जो बिना प्रयोजन अनुकूल के भी प्रतिकूल रहते हैं अर्थात् भलाई करनेवाले की भी बुराई करते हैं। पराये के हितों की हानि ही जिनका लाभ है और जिन्हें दूसरों के उजड़ने पर हर्ष तथा वसने पर शोक होता है॥१॥

कारण कहीं और कार्य कहीं अर्थात् हितहानि दूसरे की हो, उससे खलों को लाभ! उजड़ने से हर्ष, बसने से विषाद 'प्रथम असङ्गति अलंकार' है।

हरि-हर-जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर-दोष लखहिँ सहसाखी। परहित घृत जिनके मन माखी॥२॥

जो विष्णु और शिवजी के यश रूपी पूर्णचन्द्र के लिए राहु के समान है और पराये का काम बिगाड़ने में सहस्रार्जुन के समान योद्धा हैं। जो दूसरों के दोष हज़ार आँख से देखते हैं और दूसरों की भलाई रूपी घी को बिगाड़ने के लिये जिनका मन मक्खी के समान है॥२॥

एक खल उपमेय के पृथक् धर्मों के लिए भिन्न उपमानों का वर्णन 'मालोपमा अलंकार' है। 'सहसास्त्री' शब्द का कोई कोई साक्षी के सहित अर्थ करते हैं।

तेज-कृपानु रोष महिषेसा। अघ-अवगुन-धन धनी धनेसा॥
उदय केतु सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके॥३॥

ताप में अग्नि और क्रोध में यमराज हैं, पाप तथा दुर्गुण रूपी धन के धनवान कुबेर हैं। उनका उदय (बढ़ती) सभी के लिए पुच्छल तारा के समान (दुखदाई) है और कुम्भकर्ण की तरह जिनका सोना (घटती दशा में रहना) ही अच्छा है॥३॥

पर अकाज लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम-उपल कृषी दलि गरहीं॥
बन्दउँ खल जस सेष सरोषा। सहस-बदन बरनइ पर-दोषा॥१॥

दूसरों का अकाज करने के लिए अपने शरीर तक नाश कर देते हैं, जैसे – पाला और पत्थर (ओले) खेती का नाश कर के आप भी गल जाते हैं। फिर क्रोध भरे शेषनाग की तरह खलों को मैं प्रणाम करता है, जो पराये दोषों का वर्णन हज़ार मुख से करते हैं॥२॥

शेष सरोप नहीं हैं पर खल सरोप शेप के समान हैं, शेष हज़ार मुख से हरि यश वर्णन करते हैं, खलों के एक ही मुख पराये का दोष कहने के लिए हज़ार मुख के समान 'पूर्णोपमा अलंकार' है।

पुनि प्रनववोँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस-दस-काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। सन्तत सुरा-नीक हित जेही॥५॥

फिर उन्हें राजा पृथु के समान जान कर प्रणाम करता हूँ, जो दूसरों का दुष्कर्म बस हज़ार कानों से सुनते हैं। फिर उनको इन्द्र के बराबर समझ कर विनती करता हूँ। जैसे इन्द्र को देवतावों का खुण्ड प्रिय है तैसे खलों को मदिरा प्यारी है॥५॥

बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस-नयन पर दोष निहारा॥६॥

जिनको वचन रूपी वज्र सदा प्यारा है और जो हजार आँख से पराये का दोष देखते हैं॥६॥

दो॰ – उदासीन-अरि-मीत-हित, सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जीरि जन, विनती करइ सप्रीति॥४॥

खलों की यही रीति है कि वे उदासीन, शत्रु, और मित्र की भलाई सुन कर जलते हैं। ऐसा जानते हुए भी यह जन (तुलसीदास) दोनों हाथ जोड़ कर प्रीति पूर्वक उनसे विनती करता है॥४॥

तटस्थ, (जो न शत्रु हो न मित्र हो) मित्र और शत्रु तीनों की भलाई सुन कर जलना अर्थात् हित अनहित के साथ एक ही धर्म कथन करना 'चतुर्थ तुल्ययोगिता अलंकार' है।

चौ॰ – में अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पालिय अति अनुरागा। होहिँ निरामिष कबहुँ कि कागा॥१॥

मैंने अपनी ओर से (साधुधर्मानुसार) विनती की है, पर वे अपनी ओर से कभी न चूकेंगे। कौए को बड़े प्रेम से पालिए तो क्या यह कभी मांस न खानेवाला हो सकता है? कदापि नहीं॥१॥

बन्दउँ सन्त असज्जन चरना। दुख-प्रद-उभय बीच कछु धरना।
मिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दारुन दुख देहीं॥२॥

मैं सज्जन और दुर्जन दोनों के चरणों की वन्दना करता है, दोनों दुःख देनेवाले हैं पर उसमें कुछ अन्तर कहा जाता है। एक बिछुड़ने पर प्राण हर लेते हैं, दूसरे मिलने पर भीषण कष्ट देते हैं॥२॥

चौपाई के पूर्वार्द्ध में यह कहना कि दोनों दुखदाई हैं, पर समझने से उस दुःख में फर्क जान पड़ता है यह उन्मीलित है। उत्तरार्द्ध में सज्जन-असज्जन का मिलना बिछुड़ना एक ही कार्य द्वारा विरुद्ध क्रिया का वर्णन "द्वितीय व्याघात अलंकार' है।

उपजहिँ एक सङ्ग जग माहीं। जलज जोँक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥३॥

दोनों (सज्जन असज्जन) एक साथ संसार में पैदा होते हैं, पर उनके गुण कमल और जोंक की तरह अलग अलग होते हैं। साधु अमृत के समान और असाधु मदिरा के समान हैं, जगत में (दोनों को उत्पन्न करनेवाला) एक पिता ही अथाह समुद्र है॥३॥

भल अनभलनिजनिज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा-सुधाकर-सुरसरि-साधू। गरल-अनल-कलिमलसरि-ब्याधू॥४॥

भले और बुरे अपनी अपनी करनी के अनुसार सुयश और अयश की सिद्धि पाते है। सज्जन लोग अमृत, चन्द्रमा और गङ्गाजी है, दुष्ट प्राणी विष, अग्नि और पाप की नदी (कर्मनासा) हैं॥४॥

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥५॥

गुण और दोष को सब कोई जानता है, पर जिसको जो अच्छा लगता है उसको वही सुहाता है॥

दो॰ – भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिय अमरता, गरल सराहिय मीचु॥५॥

परन्तु भले भलाई हो पाते हैं और नीच निचाई ही लहते हैं। अमृत की प्रशंसा अमर करने में और विष की सराहना मृत्यु करने में होती है॥५॥

इस दोहा में पद और अर्थ को बार बार आवृत्ति होना 'पदार्थावृति दीपक अलंकार, है।

चौ॰ – खल-अघ-अगुन साधु-गुन-गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तेँ कछु गुन दोष बखाने। सङ्ग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥१॥

दुष्टों के पाप और अवगुण का वृत्तान्त एवम् साधुओं के गुणों की कथा दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। उनके गुण दोष कुछ इसलिए कहे गये हैं कि बिना पहचान के ग्रहण वा त्याग नहीं होता॥५॥

भलेउ पोच सब विधि उपजाये। गनि गुन दोष बेद बिलगाये॥
कहहिँ बेद इतिहास पुराना। बिधि-प्रपञ्च गुन अवगुन साना॥२॥

भले और बुरे सब को ब्रह्मा ने उत्पन किया है, उनके गुण-दोषों को कह कर वेदों ने अलगाव कर दिया है। वेद, पुराण और इतिहास के ग्रन्थ कहते हैं कि विधाता का प्रपञ्च (संसार) गुण दोष से मिला-जुला है॥२॥

दुख-सुख पाप-पुन्य दिन-राती। साधु-असाधु सुजाति-कुजाती॥
दानव-देव ऊँच अरु नीचू। अमिय सजीवन माहुर मीचू॥३॥

दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, सजन-असज्जन, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच और नीच, अमृत जिलानेवाला तथा विष मृत्यु करनेवाला॥३॥

माया ब्रह्म जीव-जगदीसा। लच्छि-अलच्छि रङ्क-अवनीसा॥
कासी-मग सुरसरि-क्रमनासा। मरु-मालव महिदेव-गवासा॥४॥

माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, लक्ष्मीवान-बिना लक्ष्मी का, कङ्गाल-राजा, काशी-मगह, गङ्गा-कर्मनासा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण और कसाई॥४॥

ब्रह्म-ईश्वर को ब्रह्मा के प्रपञ्च में मिलाजुला कहना 'विरोधाभास अलंकार' है, क्योंकि वे ब्रह्मा की सृष्टि से परे हैं, यहाँ गुण-दोष की गणना मात्र है।

सरग-नरक अनुराग-बिरागा। निगम-अगम गुन-दोष-विभागा॥५॥

स्वर्ग-नरक, प्रीति और वैराग्य, वेद शास्त्रों ने इनके गुण दोष अलगाये है॥५॥

दो॰ – जड़-चेतन गुन-दोष मय, बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस गुन गहहिँ पय, परिहरि बारि बिकार॥६॥

ब्रह्मा ने संसार को जड़-चेतन और गुण-दोष मय बनाया है। सन्त रूपी हंस गुण रूपी दूध को ग्रहण करते और दोष रूपी जल को त्याग देते हैं॥६॥

चौ॰ – अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहि मन राता॥
काल सुभाउ करम बरिआई। अलउ प्रकृति-बस चुकइ भलाई॥१॥

जब विधाता ऐसा विचार देते हैं, तब दोषों को छोड़ कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल, स्वभाव और कर्मों की प्रबलता से अच्छे लोग भी प्रकृति (माया) के वश हो कर भलाई से चूक जाते हैं अर्थात् चुराई में पड़ जाते हैं॥१॥

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीँ। दलि दुख दोष बिमल जस देहीं।
खलउ करहिँ अल पाइ सुसङ्ग। मिटइ न मलिन सुभाउ अभङ्गू॥२॥

उस (भूल) को जिस प्रकार हरिभक्त सुधार लेते हैं कि दुःख और दोषों का नाश कर निर्मल यश देते हैं। दुष्ट भी अच्छा संग पा कर भलाई करते हैं, पर उनकी अभङ्ग नीच-प्रकृति नहीं मिटती॥२॥

जिस तरह काल, स्वभाव और प्रकृतिवश अच्छे लोग बुराई कर बैठते हैं, उसी तरह अच्छे सङ्ग में पड़ कर दुष्ट भलाई कर जाते हैं, किन्तु दोनों पलट कर फिर अपना पूर्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। दूसरे का गुण ग्रहण कर फिर अपने गुण में आना 'पूर्वरूप अलंकार' है।

लखि सुबेष जग बञ्चक जेऊ। बेष प्रताप पूजियहि तेऊ।
उघरहिँ अन्त न हाइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥३॥

जो ससार को ठगनेवाले हैं, उन्हें भी अच्छा वेष बनाये देख कर वेष के प्रताप से लोग पूजते ही हैं। अन्त में कपट खुल जाने पर उनकी रहायस नहीं होती, जैसे – कालनेमि, रावण और राहु की गति हुई थी॥३॥

कालिनेमि और रावण ने यती वेष बना कर और राहु ने देवता बन कर उगबाज़ी की कलई खुल जाने पर तीनों मारे गये।

किये कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू॥
हानि-कुसङ्ग सुसङ्गति-लाहू। लोकहु बेद बिदित सब काहू॥४॥

कुवेष किए रहने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे संसार में जाम्बवान और हनूमान। यह लोक में तथा वेद में प्रसिद्ध है और सब को मालूम है कि कुसङ्ग से हानि और सुसङ्ग से लाभ होता है॥४॥

गगन चढ़इ रज पवन प्रसङ्गा। कोचहि मिलइ नीच जल सङ्गा॥
साधु-असाधु-सदन सुक सारी। सुमिरहिं राम देहि गनि गारी॥

हवा के सङ्ग से धूल आकाश पर चढ़ती है और नीच जल के साथ से कीचड़ में मिलती है। साधुओं के घर में (पलनेवाले) सुग्गा-मैना राम-राम स्मरण करते हैं और असाधुओं के घरवाले गिन गिन कर गालियाँ देते हैं॥५॥

धूम कुसङ्गति कारिख होई। लिखिय पुरान मज्जु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल सङ्घाता। होइ जलद जग-जीवन-दाता॥६॥

कुसङ्ग में पड़ कर धुनाँ कारिख होता है, वही पुराण लिखने पर सुन्दर स्याही कहलाता है। वही (धूम) पानी, अग्नि और वायु के सङ्ग से संसार को जीवन (जल) देनेवाला बादल होता है॥६॥

दो॰ – ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिँ सुलच्छन लोग।

ग्रह, औषधि, पानी, हवा और वस्त्र कुसङ्ग सुसङ्ग पाकर (सङ्ग के प्रभाव से) अच्छी वस्तु बुरी चीज़ हो जाती है, इसको सुलक्षण (चतुर) लोग लखते हैं।

सम प्रकास तम पाख दुहुँ, नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि पोषक सेोषक समुझि, जग जस अपजस दीन्ह॥

दोनों पाखों में उँजेला और अँधेरा बराबर होता है, पर विधाता ने नाम में अंतर कर दिया है। एक को चन्द्रमा को पुष्ट करनेवाला समझ कर संसार यश देता है दूसरे को घटाने वाला ज्ञान कर अपयश प्रदान करता है।

जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राम-मय जानि।
बन्दउँ सब के पद-कमल, सदा जारि जुग पानि॥

जगत् में जड़ चेतन जीव जितने हैं, सब को राम-रूप समझ कर मैं सदा दोनों हाथ जोड़ कर सभी के चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ।

देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गन्धर्व।
बन्दउँ किन्नर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्व॥७॥

देवता, दैत्य, मनुष्य, सर्प, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्ष, किन्नर और राक्षस सबको मैं प्रणाम करता हूँ, अब मुझ पर सब कोई कृषा करो॥७॥

चौ॰ – आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल-थल-नभ-वासी॥
सीय-राम-मय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥१॥

चौरासा लाखें योनियों में चार प्रकार (स्वेदज, अण्डज, पिण्डज, जरायुज) के जीव, जल, धरती और आकाश में रहनेवाले सम्पूर्ण जगत् को सीताराम मय जान कर दोनों हाथ जोड़ कर मैं प्रणाम करता हूँ॥६॥

सभा की प्रति में 'सियाराम-मय' पाठ है। चौरासी लक्ष योनियों की संख्या इस प्रकार है। ४ लाख मनुष्य, ६ लाख जलचर, १० लाख पक्षी, ११ लाख कृमि, २० लाख वृक्ष, ३० लाख पशु।

जानि कृपाकर किङ्कर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निजबुधिबल भरोस मोहिँनाहीँ। ता तें बिनय करउँ सब पाहीं॥२॥

कृपा कर मुझे अपना सेवक समझ छल छोड़ सब कोई मिल कर छोह कीजिए। अपनी बुद्धि के चल का मुझे भरोसा नहीं है, इसलिए सब से विनती करता हूँ॥२॥

करन चहउँ रघुपति-गुन-गाहा। लघु-मति-मोरि चरित अवगाहा।
सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ। मन-मति-मनोरथ राऊ॥३॥

मैं रघुनाथजी के गुणों की कथा वर्णन करना चाहता है, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी हैं और चरित अथाह (अपरम्पार) है। उपाय का एक भी अङ्ग नहीं सूझता है, मन और बुद्धि दरिद्र है, पर मनोरथ राजा जैसा है॥३॥

बुद्धि थोड़ी चरित अथाह होने से कोई उपाय नहीं सुझता, यह उपमेय वाक्य है। मन मति कङ्गाल-मनोरथ राजा, उपमान वाक्य है। जैसे दरिद्र को राज्य का मनोरथ असम्भव है, वैसे मुझ अल्प-बुद्धि के लिए राम चरित वर्णन असम्भव है। इस प्रकार दोनों वाक्यों में निम्न प्रतिबिम्ब भाव इष्टान्त अलंकार है।

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिय अमिय जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिँ सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिँ बाल बचन मन लाई॥४॥

बुद्धि तो अत्यन्त नीच है, पर अभिलाषा बड़ी ऊँची है, अमृत की चाह है, किन्तु संसार में माठा भी नहीं जुरता है। सज्जन लोग मेरी इस ढिठाई को क्षमा करेंगे और इस बालक की बात मन लगा कर सुनेंगे।

जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिँ मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिँ कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर-दूषन भूषन-धारी॥५॥

यदि बालक तुतला कर बात कहता है तो उसको माता और पिता प्रसन्न मन से सुनते हैं। निर्दय, कपटी, बुरे विचारवाले, जो दूसरों के दोषों का ही आभूषण धारण करते हैं वे हँसेंगे॥५॥

सज्जन असज्जन के लक्षण द्वारा अनुमान बल से यह निश्चय कर लेना कि सज्जन माता-पिता की तरह प्रेम से सुनेंगे और दुष्ट प्राणी इस काव्य की हँसी करेंगे 'अनुमान-प्रमाण अलंकार' है।

निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर-भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाही॥६॥

अपनी बनाई कविता किसको अच्छी नहीं लगती? चाहे वह रसीली हो अथवा अत्यन्त नीरस हो। जो दुसरे का काव्य सुन कर प्रसन्न होते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष संसार में बहुत नहीं हैं॥६॥

जग बहु नर सरि सर सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई।
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़ड़ जाई ॥७॥

भाई! जगत् में बहुत से मनुष्य नदी और तालाब के समान हैं, जो जल पा कर अपनी बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात् अपनी उन्नति से खुश होते हैं। पर समुद्र के समान सज्जन कोई एक आध ही हैं जो पूर्ण चन्द्रमा (पराये की वृद्धि) देख कर उमड़ते हैं॥७॥

दो॰ – भाग छोट अभिलाष बड़, करउँ एक बिस्वास।
पइहहिं सुख सुनि सुजन जन, खल करिहहिँ उपहास ॥८॥

अभिलाषा बड़ी है भाग्य छोटा है, मैं एक ही विश्वास करता हूँ कि सज्जन लोग इस कविता को सुन कर सुख पावेंगे और दुष्ट लोग निन्दा करेंगे॥८॥

चौ॰ – खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥१॥

दुष्टो के बुराई करने से मेरी भलाई होगी, कौए कोयल को कठोर (वाणीवाली) कहते हैं। बगुला हंस की और मेढक पपीहा की हँसी करते हैं, उसी तरह दुष्ट पापी निर्मल वार्ता (हरिकथा) का मजाक उड़ाते हैं॥१॥

खलों द्वारा होनेवाले निन्दारूपी दोष को अपने लिए गुण मान कर उसकी इच्छा करना 'अनुज्ञा अलंकार' है। दुष्ट पापात्मा विमल-वार्ता की हँसी उड़ाते हैं, यह उपमेय वाक्य है। कौंआ कोकिल को कठोर कहता है, बगुले हंस की दिल्लगी करते और मेढ़क चातक को मूर्ख समझ कर हँसता है, यह उपमान वाक्य है। दोनो वाक्यों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव झलकना 'दृष्टान्त अलंकार' है।

गुटका में 'हंसहि वक गादुर चातकही' पाठ है। यहाँ 'दादुर' के स्थान में 'गादुर' बनाया हुआ पाठ मालूम होता है। शायद उपमा-उपमेय के जातिवर्ग की समानता के लिए ऐसा किया गया है। इधर गेदुरा पक्षी तो उधर चातक पक्षी। पर यह बेमेल है। प्रसङ्गानुसार मेढक चातक की समता यथार्थ प्रतीत होती है, क्योंकि वे दोनों मेघ से प्रेम रखने वाले और वर्षा के आकांक्षी होते हैं। उनमें अन्तर यह है कि मेढक जल मात्र में विहार करता हुआ सभी बादलों से प्रेम रखता है; किन्तु पपीहा स्वाती के बादल और जल से प्रसन्न होता है। मेढक इस लिए चातक की हँसी उड़ाता है कि मेरे समान सब जलों में यह विहार नहीं करता, स्वाती के पीछे टेक पकड़ कर नाहक प्राण गँवाता है। यह दृष्टान्त का भाव है, पर इस गम्भीरता को 'गादुर नहीं पहुँच सकता। अतएव 'दादुर' पाठ शुद्ध है।

कबित रसिक न राम-पद-नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हासरस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी॥२॥

जो न तो काव्यरस के प्रेमी है और न राचन्द्रजी के चरणों के अनुरागी हैं, उनको यह कविता हँसी की चीज़ हो कर आनन्द देनेवाली होगी। एक तो भाषा की कहनूति, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, हँसने योग्य है, इस लिए हँसना कोई ऐब नहीं है॥२॥

प्रभु-पद-प्रीति न साभुक्ति नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि-हर-पद-रति मतिनकुतरकी। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥३॥

जिन्है न रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति है और न अच्छी समझ है, उन्हें यह कथा सुन कर फीकी लगेगी। पर जिनकी बुद्धि कुतर्कता रहित हरि-हर-चरणों में प्रीति रखती है, उनको रघुनाथजी की कथा मीठी लगेगी॥३॥

रामगति-भूषित जिय जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिँ चतुर प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या-हीनू॥१॥

सज्जन लोग इसको रामभक्ति से विभूषित जी में जान कर सुनेगे और सुन्दर वाणी से सराहना करेंगे। न तो मैं कवि हूँ, और न चतुर हूँ, न विज्ञ हूँ, समस्त हुनरों तथा सम्पूर्ण विद्याओं से खाली हूँ॥४॥

तुलसीदासजी का कवि, चतुर, प्रवीण आदि अपने प्रसिद्ध गुणों का निषेध करना 'प्रतिषध अलंकार' है।

आखर अरथ अलंकृत नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक विधाना॥
भाव-भेद रस-भेद अपारा। कबित दोष-गुन बिबिध प्रकारा॥५॥

अक्षर, अर्थ, नाना भाँति के अलंकार और छन्द रचना की अनेक रीति हैं। भाव (अनुभाव, सञ्चारी आदि के) भेद और (शृङ्गारादि) रसों के मर्म तथा काव्य के गुण-दोष अनेक प्रकार के हैं॥५॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥६॥

काव्य का ज्ञान एक भी मुझ में नहीं है, इस बात को मैं कोरे काग़ज़ पर लिख कर सच कहता हूँ॥६॥

गुण का कार्पण्य दिखा कर कवि का भाव अपनी नम्रता व्यञ्जित करने का है।

दो॰ – भनिति मोरि सब गुन रहित, विस्व विदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिँ सुमति, जिन्ह के बिमल बिबेक॥६॥

मेरी कहनूति सब गुणों से रहित है, पर जगद्विखयात अद्वितीय गुण [इस में राम नाम] है, यह विचार कर अच्छी बुद्धिवाले, जिन्हें निर्मल ज्ञान है, सुनेंगे॥६॥

चौ॰ – एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान-स्रुति-सारा॥
मङ्गल-भवन अमङ्गल-हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥१॥

इस में अत्यन्त पवित्र वेद पुराणों का सार [तत्व] रघुनाथजी का श्रेष्ठ नाम है, जो कल्याण का स्थान और अमङ्गलों का हरनेवाला है, जिसको पार्वती के सहित शिवजी जपते हैं॥१॥

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
बिपु-बदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥२॥

जो कविता अच्छे कवि की की हुई विलक्षण ही क्यों न हो, वह भी बिना राम नाम के शोभित नहीं होती। सुन्दर चन्द्राननी स्त्री सब तरह का शृङ्गार करने पर भी बिना वस्त्र के नहीं सोहती॥२॥

पूर्वार्द्ध वाक्य उपमेय रूप और उत्तरार्द्ध वाक्य उपमान रूप है। बिना राम नाम के कविता और बिना वस्त्र के सुन्दर शृङ्गारित तरुणी, दोनों का एक धर्म 'सोह न' कथन होना 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार' है।

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अङ्कित जानी॥
सादर कहहिँ सुनहि बुध ताही। मधुकर सरिस सन्त गुन-ग्राही॥३॥

सम्पूर्ण गुणों से खाली कुकवि की ही बनाई कविता क्यों न हो, पर राम-नाम के यश से वर्णित जान कर विद्वान् लोग आदर के साथ उसको कहते और सुनते हैं, क्योंकि सन्तजन भौँरे के समान गुण ग्रहण करनेवाले होते हैं॥३॥

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम-प्रताप प्रगट एहि माहीं।
सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहि न सुसङ्ग बड़प्पन पावा॥१॥

यद्यपि इसमें एक भी काव्य का आनन्द नहीं है, परन्तु रामचन्द्रजी का प्रताप प्रसिद्ध है। मेरे मन में यही भरोसा आता है कि अच्छे सङ्ग से किसको बड़ाई नहीं मिली है?॥४॥

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगर प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम-कथा जग-मङ्गल-करनी॥५॥

धुआँ भी अपने स्वाभाविक कड़वेपन को छोड़ देता है, अगर के साथ में अच्छी महक से वासित हो जाता है। कहनूति भद्दी है, पर अच्छी ही वस्तु वर्णन की गई है, रामचन्द्रजी की कथा संसार का मङ्गल करनेवाली है॥५॥

हरिगीतिका-छन्द।

मङ्गल-करनि कलिमल-हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता-सरित की ज्योँ सरित-पावन-पाथ की॥
प्रभु सुजस सङ्गति भनिति मलि होइहि सुजन मन-भावनी।
भव-अङ्ग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥१॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुनाथजी की कथा मङ्गल-कारिणी और कलि के पापों को हरनेवाली है। कविता-नदी की चाल इस प्रकार टेढ़ी है, जैसे पवित्र जलवाली (गंगा आदि) नदियों की गति होती है। प्रभु रामचन्द्रजी के सुयश के साथ से कविता अच्छी और सज्जनों के मन में सुहानेवाली होगी। मसान की राख शिवजी के अन्त में शोभायमान होकर स्मरण करने से पवित्र करती है॥३॥

दो॰ – प्रिय लागिहि अति सबहि मम, भनिति ति राम-जस-सङ्ग।
दारु बिचार कि करइ कोउ, बन्दिय मलय प्रसङ्ग।

श्रीरामचन्द्रजी के यश के साथ के कारण मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्यारी लगेगी। मलयाचल के प्रसङ्ग से चन्दन की वन्दना करने में क्या कोई काठ का विचार करता है? (कदापि नहीं)।

स्याम-सुरभि-पय बिसद अति, गुनद-करहिं सब पान।
गिराग्राम्य सिय-राम-जस, गावहिँ सुनहिँ सुजान॥१०॥

काली गाय का दूध उज्ज्वल और अत्यन्त गुण-दायक जान कर सब पान करते हैं। उसी तरह-गँवारी बोली में कहे हुए भी सीतारामजी के यश को सज्जन लोग गान करते हैं और सुनते हैं॥१०॥

चौ॰ – मनि-मानिक-मुकता-छबि जैसी।अहि-गिरि-गज-सिरसोहनतैसी।
नृप-किरीट तरुनी-तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥१॥

मणि, माणिक और मोती की जैसी शोभा होनी चाहिए, वैसी छवि साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक में नहीं होती। राजाओं के मुकुट और नवयौवना स्त्रियों के अङ्ग को पाकर वे सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥१॥

तैसेहि सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिँ अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति-हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥२॥

उसी तरह सत्कवियों के काव्य को विद्वान लोग कहते हैं कि वह पैदा और जगह होता है, परन्तु शोभा अन्यत्र हो पाता है। (जब कवि काव्य करने के लिए) सरस्वती का स्मरण करता है, तय उसकी भक्ति के कारण ब्रह्मलोक छोड़ कर थे उसके पास दौड़ कर आ जाती हैं॥२॥

रामचरितसर बिनु अन्हवाये। सो सम जाइ न कोटि उपाये॥
कबि कोबिद अस हृदय बिचारी। गावहिं हरिजस कलिमल-हारी॥३॥

बिना रामचरितमानस में स्नान कराये वह थकावट करोड़ों उपायों से भी नहीं जाती, कवि और विद्वान ऐसा मन में विचार कर कलि के पापों के हरनेवाले भगवान का यश-गान करते हैं॥३॥

कीन्हे प्राकृत-जन गुनगाना। सिर धुनि गिरा लगति पछिताना।
हृदय-सिन्धु मति-सीपि समाना। स्वाती-सारद कहहिँ सुजाना॥४॥

संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वती सिर पीट कर पछताने लगती है। चतुर लोग कवि के हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीपी और सरस्वती को स्वाती नक्षत्र के समान कहते हैं॥४॥

जौं बरषद बर-बारि बिचारू। होहिँ कबित-मुकता-मनि चारू॥५॥

यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल की वर्षा हो, तो कविता रूपी सुन्दर मोती और मणि उत्पन होते हैं॥५॥

दो॰ – जुगुति बेधि पुनि पोहियहि, रामचरित बर ताग।
पहिरहिँ सज्जन बिमल उर, सोभा अति अनुराग॥११॥

युक्ति रूपी सूई से छेद कर फिर रामचरति रूपी सुन्दर तागे से पिरो कर माला बनावे, जिसको सज्जन लोग अपने स्वच्छ हृदय में पहने तो उत्तम प्रेमरूपी शोभा होती है॥११॥

सज्जन लोग बड़े प्रेम से हृदय में धारण करें, तब कविता की यथार्थ शोभा होती है, यह व्यङ्गार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से तुल्यप्रधानगुणीभूत व्यङ्ग है।

चौ॰ – जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपन्थ बेद-मग छाँड़े। कपट-कलेवर कलिमल-भाँड़े॥१॥

इस भीषण कलिकाल में जो जन्मे हैं, जिनका करतय कौए का और वेश हंस का है, वेद-मार्ग को छोड़ कर कुमार्ग में चलते हैं, कपट के शरीर और पाप के भाजन है॥१॥

बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह-काम के।
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मारी। धिक धरमध्वज धन्धक धोरी॥२॥

जो रामचन्द्रजी के भक्त कहा कर लोगों को ठगते हैं, वास्तव में सुवर्ण, क्रोध और काम के सेवक हैं। उनमें पहले संसार में मेरी गिनती है, धर्म की पताका उड़ा कर काम धन्धे का बोझ लादे रहनेवाले मुझ सरीखे बैल को धिक्कार है॥२॥

यहाँ गोस्वामी जी का अपने को धिक्कारना 'लघुता ललित सुवारि नचोरी' के अनुसार उच्च श्रेणी में लानेवाला 'विचित्र अलंकार' है। सभा की प्रति में धँधरक धोरी' पाठ है। धन्धक और धँधरक पर्यायी शब्द हैं, अर्थ दोनों का एक ही है।

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिँ लहऊँ॥
तातेँ मैं अति अलप बखाने। थोरे महँ जानिहहिँ सयाने॥३॥

यदि मैं अपना सब दोष कहने लगूँ तो कथा बढ़ जायगी, पार न पाऊँगा। इसलिए मैंने बहुत कम वर्णन किया है, चतुर लोग थोड़े ही में समझ लेगे॥३॥

समुझि बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे सङ्का। मोहि ते अधिक ते जड़ मति-रक्षा॥४॥

मेरी अनेक प्रकार की विनती को समझ कर और कथा सुन कर कोई दोष न देगा। इतने पर भी जो शङ्का करेंगे, वे मुझ से भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के दरिद्री हैं॥४॥

गुटका में 'समुझि विविध विनती अब मोरी' पाठ है और शङ्का के स्थान में 'अशङ्का पाठ है, जिससे छन्दोभङ्ग दोष आ जाता है।

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम-गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥५॥

मैं न कवि हूँ और न चतुर कहलाना चाहता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार रामचन्द्रजी का गुणगान करता हूँ। कहाँ रघुनाथजी का अपार चरित्र और कहाँ संसार में लगी हुई मेरी बुद्धि!॥५॥

जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाहीँ। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥६॥

जिस (प्रचण्ड) वायु में सुमेरु पर्वत उड़ जाता है, भला कहिए तो सही। उसके लिए रूई किस गिनती में है? रामचन्द्रजी की अपार महिमा समझ कर कथा निर्माण करने में मन बहुत कचिया रहा है॥६॥

जिस हवा में सुमेरु उड़ जाता है, उसमें रूई की कौन सी गणना 'काव्यार्थापत्ति अलंकार' है।

दो॰ – सारद सेष महेस बिधि, आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन, करहिं निरन्तर गान॥१२॥

सरस्वती, शेष, शिव, ब्रह्मा, शास्त्र, वेद और पुराण जिनके गुण को-इति नहीं, इति नहीं – कह कर निरन्तर गान करते हैं॥१२॥

चौ॰ – सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाखा॥१॥

प्रभु रामचन्द्रजी की उस महिमा को सब (इति न होनेवाली) जानते हैं, तो भी बिना कहे कोई न रहा अर्थात् सभी ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया है। यह क्यों? – वहाँ वेद ने ऐसा कारण रख कर भजन का प्रभाव बहुत तरह से वर्णन किया है (हरिकीर्तन एक प्रकार का भजन है, इससे लोगों ने किया, किन्तु पार पाने की इच्छा से नहीं – उसी तरह मैं भी रामचरित कहूँगा)॥१॥

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा॥
व्यापक बिस्व-रूप भगवाना। तेहि धरि देह चरित कृत नाना॥२॥

जो अद्वितीय, इच्छारहित, बिना रूप और बिना नाम के, अजन्मे, सत्-चित्-आनन्द के रूप, साकेत विहारी, सर्व व्यापक, जगन्मय भगवान हैं, उन्होंने शरीर धारण कर नाना प्रकार के चरित्र किये हैं॥२॥

सो केवल भगतन्ह हित लागी। परम कृपाल प्रनत-अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥३॥

वे केवल भक्तों की भलाई के लिए अवतार लेते हैं और बड़े ही कृपालु तथा शरणागतों पर प्रेम करनेवाले हैं। जिनकी सेवकों पर प्रीति और अतिशय कृपा रहती है, जिन्होंने दया करके (जनों पर कभी) क्रोध नहीं किया॥३॥

गई बहोर गरीब-नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिँ हरिजस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज-बानी॥४॥

रघुनाथजी खोई हुई वस्तु के लौटानेवाले, दीनदयाल, सीधे और बलवान स्वामी हैं। ऐसा समझ कर बुद्धिमान, लोग अपनी वाणी को पवित्र तथा सफल, करने के लिए भगवान् का यश वर्णन करते हैं॥४॥

तेहि बल मैं रघुपति गुन-गाथा। कहिहउँ नाइ राम-पद माथा।
मुनिन्ह प्रथम हरि-कीरति गाई। तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई॥५॥

उसी बल से मैं रामचन्द्रजी के चरणों में मस्तक नवा कर रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। पहले मुनियों ने भगवान् की कीर्ति गाई है, उस रास्ते में चलना मुझे सहल और अच्छा लग रहा है॥५॥

दो॰ – अति अपार जे सरित बर, जौँ नृप सेतु कराहिँ।
चढ़ि पिपीलिकउ परम-लघु, बिनु स्रम पारहि जाहि॥१३॥

जो बहुत बड़ी अपार नदियाँ हैं, उन पर यदि राजा पुल बनवा देते हैं, तो अत्यन्त छोटी चींटी भी उस पर चढ़ कर बिना परिश्रम पार चली जाती है॥१३॥

चौ॰ – एहि प्रकार बल मनहिँ देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई।।
व्यास-आदिकबि-पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥१॥

इस प्रकार का बल मन को दिखा कर मैं रघुनाथजी की सुहावनी कथा निर्माण करूंगा। महर्षि वेदव्यास आदि अनेक श्रेष्ठ कवि हुए हैं, जिन्होंने आदर-पूर्वक भगवान् का सुयश वर्णन किया है॥१॥

'आदि कवि' शब्द श्लेषार्थी है जिससे वाल्मीकि का अर्थ प्रकट हो रहा है। पर वाल्मीकि की वन्दना आगे करेंगे। कवि का मुख्य तात्पर्य वेदव्यास आदि अनेक श्रेष्ठ कवियों से है, न कि वाल्मीकि से जैसा कि श्लेष से व्यञ्जित होता है।

चरन-कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति-गुन-ग्रामा॥२॥

मैं उनके चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, मेरे सब मनोरथ पूरे होंगे। कलि के कवि गण जिन्होंने रघुनाथजी के गुण-समूह वर्णन किया है, उनको प्रणाम करता हूँ॥२॥

जे प्राकृति कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भये जे अहहिं जे होइहहिं आगे। प्रनवउँ सबहि कपट छल त्यागे॥३॥

जो इतर हिन्दी के बड़े चतुर कवि हुए, जिन्होंने भाषा में हरिचरित वर्णन किया। ऐसे कवि जो पहले हो चुके, वर्तमान में हैं और आगे होंगे, छल कपट छोड़ कर मैं उन सबको प्रणाम करता हूँ॥३॥

"कपट छल" दोनों शब्दों में पुनरुक्ति का आभास है, किन्तु पुनरुक्ति नहीं है। एक भेद-भाव का बोधक है और दूसरा धूर्तता (वह व्यवहार जो दूसरों को ठगने के लिए किया जाता है) का सूचक 'पुनरुक्तिवदाभास अलंकार' है। यहाँ लोग शङ्का करते हैं कि अब तक जो वन्दना की क्या वह छल-कपट सहित की १ जो ऐसा कहते हैं। उत्तर-आगे होनेवाले कवियों को प्रणाम किया, इससे लोग यह न अनुमान करें कि छोटे को प्रणाम क्यों किया, इसलिए ऐसा कहा कि छोटाई बड़ाई या ऊँच नीच का भेद न रख कर बन्दना करता हूँ। सभा की प्रति में 'प्रवनउँ सबहिँ कपट सब त्यागें' पाठ है।

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु-समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरही। सो बम बादि बाल-कबि करहीं ॥४॥

प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि मेरी कविता का सज्जनों के समाज में आदर हो। जिस काव्य का बुद्धिमान लोग आदर नहीं करते, वह परिश्रम नाहक ही मूर्ख कवि करते हैं॥४॥

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम-सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस हमहिँ अँदेसा॥५॥

कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही अच्छी है जो गंगाजी के समान सब के लिए कल्याण करनेवाली हो। रामचन्द्रजी की कीर्ति मनोहर है, किन्तु मेरी कहनूति भद्दी है। मुझे इसी का असमञ्जस और अन्देशा है॥५॥

तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सियनि सुहावनि टाट पटोरे॥६॥

आप की कृपा से वह मुझे सुगम है, टाट की हो या रेशम की सिलाई, अच्छी होने पर सुहावनी लगती ही है॥६॥

पूर्वार्द्ध उपमेय वाक्य और उत्तरार्द्ध उपमान वाक्य है। दोनों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव झलकता है। जैसे टाट पर हो या रेशमी वस्त्र पर, अच्छी सिलाई होने से दोनों सराहनीय होती हैं। उसी तरह कविता चाहे संस्कृत की हो या हिन्दीभाषा की, रचना प्रणाली की प्रशंसा होती ही है, यह 'दृष्टान्त अलंकार' है।

दो॰ – सरल कबित कीरति बिमल, सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु, जो सुनि करहिँ बखान॥

जो कविता सरल हो और जिसमें स्वच्छ यश वर्णन हुआ हो, विद्वान उसीका आदर करते हैं। जिसे सुन कर स्वाभाविक शत्रुता भुला कर (शत्रु भी) बखान करते हैं।

सो न होइ बिनु बिमल मति, मोहि मति-बल अति थोर।
करउ कृपा हरि-जस कहउँ, पुनि पुनि करउँ निहोर॥

वह (कविता) बिना निर्मल बुद्धि के नहीं होती और मुझे बुद्धि का बल थोड़ा है। इसलिए बार बार प्रार्थना करता हूँ कि कृपा कीजिए जिससे हरियश वर्णन करूँ।

कबि कोबिद रघुबर-चरित, मानस मञ्जु मराल।
बाल-बिनय सुनि सुरुचि लखि, मो पर होहु कृपाल॥

रघुनाथजी के चरितरूपी मानसरोवर के सुन्दर राजहंस रूपी कवि और विज्ञान बालक की बिनती सुन कर तथा श्रेष्ट अभिलाषा लख कर दयालु हों।

सो॰ – बन्दउँ मुनि-पद-कञ्जु, रामायन जेहिं निरमयेउ।
सखर सकोमल मञ्जु, दोष-रहित दूषन-सहित॥

मुनि (वाल्मीकि) के चरन-कमलों को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने रामायण बनाई है। जो खर (राक्षस) के सहित कोमलता युक्त सुन्दर है और दूषन (राक्षस) के सहित हो कर भी दोषों से रहित है।

खर और दूषन शब्द श्लेषार्थी हैं जो खरदूषन नाम के राक्षस तथा काव्य में आनेवाले कर्ण कटु आदि दोष दोनों के बोधक होने से 'श्लेष अलंकार' है। सखर होकर कोमलता युक्त और दूषण सहित होने पर निर्दोष, इस वर्णन में 'विरोधाभास अलंकार' है।

बन्दउँ चारिउ बेद, भव-बारिधि-बोहित सरिस।
जिन्हहिं न सपनेहुँ खेद, बरनत रघुवर-बिसद-जस॥

चारों वेदों को प्रणाम करता हूँ। जो संसार रूपी समुद्र के लिए जहाज़ के समान हैं। जिनको रघुनाथजी के निर्मल यश वर्णन करने में स्वप्न में भी खेद नहीं है अर्थात् प्रसन्नता से निरन्तर हरिकीर्तन करते हैं।

बन्दउँ बिधि-पद-रेनु, भव-सागर जेहि कीन्ह जहँ।
सन्त-सुधा-ससि-धेनु, प्रगटे खल-विष-बारुनी॥

मैं ब्रह्मा के चरण-रज को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने संसार रूपी समुद्र को बना कर उसमें सज्जन रूपी अमृत, चन्द्रमा, कामधेनु और दुष्ट रूपी जहर-मदिरा उत्पन्न किया है।

दो॰ – बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन, बन्दि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल, मञ्जु मनोरथ मोरि॥१४॥

देवता, ब्राह्मण, पण्डित और नवग्रहों के चरणों को वन्दना कर के हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि प्रसन्न हो कर मेरा सब मनोरथ पूरा कीजिए॥१५॥

चौ॰ – पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर-चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥१॥

फिर मैं शारदा (कविता नदी) और गङ्गाजी की वन्दना करता हूँ। दोनों के चरित्र पवित्र और मनोहर है। एक स्नान तथा जल-पान से पाप हरती है, दूसरी कहने और सुनने से अज्ञान नष्ट करती है॥१॥

गुरु पितु मातु महेस-भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन-दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय-पीके। हितनिरुपधि सब विधि तुलसी के॥२॥

दोनों के सहायक, नित्य दान देनेवाले शिव-पार्वती मेरे गुरु, पिता और माता हैं, उनको मैं प्रणाम करना हूँ जो सीताजी के प्राणेश्वर रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी एवम् मित्र हैं और बिना प्रयोजन सब प्रकार तुलसी के हितकारी हैं॥२॥

सेवक-स्वामी आदि होने का विशेष रूप से स्पष्टीकरण लङ्काकाण्ड में दूसरे दोहे के बाद प्रथम चौपाई के नीचे देखो।

कलि बिलोकि जग-हित हर-गिरजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरजा।
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥३॥

जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देख कर संसार की भलाई के लिए साबरमन्त्र समूह निर्माण किया। जिनके अक्षर अनमेल और न उनमें कोई अर्थ है न जाप, पर शिवजी के प्रताप से उनका प्रभाव प्रत्यक्ष (तुरन्त फलदायक) है।

सो महेस मोहि पर अनुकूला। करउँ कथा मुद-मङ्गल-मूला॥
सुमिरि सिवा-सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित-चाऊ॥४॥

वे शिवजी मुझ पर प्रसन्न हैं, इससे मैं आनन्द-मंगल की कथा का निर्माण करता हूँ। शिव-पार्वती का स्मरण कर और उनकी प्रसन्नता पा कर मन में उत्साहित हो रामचन्द्र जी का चरित्र वर्णन करता हूँ॥४॥

भनिति मोरि सिव कृपा बिभाती। ससि-समाज मिलि मनहुँ सुराती।
जे एहि कथहि सनेह-समेता। कहिहहिँ सुनिहहिँ समुझि सचेता॥५॥

मेरी कविता शिवजी की कृपा से ऐसी अधिक सुहावनी मालूम होती है, जैसी समरडलीक (तारागणों के सहित) चन्द्रमा के मिलने से रात्रि अच्छी लगती हो। जो इस कथा को स्नेह के साथ कहेंगे, सुनेगे और सावधान होकर समझेगे॥५॥

शिव-कृपा से कविता ऐसी शोभनीय है, जैसी ससि-समाज से मिलकर रात्रि सुहावनी है। 'उक्त विषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है।

होइहहिँ राम-चरन-अनुरागी। कलिमल-रहित सुमङ्गल-भागी॥६॥

वे रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी होंगे और कलि के पापों से मुक्त होकर सुन्दर मङ्गल के भागी बनेंगे॥६॥

दो॰ – सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर, जौँ हर-गौरि-पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहउँ सब, भाषा-भनिति-प्रभाउ॥१५॥

यदि शिव-पार्वती की प्रसन्नता मुझ पर सचमुच सपने में भी हुई हो, तो भाषा काव्य का प्रभाव जो मैंने कहा है, वह सब सच होगा॥१५॥

चौ॰ – बन्दउँ अवधपुरी अतिपावनि। सरजू-सरि कलि-कलुष-नसावनि॥
प्रनवउँ पुर-नर-नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥१॥

अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों को नष्ट करनेवाली सरयू नदी को मैं प्रणाम करता हूँ। फिर उस नगरी के स्त्री-पुरुषों की वन्दना करता हूँ, जिन पर प्रभु रामचन्द्रजी का बहुत बड़ा स्नेह है॥१॥

सिय-निन्दक अघ-ओघ नसाये। लोक बिसाक बनाइ बसाये।
बन्दउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥२॥

सीताजी की निन्दा करनेवाले (घोषी) का पाप-समूह नाश कर उसको शोक रहित बना कर अपने लोक (वैकुण्ठ) में बसाया। पूर्व दिशा के समान कौशल्या माता को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥२॥

रजक के सम्बन्ध में विनयपत्रिका के १६५ वे पद में ज़िक पाया है कि – "सिय-निन्दक मतिमन्द प्रजा रज, निज नय नगर बसाई" अर्थात् जानकीजी की निन्दा करनेवाला नीच-बुद्धि धोबी को अपनी प्रजा जान कर नीति से नगर में बसाया (देश निकाला या प्राणदण्ड आदि कोई कठोर या अल्प दण्ड नहीं दिया) अथवा विशोक लोक बनाइ बसाये, दूसरा वैकुण्ठ ही बना कर उसको वहाँ टिकाया। यह नगरवासी पर प्रेम का उदाहरण है।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व-सुखद खल-कमल-तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत-सुमङ्गल मूरति मानी॥३॥

जहाँ रघुनाथजी सुन्दर चन्द्रमा रूप प्रकट हुए, जो संसार को सुख देनेवाले और खल रूपी कमल-धन के लिए पालारूप हैं, सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और कल्याण की मूर्त्ति मान कर॥३॥

करउँ प्रनाम करम-मन-बानी। करहु कृपा सुत-सेवक जानी॥
जिन्हहिँ बिरचि बड़भयउ विधाता। महिमा-अवधि राम-पितु-माता॥४॥

कर्म मन, वाणी से मैं प्रणाम करता हूँ, अपने पुत्र का सेवक जानकर मुझ पर कृपा कीजिए। जिन्हें बना कर ब्रह्मा बड़े हुए, क्योंकि रामचन्द्रजी के पिता-माता महिमा की अवधि हैं अर्थात् इनसे बढ़ कर महिमावन्त कोई हो नहीं सकता॥४॥

सो॰ – बन्दउँ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥

अयोध्या के राजा (दशरथजी) की मैं वन्दना करता हूँ, जिनका रामचन्द्रजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु के बिछुड़ते ही अपने प्रिय शरीर को तिनके की तरह त्याग दिया॥१६॥

चौ॰ – प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम-पद गूढ़-सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥१॥

कुटुम्ब सहित राजा जनक को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनका रामचन्द्रजी के चरणों में छिपा प्रेम था। उस (गूढ़ प्रेम) को उन्होंने योग और भोग-विलास की ओट में छिपा रक्खा था, वह रामचन्द्रजी को देखते ही प्रत्यक्ष हो गया॥१॥

'राम विलोकत प्रगटेउ सोई' का स्पष्टीकरण जब पहली भेंट जनकपुर में विदेह राज़ की हुई। इसी काण्ड के १२५ वें दोह के ऊपर नीचे देखिए।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम-चरन-पङ्कज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥२॥

(चारों भाइयों में) पहले मैं भरतजी के चरणों में प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता। रामचन्द्रजी के चरण कमलों में जिनका मन भ्रमर के समान आसक्त होकर उनका साथ नहीं छोड़ता॥२॥

बन्दउँ लछिमन-पद-जल जाता । सीतल सुभग भगत-सुखदाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड-समान भयउ जस जाका॥३॥

लक्षमणजी के चरण-कमलों की मैं बन्दना करता हूँ, जो सुन्दर शान्तरूप और भक्तों को सुख देनेवाले हैं। रघुनाथजी का निर्मल यश पताका रूप है, जिनका यश (उस ध्वजा को फहराने-वाला) बाँस के समान हुआ॥३॥

सेष सहस्त्र-सीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि-भय-टारन॥
सदासा सानुकूल रह मा पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥४॥

जो जगत् के कारण (आधार भूत) हज़ार सिरवाले शेषनाग पृथ्वी का डर दूर करने के लिए जन्म लिया, वे कृपासागर गुणों की खान, सुमित्रानन्दन मुझ पर सदा प्रसन्न रहे॥४॥

जो सहस्र सिरवाले शेष पृथ्वी के कारण अर्थात् उसको अपने ऊपर सँभाल रखनेवाले हैं, उनका पृथ्वी पर अवतार लेना कथन-कारण से विरुद्ध कार्य की उत्पत्ति 'पञ्चम विभावना अलंकार' है।

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आपु बखाना॥५॥

शत्रुघनजी के चरण-कमलो को मैं नमस्कार करता हूँ, जो शरवीर, सुन्दर, शीलवान और भरतजी के (सेवक) पीछे चलनेवाले हैं। महाबली हनूमानजी को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनके यश को रामचन्द्रजी ने श्रीमुख से बखान किया है॥५॥

सो॰ – प्रनवउँ पवन कुमार, खल बन पावक ज्ञान घन।
जासु हृदय आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥१७॥

पवन कुमार को प्रणाम करता हूँ, जो खल रूपी वन के लिए अग्नि रुप और ज्ञान की राशि हैं। जिनके हृदय-रूपी मन्दिर में धनुष-बाण धारण किये हुए रामचन्द्रजी निवास करते हैं॥१७॥

खलों में वन का आरोप करने के कारण हनूमानजी में अग्नि का आरोप किया गया है; क्योंकि वन को जलाने के लिए अग्नि ही समर्थ है। यह 'परम्परित रूपक अलंकार' है।

ची॰ – कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस-समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाये। अधम-सरीर राम जिन्ह पाये॥१॥

बानरराज सुग्रीव, जाम्बवान, राक्षसराज विभीषण और अङ्गद आदि जो बन्दरों का समूह है, उन सबके सुन्दर चरणों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस) देह से रामचन्द्रजी को पाया॥१॥

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
घन्दउँ पद-सरोज सघ केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥२॥

पक्षी, मृग, देवता, मनुष्य और दैत्यों सहित जितने रघुनाथजी के चरणों की आराधना करनेवाले हैं, जो निष्काम रामचन्द्रजी के दास हैं, उन सब के चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ॥२॥

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिवर बिज्ञान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहिँ धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥३॥

शुकदेव, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और नारदमुनि अदि भक्त ऋषिश्रेष्ठ जो विज्ञान में प्रसिद्ध हैं। धरती पर मस्तक रख कर सभी को प्रणाम करता है। हे मुनीश्वरो! मुझे अपना दास समझ कर कृपा कीजिए॥३॥

जनक-सुता जग-जननि जानकी। अतिसय प्रिय करना निधान की।
ताके जुग-पद-कमल मनावउँ। जासु कृपा निरमल मति पावउँ॥४॥

जनकनन्दिनी जगत् की माता जानकीजी जो करुणानिधान रामचन्द्रजी की अतिशय प्यारी हैं। उनके दोनों चरण-कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँगा॥४॥

पुनि मन-बचन-करम रघुनायक। चरन-कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजिव-नयन धरे धनु-सायक। भगत-विपति-मञ्जन सुखदायक॥५॥

फिर मैं मन, वचन और कर्म से सब प्रकार योग्य श्रीरघुनाथजी के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जिनके कमल के समान नेत्र हैं और जो हाथ में धनुष बाण लिए भक्तों की विपत्ति नाश कर उन्हें सुख देनेवाले हैं॥५॥

दो॰ – गिरा-अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।
बन्दउँ सीता-राम-पद, जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥८॥

वाणी और अर्थ, पानी और लहर के समान, कहने के लिए अलग हैं, परन्तु वस्तुतः अलग नहीं (अभिन्न) है। ऐसे सीता और राम के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ जिन्हें दुर्बल ही अत्यन्त प्यारे हैं॥१८॥

गुटका में 'देखियत भिन्न न मिन्न' पाठ हैं।

चौ॰ – बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु-भानु-हिमकर को।
बिधि-हरि-हर-मय-बेद-प्रान सो। अगुन अनूपम गुन-निधान सो॥१॥

रघुकुल में श्रेष्ठ रामचन्द्रजी के नाम के अक्षरों की मैं वन्दना करता हूँ, जो अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को उत्पन्न करने के आदि कारण हैं (र-अ-म, राम-नाम में थे तीन अक्षर हैं, तीनों अक्षर क्रमशः) ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप एवम् वेदों के प्राण समान हैं, निर्गुण उपमारहित और गुणों के भण्डार हैं॥१॥

राम शब्द पहले कह कर फिर अक्षरों के क्रमानुसार रकार को अग्नि का, अकार को सूर्य का और मकार को चन्द्रमा का आदि कारण कहना 'यथासंख्य अलंकार' है। निर्गुण भी और गुण के निधान भी। इस कथन में 'विरोधाभास अलंकार' दोनों की संसृष्टि है। टीकाकारों ने इस स्थान पर अर्थ का बहुत बड़ा विस्तार किया है, पर सुगमता के लिए हमने संक्षेप में वर्णन किया।

महा मन्त्र जोइ जपत महेसू। कासी मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ॥२॥

जिस महामन्त्र को शिवजी जपते हैं, जिसका उपदेश ही काशी में मोक्ष का असली कारण है और जिसकी महिमा को गणेश जी जानते हैं। नाम ही के प्रभाव से वे प्रथम पूजे जाते हैं॥२॥

पुराणों में ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि एक बार कुतूहल वश ब्रह्माजी ने देवताओं से पूछा कि तुम लोगों में सर्वश्रेष्ठ पूजनीय कौन है? इस पर सभी देवता हम हम कर के बोल उठे। ब्रह्मा ने कहा-जो पृथ्वी की परिक्रमा कर सब से पहले हमारे पास आवेगा, हम उसी को प्रथम पूज्यपद प्रदान करेंगे। यह सुन कर सब देवता अपने अपने वाहनों पर सवार होकर दौड़े। गणेशजी का वाहन चूहा पिछड़ गया, इससे वे चिन्तित हुए। उसी समय वहाँ नारदजी आ गये। उन्होंने कहा 'राम' नाम में असंख्यों ब्रह्माण्ड भरे हैं, पृथ्वी पर नाम लिख कर परिक्रमा करके ब्रह्माजी के पास जाइये। गणेशजी ने विश्वास-पूर्वक वैसा ही किया और जाकर विरञ्चि से निवेदन किया। राम नाम के प्रभाव को समझ कर विधाता ने गणेशजी को प्रथम पूज्य पद दिया।

जान आदिकबि नाम-प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस-नाम-सम सुनि सिव बानी। जपि जेँई पिय सङ्ग भवानी॥३॥

आदिकवि वाल्मीकिजी नाम के प्रताप को जानते हैं, जो उलटा जाप कर के शुद्ध हुए। पार्वतीजी ने शिवजी के मुख से सुना कि रामनाम का एक बार उच्चारण सहस्रनाम के बराबर है, तब उन्होंने राम नाम जप कर पति के साथ भोजन किया॥३॥

राम नाम के उलटे (मरा मरा) जाप से वाल्मीकि का शुद्ध होना 'प्रथम उल्लास अलंकार' है। वाल्मीकि मुनि के सम्बन्ध की टिप्पणी इसी काण्ड में दूसरे दोहे के आगे दूसरी चौपाई के नीचे देखो। गुटका में जान आदि कवि नाम प्रमाऊ। भयेउ सुद्ध कहि उलटा नाऊँ पाठ है। ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि पार्वतीजी प्रतिदिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर के भोजन करती थीं। एक बार शिवजी हरिपूजन से निवृत्त हो भोजन करने बैठे और पार्वतीजी को बुलाया कि प्रिये! आओ, तुम भी भोजन करो। इस पर पार्वतीजी ने प्रार्थना की, स्वामिन्! अभी मैंने विष्णुसहस्रनाम का पाठ नहीं किया। आप भोजन करें, मैं पीछे प्रसाद पा लूँगी। यह सुन कर शिवजी हसे और कहा – हे वरोनने! तुम 'राम' नाम एक बार उच्चारण कर हमारे साथ भोजन करो, तुमको सहस्रनाम के बरावर फल हो जायगा। शिवजी के वचन का विश्वास मान कर पार्वतीजी ने वैसा ही किया। इसी कथा का सङ्केत ऊपर की चौपाई में किया गया है।

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को।
नाम प्रभाव जान सिव नीको। कालकूट फल दीन्ह अमी को॥४॥

पार्वतीजी के हृदय की (राम नाम में) प्रीति देख कर शिवजी प्रसन्न हुए और स्त्री के भूषण आप, सो स्त्री ही को भूषण (अर्धाङ्ग निवासिनी) बनाया, अथवा भूषण रूपी स्त्रियों का उन्हें भूषण बनाया। नाम के प्रभाव को शिवजी अच्छी तरह जानते हैं, नाम ही की प्रभुता से विष ने उन्हें अमृत का फल दिया॥४॥

दो॰ – बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग, सावन भादवँ मास॥१६॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है और सुन्दर भक्तजन धान के बिरवा है। रोम-नाम के दोनों श्रेष्ठ अक्षर श्रावण और भादों के महीने हैं॥१॥

चौ॰ – आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक-लाहु परलोक-निबाहू॥१॥

दोनों अक्षर मधुर मनोहर हैं और जो वर्ण भक्तजनों के हृदय के नेत्र हैं। वे स्मरण करने में सरल और सब को सुख देनेवाले हैं, जिनसे लोक में लाभ तथा परलोक में निर्वाह (मोक्ष की प्राप्ति होती) है॥१॥

'बरन विलोचन जन जिय जोऊ' का भावार्थ पं॰ रामबकस पाण्डेय ने लिखा है कि – सो सम्पूर्ण अक्षरों के आँखी हैं और सब जनों के जीव हैं। सभा की प्रति के टीकाकार कहते हैं – ये सब अक्षरों के तथा मनुष्यों के हृदय के भी नेत्र है अर्थात् ये सब अक्षरों के सिर पर विराजते हैं और जिनके हृदय में ये अक्षर रूपी नेत्र नहीं वे अन्धे हैं।

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम-लखन-सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म-जीव-सम सहज-सँघाती॥२॥

(दोनों अक्षर) कहने सुनने और स्मरण करने में बहुत ही सुहावने हैं और तुलसीदास को रामचन्द्र और लक्ष्मणजी के समान प्यारे हैं। वर्णन करने में श्रेष्ठ हैं, इनकी प्रीति (परस्पर की मैत्री) अलगाती नहीं, ब्रह्म और जीव के समान (युगल वर्ण) स्वाभाविक सायी हैं॥२॥

प्रायः लोग 'बरनत बरन प्रीति बिलगाता' पाठ मान कर इस तरह अर्थ करते हैं कि – वर्णन करने में अक्षरों की प्रीति अलग हो जाती है। पर इस अर्थ से आगे के उदाहरण से विरोध पड़ता है। यहाँ तो कहने का यह भाव है कि दोनों अक्षरों की ऐसी अभिन्न प्रीति है, ब्रह्म और जीव का स्वाभाविक साथ।

नर-नारायन-सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेष जन त्राता॥
भगति-सुतिय कल करन-बिभूषन। जग-हित-हेतु बिमल बिधु-पूषन॥३॥

नर-नारायण के समान (दोनों) श्रेष्ठ बन्धु हैं, जगत के पालक, विशेष करके जनों के रक्षक हैं। भक्ति रूपी सुन्दर स्त्री के कानों के मनोहर आभूषण हैं और संसार के कल्याण के लिए चन्द्रमा एवम् सूर्य हैं॥३॥

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन-मन-मञ्जु-कञ्ज-मधु कर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥४॥

मोक्ष रूपी अमृत के (दोनों वर्ण) खाद और सन्तोष के समान हैं, धरती को धारण करने में कच्छप और शेषनाग के बराबर हैं, भक्तों के मन रूपी सुन्दर कमल (को पोषण करने) के लिए जल और किरण के तुल्य हैं, और जिह्वा रूपी यशोदा [को प्रसन्न करने] के लिए श्रीकृष्णचन्द्र और बलरामजी के समान हैं॥४॥

'मधुकर' शब्द भ्रमर का बोधक नहीं, जल और सूर्य की किरण से प्रयोजन है जो कमल के पोषण करनेवाले हैं।

दो॰ – एक छत्र एक मुकुट-मनि, सब बरनन्हि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के, बरन बिराजित दोउ॥२०॥

एक (रेफ–रूप) क्षत्र हो कर और दूसरा [बिन्दु–रूप] मुकुट मणि हो कर जो सब वर्णों पर रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुनाथजी के नाम के अक्षर (रकार और मकार) दोनों इस तरह विराजमान होते हैं॥२०॥

रकार, मकार सब वर्णों के सिर पर विराजते हैं। इस बात का समर्थन युक्ति से करना कि रकार, रेफ होकर और मकार बिन्दु होकर 'काव्यलिंग अलंकार' है।

चौ॰ – समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादिसुसामुझि साधी॥१॥

नाम और नामी (राम-नाम और रामचन्द्र) समझने में बराबर हैं, इनकी प्रीति आपस में स्वामी सेवक के समान है। नाम और रूप दोनों ईश्वर के प्रतिष्ठासूचक-पद हैं, जो कहने की सामर्थ्य के बाहर अनादि हैं, अच्छी समझ से जाने जाते हैं॥१॥

को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिँ साधू॥
देखिअहि रूप नाम-आधीना। रूप-ज्ञान नहि नाम बिहीना॥२॥

कौन बड़ा और कौन छोटा है? यह कहने में दोष होगा, इनके गुण के अन्तर को सुन कर सज्जन लोग समझ लेंगे कि कौन बड़ा और कौन छोटा है। नाम के अधीन रूप देखने में आता है, पर नाम के बिना रूप का परिज्ञान नहीं होता॥२॥

ऊपर कह आये हैं कि नाम प्रभु के समान और प्रभु उसके सेवक के समान हैं। अपनी ही कही हुई बात को समझ कर फिर उसका निषेध करना कि कौन बड़ा और कौन छोटा है, यह कहने में अपराध होगा 'उक्ताक्षेप अलंकार' है। रूप नाम के अधीन है अर्थात् नाम मालूम रहने पर खोजने से वह रूप दिखाई देता है, पर बिना नाम के रूप का ज्ञान नहीं होता।

रूप बिसेष नाम बिनु जाने। करतल गत न परहिँ पहिचाने।
सुमिरिय नाम रूप बिनु देखे। आवत हृदय सनेह बिसेखे॥३॥

रूप कैसा ही बढ़ कर हो; पर बिना नाम जाने; वह हाथ ही में क्यों न प्राप्त है, किन्तु पहचान में नहीं पाता। रूप के बिना देखे ही नाम स्मरण करने से मन में अधिक प्रीति उत्पन्न होती है॥३॥

नाम-रूप-गुन अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी॥४॥

नाम और रूप के गुणों की कथा कहना सामर्थ्य से बाहर है, वह समझने में आनन्ददायक है, पर कही नहीं जा सकती। निर्गुण-ब्रह्म और सगुण-ब्रह्म के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है, दोनों का विशेष रूप से ज्ञान कराने में चतुर दुभाषिया है॥४॥

दो॰ – राम-नाममनि-दीप धरु, जीह देहरी-द्वार।
तुलसी भीतर बाहरहुँ, जौं चाहसि उँजियार॥२१॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि तू बाहर भीतर उँजेली चाहता है, तो रामनाम रूपी मणि का दीपक जीभ रूपी दरवाजे के चौखट पर रख॥२१॥

चौ॰ – नाम जीह जपि जागहीँ जोगी। विरति बिरञ्चि प्रपञ्च वियोगी।
ब्रह्म सुखहि अनुभवहिँ अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥१॥

नाम को जीभ से जप कर योगी लोग ब्रह्मा के प्रपञ्च से अलग होकर वैराग्य में सचेत रहते हैं। वे अनुपम ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं, जो बिना नाम और बिना रूप का अकथनीय एवम् निर्दोष है॥१॥

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिँ तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लव लाये। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाये॥२॥

जो गूढ़-गति (आत्मा-परमात्मा के भेद) को जानना चाहते हैं, वे भी जीभ से नाम को जप कर जानते हैं। लौ लगा कर साधक नाम जपते हैं और अणिमा आदि सिद्धियों को पाकर सफल-मनोरथ होते हैं॥२॥

जपहिँ नाम जन आरत भारी। मिटहिँ कुसङ्कट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥३॥

अत्यन्त दुस्खी भक्तजन नाम जपते हैं, उनके बुरे संकट मिट जाते और वे सुखी होते हैं। संसार में चार प्रकार के रामभक्त हैं, वे चारों पुण्यात्मा, निष्पाप और श्रेष्ठ हैं॥३॥

ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और आर्त जिनकी गणना ऊपर कर आये हैं येही चार प्रकार के रामभक्त हैं। ज्ञानी– ईश्वर को जान कर भजनेवाले, जैसे– नारद आदि। जिज्ञासु– ईश्वर को जानने की इच्छा रखनवाले, जैसे परीक्षित आदि। अर्थार्थी– कार्य सिद्धि के लिए ईश्वर का स्मरण करनेवाले, जैसे– सुग्रीवादि। आर्त– दुःख में पड़ कर ईश्वर को याद करनेवाले, जैसे-गजेन्द्र, द्रौपदी आदि। इसी क्रम से ऊपर का वर्णन है। यह भगवद्गीता में भगवान् ने अर्जुन से कहा है– "चतुर्विधा भजन्ते माम् जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरार्थी शानी च भरतर्षभ"।

चहूँ चतुर कहँ नाम अधारा। ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पियारा॥
चहुँ जुग चहुँ स्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेष नहिँ आन उपाऊ॥४॥

चारों चतुर भक्तों को नाम ही का आधार है, प्रभु रामचन्द्रजी को ज्ञानी अधिक प्यारा है। चारों युगों के लिए चारों वेदों में नाम की महिमा कही है, विशेषतः कलियुग के लिए तो दूसरा उपाय नहीं है॥४॥

दो॰ – सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।
नाम प्रेम पीयूष हृद, तिन्हहूँ किये मन मोन॥२२॥

सम्पूर्ण कामनाओं से रहित होकर जो रामभक्ति के रस में डूबे हुए हैं। राम नाम के प्रेम रूपी अमृत के कुण्ड में उन्होंने अपने मनको मछली रूप बना रक्खा है॥२२॥

सभा की प्रति 'नाम सुप्रेम-पियूष हृद' पाठ है।

चौ॰ – अगुनसगुनदुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मारे मत बड़ नाम दुहूँ ते। कियजेहि जुगनिज बस निज बूते॥१॥

ब्रह्म के निर्गुण और सगुण दो स्वरूप हैं, जो कथन की शक्ति से परे, न जानने योग्य, आदि रहित और अनुपमेय हैं। मेरे मत में नाम दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से (सगुण-निर्गुण) दोनों को अपने वश में कर लिया है॥१॥

प्रौढ़ सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एक दारु गत देखिय एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥२॥

पहले कह आये हैं कि– "को बड़ छोटकहत अपराधू। सुनि गुन-भेद समुझिहहिँ साधू॥ छमिहहिँ सज्जन मोरि दिठाई। सुनिहहिं बाल बचन मन लाई।" अब अपना मत स्थापना कर कहना कि मेरे मत से नाम बड़ा है, इस विरोध भाव को दूर करने के लिए कहते हैं कि– सज्जन लोग इस सेवक की पूर्णवयस्कता (जवानी) न समझेगे, मैं अपने मन का विश्वास, प्रीति और अभिलाषा कहता हूँ। एक लकड़ी के भीतर (अवश्य रूप से व्याप्त) और दूसरी प्रत्यक्ष दिखाई देती है, दोनों ब्रह्म का ज्ञान (परिचय) ठीक अग्नि के समान है॥२॥

एक अग्नि जो काठ के भीतर रहती है, पर दिखाई नहीं देती, उसकी समता निर्गुण-ब्रह्म से और दूसरी जो आँख से प्रज्वलित देख पड़ती है, उसकी समता सगुण ब्रह्म से है।

उभय अगम जुग सुगम नाम तेँ। कहउँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें॥
व्यापक एक ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥३॥

दोनों ब्रह्म दुर्गम हैं, किन्तु नाम से दोनों सहज में प्राप्त होते हैं, इसी से मैं परब्रह्म और श्रीरामचन्द्रजी से नाम को घड़ा करता है। जो ब्राह्म सर्वव्यापक, अद्वितीय, माननीय, चैतन्य और निरन्तर आनन्द की राशि है॥३॥

ब्रह्म और रामचन्द्रजी से राम-नाम के बड़े होने का समर्थन यह कह कर करना कि निर्गुण सगुण दोनों ब्रह्म की प्राप्ति दुर्गम है, परन्तु नाम के स्मरण से दोनों सुगम होते हैं 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है।

अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥४॥

ऐसे निर्विकार ईश्वर के हृदय में रहते हुए संसार के समस्त जीव दीन और दुखी हैं। नाम के निदर्शन (प्रकट करने का कार्य) और नाम के प्रयत्न से वह भी कैसे प्रकट होता है, जैसे रत्न से मूल्य प्रत्यक्ष होताहै॥४॥

चौपाई के पुर्वार्द्ध में निर्विकार आनन्द की राशि परमात्मा प्राणियों के हृदय में विद्यमान हैं, फिर भी जीवों का दुखी रहना 'विशेषोक्ति और विरोधाभास' का सन्देहङ्कर है। उत्तरार्द्ध में पहले कहा कि नाम के निरूपण और नाम के यत्न से वह (ब्रह्मानन्द) प्रकट होता है, इस बात का विशेष से समता दिखाना कि जैसे रत्न से मोल ज़ाहिर होता है 'उदाहरण अलंकार' है।

दो॰ – निरगुन ते एहि भाँति बड़, नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नाम बड़ राम तें, निज बिचार अनुसार॥२३॥

इस तरह निर्गुण-ब्रह्म से नाम का प्रभाव बहुत ही बड़ा है। अब जिस प्रकार रामचन्द्रजी से नाम बड़ा है, वह अपनी समझ के अनुसार कहता हूँ॥२३॥

उपमेय ब्रह्म और रामचन्द्रजी से उपमान राम-नाम को बढ़ कर जताना 'द्वितीय प्रतीप अलंकार' है।

चौ॰ – राम भगत हित नर तनु धारी। सहि सङ्कट किय साधु सुखारी॥
नाम सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिँ मुद मङ्गल बासा॥१॥

रामचन्द्रजी ने भक्तों की भलाई के लिए शरीरधारी हो सङ्कट सह कर सज्जनों को सुखी किया। नाम को प्रेम के साथ जपने से बिना परिश्रम ही भक्तजन आनन्द और मङ्गल के स्थान होते हैं॥१॥

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुताकी। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥२॥

रामचन्द्रजी ने एक तपस्वी की स्त्री (अहल्या) का उद्धार किया और नाम ने करोड़ों खलों की दुष्ट-बुद्धि (रूपी स्त्री) को अच्छे मार्ग पर लगा दिया। रामचन्द्रजी ने मुनि के कल्याणार्थ सुकेतु राक्षस को कन्या (ताड़का) को उसकी सेना और पुत्र के सहित निःशेष (विध्वंस) किया॥२॥

एक तपस्विनी को तार देना कोई विशेषता नहीं, नाम ने करोड़ों दुष्टों की कुबुद्धि कपिणी स्त्री को सुधार दिया। यहाँ वाच्यार्थ व्यंगार्थ बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणो-भूत व्यङ्ग है।

सहित दोष-दुख दास दुरासा। दलइ नाम जिमि रबि निसि नासा॥
भञ्जेउँ राम आपु भवचापू। भव-भय-अञ्जन नाम-प्रतापू॥३॥

भक्तों के दोष, दुःख सहित बुरी तृष्णा को नाम कैसे संहार करता है, जैसे सूर्य रात्रि का नाश करते हैं। रामचन्द्र जी ने स्वयम् शिवजी के धनुष का खण्डन किया और नाम के प्रभाव ने संसार के भयों को चूर चूर कर दिया॥३॥

दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन-मन-अमित नाम किय पावन॥
निसिचर-निकर दले रघुनन्दन। नाम सकल-कलि-कलुष निकन्दन॥४॥

प्रभु रामचन्द्रजी ने दण्डक वन को सुहावना किया और नाम ने असंख्यों भक्तों के मन को पवित्र किया। रघुनाथजी ने राक्षसों के झुण्ड का विध्वंस किया और नाम ने कलियुग के सारे पापों का नाश कर डाला॥४॥

दण्डक की कथा आरण्यकाण्ड में १२ दोहे के आगे ८ वीं चौपाई के नीचे देखो।

दो॰ – सबरी गीध सुसेवकनि, सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन-गाथ॥२४॥

शबरी और गिद्ध आदि अच्छे सेवकों को रघुनाथजी ने मोक्ष दिया और नाम ने असंख्यों दुष्टों का उद्धार किया, जिसके गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥२४॥

शबरी की कथा आरण्यकाण्ड में ३४ से ३६ दोहे पर्यन्त और गिद्ध की ३० से ३२ दोहे तक देखो।

चौ॰ – राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सब कोऊ॥
नाम गरीब अनेक निवाजे। लोक बेद बर बिरद बिराजे॥१॥

रामचन्द्रजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को शरण में रक्खा, यह सब कोई जानते हैं। नाम ने अपार गरीबों पर मिहरबानी की, जिसकी उत्तम नामवरी संसार और वेदों में विराजमान है॥१॥

'जान सब कोऊ' इस वाक्य में स्वयं लक्षित व्यङ्ग है कि दोनों को स्वार्थ के लिए शरण में रक्खा, किन्तु नाम ने असंखयों दरिद्रों पर निःस्वार्थ दया की। सुग्रीव की कथा किष्किन्धा काण्ड में चौथे दोहे से ११ वें दोहे के आगे तीसरी चौपाई पर्यन्त और विभीषण की कथा सुन्दर काण्ड में ४१ से ४९ दोहे तक देखो।

राम भालु-कपि-कटक बटोरा। सेतु-हेतु स्रम कीन्ह न थोरा॥
नाम लेत भव-सिन्धु सुखाहीं। करहु विचार सुजन मन माहीं॥२॥

रामचन्द्रजी ने भालू बन्दरों की सेना इकट्ठी करके समुद्र पर पुल बनाने में थोड़ा परिश्रम नहीं किया और नाम का मुख से उच्चारण करते ही संसार-सागर सूख जाता है। हे सज्जनो! मन में विचार कीजिए (नामी से नाम की महिमा कितनी अधिक है)॥२॥

समुद्र में पुल बाँधने की कथा लङ्काकाण्ड के श्रादि में देखो।

राम सकुल-रन-रावन मारा। सीय सहित निज-पुर पग धारा॥
राजा राम अवध रजधानी। गावत गुन सुर-मुनि-बर-बानी॥३॥

रामचन्द्रजी ने संग्राम में सकुटुम्ब रावण को मारा और सीताजी के सहित अपने नगर में पदार्पण किया। रामचन्द्रजी राजा हुए और अयोध्या राजधानी के गुण श्रेष्ठवाणी से देवता तथा मुनि गान करते हैं॥३॥

सेवक सुमिरत नाम सप्रीती। बिनु सम प्रबल मोह दल जीती॥
फिरत सनेह-मगन सुख अपने। नाम प्रसाद सोच नहिँ सपने॥४॥

भक्त लोग प्रीति-पूर्वक नाम को स्मरण करके बिना परिश्रम ही अज्ञान की जबर्दस्त सेना को जीत कर स्नेह में सराबोर हुए अपने आनन्द से विचरण करते हैं। नाम के प्रसाद से उन्हें स्वप्न में भी कोई सोच नहीं होता॥४॥

दो॰ – ब्रह्म-राम-तेँ नाम बड़, बरदायक बरदानि।
रामचरित-सतकोटि महँ, लिय महेस जिय जानि॥२॥

निर्गुण-ब्रह्म और रामचन्द्रजी से नाम बड़ा है, जो वर देनेवालों को वर देनेवाला है। अतिशय अपार रामचरित में से (नाम को सार रूप) मन में जान कर शिवजी ने ग्रहण किया है॥२५॥

उपमान निर्गुण-ब्रह्म और सगुण-रामचन्द्रजी से उपमेय रामनाम बड़ा कहा गया है और दोहे के दूसरे, तीसरे, चौथे चरण में उपमेय के उत्कर्ष का कारण कथन है। यह व्यतिरेक अलंकार है।

चौ॰ – नाम प्रसाद सम्भु अबिनासी। साज-अमङ्गल मङ्गल-रासी।
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम-प्रसादब्रह्म-सुख-भोगी॥१॥

नाम के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल के साज में मङ्गल के राशि हैं। शुकदेव, सनकादिक, सिद्ध, मुनि और योगीजन नाम ही के प्रसाद से ब्रह्मानन्द के भोगनेवाले हैं॥१॥

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग-प्रिय-हरि हरि-हर-प्रिय आपू॥
नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत-सिरोमनि भे प्रहलादू॥२॥

नाम के महत्व को नारदजी ने जाना, जिससे जगत के प्यारे विष्णु और शिवजी को आप प्रिय हुए। नाम के जपने से प्रभु रामचन्द्रजी प्रह्लाद पर प्रसन्न हुए और वे भक्तों के शिरोभूषण हो गये॥२॥

नारद का संक्षिप्त वृत्तान्त इसी काण्ड में दूसरे दोहे के आगे प्रथम चौपाई के नीचे देखो। प्रह्लादजी अपने पिता हिरण्यकशिपु के बार बार मना करने पर राम-नाम के स्मरण से विरत नहीं हुए। उसने तरह तरह के दण्ड दिये, किन्तु उन्हें किसी प्रकार का उससे कष्ट नहीं पहुँचा। अन्त को वह प्रह्लाद को पत्थर के खम्भे से बाँध तलवार लेकर मारने को उद्यत हुआ। उस समय भगवान नृसिंह रूप धारण कर खम्भे से निकल पड़े। दैत्य का बध कर प्रह्लाद की उन्होंने रक्षा की और उन्हें परमपद दिया। प्रह्लाद की कथा इसी काण्ड में ७८ दोहा के आगे प्रथम चौपाई के नीचे देखो।

ध्रुव सगलानि जपेउ हरि-नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ।
सुमिरि पवन-सुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू ॥३॥

ध्रुव ने ग्लानि-पूर्वक भगवान् के नाम को जपा, जिसले अविचल और अनुपम स्थान पाया। पवनकुमार ने पवित्र नाम स्मरण कर रामचन्द्र जी को अपने वश में कर रक्खा है॥३॥

राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ थीं। बड़ी रानी से ध्रुव और छोटी से उत्तम नाम के एक एक पुत्र हुए। राजा छोटी रानी को अधिक चाहते थे। एक दिन छोटी रानी के मन्दिर में बैठे कुमार को प्यार कर रहे थे, ध्रुव भी जा कर राजा की गोदी मैं बैठ गये। छोटी रानी ने झिड़क कर डाह से उन्हें गोद से अलग कर दिया। राजा कुछ न बोले। ध्रुव को ग्लानि हुई। पाँच ही वर्ष की अवस्था में घर त्याग वन को गये। नारदजी के उपदेशानुसार नाम स्मरण किया, उनकी तपस्या से प्रसन्न हो भगवान ने दर्शन दे उन्हें अटल स्थान का निवास दिया। हनूमानजी की कथा सुन्दर काण्ड में ३० से ३२ वे दोहे पर्यन्त देखो।

अपत अजामिल गज गनिकाऊ। भये मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहउँ कहाँ लगि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम-गुन गाई॥४॥

निर्लज्ज (पापी) अजामिल, हाथी और वेश्या भी भगवान के नाम की महिमा से संसार-बन्धन से मुक्त हुए। नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, रामचन्द्रजी भी नाम के गुणों का गान नहीं कर सकते॥४॥

पहले विशेष बात कही गई कि नाम के प्रभाव से नीच अजामिल, गज, गणिका मुक्त हुए। फिर नाम की बड़ाई कहाँ तक कहू, इस सामान्य बात से उसकी पुष्टि है, परन्तु इतने से भी सन्तुष्ट न होकर फिर विशेष सिद्धान्त ले उसका समर्थन करना कि नाम की बड़ाई रामचन्द्र भी नहीं कह सकते 'विकस्वर अलंकार' है। चौपाई के उत्तरार्द्ध में रामचन्द्रजी को कथन के अयोग्य ठहरा कर नाम की अतिशय बड़ाई करना 'सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार' है। अजामिल ब्राह्मण था, कुसंग में पड़ कर कुमार्गी, मांसाहारी, मद्यपी, चोर, ठग, वेश्यागामी हो गया था। सारी उमर उसने दुष्कर्मों में बिताई। सन्तोपदेश से पुत्र का नाम नारायण रखा। मरती वेर पुत्र को पुकारा। नाम के प्रभाव से वैकुण्ठवासी हुआ। गज–गजेन्द्र और ग्राह के युद्ध की कथा प्रसिद्ध है। हाथी ने दीन हो एक बार भगवान का नाम लेकर पुकारा। गरुड़ को छोड़ कर पैदल दौड़े आये और उसे बचाया।

गणिका–पिंगला नाम की वेश्या अपने जार के इन्तज़ार में रात भर जागती रही, वह नहीं आया। उसको अपने दुष्कर्मों से घृणा हुई। दुर्वासनाओं को त्याग उसने ईश्वर में लब लगाया। वह नाम के प्रभाव से स्वर्गवासिनी हुई।

दो॰ – नाम राम को कल्पतरु, कलि कल्यान-निवास।
जो सुमिरत भयो भाँग तें, तुलसी तुलसीदास॥२६॥

कलि में रामचन्द्रजी का नाम कल्याण का स्थान और कल्पवृक्ष है। जिसको स्मरण करके तुलसीदास भाँग से तुलसी हो गया॥२६॥

चौ॰ – चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भये नाम जपि जीव विसोका॥
बेद-पुरान-सन्त मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥१॥

चारों युग, तीनों काल और तीनों लोक में नाम को जपकर जीव शोक रहित हुए हैं। वेद पुराण और सन्त जनों का यही मत है कि रामचन्द्रजी में प्रेम होना सम्पूर्ण पुण्यों का फल है॥१॥

एक रामचन्द्रजी के स्नेह में सारे सुकृतों के फल की समता देना 'तृतीय तुल्ययोगिता अलंकार' है।

ध्यान प्रथम जुग मख विधि दूजे। द्वापर परितोषन प्रभु पूजे॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥२॥

प्रथम – सत्ययुग में ध्यान से, दूसरे – त्रेतायुग में यज्ञ-विधान से और द्वापर में पूजा करने से भगवान प्रसन्न होते हैं। मलिन कलियुग केवल मैलेपन की जड़ है, जिसमें पाप रूपी समुद्र में लोगों का मन लछली रूप होकर निमग्न रहता है॥२॥

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥३॥

इस भीषण कलिकाल में नाम कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संपूर्ण संसार के बन्धनों का नाश कर देता है। राम-नाम कलियुग में वाञ्छित फल का देनेवाला है और परलोक में माता-पिता के समान हितकारी है॥३॥ गुटका में 'सुमिरत सकल समन जगजाला' पाठ है।

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥४॥

कलियुग में न कर्म, न भक्ति और न ज्ञान ही का सहारा है, एक रामचन्द्रजी का नाम ही आश्रय देनेवाला है। कपट का स्थान कलियुग रूपी कालनेमि के लिए नाम सुन्दर मतिमान और समर्थ हनुमान है॥४॥

'सुमति' में शाब्दी व्यङ्ग है कि हनूमानजी ने मकरी के बतलाने पर राक्षस का छल जाना, किन्तु नाम रूपी हनूमान मतिमान है, बिना किसी के सुझाये कलि के कपट का नाशक है।

दो॰ – राम नाम नरकेसरी, कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुर साल॥२७॥

राम नाम नृसिंह रूप है और कलिकाल हिरण्यकशिपु है। जप करनेवाले भक्तजन प्रह्लाद रूप हैं। नाम रूपी नृसिंह देवताओं के दुखदाई हिरण्यकशिपु का नाश कर जापक-प्रह्लाद की रक्षा करेगा॥२७॥

चौ॰ – भाय कुभाय अनख आलसहूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुनगाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥१॥

प्रीति, बैर, गुस्सा अथवा आलस्य से भी नाम जपने पर दशों दिशाओं में मङ्गल होता है। वही राम-नाम स्मरण कर के और रघुनाथजी को मस्तक नवा कर उनके गुणों की कथा निर्माण करता हूँ॥१॥

चाहे प्रेम से या दुर्भाव से जपे, क्रोध से अथवा आलस्य से, नाम स्मरण करे। वह सब के लिए समान मङ्गलकारी है। हित अनहित में एक ही धर्म कल्याण करना 'चतुर्थ-तुल्ययोगिता अलंकार' है।

मोरि सुधारिहि सोसब भाँती। जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवक मो सो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥२॥

वही (रामचन्द्रजी) मेरी सब तरह से सुधारेंगे, जिनकी कृपा से कृपा भी नहीं अघाती अर्थात् कृपा भी जिनकी कृपा चाहती है। रामचन्दजी के समान श्रेष्ठ स्वामी और मेरे समान नीच सेवक! पर अपनी ओर देख कर ही दयानिधान मुझे पालते हैं॥२॥

जिनकी कृपा से कृपा भी तृप्त नहीं होती, कृपालु रामचन्द्रजी को दयालुता उदारता भाव का अति करके वर्णन होना 'अत्युक्ति अलंकार' है। कहाँ रामचन्द्रजी के समान श्रेष्ठ स्वामी और कहाँ मेरे समान अधम सेवक! इस अनमेल, में 'प्रथम विषम अलंकार' है। "जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती" का अर्थ कुछ विद्वानों ने इस तरह किया है – "जिनकी कृपा भक्तों पर दया करने से कभी नहीं पूरी होती, अथवा जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अधाती"।

लोकहु बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥३॥

अच्छे मालिक की रीति लोक में और वेदों में भी जाहिर है कि वे विनती सुन कर प्रार्थना करनेवाले की आन्तरिक प्रीति पहचान लेते हैं। अमीर, गरीब, गँवई के रहनेवाले, नगर-निवासी, पण्डित, मूर्ख, मलिन (बुरे) और विख्यात–॥३॥

सुकबि कुकबि निज-मति-अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस-अंस-भव परम कृपाला॥४॥

अच्छे कवि तथा बुरे कवि सब अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार क्या स्त्री, क्या पुरुष, राजा की सराहना करते हैं। राजा सज्जन, चतुर, सुन्दर, शीलवान् और ईश्वर के अंश से उत्पन्न बड़ा ही दयालु होता है॥४॥

सुनि सनमानहि सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान-सिरोमनि कोसलराऊ॥५॥

राजा सराहना सुन कर और उनकी कहनूत, प्रीति, नम्रता और पहुँच परख कर सुन्दर वाणी से सबका सम्मान करता है। यह इतर (संसारी) राजाओं का स्वभाव है; किन्तु कोशलेन्द्र भगवान् जानकारों के शिरोमणि हैं॥५॥

रीझत राम सनेह निसाते। को जग मन्द मलिन-मन मो ते॥६॥

रामचन्द्रजी निरे स्नेह से प्रसन्न होते हैं पर संसार में मेरे समान नीच और मैले मनवाला दूसरा कौन है?॥६॥

रामचन्द्रजी का केवल प्रेम से रीझना कारण है और सेवक का प्रेमी होना कार्य्य है। यहाँ गोस्वामीजी का यह कहना कि मेरे समान नीच पापी मनवाला कोई नहीं है। कारण और कार्य में विरोध की झलक 'प्रथम असङ्गति अलंकार' है।

दो॰ – सठ सेवक की प्रीति रुचि, रखिहहिँ राम कृपालु।
उपल किये जलजान जेहि, सचिव सुमति कपि भालु॥

कृपालु रामचन्द्रजी मूर्ख सेवक की प्रीति और अभिलाषा की रक्षा करेंगे, जिन्होंने पत्थर को जहाज़ रूप और बन्दर भालुओं को सुन्दर बुद्धिवाले मन्त्री बनाया।

पहले एक सामान्य बात कही कि कृपासागर रामचन्द्रजी मूर्ख सेवक की प्रीतिरुचि का पालन करेंगे, फिर इस बात का विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि जिन्होंने पत्थर को वोहित और बन्दर-भालु को सुजान मन्त्री बनाया 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है।

हौँहुँ कहावत सब कहत, राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ से, सेवक तुलसीदास॥२८॥

मैं भी (अपने को रामभक्त) कहलाता हूँ और सब (मुझे रामदास) कहते हैं, रामचन्द्रजी इस निन्दा को सहते हैं। कहाँ सीतानाथ के समान स्वामी और कहाँ तुलसीदास के समान सेवक!॥२८॥

चौ॰ – अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुनाक सिकोरी॥
समुझिसहममोहिअपडरअपने। सो सुधि राम कीन्ह नहिं सपने॥१॥

मेरी इस ढिठाई का बहुत बडा दोष सुन कर पाप और नरक भी नाक सिकोड़ते हैं अर्थात् मुझ से घृणा करते हैं। यह समझ कर मुझे अपने अपडर (कल्पित भय) से संकोच हो रहा है, किन्तु रामचन्द्रजी ने इसका खयाल स्वप्न में भी नहीं किया॥१॥

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हिय नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥२॥

सज्जनों से सुन कर, शास्त्रादि को देख कर और सुन्दर हृदय के नेत्रों से निरीक्षण करके जान पड़ा कि जैसी भक्ति मेरी बुद्धि में है, वह स्वामी द्वारा सराही गई है। कहने में भले ही बिगड़ जाय, किन्तु हदय में अच्छी हो तो रामचन्द्रजी भक्तों के मन की (प्रीति) जान कर प्रसन्न होते हैं॥२॥

पहले विशेष बात कही कि सुन कर, देख कर और हृदय के नेत्रों से निहारकर यह मालूम हुआ है कि जैसी भक्ति मेरी मति में है, उसकी स्वामी ने श्रीमुख से सराहना की है। इसका सामान्य से समर्थन कि कहते न बने तो न सही, हृदय की प्रीति अच्छी हो तो उसे पहचान कर रामचन्द्रजी प्रसन्न होते हैं 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है । गुटका में भगति मोरि मति स्वामी सराही' पाठ है। वहाँ अर्थ होगा कि-"अज्ञात मति की भक्ति को भी स्वामी ने सराही है।"

रहति न प्रभु चित चूक किये की। करत सुरति सय बार हिये की॥
जेहि अघ बधेउ ब्याध इव बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥३॥

प्रभु रामचन्द्रजी के मन में (सेवकों के) चूक करने की सुध नहीं रहती, वे सौ सौ बार उनके हृदय की (प्रीति की) याद करते हैं। जिस पाप से बाली को ब्याध की तरह (छिप कर मारा) फिर सुग्रीव ने वही किया॥३॥

छोटे भाई की स्त्री जो कन्या के समान थी, बाली ने उसे पत्नीभाव से माना, इस अपराध से उसे वध किया। सुग्रीव ने भी तो वही अपराध किया कि जेठे भाई की स्त्री जो माता के समान थी, उसको अपनी जोरू बना ली। इन दोनों वाक्यों में असत की एकता 'प्रथम निदर्शना अलंकार' है।

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हिय हेरी॥
ते भरतहि भेँटत सनमाने। राज-सभा रघुबीर बखाने॥

वही करनी विभीषण की थी, पर रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी अपने मन में उनके दुराचरणों की ओर निगाह नहीं की। बल्कि भरतजी से मिलते समय रघुनाथजी ने उनका सत्कार करके राजदरबार में बखान किया॥४॥

दो॰ – प्रभु तरु तर कपि डार पर, ते किय आपु समान।
तुलसी कहीं न राम से, साहिब सील-निधान॥

पभु रामचन्द्रजी पेड़ के नीचे और बन्दर डाली पर विराजमान! इतनी बड़ी गुस्ताखी कि स्वामी ज़मीन पर और सेवक वृक्ष पर अर्थात् सिर पर चढ़ कर बैठे। उनको अपने बराबर बना दिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि रामचन्द्रजी के समान शीलनिधान स्वामी कहीं कोई नहीं है।

राम निकाई रावरी, है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक॥

हे रामचन्द्रजी! यदि आप की अच्छाई सभी के लिए भली है और यह बात सच्ची है, तो तुलसी का भी सदा अच्छा ही होगा।

एहि बिधि निज गुन दोष कहि, सबहि बहुरि सिर नाइ।
बरनउँ रघुबर-बिसद-जस, सुनि कलि कलुष नसाइ॥२६॥

इस तरह अपना गुण-दोष कह कर फिर सभी को सिर नचा कर श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसे सुनकर कलियुग के दोष नष्ट हो जाते हैं॥२६॥

चौ॰ – जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ सम्बाद बखानी। सुनहु सकल सज्जन सुख मानी॥१॥

जो सुहावनी कथा याज्ञवल्क्यजी ने मुनिवर भारद्वाजजी को सुनाई थी; उस संवाद को मैं बखान कर कहूँगा। हे सज्जनो! आप लोग सुख मान कर सुनिए॥१॥

सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ शिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। रामभगति अधिकारी चीन्हा॥२॥

यह सुहावना चरित्र शिवजी ने निर्माण किया, फिर उन्होंने कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही रामभक्ति का अधिकारी जान कर शिवजी ने कागभुशुण्ड को दिया॥२॥

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि मरवाज प्रति गावा॥
ते खोता बकता सम सीला। समदरसी जानहिँ हरिलीला॥३॥

फिर उन (कागभुशुण्डजी) से याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने भरद्वाजजी से वर्णन किया। वे श्रोता-वक्ता समान स्वभाववाले समदर्शी (निष्पक्ष) और भगवान् की लीला के जाननेवाले थे॥३॥

जानहिँ तीनि काल निज-ज्ञाना। करतल गत आमलक समाना।
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिँ सुनहिँ समुझहिँ विधि नाना॥४॥

वे अपने ज्ञान से तीनों काल की बात हाथ पर रक्खे हुए आँवले के समान जानते थे। और भी जो चतुर हरिभक्त नाना प्रकार से कहते सुनते और समझते हैं॥४॥

दो॰ – मैं पुनि निज गुरुसन सुनी, कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिँ तसि बालपन, तब अति रहेउँ अचेत॥

फिर मैंने अपने गुरुजी से वह कथा वराहक्षेत्र में सुनी। तब बालपन के कारण बहुत नासमझ था, इससे जैसी हरिकथा है वैसी नहीं समझी।

"तब अति रहेउँ अचेत" इस वाक्य से यह ध्वनि प्रकट हो रही है कि अचेत तो अब भी हैं, पर तब लड़कई के कारण ज्यादा नासमझ था। सरयू और घाघरा का संगम – जो अयोध्याजी के पच्छिम बारह कोस पर स्थित है, वह-वराहक्षेत्र है।

सीता बकता ज्ञान-निधि, कथा राम के गूढ़।
किमि समुझउँ में जीव जड़, कलिमल ग्रसित-बिमूढ़॥३०॥

रामचन्द्रजी की कथा गूढ़ (जिसका आशय जल्दी समझ में न आवे) है, उसके श्रोता-वक्ता दोनों शान-निधान होने चाहिएँ। मैं कलि के पापो से ग्रसा हुआ जड़जीव महामूर्ख उसको कैसे समझ सकता था?॥३०॥

सभा की प्रति में 'किमि समुझइ यह जीव जड़' पाठ है।

चौ॰ – तदपिकही गुरुबारहि बारा। समुझि परी कछु भति अनुसारा।
भाषाबद्ध करब मैं सोई। मोरे मन प्रबोध जेहि हाई॥१॥

तो भी गुरुजी ने बार बार कही, तब कुछ बुद्धि के अनुसार समझ पड़ी। उसीको मैं भाषा-छन्दों में निर्माण करूँगा, जिससे मेरे मन में सन्तोष होगा॥१॥

जस कछु बुधि-बिबेक-बल मेरे। तस कहिहउँ हिय हरि के प्रेरे॥
निज सन्देह-मोह-भ्रम-हरनी। करउँ कथा भव-सरिता-तरनी॥२॥

जैसा कुछ बुद्धि और ज्ञान का बल मुझ में है, वैसा हृदय में भगवान की प्रेरणा से कहूँगा। अपना सन्देह, अज्ञान और भ्रम को हरनेवाली तथा संसार रूपी नदी के लिये नौका रूपी राम-कथा मैं बनाता हूँ॥२॥

बुध-बिस्राम सकल-जन-रञ्जनि। राम-कथा कलि-कलुष-बिभञ्जनि॥
रामकथा-कलि-पन्नग-भरनी। पुनि बिबेक-पावक कहँ अरनी॥३॥

रामचन्द्रजी की कथा विद्वानों को विश्राम देनेवाली और सम्पूर्ण भक्तजनों को प्रसन्न करनेवाली है। फिर राम-कथा कलिकाल-रूपी सर्प के लिए मोरिनी पक्षी है और ज्ञान रूपी अग्नि को प्रज्वलित करने में अग्निमन्थ की सूखी लकड़ी रूप है॥३॥

"भरणी मयूरपत्नीस्यात्-इति मेदनी कोशः"। अरणी एक प्रकार का जंगली वृक्ष है, इसकी लकड़ी यज्ञादि में आग निकालने के काम आती है। इसको गनियार और अगेथु भी कहते हैं। इसकी सूखी लकड़ी मसाल की तरह जलती है। और घिसने से इससे तुरन्त अग्नि उत्पन्न होती है।

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि॥४॥

कलियुग में रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु है, सज्जनों के लिए सुन्दर संजीवनी जड़ी है। वह पृथ्वीतल पर अमृत की नदी है, भय को चूर चूर करनेवाली है और भ्रान्ति रूपी मेढकों को भक्षण करने के लिए नागिन है॥४॥

एक रामकथा को कामधेनु, सजीवनमूरि और सुधा-तरङ्गिणी वर्णन करना 'द्वितीय उल्लेख अलंकार' है।

असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिधुध कुल हित गिरिनन्दिनि।
सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥५॥

दैत्यों की सेना के समान नरकों का नाश कर साधु रूपी देव-कुटुम्ब की भलाई करने में पार्वती (दुर्गा) के समान है। सन्तों को मण्डली रूपी क्षीरसागर के लिए लक्ष्मी के समान है और संसार का बोझा उठाने में नितान्त पृथ्वी के समान अचल है॥५॥

'गिरिनन्दिनि' शन्द श्लेषार्थी है। इससे पार्वती और गंगाजी दोनों अर्थ निकलते हैं।

जमगन मुँह मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हिय हुलसी सी॥६॥

संसार में रामकथा यमदूतों के मुख में यमुनाजी के समान कालिख पोतनेवाली है और जीवन्मुक्त (जो जीवित दशा में हो आत्मज्ञान द्वारा सांसारिक मायाबन्धन से छूट गया हो) के लिए तो मानो काशी ही है। रामचन्द्रजी को पवित्र तुलसी के समान प्यारी है और तुलसीदास की हुलसी (माता) के समान हृदय से भला करनेवाली है॥६॥

पुराणों का कथन है कि यमुना सूर्य की पुत्री और यमराज पुत्र हैं। यमुना ने वर पा लिया है कि जो मुझ में स्नान करे, उसे यमदूत दण्ड न दे सकें।

सिव प्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पतिरासी।
सदगुन मुरगन अम्ब अदिति सी। रघुवर भगति प्रेम परमिति सी॥७॥

शिवजी को रामकथा मेकल-पर्वत की कन्या (नर्मदा नदी) के समान प्यारी है, समस्त सिद्धि सुख तथा सम्पत्ति की राशि है, उत्तम गुण रूपी देव-समूहों की माता अदिति के समान (हितकारिणी) है और रघुनाथजी की प्रेमलक्षणाभक्ति की तो पराकाष्ठा (हद) है॥७॥

दो॰ – रामकथा मन्दाकिनी, चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन, सिय रघुबीर बिहारु॥३१॥

रामचन्द्रजी की कथा मन्दाकिनी-गङ्गा रूपी है और मन सुन्दर चित्रकूट रूप है। तुलसीदासजी कहते हैं कि स्नेह शोभायमान वन है, जहाँ सीताजी के सहित रघुनाथजी विहार करते हैं॥३१॥

राम-जानकी के विहारस्थल के वर्णन में चित्रकूट का साङ्ग रूपक वाँधा है।

चौ॰ – राम चरित चिन्तामनि चारू। सन्त सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मङ्गल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुनि धन धरम धाम के॥१॥

रामचन्द्रजी का चरित्र सुन्दर चिन्तामणि रूप है, जो सन्तों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का मनोहर शृङ्गार है। राचन्द्रजी के गुण-समूह जगत के कल्याण रूप हैं, मोक्ष, धन, धर्म और वैकुण्ठ-धाम के देनेवाले हैं॥१॥

सदगुरु ज्ञान बिरोग-जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥२॥

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए रामचरित श्रेष्ठ गुरु रूप हैं और संसाररूपी भयङ्कर रोग के हेतु अश्विनीकुमार देव-वैद्य हैं। सीताराम प्रेम के माता-पिता और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों का प्रादि कारण है॥२॥

समन पाप सन्ताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुम्भज लोभ उदधि अपार के॥३॥

पाप, दुःख और शोक के लिए दण्डधर (यमराज) है, लोक तथा परलोक के हेतु प्रेम से पालन करनेवाला है, विचार रूपी राजा का बलवान मन्त्री है और लोभ रूपी अपार समुद्र को सोखनेवाला अगस्त्य मुनि है॥३॥

काम-कोह कलिमल करि गन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥४॥

भक्तजनों के मनरूपी धन में विहार करनेवाले काम, क्रोध और कलि के दोष रूपी हाथी समूह के लिए सिंह का छौना है। शिवजी को अत्यन्त प्यारा पूज्य अतिथि रूप है और दरिद्र रूपी दावानल के लिए इच्छानुसार जल देनेवाला मेघ रूप है॥४॥

मन्त्र महा मनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअङ्क भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥५॥

विषय रूपी सर्प-विष के लिए रामचरित महामन्त्र (गारुड़ि) और सर्पमणि है, जो मस्तक के लिखे कठिन बुरे लेखों को मिटा देता है। अज्ञान रूपी अन्धकार हरने के लिए सूर्य की किरणों के समान है और सेवकरूपी धान के बिरवा की रक्षा करने में मेघ के समान है॥५॥

अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडुगन से। राम भगत जन जीवन धन से॥६॥

वाञ्छित फल देने में रामचरित श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान है और सेवा करने में विष्णु तथा शिवजी के समान सहल एवम् सुख देनेवाला है। सुकवियों के मन रूपी शरद ऋतु के आकाश में तारागणों के समान है और रामभक्त जनों का तो जीवन-घन (सर्वस्व) के समान है॥६॥

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावन गङ्ग तरङ्ग माल से॥७॥

सम्पूर्ण पुण्यों का फल रूपी विलास समूह के समान है और निःस्वार्थ भाव से संसार का भला करने में साधु लोगों के समान है। भक्तों के मन रूपी मानसरोवर में हंस के तुल्य और पवित्रता में गङ्गाजी की लहरों के समान है॥७॥

दो॰ – कुपथ कुतर्क कुचाल कलि, कपट दम्भ पाखंड।
दहन राम गुनग्राम जिमि, ईंधन अनल प्रचंड॥

कुमार्ग, वितण्डावाद, अधम आचरण, विग्रह, कपट, घमण्ड और पाखण्ड रूपी सूनी लकड़ी या कण्डा को जलाने के लिए रामचन्द्रजी का गुण-ग्राम ऐसा है जैसे प्रज्वलित (धधकती हुई तीव्र) अग्नि।

रामचरित राकेस कर, सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित, हित बिसेष बड़ लाहु॥३२॥

रामचन्द्रजी का चरित्र पूर्ण चन्द्र की किरणों के समान सय को सुख देनेवाला है, पर सज्जन रूपी कूईंबेरा और चकोरों के मन को विशेष हितकारी एवम् लाभ की वस्तु है॥३२॥

चौ॰ – कीन्ह प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि विधि सङ्कर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबन्ध विचित्र धनाई॥१॥

जिस तरह पार्वतीजी ने प्रश्न किया और जिस प्रकार शङ्कर भगवान ने बयान कर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा-प्रवन्ध रच कर गान करके कहुँगा॥१॥

जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरज करइ सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिँ जे ज्ञानी। नहिँ आचरज करहिं अस जानी॥२॥

जिसने यह कथा न सुनी हो वह इसे सुन कर आश्चर्य न करे; क्योंकि जो ज्ञानवान है, वे अपूर्व कथा को सुनते हैं और ऐसा समझ कर विस्मय नहीं करते॥२॥

राम कथाकै मिति जग नाहीँ। अस प्रतीति तिन्ह के मन माहीँ॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सतकोटि अपारा॥३॥

रामचन्द्रजी की कथा का संसार में हद नहीं, उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। अनेक प्रकार रामावतार हुए और अनन्त कोटि अपार रामायण (बने) हैं॥३॥

कपल भेद हरिचरित सुहाये। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाये॥
करिय न संसय अस उर आनी। सुनिय कथा सादर रति मानी॥४॥

भगवान् के सुहावने चरित्र को कल्प-भेद के अनुसार मुनीनश्वरों ने अनेक तरह से गान किया है। ऐसा मन में रख कर सन्देह न कीजिए, आदर के साथ प्रीति मान कर कथा सुनिए॥४॥

दो॰ – राम अनन्त अनन्त गुन, अमित कथा विस्तार।
सुनि आचरज न मानिहहिँ, जिन्ह के बिमल विचार॥३३॥

रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण अपार हैं और कथा का विस्तार अपरिमेय है। जिनके हृदय में निर्मल विचार है वे सुन कर आश्चर्य्य न मानेंगे॥३३॥

चौ॰ – यहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुरु पद पङ्कज धूरी॥
पुनि सबही प्रनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहि लाग न खोरी॥१॥

इस प्रकार सब सन्देह दूर कर के और गुरु महाराज के चरण-कमलों की धूल सिर पर धारण कर फिर सभी को हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ; जिससे कथा निर्माण करने में दोष न लगे॥१॥

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
सम्बत सोरह सै इकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥२॥

अब आदर-पूर्वक शिवजी को मस्तक नवा कर रामचन्द्रजी के निर्मल गुणों की कथा वर्णन करता हूँ। लम्बत् १६३१ विक्रमान्द में भगवान के चरणों में सिर रख कर कथा निर्माण करता हूँ॥२॥

नौमी भौमबार मधु मासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम स्रुति गावहिँ। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहि॥३॥

नौमी तिथि, मङ्गल वार, चैत्र के महीने में अयोध्यापुरी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिसको रामचन्द्रजी के जन्म का दिन वेद गाते हैं और सम्पूर्ण तीर्थ उस दिन वहाँ चल कर आते हैं॥३॥

ग्रन्थ की जन्म-कुण्डली कही गई है। मि॰ चैत्र शुक्ल ९ मङ्गलवार सम्बत १६३१ विक्रमान्द में ग्रन्थारम्भ हुआ।

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिँ रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिँ सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥४॥

दैत्य, नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता पाकर रघुनाथजी की सेवा करते हैं, सज्जन लोग जन्म का महोत्सव रच कर रामचन्द्रजी की सुन्दर कीर्ति का गान करते हैं॥४॥

दो॰ – मज्जहिँ सज्जन बृन्द बहु, पावन सरजू नीर।
जपहिँ राम धरि ध्यान उर, सुन्दर स्याम सरीर॥३४॥

पवित्र सरयूनदी के जल में अनेक सज्जन-समूह स्नान करते हैं और सुन्दर श्याम शरीर रामचन्द्रमी का, हृदय में ध्यान धर कर नाम जपते हैं॥३४॥

चौ॰ – दरस परस मज्जन अरु पाना। हरई पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइसारदाबिमल मति॥१॥

वेद-पुराण कहते हैं कि जो दर्श, स्पर्श, स्नान और पान से पापों को हर लेती है उस पवित्र नदी की बहुत बड़ी महिमा है, जिसको निर्मल बुद्धिवाली सरस्वती भी नहीं कह सकती॥१॥

सरस्वती वर्णन करने में अद्वितीय और आदर के योग्य है; किन्तु उन्हें कथन के अयोग्य ठहरा कर उनके सम्बन्ध से सरयूनदी की अतिशय महिमा प्रकट करना 'सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार' है।

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त विदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तन नहिँ संसारा॥२॥

रामचन्द्रजी के धाम (वैकुण्ठ) को देनेवाली यह सुहावनी पुरी अत्यन्त पवित्र और सम्पूर्ण लोकों में विख्यात है। संसार में चार प्रकार के अपार जीव हैं, अयोध्याजी में शरीर तजने से वे संसार में फिर नहीं पाते॥२॥

जीवों की उत्पत्ति की चार खाने हैं, स्वेदज, अण्डज, उद्भिद और जरायुज। सभा की प्रति में 'लोक समस्त विदित जग पावनि' पाठ है।

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धि प्रद मङ्गल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिँ काम मद दम्भा॥३॥

सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाली, मङ्गल की खानि और सब तरह से मनोहर पुरी समझ कर निर्मल कथा का प्रारम्भ किया है, जिसके सुनने से काम, मद और पाखण्ड नष्ट हो जाते हैं॥३॥

राम-कथा कारण है, उसके सुनते ही काम-मद-दम्म का नाशरूपी कार्य तुरन्त होना 'चपलातिशयोक्ति अलंकार' है।

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत स्रवन पाइय बिस्रामा॥
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौँ एहि सर परई॥४॥

इसका नाम रामचरितमानस है; जिसको सुनते ही कानों को आनन्द मिलता है। मनरूपी हाथी विषयरूपी जङ्गल की आग में जलता हुआ यदि इस सरोवर में आ पड़े तो वह सुखी हो जाता है॥४॥

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ सम्भु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुःख दारिद दावन। कलि कुचालिकुलि कलुष नसावन॥५॥

मुनियों को अच्छा लगनेवाला, पवित्र, सुहावना रामचरितमानस शिवजी ने बनाया। यह तीनों प्रकार के दोष, दुःख और दरिद्रता का नाश करनेवाला है, कलियुग की कुरीति [पाजीपन] तथा सम्पूर्ण पापों का संहार करनेवाला है॥५॥

त्रिताप, दुःख, दरिद्र, कलि की कुचाल और पाप सब को एक साथ ही रामचरितमानस नए करता है। यह मनोरजन वर्णन 'सहोकि अलंकार' है।

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हिय हेरि हरषि हर॥६॥

शिवजी ने इसकी रचना करके अपने मन में रख लिया था और अच्छा समय पाकर उन्होंने पार्वतीजी से वर्णन किया। इसी ले हृदय में खोज कर प्रसन्ता-पूर्वक शिवजी ने सुन्दर 'रामचरितमानस' नाम रक्खा॥६॥

रामचरितमानस नाम रखने का समर्थन हेतुसूचक बात कह कर करना कि शिवजी ने अपने मानस में बनाकर रख लिया था इससे रामचरितमानस नाम रकखा 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है।

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सजन मन लाई॥७॥

वही सुहावनी सुख देनेवाली कथा मैं कहता हूँ, हे सज्जनो! मन लगा कर आदर के साथ सुनिए॥७॥


दो॰ – जस मानस जेहि बिधि भयउ, जग प्रचार जेहि हेतु॥
अब सोइ कहउँ प्रसङ्ग सब, सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥

यह मानस जैसा है, जिस तरह हुआ और जिस कारण इसका संसार में प्रचार हुआ है, अब वह प्रसङ्ग शिव-पार्वतीजी को स्मरण करके कहता हूँ॥३५॥

तीन बातों की विवेचना करने का विचार कविजी प्रगट करते हैं। (१) जैसा मानस है अर्थात् मानस का स्वरूप (२) जिस प्रकार से उत्पन्न हुआ है। (३) जिस कारण इसका जगत् में प्रचार हुआ है। ये तीनों बातें आगे मानस प्रकरण में मिलगी।

चौ॰ – सम्भु प्रसाद सुमतिहिय हुलसी। रानचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥१॥

शिवजी की कृपा से हृदय में सुन्दर बुद्धि विकसित (प्रसन्न) हुई, जिससे तुलसी रामचरितमानस का कवि हुआ। अपनी मति के अनुसार मनोहर रचना करता है, हे सज्जनो! सावधानी से सुन कर सुधार लीजिए॥२॥

पहले कह आये हैं कि मैं कवि नहीं हूँ और यहाँ कहते हैं कि शिव जी की कृपा से हृदय में सुशिद्धि हुलसित हुई, तब रामचरितमानस का तुलसी कवि हुआ है। शङ्कर के प्रलाद गुण से तुलसीदास का कवित्त रचना में गुणवान होना 'प्रथम उल्लाल अलंकार' है। सज्जन वृन्द से सुधारने की प्रार्थना करने में अपनी लघुता व्यञ्जित करना अगूढ़ व्यङ्ग है।

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस घर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी॥२॥

सबुद्धि धरती रूपिणी है, हृदय (पानी ठहरने का) गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र रूप हैं और सज्जन मेघ है। वे रामचन्द्र जी का सुन्दर यश रूपी अच्छा मीठा, मनोहर और कल्याणकारी जल बरसते हैं॥२॥

यहाँ से कविजी उपमान-मानसरोवर के समस्त अङ्गों का आरोप उपमेय-रामचरितमानस में करके माङ्ग रूपक वर्णन करते हैं। मानस प्रकरण में साद्यन्त इसी अलंकार की प्रधानता है। पानी के गुण चार हैं, स्वच्छ, मधुर, शीतल और लोक का महल [कृषि वृद्धि] करना, रामचरित रूपी जल में इन गुणों का उल्लेख नीचे की चौपाइयों में करते हैं।