रामचरितमानस
विषयों के नाम | पृष्ठाङ्क | प्रत्येक की पृष्ठसंख्या | |
प्रारम्भ | समाप्त | ||
प्रस्तावना | १ | ४ | ४ |
कथा-प्रसङ्ग की सूची | १ | ६ | ६ |
चित्र-परिचय | १ | २ | २ |
विद्वानों की सम्मतियाँ | १ | २ | २ |
गोसाँईजी का जीवनचरित | १ | २२ | २२ |
बालकाण्ड | १ | ३६५ | ३६५ |
अयोध्याकाण्ड | ३६६ | ६७७ | ३१२ |
अरण्यकाण्ड | ६७८ | ७४४ | ६७ |
किष्किन्धाकाण्ड | ७४५ | ७८० | ३६ |
सुन्दरकाण्ड | ७८१ | ८४८ | ६८ |
लङ्काकाण्ड | ८४९ | ९९५ | १४७ |
उत्तरकाण्ड | ९९६ | ११४४ | १४९ |
रामायण की आरती | १ | १ | १ |
मानस-पिङ्गल | १ | १२ | १२ |
कुल पृष्ठ संख्या | ११९३ |
द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना।
गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण से बढ़ कर हिन्दीसाहित्य में दूसरा कोई अन्य नहीं है। ऐसा कौन साहित्य-सेवी होगा जो रामचरितमानस से थोड़ा बहुत परिचय न रखता हो? इसका आदर भारतवर्ष के कोने कोने में राजाधिराजों के महलों से लेकर कंगाल की झोपड़ी पर्य्यन्त है और प्रचार में तो यह वाल्मीकीय से भी कई गुना बढ़ा हुआ है। विविध मतानुयायी और भिन्न धर्मावलम्बी भी आदरणीय मान कर इसके उपदेशों से लाभ उठाते हैं। अनेक भाषाओं में अनूदित होकर यह भिन्न भिन्न देशों में सम्मान पा रहा है भारतीयों में तो कितने ही भावुक जन ऐसे होंगे जो रामचरितमानस का पाठ किये बिना जल तक नहीं ग्रहण करते। इसके ओजस्वी और मर्मस्पर्शी उपदेशों द्वारा असंख्यों स्त्री-पुरुष कुप्रवृत्तियों से छूटकर सदाचारी बन गये और बनते जाते हैं। रामभक्तों का तो यह सर्वस्व प्राणाधार ही है। इस लोकप्रसिद्ध महाकाव्य की अधिक प्रशंसा करना तो मध्याह्नकाल के सूर्य्य को हाथ में दीपक लेकर दिखाने के समान है।
यद्यपि रामायण की रचना गोसाँईजी ने अत्यन्त सीधी सादी भाषा में की है—न तो उन्होंने जटिल अर्थ लाने का प्रयत्न किया और न कठिनाई अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये दृष्टकूट आदि को ही स्थान दिया है, उनका ध्येय तो सरलता-पूर्वक हृद्गत भावों को व्यक्त करने का जान पड़ता है—फिर भी रामायण के अर्थ की गम्भीरता इतनी अधिक है कि न जाने इस पर कितनी ही टीकाएँ हो चुकीं और होती ही जाती हैं। असंख्यों विद्वान तरह तरह की अनोखी उक्तियों से उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं, पर अन्त कोई भी नहीं लगा सका और रामचरितमानस की गूढ़ता ज्यों की त्यों बनी है। जिस प्रकार विज्ञजन अपनी मनोहर कल्पनाओं से पाठकों का मनोरञ्जन करते हैं उसी प्रकार अनभिज्ञ और प्रलापप्रिय कथक्कड़ लोग अनावश्यक अर्थों के गढ़ने में नहीं चूकते। कितने ही संशोधकों और प्रूफ़रीडरों की काटछाँट से बहुत ही पाठान्तर हो गया है तथा कुछ महाकवियों ने बीच बीच में क्षेपक और आठवाँ काण्ड जोड़ कर गोसाँईजी की त्रुटि सुधारने की उदारता प्रकट की है। किसी ने अर्द्धाली चौपाइयों को निकाल कर पिंगल की योग्यता दिखाई है और कविकृत रामायण के रूप ही को बदल डाला है। कहाँ तक कहा जाय, ऐसे ही सहस्रों विद्यावारिधियों ने रामचरितमानस में अप्रासंगिक विषयों को बलात ठूँस कर इसको खूब ही विकृत किया है जिससे मूल और क्षेपक का निर्णय करना साधारण हिन्दी जाननेवालों के लिये क्या बड़े बड़े उद्भट विद्वानों को कठिन और भ्रमोत्पादक हो गया है।
इस अनर्थकारी कार्य्य में स्वार्थलोलुप पुस्तक विक्रेताओं और प्रेसाध्यक्षों का भी हाथ है। काव्य-सौन्दर्य्य भले ही नष्टभ्रष्ट होकर गोसाँईजी के सिद्धान्तों पर पानी फिर जाय, पर इससे उन्हें प्रयोजन नहीं। उनका तो स्वार्थ सिद्ध होना चाहिये, क्योंकि क्षेपक और आठवें काण्ड के बिना बहुतेरे ग्राहक उसे खरीदना पसन्द नहीं करते। इन महाशयों ने लेखकों और टीकाकारों को प्रलोभन देकर क्षेपक मिलवाया, रामायण और इसके रचयिता की मान-मर्य्यादा की परवा न करके केवल कुछ भोलेभाले पाठकों की रुचि के लिहाज़ से और अपनी बिक्री बढ़ाने के विचार से रामचरितमानस को कुजड़े का गल्ला बनाने में कोई बात उठा नहीं रक्खा। हर्ष का विषय है कि कतिपय विद्वानों ने कविकृत मूलपाठ की खोज लगाने में सराहनीय उद्योग किया और अच्छे अन्यप्रकाशकों ने उनका हाथ बँटाया। जहाँ आज से बीस पचीस वर्ष पहले क्षेपक सहित रामायण छापना श्रेष्ठ समझा जाता था, वहाँ अब क्षेपक रहित मूलपाठ की प्रति का आदर होने लगा है और क्षेपक से लोग घृणा करने लगे हैं।
अपने समय के प्रसिद्ध रामायणी और परमभागवत मिर्जापुर निवासी पण्डित रामगुलामजी द्विवेदी ने गोसाँईजी के छोटे बड़े बारहों ग्रन्थों के मूलपाठ खोज निकालने में खासा प्रयत्न किया था और इस कार्य में उन्हें अच्छी सफलता प्राप्त हुई थी। उनके द्वारा संशोधित रामचरितमानस के आधार पर क्षेपक रहित गुटको के रूप में शुद्ध पाठ की रामायण सम्वत १९४१ में काशी के एक प्रेस से प्रकाशित हुई थी, हमने अपनी टीका में इसी 'गुटका' के अनुसार मूलपाठ रखा है। द्विवेदीजी के समकालीन पं॰ बन्दनपाठक, बाबू हरिहर प्रसाद और लाला छंकनलाल आदि रामायण के प्रेमियों ने इसी पाठको कविकृत विशुद्ध स्वीकार किया है।
नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति महोदय की एक टीका १९१६ ई॰ में छपी है। इसी सटीक प्रति के मूल पाठ का कहीं कहीं अवलम्बन कर अपनी टीका में हमने उसको 'सभा की प्रति' के नाम से उल्लेख किया है। सभा की प्रति में भी पाठान्तर की कमी नहीं है, इस बात का पता हमें अयोध्याकाण्ड से बहुत कुछ लगा है। गुटका का पाठ आधिकांश कविकृत पाठ से मिलता है; किन्तु सभा की प्रति का पाठ उतना नहीं मिलता। इसी प्रकार उत्तरकाण्ड में पाठान्तर की अधिकता है, जिसका यथास्थान टीका में हमने दिग्दर्शन किया है वह पुस्तकावलोकन करते समय पाठकों को विदित होगा।
गोसाँईजी के हाथ का लिखा अयोध्याकाण्ड जो अब तक राजापुर के मन्दिर में सुरक्षित है, अवधवासी लाला सीताराम बी॰ए॰ ने उद्योग करके उसकी अक्षरशः प्रतिलिपि प्रकाशित करायी है। अयोध्याकाण्ड का पाठ हमने इसी प्रति अनुसार रक्खा है। अन्तर इस बात का है कि गोसाँईजी ने अवधी और वैसवाड़ी भाषा तथा उस समय की लेखप्रणाली के अनुसार राम को रामु, भरत को भरतु, जन को जनु, मन को मनु, बन को बनु, घना को घनु, इत्यादि शब्दों को मात्रायुक्त लिखा है और सुख को सुष, दुख को दुष, लखि को लषि अर्थात 'ख' के स्थान में प्रायः 'ष' का प्रयोग किया है। मोरें, तोरें, हमारें, तुम्हारें, पहिचानें सयानें आदि शब्दों पर बिन्दु लगाये हैं। उन्हो ने भाषा छन्दों में 'ण' और 'श' का बहिष्कार किया है तथा 'ब' के स्थान में अधिकांश 'व' से काम लिया है। हमने पूर्णरूप से तो इसका अनुकरण नहीं किया, वरन् वर्तमान लेखशैली के अनुसार शब्दों का रूप रक्खा है; किन्तु उससे न तो शब्द के रूप बदले हैं और न अर्थ-लालित्य में किसी प्रकार का अन्तर आया है। 'ण' और 'श' का प्रयोग हमने भी नहीं किया है। सम्भव है कि हिन्दी को चिन्दी निकालनेवाले समालोचकों के लिये यह परिवर्तन आक्षेप का कारण हो और उन्हें कुछ कष्ट उठाना पड़े, फिर भी हम इसके निमित्त क्षमा की याचना करते हैं।
उपयुक्त तीनों प्रतियों के अतिरिक न तो अन्यत्र से पाठ ही लिया गया है और न अपना पाण्डित्य दर्शाने के लिये कहीं मनमाना तोड़ मरोड़ किया गया है। हाँ-अरण्यकांड में–"मरम बचन जब सटीक रामचरितमानस
तपस्वी गोस्वामी तुलसीदास जी (अवस्था ३६। वर्ष)
तन मन तें हरिभक्ति-रत किये निवास।
राम-नाम सादर जपत, कविवर तुलसीदास॥
हमारी इच्छा थी कि रामायण के प्रथम संस्करण की प्रतियों का सर्वसाधारण के सुवीतार्थ स्वल्प मूल्य निर्धारित किया जाय; किन्तु काग़ज़ आदि की महंगाई के कारण विवश हो प्रकाशक महोदय आठ रुपये से कम उसका मूल्य नहीं रख सके, फिर भी दो वर्ष के भीतर ही एक सहस्र प्रतियाँ समाप्त हो गयीं। शीघ्रता के साथ इस खपत को देख विश्वास हो रहा है कि रामायण के प्रेमियों को यह टीका पसन्द आई और उन्होंने इसे अपनाया। इसके सिवा कितने ही प्रसिद्ध पत्रों के सुयोग्य सम्पादकों और विद्वानों ने टीका की उपयोगिता के विषय में अनूकूल सम्मति प्रदान कर उस विश्वास को और भी दृढ़ कर दिया है। पहले हमें इस बात का कुछ भी भरोसा नहीं था कि विद्वग्मण्डली में इस टीका को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त होगा। परन्तु 'केहि न सुसङ्ग बड़प्पन पावा' के अनुसार अब मैं अपने परिश्रम को सफल समझ रहा हूँ।
रामचरितमानस की टीका हमने पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये नहीं किया और न इसी अभिप्राय से लिखने का प्रयास किया है कि हमारी टीका पूर्व के टीकाकारों से बढ़ कर होगी। वास्तविक बात तो यह है कि रामचरितमानस पर चिरकाल से हमारे हृदय में प्रगाढ़ अनुराग है और उसका कहना, सुनना मनन करना अथवा टीका लिखना एक प्रकार रामभजन कहा जाता है। यही सोच कर हमने इस कार्य को सम्पन्न करने का साहस किया और इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की कि भाषा पर मेरा कोई अधिकार है अथवा नहीं। जब रामायण के विषय में अपना अपना विचार व्यक्त करने का स्वत्व पढ़े अनपढ़े छोटे बड़े सभी लोगों को है, तब उससे अकेला मैं ही क्यों वञ्चित रक्खा जा सकता हूँ। जो भक्तिवान प्राणी रामवश गान करते हैं वे पार पाने के अभिप्राय से नहीं वरन् उसे एक प्रकार ईश्वर का भजन समझ कर वर्णन करते हैं। दूषित दृष्टि वाले मनुष्यों को दोष ही से शान्ति मिलती है अतएव वे अपनी प्रकृति के अनुसार उसके लिये प्रयत्नशील होकर सन्तोष ग्रहण करते हैं। उन्हें स्वच्छ मानसरोवर में भी दादुर सम्बुकादि के बिना यथार्थ आनन्द नहीं आता, अस्तु।
अपनी टीका में हमने इस प्रकार का क्रम रक्खा है कि मूल पद्यों (चौपाई, दोहा, छन्द, श्लोकादि) के अन्त में उनके अंक के नीचे भावार्थ लिख, उस पर मूल छन्दों का अंक देकर वह पंक्ति छोड़ दी गयी है। अर्थ के नीचे कथानकों की टिप्पणी, शङ्कासमाधान, रस, भाव, ध्वनि, अलंकार की समास अथवा व्यास रूप से व्याख्या की गयी है। प्रथम संस्करण की अपेक्षा इस बार गोस्वामाजी की जीवनी में विस्तार किया गया है। कुछ त्रुटियों का भी सुधार किया गया है। अन्त में एक मानस-पिङ्गल लगाया है उसमें मानस के समस्त छन्दों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं। पाठकों के मनोरंनार्थ पूर्व की अपेक्षा इस बार कई एक रंगीन और सादे चित्र लगाये गये हैं और जिल्ल आदि की सजावट पहले से कम नहीं, अर्थात् पुस्तक को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने में पूर्ण उद्योग किया गया है। इतने पर भी मूल्य सर्वसाधारण के सुवीधार्थ घटा दिया गया है।
इस टीका के लिखने में पंडित रामबक्स पाण्डेय और बाबू श्यामसुन्दर दास की टीकाओं से हमें कहीं कहीं अच्छे भाव प्राप्त हुए हैं तथा टिप्पणी लिखने में सहायता मिली है अतएव इन युगल महानुभावों की लता स्वीकार करते हुए उन्हें हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं।
रामायण के प्रेमी विद्वानों और रामभक्तजनों से हमारा नम्र निवेदन है कि यद्यपि शुद्धता की ओर विशेष ध्यान रक्खा गया है, फिर भी भ्रमवश या दृष्टिदोष से अथवा छपते समय मात्राओं के टूट जाने किम्बा अक्षरों के निकल जाने ले प्रायः अशुद्धियाँ हो जाया करती हैं। यदि ऐसी त्रुटियाँ कहाँ दिखाई पड़े तो उन्हें सुधार कर पढ़ेगे। जब हरिचरित्र को सरस्वती, शेष, ब्रह्मा, शिव, शनकादि ऋषीश्वर, शास्त्र, पुराण, वेदादि नेति नेति कहते हुए सदा गान करते हैं, तब उसको एक साधारण मनुष्य गान करके किस प्रकार पार पा सकता है? एकमात्र वाणी पवित्र करने और जीवन सार्थक बनाने के लिये रामयश गान किया जाता है, न कि पार पाने के निमित्त। जिसका वारापार ही नहीं, उसका कोई पार किस तरह पा सकता है? इस विषय में तो मेरी यह धारणा है कि –
जल सीकर महिरज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥
भव भञ्जन गञ्जन सन्देहा। जन रञ्जन सज्जन प्रिय एहा॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं॥
बिमल कथा हरिपद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
मुनि दुर्लभ हरिभगति नर, पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरन्तर, सुनहिं मानि बिस्वास॥
सोइ सर्बज्ञ गुनी सोइ ज्ञाता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुलत्राता। रामचरन जाकर मन राता॥
मि॰ कार्तिक शुक्ल सोमवार, | सज्जनों का कृपाकांज्नो– |
सम्वत १९८२ वि॰ | महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य 'वीर' |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
(बालकाण्ड) | ||
१ | मंगलाचरण और वन्दना | १ |
२ | मानस का साङ्गरूपक वर्णन | ४९ |
३ | भरद्वाज और याज्ञवल्क्य सम्वाद वर्णन | ५९ |
४ | सती का मोह और यक्ष की यक्षशाला में उनका तनत्याग वर्णन | ६४ |
५ | पार्वती का जन्म और उनकी तपस्या वर्णन | ७८ |
६. | मदन दहन और रति का वरदान | ९४ |
७ | शिव-पार्वती का विवाह | १०२ |
८ | कैलास की महिमा और शिव-पार्वती सम्वाद | ११७ |
९ | जय विजय को शाप, वृन्दा का सतीत्वभंग और जलंधर वध वर्णन | १३२ |
१० | नारद मोह और विष्णु को उनका शाप देना वर्णन | १३९ |
११ | राजा स्वायम्भू मनु और शतरूपा की तपस्या वर्णन | १४८ |
१२ | राजा भानुप्रताप का धर्मप्रेम वर्णन | १५८ |
१३ | भानुप्रताप का मृगया के लिये वनगमन, कपटी मुनि के वशीभूत हो घर आकर ब्राह्मणों को निमंत्रित करना और शाप होना | १६० |
१४ | रावण कुम्भकर्ण जन्म, तप, विजय और राक्षसों का अत्याचार वर्णन | १७७ |
१५ | पृथ्वी का देवताओं के सहित ब्रह्मधाम में जाना, ब्रह्मा द्वारा ईश्वर की स्तुति और आकाशवाणी का होना | १८५ |
१६ | अयोध्यानरेश दशरथजी का पुत्रकामेष्टि यज्ञ करना | १९० |
१७ | रामचन्द्र आदि चारों बन्धुओं के जन्म का उत्सव, नामकरण और बाललीला का वर्णन | १९२ |
१८ | विश्वामित्र का अयोध्या में आगमन | २०६ |
१९ | ताड़काव और मुनि की यज्ञरक्षा | २०९ |
२० | अहिल्यातरण, गंगास्नान और जनकनगर प्रवेश | २११ |
२१ | पुष्पवाटिका में जनकनन्दिनी के परस्पर दर्शन लाभ का प्रेम वर्णन | २२७ |
२२ | धनुषयज्ञ में पदार्पण और रामचन्द्रजी के द्वारा कोदंडभंग वर्णन | २४३ |
२३ | परशुराम आगमन और सम्वाद वर्णन | २७२ |
२४ | जनकपुर से अयोध्या को दूत जाना और राजा दशरथ का बारात सहित मिथिलापुरी में आगमन | २९० |
२५ | राजादशरथ और विश्वामित्र मिलन | ३०८ |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
२६ | रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का विवाह | ३१५ |
२७ | जनकपुर से बारात का प्रस्थान, अयोध्यापुरी में प्रवेश, लोकरीति और माताओं पुरवासियों का लोकोत्तर आनन्द वर्णन | ३४५ |
२८ | विश्वामित्र का स्वस्थान की यात्रा वर्णन | ३६२ |
(अयोध्य काण्ड) | ||
१ | रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की तैयारी, देवताओं की घबराहट और राज्य रसभंग करने के लिये सरस्वती से प्रार्थना | ३६८ |
२ | केकयी-मन्थरा सम्वाद और केकयी का कोपभवन में जाना | ३७९ |
३ | राजा दशरथ का केकयी के समीप गमन, उसको इच्छानुकूल वर देने के लिये वचनबद्ध होना | ३९० |
४ | केकयी का वर मांगना और राजा का विलाप वर्णन | ३६५ |
५ | सुमंत्र द्वारा रामचन्द्रजी का बुलाया जाना, केकयी से सम्भाषण, माता कौशल्या के पास विदा होने के लिये जाना और सीताराम सम्वाद तथा साथ चलने के लिये लक्ष्मण की प्रार्थना | ४०५ |
६ | पिता-माता, गुरु वशिष्ठ और पुरवासियों से विदा हो, राम जानकी और लक्ष्मण का वनगमन वर्णन | ४४६ |
७ | राजा दशरथ की प्रेरणा से सुमंत्र का रथ लेकर रामचन्द्रजी के साथ जाना, शृंगवेरपुर निवास, निषाद की सेवा और लक्ष्मण निषाद सम्वाद तथा सुमंत्र को अयोध्या में लौट जाने का आदेश | ४४८ |
८ | केवट का प्रेम और पाँव धोकर पार ले जाना, त्रिवेणी स्नान तथा भरद्वाज मिलन | ४६६ |
९ | यमुनातरण, मार्गवसेरियों का प्रेम, वाल्मीकि मिलन और ललित सम्वाद वर्णन | ४७६ |
१० | चित्रकूट निवास, देवताओं की प्रसन्नता और कोल भिल्लादि की सेवा तथा सम्वाद वर्णन | ४९८ |
११ | सुमंत्र का शृङ्गवेरपुर से अयोध्या को प्रस्थान, राजा दशरथ से वनयात्रा का समाचार निवेदन और पुत्र वियोग से राजा का तनत्याग होना तथा रनिवास पुरवासियों का विलाप वर्णन | ५०७ |
१२ | गुरु वशिष्ठ की प्रेरणा से भरत के पास दूत जाना ननिहाल से भरत शत्रुघ्न का अयोध्या में आना और माता केकयी की कुटिल करनी से राम वनगमन तथा राजा की मृत्यु पर शोक सन्तप्त होना | ४२० |
१३ | कौशल्या-भरत सम्वाद, शपथ पूर्वक भरत का दुःख प्रकाश, शवदाह, अन्त्येष्टि क्रिया करके भरत का शुद्ध होना | ५२६ |
१४ | गुरु, मंत्री, माता और पुरवासियों का भरत को राज्यासन पर विराजने की अनुमति प्रदान तथा राज्य अस्वीकार करके भरतजी का रामचन्द्रजी को लौटाने के लिये समाज के सहित चित्रकूट गमन | ५३४ |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
१५ | निषाद की भ्रान्ति और युद्ध के लिये तत्पर होना | ५४९ |
१६ | भरत को तीर्थराज से वर माँगना, भरद्वाज मिलन और आतिथ्य स्वीकार कर विदा होना | ५६२ |
१७ | भगवासियों द्वारा भरत की प्रशंसा, देवता-बृहस्पति सम्वाद, चित्रकूट प्रवेश, लक्ष्मण का क्रुद्ध होना और रामचन्द्रजी द्वारा समाधान | ५७४ |
१८ | रामचन्द्र-भरत मिलाप, गुरु पुरवासी और माताओं से भेंट, राजा की मृत्यु पर सन्ताप और श्राद्धादि का वर्णन | ५९६ |
१९ | गुरुवशिष्ठ और पुरवासियों की सभा भरत के कथन पर पशिष्ठ का अवाक हो ससमाज रामचन्द्रजी के पास आकर भरत की प्रशंसा करना | ६११ |
२० | रामचन्द्र और भरत का परस्पर सम्वाद, देवताओं की व्याकुलता और भरत की साधुता पर भरोसा कर संतोष ग्रहण करना | ६१६ |
२१ | जनक दूत आगमन, पुरवासियों की प्रसन्नता, जनक मिलन, रानी सुनयना और कौशल्या आदि की भेंट, परस्पर सम्वाद, जानकी जनक मिलन और राजा रानी का अनुकथन वर्णन | ६२६ |
२२ | गुरु वशिष्ठ, राजा जनक, भरत और पुरवासियों की अन्तिम विचारार्थ सभा, भरत की रामाक्षा के लिये प्रार्थना, देवताओं की चिन्ता और छल प्रयोग करना वर्णन | ६४६ |
२३ | रामचन्द्र का भरत को आदेश, तीर्थजल सफल करने के लिये भरत की प्रार्थना और अत्रि की आज्ञानुसार जल स्थापन, भरतकूप की महिमा तथा चित्रकूट पर्यटन | ६५८ |
२४ | पादुका लेकर भरतादि की विदाई और अयोध्या को लौटना तथा राजा जनक का मिथिला को पचान करना | ६६८ |
२५ | पादुका को राज्यासन पर स्थापन कर भरत का नन्दग्राम में रह कर तपश्चर्या में अनुरक्त होना | ६७४ |
(आरण्यकाण्ड) | ||
१ | जयन्त नेत्रभंग, अत्रिमिलन और जानकी को अनुसूया का उपदेश वर्णन | ६८१ |
२ | विराध वध, सरभंगादि मुनियों से मिलन और राक्षसों के संहार की प्रतिक्षा करना तथा सुतीक्षण और अगस्त्य मुनि से रामचन्द्रजी की भेंट | ६८८ |
३ | दण्डकवन में प्रवेश, जटायु से मिलाप, गोदावरी के समीप में पंचवटी निवास और राम लक्ष्मण सम्वाद | ६९९ |
४ | शूर्पणखा आगमन, नाक कान विच्छेद, खरदुषणादि का युद्ध और चौदह सहस्र राक्षसों का संहार वर्णन | ७०३ |
५ | रावण की सभा में शूर्पणखा का विलाप, मारीच रावण सम्वाद, मृगवध और सीताहरण | ७१३ |
६ | रावण जटायु युद्ध, जटायुवध और रावण का लंका में प्रवेश तथा अशोकवाटिका में यत्नपूर्वक सीताजी को कैद करना | ७२२ |
७ | जानकी के वियोग से रामचन्द्रजी का विलाप, गिद्धमिलन और उसका तनत्याग, स्तुति तथा श्राद्ध वर्णन | ७२५ |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
८ | कवन्ध वध, शबरी मिलन और नवधाभक्ति का उपदेश तथा रामचन्द्रमी को विरह से विकलता का वर्णन | ७२९ |
९ | पंपासर की शोभा वर्णन, नारद आगमन और रामचन्द्र-नारद का ललित उपदेश पूर्ण सम्वाद कथन | ७३७ |
(किष्किन्धा काण्ड) | ||
१ | अभ्यमूक पर्वत के समीप राम लक्ष्मण का जाना, हनूमानजी का मिलना और सुग्रीव से मित्रता होना | ७४६ |
२ | सुग्रीव का बाली से वैरत्व होने का कारण कथन, बालि वध की प्रतिक्षा, सुग्रीव-बाली युद्ध और बाली का संहार | ७५२ |
३ | सुग्रीव का राज्याभिषेक, प्रवर्षण निवास और वर्षा वर्णन | ७६० |
४ | लक्ष्मण का किष्किन्धा में जाकर क्रोध प्रकाश करना, सुग्रीव की प्रार्थना और रामचन्द्रजी के पास आकर बानर भालुओं को सीताजी की खोज के लिये चारों दिशाओं में प्रेरित करना | ७६८ |
५ | वानरों का तृषित होकर विवर प्रवेश, तपस्विनी मिलन और दक्षिणी समुद्र के किनारे पहुँचना | ७७२ |
६ | सम्पाती मिलन और समुद्रोल्लंघन पर विचार तथा वानर वीरों का पुरुषार्थ कथन | ७७५ |
(सुन्दर काण्ड) | ||
१ | हनूमानजी का सदुद्रपार के लिये कुलाँक मारना, मैनाक सुरसा मिलन, सिंहिका वध और समुद्र के पारजाना | ७८२ |
२ | हनूमान का लंका में प्रवेश, लंकिनी सम्वाद, नगर निरीक्षण और विभीषण से परिचय तथा अशोकवाटिका में सीता दर्शन | ७८७ |
३ | रावण का अशोकवाटिका स्त्रियों के सहित आना, सीता दशानन वाद और त्रिजटा का स्वप्न वर्णन | ७९३ |
४ | मुद्रिका प्रदर्शन, हनूमान मिलन, सन्देश निवेदन और अशोकवाटिका का विध्वंस करना | ७९८ |
५ | अक्षयकुमार वध, मेघनाद युद्ध और बन्धन | ८०४ |
६ | हनूमान का रावण की सभा में प्रवेश, हनूमान रावण सम्वाद और पूँछ भस्म करने की आज्ञा | ८०६ |
७ | लङ्कादहन, हनूमानजी को समुद्र के इस पार आना, मधुवन प्रवेश, सुग्रीच मिलन और रामचन्द्रजी से सीताजी का सन्देश कथन | ८१२ |
८ | रामचन्द्रजी का वानरीदल के सहित लङ्का की ओर प्रस्थान, समुद्र तट पर डेरा पड़ना और वानर भालुओं का फल मूल भोजन वर्णन | ८२२ |
९ | मन्दोदरी-रावण सम्वाद, विभीषण का शुभउपदेश रावण से तिरस्कृत हो विभीषण का रामचन्द्रजी की शरण में आना | ८२४ |
१० | विभीषण को राजतिलक, समुद्र से मार्ग प्रदान के लिये प्रार्थना, शुकराक्षस का दूत वेश में पकड़ा जाना और लक्षमण द्वारा उसका बचाव तथा चिट्ठी लेकर रावण के समीप गमन वर्णन | ८३७ |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
११ | रावण-शुकसम्वाद, रावण द्वारा शुक का तिरस्कार और रामदर्शन से उसका शापमोक्ष | ८४० |
१२ | समुद्र की धृष्टता पर रामचन्द्र का क्रोध, समुद्र की घबराहट और प्रार्थना तथा सेतु बनाने की सम्मति प्रदान करना | ८४६ |
(लंकाकाण्ड) | ||
१ | सेतुबन्ध, शिवस्थापन और रामेश्वर की महिमा वर्णन | ८५२ |
२ | ससैन्य समुद्र पार होना, सुबेल पर्वत पर निवास और रावण की व्याकुलता तथा रावण मन्दोदरी सम्वाद | ८५५ |
३ | प्रहस्त रावण सम्वाद, रामचन्द्र का चन्द्रमा की झाई पर प्रश्नोत्तर और अदृश्य बाण से मुकुट क्षत्रादि का विध्वंस वर्णन | ८५८ |
४ | मन्दोदरी का विराट रूप वर्णन कर रामचन्द्र से विरोध त्यागने का रावण को परामर्श देना, अंगद का दूत कार्य के लिये लंका मे आना और रावण अंगद सम्वाद | ८६५ |
५ | रावण-मन्दोदरी सम्वाद और युद्धारम्भ | ८९१ |
६ | हनुमान-अंगद द्वारा लंकादुर्गविध्वंस, राक्षसों का प्रदोष युद्ध और पराजय | ८९९ |
७ | माल्यवन्त की शिक्षा और रावण का उस पर प्रकोप, मेघनाद युद्ध, माया का विस्तार तथा भालू बन्दरों की व्याकुलता | ९०३ |
८ | लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध और लक्ष्मण का शक्ति से अचेत होना | ९०८ |
९ | हनूमान का लंका से सुषेण वैद्य को ले आना और संजीवनी के लिये प्रस्थान | ८१० |
१० | रावण का कालनेमि के घर आना, कपि को छल कर मार्ग रोकने के निमित भेजना, मकरी संहार और कालनेमि वध | ९११ |
११ | हनूमान का पर्वत लिये अयोध्या के ऊपर आना, भरत का बाण मारना और भरत-हनूमान सम्वाद | ९१३ |
१२ | रामचन्द्र का बन्धु की दशा पर विलाप, हनूमान आगमन और लक्ष्मण का सचेत होना | ९१५ |
१३ | रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण युद्ध और उसका वध | ९१८ |
१४ | मेघनाद का मायायुद्ध, नागपास में बंध जाना और जाम्बवान द्वारा मेघनाद का मूर्छित होना | ९२९ |
१५ | मेघनाद का निकुम्भिला में यज्ञानुष्ठान, वानरों द्वारा यज्ञ नाश और लक्ष्मणजी के हाथ से मेघनाद का वध | ९३२ |
१६ | मन्दोदरी को विलाप, युद्ध के लिये रावण का प्रस्थान, राक्षस और वानर वीरों की मुठभेड़ तथा रामचन्द्रजी का विभीषण से विजयरथ का रूपक वर्णन | ९३५ |
१७ | रावण और वानर भालु भटों का भीषण संग्राम, रावण द्वारा लक्ष्मण को शक्ति लगना और हनूमान रावण का परस्पर मुष्टिप्रहार | ९४१ |
१८ | रावण का विजय के लिये यज्ञारम्भ, वानर वीरों द्वारा यक्ष विध्वंस और राम-रावण युद्ध | ८४५ |
१६ | इन्द्र का मातलि के सहित रथ भेजना, रावण का विभीषण को शक्तिचलाना, रावण-विभीषण युद्ध, अंगद द्वारा रावण का आहत होना, नल नील का सिर पर चढ़ माथ फाड़ना, जामवन्त का आक्रमण और रावण का मूर्छित होना | ९५० |
संख्या | कथा-प्रसङ्ग | पृष्ठ |
२० | सीता त्रिजटा सम्वाद, रावण की चढ़ाई, माया युद्ध और रामचन्द्रजी के धारा रावण का संहार | ९६४ |
२१ | मन्दोदरी विलाप, विभीषण को राज्यासन पर बिठाना, हनुमान का सीताजी के समीप जा कुशल समाचार देना और सीताजी का अग्नि में प्रवेश कर शपथ देना | ९७२ |
२२ | मातलि का प्रस्थान, देवस्तुति, ब्रह्मा की विनती, दसरथ आगमन इन्द्र और शिवजी की प्रार्थना तथा इन्द्र द्वारा अमृत की वर्षा और पुष्पक विमान पर चढ़ रामचन्द्रजी का अयोध्या को प्रस्थान | ९८० |
२३ | दंडकवन, चित्रकूट होते, प्रयाग और शृङ्गररवे पुर आगमन तथा हनूमानजी को सूचना देने के अर्थ भरत के पास भेजना | |
(उत्तरकाण्ड) | ||
१ | भरत विरह और हनूमान मिलन | ९९७ |
२ | अयोध्यापुरवासियों का प्रेमोत्साह, गुरु, भरत-शत्रुघ्न और पुरजनों से रामचन्द्रजी का मिलना | १००१ |
३ | रामराज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिव प्रार्थना और सुग्रीवादि वानर वीरों की विदाई | १०११ |
४ | रामराज्य की नीति, सुख और ऐश्वर्य वर्णन | १०२३ |
५ | पुत्रोत्पत्ति, अयोध्या की रमणीयता, भाइयों के सहित हनूमानजी का उपवन गमन और सनकादि आगमन तथा स्तुति करके ब्रह्मलोक पयान | १०२८ |
६ | हनूमान भरत राम सम्वाद, पुरवासियों को रामचन्द्रजी का उपदेश और विशिष्ट राम सम्भाषण | १०३८ |
७ | रामचन्द्रजी का समाज के सहित अमरैया (स्वलोक) में गमन, नारद राम सम्वाद और नारद की ब्रह्मलोक यात्रा | १०४९ |
८ | कथा सुन कर पार्वती का सन्तोष प्रकट करना, रामचरित की महिमा और कागभुशुंड के परिचय के लिये प्रश्न करना | १०५२ |
९ | शिव का भुशुण्डी के स्थान में जाकर कथा श्रवण करना, गरुढ़मोह, गरुड़ का कागभुशंड के स्थान पर जाना और सत्संग वर्णन | १०५५ |
१० | प्रसंग वश भुशुंडी का अपना मोह कथन, भक्तिवर की प्राप्ति और रामचन्द्र की अनन्त महिमा का वर्णन | २०७२ |
११ | कागतनु पाने का कारण, रामचरित की प्राप्ति, अमरत्व और इस आश्रम में अशान न च्यापने का हेतु क्या है? यह गरुड़ का प्रश्न तथा उसका विस्तार के साथ उत्तर | १०९२ |
१२ | कलियुग की लीला वर्णन और वैश्यतनु में शंकर का शाप होना | १०९४ |
१३ | भुशुन्डी का अन्त में ब्राह्मण शरीर पाना और लोमस ऋषि के शाप से कौआ का शरीर होना वर्णन | १११० |
१४ | रामभक्ति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर और ज्ञानदीपक वर्णन | १११९ |
१५ | गरुड़ के सात प्रश्न और उसका उत्तर | ११२८ |
१६ | गरुड़ का बैंकुट को प्रस्थान, रामयश की अपार महिमा वर्णन और अन्ध समाप्ति | ११३७ |
चित्र-परिचय
भिन्न भिन्न चित्रकारों के बनाये भिन्न भिन्न अवस्था के गोस्वामी तुलसीदासजी के तीन चित्र रामचरितमानस में लगे हैं, उनका परिचय ऐतिहासिक पुस्तकों और किवदन्तियों से जहाँ तक उपलब्ध हुआ वह प्रकाशित किया जाता है।
(१) इस एक रंगे चित्र को बादशाह अकबर के चित्रकारों ने सम्वत् १६२५ विक्रमाव्द के लगभग, बनाया, उस समय गोसाँईजी की अवस्था ३६ वर्ष की थी और वे तपश्चर्या में अनुरक्त थे। इतिहास से पता चलता है कि बादशाह अकबर अपनी राजसभा में प्रत्येक मत के विद्वानों को रखने का अनुरागी और प्रसिद्ध महात्मा पुरुषों के चित्रों का संग्रह कर अपनी चित्रशाला सजवाने का बड़ा शौकीन था। अकबर का प्रसिद्ध वज़ीर नवाब ख़ानख़ाना गोस्वामीजी पर अत्यन्त प्रेम रखता था। बहुत सम्भव है कि यह चित्र उसी के उद्योग से बन कर शाही चित्रालय में रक्खा गया हो। पहले पहल इस चित्र को लंदन के किसी समाचार पत्र ने प्रकाशित किया और उसी के द्वारा इसका भारत में प्रचार हुआ है।
(२) दूसरा चित्र बादशाह जहाँगीर के चित्रकारों ने सम्वत् १६६५ विक्रमाव्द के लगभग निर्माण किया होगा, क्योंकि जहाँगीर सम्वत् १६६२ से १६८४ विक्रमाव्द पर्यन्त दिल्ली के राज्यासन पर विराजमान था। उस समय गोस्वामीजी की अवस्था ७६ वर्ष की रही होगी। गोसाँईजी के जीवनचरित्र में लिखा है कि बादशाह जहाँगीर उनसे मिलने काशी आया था। बादशाह उनपर वड़ा प्रेम रखता और उन्हें पूज्यदृष्टि से देखता था। एकबार गोस्वामीजी भयंकर व्याधि से अत्यन्त पीड़ित हुए थे, सम्भव है कि उनकी बीमारी का समाचार पाकर वह स्नेहवश काशी आया हो और उसी समय अपने चित्रकारों को चित्र लेने की आशा दी हो, इसी से यह चित्र सद्यः रोगमुक्त अवस्था का लिया मालूम होता है। उन दिनों गोस्वामीजी प्रह्लादघाट पर पं॰ गंगाराम जोशी के यहाँ निवास करते थे। पं॰ गंगाराम गोसाँईजी के मित्रों में कहे जाते हैं, शाही चित्रकारों से मिल कर किसी प्रकार उन्होंने इस चित्र की प्रतिलिपि प्राप्त कर ली हो तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि सुना जाता है कि उनके वंशजों के पास वह चित्र अबतक सुरक्षित है। वर्तमान काल के पं॰ रणछोड़लाल व्यास अपने को पं॰ गंगाराम ज्योतिषी का उत्तराधिकारी बतलाते हैं। उन्होंने सन १९१५ ई॰ में गोस्वामीजी की जीवनी लिखवा कर प्रकाशित करायी है और उसमें वही एकरंगा चित्र भी दिया है। व्यासजी का कथन है कि यह चित्र बादशाह जहाँगीर ने सम्वत् १६५५ में जयपुर के किसी कारीगर से बनवाया था। परन्तु उस समय तो अकबर गद्दी पर था और जहाँगीर राजकुमार था, वह तो सम्वत १६६२ में गद्दी पर बैठा था। यदि यह कहा जाय कि राजकुमार की अवस्था में ही जहाँगीर ने चित्र बनवाया तो सम्भव नहीं, क्योंकि गद्दी पर बैठने के बाद उसने गोस्वामाजी को बुलवाकर एक बार जेल में बन्द करवा दिया था। यदि वह राजकुमार की अवस्था में गोस्वामीजी का प्रेमी होता तो राज्यासन पर बैठ कर उन्हें बन्दी न बनाता। जेल में बन्द करने पर वह उनके महत्व ले परिचित हो प्रेमी हुआ और तभी मित्र बनवाने की आज्ञा दी होगी। पं॰ रणछोड़लाल का वक्तव्य इतिहास से विरुद्ध होने के कारण विश्वास के योग्य नहीं है। व्यासजी ने अपनी जीवनी में चित्र के विषय में लिखा है कि "इस चित्र की रजिस्टरी हुई है, बिना हमारी आज्ञा कोई न छापे" आप की इस अनुदारता पर हंसी आती है और घृणा भी होती है। जिस महापुरुष के दर्शन की लाससा हिन्दू-समाज के अतिरिक्त कितने ही विदेशीय सजनों के हृदय में वर्तमान है, उनके चित्र को इस प्रकार प्रतिवन्ध के साथ प्रकाशित करना संकीर्णता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? काशी-नागरीप्रचारिणी सभा को सहस्रशः धन्यवाद है कि उसने इस चित्र को चतुर चित्रकार द्वारा रोगीपन का दोष दूर कराकर बड़े साइज़ में प्रकाशित किया है। उसकी एकरंग की प्रतिलिपि (असली चित्र के अनुसार) ज्ञानमंडल-कार्यालय ने और रंगीन आवृत्ति माधुरी ने प्रकाशित की है। इस चित्र के एक प्रधान दोष पर चित्रकार और सभाने कुछ ध्यान नहीं दिया, वह दर्शकों के लिये भ्रमोत्पादक हो सकती है। सिर पर शिखा और छोटे छोटे बाल दिखाये गये हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों गोस्वामीजी फूलदार कनटोप दिये हों। गोस्वामीजी वैष्णव थे, वैष्णवों में बहुत काल से यह रीति प्रचलित है कि वे या तो शिखा के अतिरिक्त सिर दाढ़ी और मूंछ के बाल साथ ही बनवाते हैं और रखते हैं तो सब साथ ही, जैसा कि गोवामीजी का प्रथम चित्र है। जब दाढ़ी मूँछ में बाल की चूँटिया नहीं हैं तब सिर पर उन्हें दिखाना अयुक्त है और असली चित्र में ऐसा प्रकट भी नहीं होता है। हम लोगों ने प्रवीण चित्रकार द्वारा इस दोष को दूर कराकर रंगीन चिन्न प्रकाशित किया है। इसमें सन्देह नहीं कि खंख्या,१ और २ के दोनों चित्र गोस्वामी तुलसीदासजी के हैं, उनमें अन्तर केवल अवस्था भेद का है।
(३) तीसरा चित्र ग्रियर्सन साहब ने सङ्गविलास प्रेस की रामायण में पहले पहल प्रकाशित कराया था, उसी के आधार पर वह अन्यान्य प्रेसों में भी मुद्रित हुआ है। यह ऊपर के दोन चित्रो से ठीक मिलता नहीं, इससे कल्पित होने का सन्देह होता है, किन्तु ग्रियर्सन साहब की खोज सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है। कदाचित् नब्बे वर्ष की उमर में अत्यन्त वृद्धावस्था के कारण शरीर स्थल हो गया हो उस समय का यह चित्र लिया हो इससे मिलान न होता हो।
(४) रति विलाप (रंगीन) पृष्ठ ९९
(५) शिव-पार्वती सम्वाद (एकरंगा) पृष्ठ १३१
(६) अहल्या तरण (तीनरंगा) पृष्ठ २११
(७) पुष्प वाटिका (रंगीन) पृष्ठ २३१
(८) परशुराम आगमन (एकरंगा) पृष्ठ २७३
(९) गङ्गातरण (एकरंगा) पृष्ठ ४६८
(१०) चित्रकूट-निवाल (तीनरंगा) पृष्ठ ४९९
(११) अग्निमिलन (तीनरंगा) पृष्ठ ६८४
(१२) शबरी-मिलाप (तीनरंगा) पृष्ठ ७३१
(१३) बाली-सुग्रीव युद्ध (एकरंगा) पृष्ठ ७५७
(१४) वर्षा-वर्णन (एकरंगा) पृष्ठ ७६२
(१५) समुद्रोल्लंघन (एकरंगा) पृष्ठ ७६२
(१६) अशोक वाटिका (तीनरंगा) पृष्ठ ७६५
(१७) मन्दोदरी-प्रार्थना (एकरंगा) पृष्ठ ८६६
(१८) रामसन्देश (एकरंगा) पृष्ठ ९९८
(१४) रामराज्य (तीनरंगा) पृष्ठ १०११
विद्वानों की सम्मतियाँ
रामचरितमानस की टीका के सम्बन्ध में कतिपय प्रसिद्धहिन्दी अंगरेज़ी के समाचार पत्रों और विद्वानों की सम्मतियों का सार।
"आज" दैनिक-काशी।
टीका अच्छी हुई है और अपनी कुछ विशेषता भी रखती है। इसमें क्षेपक का नाम नहीं है। इस टीका की भाषा भी बहुत शुद्ध और वर्तमान हिन्दी है। अर्थ सरल रक्खा गया है, क्लिष्टकल्पना या आडम्बर से काम नहीं लिया गया है। अर्थ के साथ अलंकार दिया है जो कविता प्रेमियों और ऊँचे दर्जे के छात्रों के लिये अधिक उपयोगी है। सारांश यह सटीक रामचरितमानस प्रायः हर तरह से अच्छा है और संग्रह करने योग्य है।
"भारतमित्र" दैनिक-कलकत्ता।
रामचरितमानस के इस सरल अर्थ और टीका का बहुत सा अंश हम देख गये। हमारी सम्मति में यह टीका प्रामाणिक और बहुत उपयुक्त हुई है। टीकाकार ने इस टीका के लिखने में जो परिश्रम किया है वह पूर्ण सफल हुआ है और ऐसी सुन्दर टीका से रामायण के प्रेमियों का उपकार अवश्यम्भावी है। यह सर्वाङ्गसुन्दर ग्रन्थ लोकादर का पात्र और सर्वथा आहय है।
"विश्वमित्र" दैनिक-कलकत्ता।
टीका बहुत ही सरल और सुबोध भाषा में बड़ी उत्तमता से की गयी है। उसे पढ़ कर चित्त बड़ा प्रसन्न होता है। टीकाकार को अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
"लीडर" दैनिक-प्रयाग।
इसमें मूल पाठ उत्तम, हस्तलिखित प्रतियों के मिलान से लिखा गया, क्षेपक रहित और शुद्ध है। इसकी टीका गद्य प्रचलित हिन्दी में इस प्रकार लिखी गयी है कि सामान्य पढ़े लिखे मनुष्य भी सहज में समझ सकते हैं। कथानकों के वर्णन तथा अन्यान्य टीका टिप्पणियों से इसकी उत्तमता और भी बढ़ गयी है। अन्त में रामायण के छन्दों का एक पिंगल और तुलसीदासजी की विस्तृत जीवनी विश्वस्त सूत्रों से अनुसन्धान करके लिखी गयी है। कुछ चित्रों ने पुस्तक का सौन्दर्य बढ़ा दिया है। यह पुस्स्तक हिन्दू समाज में आदर पाने के योग्यहै।
"हिन्दुस्तान रिव्यू" पटना।
जहाँ तक हमलोग जानते हैं टीका बहुत सरल है। यह रामायण का संस्करण प्रकाशक के उद्योग को सम्मान प्रदान करनेवाला और खूब प्रचार के योग्य है।
"सरस्वती पत्रिका" प्रयाग।
टीका की भाषा सरल है। मानस-पिंगल इसकी एक विशेषता है। रामायण के प्रेमियों के लिये यह भी संग्रह करने योग्य है।
भूतपूर्व सरस्वती सम्पादक पं॰ महावीर प्रसाद द्विवेदी की सम्मति।
रामायण का यह संस्करण बहुत अच्छा निकला। टीका खूब समझ बूझ कर लिखी गयी है। ऐसी कितनी ही बात इसमें हैं जो अन्य टीकाओं में नहीं पाई जाती। अनेक जगह मैंने टीका पढ़ी और मुझे पसन्द आई। प्रेस ने उसकी मनोहरता और उपादेयता बढ़ाने में कोई कसर नहीं की है।
हिन्दी के विद्वान और सुकवि सय्यद असीरमली की सम्मति।
इसमें क्षेपक नहीं है, टीका सरल सुवोध हिन्दी में मूल के अनुसार की गयी है। खींचातानी और स्वयम् बुद्धिप्रकाश करने का टीकाकार ने न कष्ट उठाया है, न पाठकों के लिये व्यर्थ की उलझन छोड़ी है। शङ्का-समाधान किया है, पर क्लिष्टकल्पना का नाम तक नहीं है। कथान्तरों को टिप्पणियाँ भी लगी हैं। मूलार्थ के पश्चात अलंकार-रस-भाव और ध्वनि का स्पष्टीकरण कर मानो सोने में सुगन्ध भर दी है। अन्त में मानसपिङ्गल लगा दिया है, जो विद्यार्थियों के भी काम का है। गोस्वामीजी का जीवनचरित्र भी खोज के साथ लिखा गया है। साथ ही रंगीन चित्रों के लग जाने से ग्रन्थ की शोमा दूनी हो गयी है। तात्पर्य यह कि टीकाकार ने वास्तव में इस टीका के लिखने में सराहनीय परिश्रम किया है।
भारतमित्र द्वारा एक हिन्दी सेवी की सम्मति।
यह टीका मैंने खूब ध्यान से पढ़ी है। टीका बहुत ही उपादेय हुई है। भावार्थ थोड़े शब्दों में दिया गया है, जिससे जिज्ञासा को पूर्ण निवृत्ति हो जाती है। क्षेपक का नाम नहीं, मूलपाठ प्राचीन प्रतियों के अनुसार बहुत कुछ शुद्ध है। जितनी विशेषताएँ टीका में होनी चाहिये वह सब इसमें विद्यमान है। माधुरी के सत्यसेवक ने "टीका अच्छी हुई" दबी ज़बान से यही कहा, पर आगे चलकर वे मिथ्याकल्पना की और न जाने क्यों झुक पड़े। आप लिखते हैं कि इस टीका के लिखने में टीकाकार का दावा है कि हमने कवि के उद्देशानुसार ही अर्थ करने की चेष्टा की है, परन्तु टीकाकार का यह दावा विचारणीय है। ठीक है, विचारिये और बतलाइये कि यह दावा ठीक है या नहीं। शायद आपने उद्देश्य का-अर्थ कविकल्पना समझा रक्खा है, क्योंकि उद्देश्य की बात छोड़ एक ही साँस में कवि के उद्गारों के भावों की बात कहने लगते हैं और उद्देश्य को बात ही भूल जाते हैं। मूलपाठ के विषय में टीकाकार पर आक्षेप करना अन्याय है, क्योंकि जिन प्रतियों से पाठ संगह किया गया है टीका में सर्वत्र उसका उल्लेख किया गया है। अतः तोड़ मरोड़ की शिकायत व्यर्थ है। हिन्दी प्रेमियों ने इस टीका का उचित सम्मान किया है। इस प्रकार की अवहेलना करने से टीका की उपादेयता में कोई अन्तर नहीं आ सकता और न सत्यसेवकजी की सत्यसेवा का हिन्दी संसार को परिचय ही मिल सकता है।
इसके अतिरिक्त-बहुत से विद्वानों की अनुकूल सम्मतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनको स्थानाभाव के कारण हम नहीं प्रकाश कर सके हैं। तुलसी-ग्रन्थावली।
गोस्वामी तुलसादासजी के ग्रन्थों के सम्बन्ध में अधिक कहने की अवश्यकता नहीं है। उनके महत्व को पढ़े अनपढ़े भारतवासी मात्र मली भाँति जानते हैं। गोस्वामीजी के बनाये हुए छोटे बड़े बारह अन्य प्रसिद्ध हैं। रामलला नहछू, वैराग्य-सन्दीपिनी, बरवै रामायण, पार्वती मङ्गल, जानकी-मङ्गल, रामाज्ञा प्रश्नावली, दोहावली, कवित्त रामायण, गीतावली-रामायण, कृष्णगीतावली विनयपत्रिका और रामचरितमानस। इन बारह ग्रन्थों को मूल मूल स्वच्छ चिकने कागज़ पर शुद्धता पूर्वक बड़े बड़े अक्षरों में हमने छपवाया है। नीचे कठिन शब्दों का अर्थ भी दिया गया है, जिससे भावार्थ समझने में बड़ी सुगमता हो गयी है। इनमें से ग्यारह ग्रन्थों की एक जिल्द है जिसमें लगभग ५८० पृष्ठ हैं। मूल्य सजिल्द केवल ४) और यह दूसरी जिल्द केवल रामचरित मानस की सचित्र और सटीक का मूल्य ४॥) और चिकने उम्दा काग़ज़ पर ६॥) है।
मिलने का पता
मैनेजर बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
नरेन्द्रभषण
यह एक अत्यन्त रोचक सचिन जासूसी उपन्यास है। आप ने कितने ही उपन्यास पढ़े होंगे पर नरेन्द्रभूषण के ऐसा शिक्षा प्रद और रोचक उपन्यार शायद ही कहीं पढ़ा हो।
राजनीति की चातुर्य पूर्ण चालें और नरेन्द्रभूषण का अपूर्व बल और साहस तथा शान्ता का अद्वितीय प्रेम हृदय को मुग्ध तथा उछाल देने वाले हैं। फिर महन्त जी के जंगली मोह की दुष्टता और किले का अन्त में फतह होना इत्यादि यह सब २५० पृष्ठों में छपे हैं। सजिल्द पुस्तक है और मूल्य १)। शीघ्रता करिए।
मनेजर,
बेलवेडियर प्रेस,
प्रयाग।
उपन्यास-प्रेमियों के लिए खुशखबरी!
"सन्देह"
हिन्दी उपन्यास जगत में अनूठी चीज़!
गिरीश जी का 'सन्देह' नामक उपन्यास छप गया!!
मधुर, मनोहारिणी, हदयस्पर्शिनी, तथा करुणा-पूर्ण प्रणयकथा के अङ्क में भारतीय क्रान्ति-कारियों की साहस-मयी क्रियाशीलता की गाथा को विललित देख कर यदि आप अपने हदय में देशभक्ति का भाव भरना मानव-चरित्र के अध्ययन से उत्पन होने वाले अलौकिक आनन्द का अनुभव करना तथा विधि-विधान की प्रबलता का पता पाकर सांसारिक विषादों से विकल अपने चिस को संतोष देना चाहते हैं तो भूतपूर्व मनोरमा-सम्पादक पं॰ गिरिजादत्त शुक्ल "गिरीश" बी॰ ए॰ के इस नवीन उपन्यास को अवश्य पढ़िए। 'सन्देह' के पृष्ठों में कहीं राजा आत्मानन्द साहेब की नीचता-पूर्ण खैरख्वाही को देख कर आप कुढ़ेगे तो कहीं रजनी कुमार के प्रति कान्तार बाला और किरण कुमारी के प्रेम-द्वन्द को अवलोकन कर नारी-हृदय की विस्मयोत्पादिनी विचित्रताओं का परिचय प्राप्त करेंगे; कहीं कान्तार बाला की सहानुभूति, सञ्चारिणी असफलता से आप दुखी होंगे तो कहीं रजनीकुमार द्वारा उसकी हत्या तथा आत्महत्या से आप विकल हो जायेंगे, कही क्रान्ति-कारियों द्वारा राजा साहेब की गिरफ्तारी आदि का रोचक वृत्तान्त पढ़ कर आप के मन में रजनीकुमार और किरण कुमारी के विवाह की आशा अङ्कुरित होगी तो कहीं कान्तार बाला और रजतीकुमार की रथियों के पीछे हृदय-विदारक स्वर में उनका जयघोष सुनकर आप का हदय बैठ जायगा। कभी कभी हमारी सदिच्छाओं से ही कितने भयङ्कर परिणाम प्रस्तुत हो जाते हैं, कभी कभी व्यर्थ ही सन्देह करके हम कितना अनिष्ठ कर बैठते है; यदि इस सत्य का जीता-जागता चित्र देखना हो तो 'गिरीश' जी के इस उपन्यास को अवश्य पढ़िए। मूल्य सजिल्द १।) साधारण।॥)
मिलने का पता—
मैनेजर,
बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
हिन्दी संसार में एकदम नवीन झलक
लोक सङ्ग्रह
(अथवा)
सन्तति विज्ञान
यह हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट लोक-प्रिय पुस्तक हमारे कार्यालय से, प्रकाशित होगई है। इसमें लेखक ने गृहस्थाश्रम में रहते हुये सन्तानोत्पादन विषय पर आलोचना करते हुये एक अपूर्व झलक दिखलाई है। कहीं २ पर साधारण बातों को लक्ष करके ऋषिवाक्यों द्वारा पढ़नेपाले महानुभावों पर उनके सूत्रों का अच्छा भाव दिखलाने का प्रयत्न किया है। सन्तति शास्त्र तथा कोकशास्त्र से कितना घनिष्ट सम्पर्क है–(प्राचीन ऋषियों ने स्त्रियों के कामदेव की गति का ज्ञान क्यों कर प्राप्त किया था,) कोकशास्त्र से संबन्ध रखने वाली गुप्त बातों का दिग्दर्शन भली भाँति कराया गया है।
पुस्तक की छपाई सफाई के विपय में हम आप से कुछ नहीं कहना चाहते। ऐसी उपादेय पुस्तक में सवा दो सौ पृष्ट होते हुये भी अधिक प्रचार के कारण मूल्य लागत मात्र केवल ।॥) ही रक्खा गया है पुस्तक समी के काम की वस्तु है। धड़ाधड़ मांगें आ रही हैं। जिसकी खोज आप वर्षों से कर रहे थे वह अब अल्प समय में ही आपके हाथों में रहेगी। अस्तु हमारा आप से अनुरोध है कि आप इसे तुरन्त मंगा लें अन्यथा दूसरे संस्करण के लिये आपको घाट देखनी पड़ेगा। भाषा ऐसी मनोहर है कि देखते ही बन पड़ता है। यदि सत्य ही उक्त बातों के जानने की आपको इच्छा है, तो आप आज ही एक कार्ड हमें लिख दीजिये ताकि हम पुस्तक भेज कर आप की मनोनीति इच्छा पूर्ण करने में समर्थ हो सके।
पता–
मनजर, बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
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