राबिन्सन-क्रूसो/दूसरी बार की विदेशयात्रा

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दूसरी बार की विदेशयात्रा

१६९३ ईसवी के कुछ दिन पहले ही मेरा जहाज़ी भतीजा जहाज़ का सफ़र तय कर के देश लौट आया। उसके परिचित कुछ सौदागर, अपने साथ लेकर, उसको भारत और चीन में वाणिज्य करने का अनुरोध करने लगे। उसने एक दिन मुझसे कहा,-चाचाजी, यदि आप मेरे साथ चले तो आपको ब्रेज़िल आदि पूर्व-परिचित देश दिखा लाऊँ।

"जो रोगी को भावे सो बैद बतावे" की कहावत चरितार्थ हुई। मैंने अपने मन में निश्चय किया था कि मैं यहाँ से लिसबन जाऊँगा और वहाँ अपने कप्तान मित्र से सलाह लेकर एक बार अपने द्वीप में जाकर देख आऊँगा कि मेरे उत्तराधिकारी कैसे हैं! इस देश से लोगों को ले जाकर उस द्वीप में बसाने की कल्पना कर के भी मैं मन ही मन सुख का अनुभव कर रहा था। किन्तु अपने मन की ये बातें मैं किसीसे कहता नहीं था। सहसा अपने भतीजे के इस प्रस्ताव से विस्मित होकर मैंने कहा-बेटा! सच कहो, किस शैतान ने तुमको ऐसा अयुक्त प्रलोभन दिखलाने भेजा है? मेरा भतीजा पहले, यह समझ कर कि मैं उसके प्रस्ताव से रुष्ट हो गया हूँ, चुप होकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। परन्तु बार बार मेरे चेहरे की ओर ध्यान से देख कर उसने समझा कि मेरा मन उतना अप्रसन्न नहीं है। तब उस ने ठंढी साँस भर कर और मुसकुरा कर कहा-मैं आशा करता हूँ कि इस बार अयुक्त प्रलोभन न होगा। आप अपने पूर्व-राज्य को देख कर सुखी होंगे। [ २४७ ]मैं शीघ्रही उसके प्रस्ताव पर सम्मत हो कर बोला,-"अच्छा तुम ले चलो, पर मैं अपने उसी टापू तक जाऊँगा, उससे आगे न बढ़ेगा। मुझे बहुत दूर जाने का साहस नहीं होता।" उसने कहा-"क्यों? आप फिर उसी द्वीप में रहना तो नहीं चाहते?" मैंने कहा,-"नहीं, तुम जब उधर से लौटो तब फिर मुझे अपने साथ लेते आना।" उसने कहा,-"उस राह से लौटने में सुभीता न होगा। मान लीजिए, यदि मैं किसी कारण से लौटती बार उस द्वीप में न पहुँच सकूँ तब तो फिर आपका निर्वासन ही होगा।" यह बात मुझे खूब युक्तिसंगत जान पड़ी। किन्तु हम दोनो ने तत्काल एक उपाय सोच लिया। हम लोग एक नाव का फ्रेम (पार्श्वभाग) जहाज़ पर रख लेंगे और कुछ बढ़ई मिस्त्रियों को भी साथ ले लेंगे। वे द्वीप में पहुँच कर उस फ़्रेम के भीतर तख़्ते जड़ कर ठीक कर देंगे। भतीजा मुझे द्वीप में छोड़ कर चला जायगा; लौटते समय वह मुझको जहाज़ पर चढ़ा लेगा तो अच्छा ही है, नहीं तो मैं उसी नाव पर सवार हो कर ब्रेज़िल जाऊँगा और वहाँ से यात्री-जहाज़ के द्वारा अपने देश को लौट आऊँगा।

मेरी वृद्धा मित्र-पत्नी ने मेरा इस बुढ़ापे में विपत्ति के मुख में घुसना पसन्द न किया। उसने लम्बी समुद्रयात्रा के क्लेश, विपत्ति की सम्भावना, और मेरे बाल-बच्चों की बात याद दिला कर मुझको जाने से रोकने की चेष्टा की। किन्तु जब उसने मुझको जाने के लिए अत्यन्त आतुर देखा तब बाधा देना छोड़ दिया और लाचार होकर स्वयं मेरी यात्रा का सब सामान ठीक कर देने में प्रवृत्त हुई।

मैंने एक वसीयतनामा लिख कर अपनी धन-सम्पत्ति अपने बच्चों के नाम से लिख पढ़ दी। सन्तानों की शिक्षा[ २४८ ] रक्षा का भार वृद्धा विधवा ही को सौंपा। यह भार उपयुक्त व्यक्ति को सौंपा गया था। कारण यह कि कोई माता भी उससे बढ़ कर अपने बच्चों का यत्नपूर्वक लालन-पालन नहीं कर सकती। जब मैं लौट कर देश पहुँचा तब भी वह जीवित थी। मैं उसका काम देख कर बहुत प्रसन्न हुआ था और उसे धन्यवाद देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का मुझे अवसर मिला था।

१६९४ ईसवी की ८ वीं जनवरी को हम और फ़्राइडे अपने भतीजे के जहाज़ पर सवार हुए। छप्परदार-नाव के सिवा अपने द्वीप के लिए मैंने अनेक प्रकार की चीजें साथ रख ली। इस बार मैंने कई नौकरों को भी अपने साथ ले लिया। यह इसलिए कि जब तक मैं उस द्वीप में रहूँगा तब तक वे लोग मेरी मातहती में काम करेंगे। इसके बाद जो वहाँ रहना चाहेंगे, रहेंगे और जो देश पाना चाहेंगे वे मेरे साथ लौट आवेंगे। मैंने दो बढ़ई, एक कुम्हार, एक पीपे बनाने वाले और एक दर्जी को साथ ले लिया। पीपे बनाने वाला अपनी वृत्ति के सिवा कुम्हार का भी काम करना जानता था और नक़शा खोदने आदि का भी काम जानता था। वह बड़े काम का आदमी था। मैंने और वस्तुओं की अपेक्षा कपड़े बहुतायत से ले लिये थे जिनसे टापू भर के लोगों का काम सात वर्ष तक मज़े में चल सकता। इसके अतिरिक्त दस्ताने, टोपी, जूते, मोज़े, बिछौने, बर्तन, कल आदि गृहस्थी की प्रायः सभी आवश्यक वस्तुएँ जहाज़ पर लाद लीं। युद्ध का भी कुछ सामान साथ रख लिया। सौ बन्दूक़ें, तलवार, पिस्तौल, गोली, बारूद, तथा शीशे और पीतल की बनी दो मज़बूत तो भी जहीज़ पर रख लीं। [ २४९ ]मेरा नसीब जैसा ख़राब था वैसा कोई विशेष संकट इस दफ़े संघटित न हुआ। पर यह बात नहीं कि सङ्कटों ने मेरा पीछा कतई छोड़ दिया। रवाना होने के साथ ही प्रतिकूल वायु बहना और पानी बरसना शुरू हुआ। मैंने समझा कि मुझको विपत्ति में डालने ही के लिए इस प्रकार प्रकृतिविपर्यय हो रहा है। प्रतिकूल वायु हम लोगों के जहाज़ को उत्तर ओर ठेल कर ले गया। हम लोग आयरलेन्ड के गालवे बन्दर में बाईस दिन तक टिके रहे। यहाँ खाद्य-सामग्री खूब सस्ते दाम पर बिकती थी। हम लोगों ने साथ की रसद ख़र्च न कर के ख़रीद कर खाया और कुछ जहाज़ में रख भी लिया। यहाँ मैंने बहुत से सूअर, गाय, और बछड़े मोल लिये। मैंने उन्हें अपने टापू में ले जाना चाहा था, पर वहाँ तक वे न पहुँच सके।

हम लोग ५वीं फ़रवरी को अनुकूल वायु पा कर आयरलेन्ड से रवाना हुए। २8 वीं फरवरी को जहाज़ के मेट ने आ कर कहा-"हमने तोप छुटने की आवाज़ सुनी है और आग की झलक देखी है!" हम लोग दौड़ कर डेक के ऊपर गये। कुछ देर तक तो कुछ सुनाई न दिया पर कुछ ही देर के बाद आग की ज्वाला देखने में आई। कहीं दूर ख़ूब ज़ोर की आग लगी है। उस महासमुद्र में पाँच सौ मील के भीतर कहीं स्थल का नाम-निशान न था, इसलिए सोचा कि ज़रूर किसी जहाज़ में आग लगी है। इसके पहले जो तोप की आवाज़ सुनी गई थी वह इसी विपत्ति की सूचना थी। जब तोप की आवाज़ हुई थी तब वह जहाज़ हमारे जहाज़ से बहुत दूर न था। हम लोग उस प्रकाश की ओर जहाज़ को ले चले। जितना ही आगे जहाज़ जाने लगा उतना ही प्रकाश का आधिक्य दिखाई देने लगा। कुहरा फैला रहने के कारण हम [ २५० ] लोग अग्नि-प्रकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं देख सकते थे। आध घंटे के बाद हम लोगों ने स्पष्ट देखा कि समुद्र में एक बड़ा सा जहाज़ जल रहा है।

यह देख कर हम लोगों के हृदय में दया उमड़ आई। यद्यपि हम लोग न जानते थे कि यह कहाँ का जहाज़ है और वे लोग किस देश के यात्री हैं, तथापि उन लोगों की वेदना से हम लोग व्याकुल हो उठे। तब मुझे अपनी विपत्तियों से उद्धार पाने की बात स्मरण होने लगी। यदि उन विपद्ग्रस्त बेचारों के पास और कोई नाव न हो तब उनकी न मालूम क्या दुर्दशा होगी, यह विचार कर मैंने आज्ञा दी कि हमारे जहाज़ से पाँच बार तोप की आवाज़ की जाय। इससे वे लोग समझेगे कि उनके सहायक निकटवर्ती हैं और वे नाव पर आरूढ़ हो कर अपनी प्राणरक्षा कर सकेंगे। आग के कारण हम लोग उनके जहाज़ को देख सकते थे, पर वे लोग हमारे जहाज़ को नहीं देख सकते थे। हम लोग प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में एकाएक वह जलता हुआ जहाज़ आकाश की ओर उड़ गया और देखते ही देखते आग एक दम बुझ गई। समुद्र गाढ़ अन्धकार में डूब गया। ऐसा मालूम हुआ जैसे वह जहाज़ सर्वदा के लिए समुद्र के गर्भ में विलीन हो गया। हम लोग यद्यपि ऐसी ही किसी दुर्घटना की आशङ्का कर रहे थे तथापि उसे आँखों के सामने होते देख हम लोगों के मन में बड़ा ही भय हुआ। उस जहाज़ के यात्रियों की दुर्दशा की बात सोच कर जी व्याकुल होगे लगा। वे लोग या तो जहाज़ के साथ जल गये होंगे या समुद्र में डूब कर मर गये होंगे अथवा इस अपार महासागर में नाव के ऊपर डूबने ही पर होंगे! वे सब के सब [ २५१ ] घोर अन्धकार में छिपे हैं। हम लोग कुछ निश्चय न कर सके कि वे अभी किस अवस्था में हैं। उन लोगों को सूचना देने के लिए मैंने अपने जहाज़ के चारों ओर रोशनी कर दी और गोलन्दाज़ से सारी रात तोप की आवाज़ करने को कह दिया।

हम लोगों ने जाग कर रात बिताई। सबेरे आठ बजे हम लोगों ने दूरबीन लगा कर देखा कि दो छप्परदार नावे आरोहियों से भरी हुई घिरनी की तरह बीच समुद्र में नाच रही हैं। हवा हमीं लोगों की ओर से हो कर बहती थी। वे प्रतिकूल वायु में पड़ कर प्राणपण से नाव खे कर हम लोगों की ओर आ रहे थे और हम लोगों की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए भाँति भाँति की चेष्टायें कर रहे थे। हम लोगों ने झंडी उड़ा कर उन लोगों को संकेत द्वारा जता दिया कि हम लोगों ने तुमको देख लिया। अब हम लोग पाल तान कर बड़ी तेज़ी से उन लोगों की ओर अग्रसर होने लगे। आध घंटे में हम लोग उनके पास पहुँच गये और चौसठ पुरुष, स्त्री और बालकों को अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया।

दरियाफ़्त करने से मालूम हुआ कि वह एक फ़्रांसवासी सौदागर का जहाज़ है, कनाडा देश के क्यूबिक शहर से देश को जा रहा था। माँझियों की असावधानी से जहाज़ में भाग लग गई और बहुत उपाय करने पर भी बुझ न सकी। तब जहाज़ के सभी यात्री निरुपाय हो कर नाव पर सवार हुए। उन लोगों के भाग्य से खुब बड़ी बड़ी दो नावें साथ में थीं, इससे वे लोग झटपट कुछ खाने-पीने की चीज़ें ले कर उन पर उतर आये। किन्तु नाव पर सवार हो जाने पर भी अपार समुद्र में उन लोगों के प्राण बचने की आशा न थी। केवल दुराशा मात्र थी कि कोई जहाज़ उन लोगों को आश्रय दे [ २५२ ] दे तो दे दे। उन लोगों के साथ पतवार, पाल और कम्पास था। उन्हींके सहारे वे अमेरिका लौट जाने का उपक्रम कर रहे थे। ऐसे समय उन लोगों ने विधाता की आश्वासवाणी की तरह एक बार तोप का शब्द सुन पाया और क्रमशः चार बार और भी सुना। वे लोग अमेरिका लौटने की चेष्टा ही करते थे पर लौटने की आशा न थी। मेघ, पानी, हवा और जाड़े की अधिकता से व्यथित हो कर वे लोग रास्ते ही में मर जाते। इसके अतिरिक्त नाव डूबने की आशङ्का भी पग पग पर थी। इस विषम भय में उन लोगों ने उद्धार का आश्वासन पा कर फिर छाती को दृढ़ किया। वे लोग पाल गिरा कर, पतवार खींचना बन्द कर के, प्रभातकाल की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ देर बाद वे हम लोगों के जहाज की रोशनी देख कर और तोप की आवाज सुन कर हम लोगों के जहाज की ओर आने के लिए फिर नाव खेने लगे। प्रतिकूल वायु में उन लोगों को नव अधिक दूर आगे न आ सकी, किन्तु भोर होने पर जब उन्होंने देखा कि हम लोग उनको आते देख रहे हैं तब उनकी जान में जान आई।

उन लोगों ने रक्षा पाकर जो अनेक भावों से भरी विविध चेष्टाओं से अपना आवेग प्रकट किया था उसे बताने में मैं असमर्थ हूँ। शोक या भय की प्रात्यन्तिक दशा शायद वर्णन करके कुछ समझा भी सकता हूँ, उस विपदावस्था का चित्र खींच सकता हूँ; बारम्बार लम्बी साँस लेना, आँसू बहाना, विलाप करना, हाथ-पैरों को पटकना यही मोटी मोटी दुःख-भय की परिभाषा है; किन्तु अत्यन्त हर्ष की परिभाषायें अनेक प्रकार की होती हैं, उसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन सहज में नहीं हो सकता। वे लोग अपना [ २५३ ] पुनर्जीवन मान कर मारे ख़ुशी के विदेह बन गये थे। किसी को अपने-पराये की सुध न थी, सभी आनन्द में उन्मत्त थे। कोई रोता था, कोई हँसता था, कोई नाचता था, कोई गाता था, कोई पागल की भाँति अंट संट बकता था, कोई जहाज़ में इधर से उधर दौड़ता था, कोई चित्रवत् खड़ा था, कोई चुपचाप मौन साधे बैठा था, कोई वमन करता था, कोई बेहोश पड़ा था और कोई कृतज्ञता-पूर्वक भगवान् को धन्यवाद दे रहा था।

मैंने इसके पहले उमङ्ग की ऐसी विचित्र अवस्था कभी न देखी थी। फ़्राइडे ने जब अपने पिता को देखा था तब उसके उस समय के आनन्दोच्छ्वास, और द्वीप में निर्वासित कप्तान तथा उसके दो संगियों को जब मैंने आश्वासन दिया था उस समय के उनके विस्मय और अनिर्वचनीय आनन्द का कुछ कुछ भाव इन लोगों के आनन्दोद्रेक से मिलता था।

इन आगन्तुकों के आनन्दोच्छ्वास के प्रकाश के जितने भाव मैं ऊपर दिखा आया हूँ वे एक एक व्यक्ति को एक ही प्रकार से होकर निवृत्त हो गये हों यह नहीं, बल्कि एक ही व्यक्ति पर्यायक्रम से सभी प्रकारों के उद्धत भाव और आवेग प्रकट कर रहा था। कुछ देर पहले जो चुपचाप मौन साधे थे वे कुछ ही देर बाद पागल की भाँति नाचने, गाने और ख़ूब ज़ोर से चिल्लाने लग जाते थे। तुरन्त ही उनका वह भाव बदल जाता था और वे रोने लग जाते थे। रोना समाप्त होते न होते वे कै करने लग जाते थे। कै करते ही करते उन्हें मूर्च्छा आ जोती थी। यह दशा सब की थी। यदि हम लोग झटपट उनका इलाज न करते तो उनकी मृत्यु होना भी असंभव न [ २५४ ] था। हमारे जहाज़ के डाक्टर ने ३०, ३२ व्यक्तियों की नस काट कर रक्त-निकाल दिया जिससे उन लोगों का आवेग शान्त हुआ।

उन लोगों में दो व्यक्ति पादरी थे। एक वृद्ध था और दूसरा युवा। किन्तु आश्चर्य का विषय यह था कि उस वृद्ध की अपेक्षा वह नव-युवक धर्म-विश्वास और इन्द्रिय-निग्रह में बढ़ कर था। वृद्ध ने हमारे जहाज़ पर आकर ज्यों ही देखा कि अब प्राण बच गये त्योंही वे धड़ाम से गिर कर एकदम मूर्च्छित हो गये। हमारे डाक्टर ने दवा देकर और रक्त-मोक्षण करके उन्हें सचेत किया। तब वे एक रमणी का इलाज करने गये। थोड़ी देर बाद एक आदमी ने डाक्टर से जाकर कहा कि वह वृद्ध पुरोहित पागल हो गये हैं। तब डाक्टर ने उनको नींद आने की दवा दी। कुछ देर बाद उन्हें अच्छी नींद आ गई। दूसरे दिन सबेरे जब वे जागे तब भले-चंगे देख पड़े।

युवा पुरोहित ने अपने आत्म-संयम और प्रशान्त चित्त का अच्छा परिचय दिया था। उन्होंने हमारे जहाज़ पर पैर रखते ही ईश्वर को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। मैंने समझा कि शायद उन्हें मूर्च्छा हो पाई है, इसीसे मैं झटपट उन्हें उठाने गया। तब वे सिर उठा कर धीर गम्भीर स्वर से बोले-"मुझे कुछ नहीं हुआ है, मैं परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा हूँ, इसके बाद आपको भी धन्यवाद दूँगा।" उनको ईश्वरोपासना के समय बाधा देकर मैं सन्तप्त हुआ। कुछ देर बाद वे उठ कर मेरे पास आये और आँसू भरे नयनों से उन्होंने मुझको धन्यवाद दिया। मैंने उनसे कहा-मैंने धन्यवाद पाने का कौन सा काम किया है। मैंने उसी कर्तव्य का पालन किया है जो मनुष्य के प्रति मनुष्य का है। [ २५५ ]इसके बाद वह भद्र-पुरुष अपने साथियों को सान्त्वना देकर उनकी सेवा में नियुक्त हुए। क्रम क्रम से उन्होंने सब को शान्त और प्रकृतिस्थ किया।

इन लोगों के अभद्र भावों का प्रातिशय्य देख कर मैंने समझा कि जीवन के लिए संयम क्या वस्तु है। असंयत आनन्द लोगों को ऐसा अधीर और उन्मत्त बना डालता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रु-असंयत होने पर लोगों से कौन सा अनर्थ नहीं करा सकते। मनुष्य-जीवन में संयम (आत्म-निग्रह) ही अमृत है, अमूल्य धन है और वही महत्त्व का परिचायक है।

पहले दिन हम लोग इन अतिथियों को लेकर बड़े ही गोलमाल में पड़े। दूसरे दिन जब वे लोग गाढ़ी नींद के आने के बाद उठे तब मालूम हुआ जैसे ये लोग वे नहीं हैं जो कल थे। सभी हम लोगों से सेवा और साहाय्य पाकर विनयपूर्वक सकृतज्ञ भाव से शिष्टता का परिचय देने लगे। उन के जहाज़ के कप्तान और पुरोहित दूसरे दिन मुझसे और मेरे भतीजे से भेंट करके कहने लगे-आपने हम लोगों के प्राण बचाये हैं, हम लोगों के पास इतनी जमा-जथा नहीं जो आपकी इस दया के बदले देकर कृतज्ञता प्रकट कर सके। हम लोग जल्दी में, जहाँ तक हो सका, कुछ रुपया और थोड़ा बहुत माल-असबाब आग के मुँह से बचाकर साथ लाये हैं। यदि आप आज्ञा दें तो हम लोग वे सब रुपये आपकी सेवा में समर्पण करें। हम लोगों की केवल यही प्रार्थना है कि आप कृपा कर के हम लोगों को ऐसी जगह उतार दें जहाँ से हम लोग देश लौट जाने का प्रबन्ध कर सकें। [ २५६ ]मैंने अपने भतीजे को, उनसे रुपया ले लेने के लिए खूब उत्सुक देखा। उसका मतलब था कि पहले रुपया ले लें फिर उनकी कोई व्यवस्था कर देंगे। किन्तु उसके इस आशय को मैंने पसन्द न किया। क्योंकि पास में धन न रहने से अपरिचित देश में कितना क्लेश होता है, इसे मैं बखूबी जानता था। मैं इन विषयों का पूर्णरूप से भुक्त-भोगी था। यदि वे पोर्तुगीज़ कप्तान आफ़्रिका के उपकूल में मुझको बचा-कर मेरा सर्वस्व ले लेते तो मैं ब्रेज़िल में जाकर दासत्त्ववृत्ति के सिवा और क्या करता? एक मूर जाति के दासत्व से भाग कर दूसरे के दासत्व में नियुक्त होता।

मैंने कप्तान से कहा,-हम लोग मनुष्य हैं। मनुष्यता दिखलाना हम लोगों का धर्म और कर्तव्य है। इस ख़याल से ही हमने आप को इस जहाज़ पर आश्रय दिया है। यदि आपकी दशा में हम होते और हमारी सी अवस्था आपकी होती तो हम भी आपसे ऐसे ही सहायता चाहते। हमने रक्षा के विचार से ही आप लोगों को जहाज़ पर चढ़ा लिया है न कि लूटने के मतलब से। आप लोगों के पास जो कुछ बच रहा है वह लेकर आप लोगों को अज्ञात देश में और असहाय अवस्था में छोड़ देना क्या अत्यन्त निर्दयता और नीचता का परिचय देना नहीं है? तो क्या मारने ही के लिए आप लोगों की यह रक्षा हुई है? क्या डूबने से बचाकर भूखों मारने की व्यवस्था विधेय है? मैं आप लोगों की एक भी वस्तु किसी को लेने न दूँगा किन्तु आप लोगों को अनुकूल स्थान में उतारना ही एक कठिन समस्या है। हम लोग भारत की ओर जा रहे हैं। यद्यपि हम लोग निर्दिष्ट-मार्ग को छोड़ कर बड़े ही टेढ़े मेढ़े पथ से जा रहे हैं तथापि यह समझ कर सन्तोष [ २५७ ] होता है, कि आपही लोगों के उद्धारार्थ ईश्वर की प्रेरणा से हम लोग इधर आ पड़े। अब हम लोग इच्छा रहते भी गन्तव्य पथ को न छोड़ सकेंगे। किन्तु हम लोग इतना कर सकते हैं कि रास्ते में यदि कोई ऐसा जहाज़ मिल जायगा जो देश लौट कर जाता होगा तो उस पर आप लोगों को चढ़ा देंगे।

मेरे प्रस्ताव का प्रथम अंश, अर्थात् उन लोगों से हम कुछ न लेंगे, सुन कर उन्होंने अत्यन्त आह्लादित होकर हम लोगों को धन्यवाद दिया। किन्तु अन्य अंश सुन कर वे बहुत डरे। हम उन लोगों को भारत की ओर ले जायँगे, यह उन लोगों के लिए बड़ी विपत्ति-वार्ता थी। वे हम लोगों से अनुरोध करने लगे कि जब आप लोग इतना पश्चिम आही चुके हैं तो कुछ ही दूर और हट कर जाने से फ़ौन्डलेन्ड देश तक पहुँच जायँगे। वहाँ से हम लोग किसी तरह कनाडा, जहाँसे आये थे, जा सकेंगे।

मैंने इस प्रस्ताव को युक्ति-संगत समझ करके स्वीकार कर लिया। कारण यह कि इतने लोगों को सुदूरवर्ती पश्चिम देश में ले जाना केवल उन लोगों के प्रति अत्याचार ही न होगा बल्कि उनके साथ हम लोगों का सर्वनाश होना भी संभव है। इतने लोगों को प्राहार पहुँचाने ही में मेरा खाद्यभण्डार खाली हो जायगा।

हम लोगों ने रास्ते में कई यूरोपगामी जहाज़ देखे। उनमें दो फ़्रांस के थे। किन्तु उन लोगों को प्रतिकूल वायु के कारण रास्ते में बहुत देरी हो गई है। खाद्य-सामग्री घट जाने के भय से वे लोग और यात्रियों को अपने जहाज़ पर चढ़ा लेने को राजी न हुए। तब हमने लाचार होकर उन [ २५८ ] लोगों को न्यू फौन्डलेन्ड के किनारे उतार दिया। सभी लोग उतर गये। केवल वह युवा पुरोहित हम लोगों के साथ भारत जाने को रह गया और चार व्यक्ति नाविक का काम करने की इच्छा से हमारे जहाज़ पर नियुक्त हुए।

इसके बाद बीस दिन तक हम लोग अमेरिका के द्वीपपुञ्ज के सामने से जाने लगे। एक दिन फिर एक घटना के कारण परोपकार का सुयोग मिल गया। उस दिन मार्च की उन्नीसवीं तारीख़ थी। हम लोगों ने देखा कि एक जहाज के सभी मस्तूल टूटे हैं, उसके जहाजियों ने विपत्ति के संकेत-स्वरूप तोप की आवाज़ की। हम लोग उसके पास गये।

वह जहाज़ इँगलेन्ड के ब्रिस्टल शहर को जा रहा था। रास्ते में सख्त तूफ़ान आने के कारण उसकी ऐसी दुर्दशा हुई थी। जहाज़ इस प्रकार अकार्य-भाजन होकर नौ सप्ताह से समुद्र में इतस्ततः घूम रहा था। उन लोगों के पास खाद्य-सामग्री भी न थी। निराहार रहने के कारण वे मृतप्राय हो रहे थे। एक मात्र जीवन का अवलम्ब यही था कि पानी बिलकुल खर्च न हुआ था। प्राधा पीपा मैदा था और कुछ चीनी थी। उस जहाज़ पर एक युवक यात्री था। उसके साथ उसकी माता और दासी भी थी। उसके पास खाने को कुछ न था, खाद्य वस्तु बिलकुल निबट चुकी थी। नाविक गण स्वयं खाद्य के अभाव से कष्ट पा रहे थे इस लिए उन पर दया कर के कोई कुछ खाने को न देता था। इससे उन तीनों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो गई थी।

मैंने झट पट पहले उनके खाने की व्यवस्था कर दी। मैंने अपने भतीजे को एकदम दबा रक्खा था। वह मेरी आज्ञा [ २५९ ] के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता था, यद्यपि जहाज़ का कप्तान वही था। यदि किसी स्थान में जहाज़ लगा कर खाद्य-सामग्री ख़रीदनी पड़ती तो वह भी मुझे स्वीकार था, पर भूखों को न खिला कर मैं अपना पेट कैसे भरता? हम लोगों के पास यथेष्ट खाद्य-वस्तु थी। मार्ग में कहीं कुछ मोल लेने का अवसर प्राप्त होने की संभावना न थी।

हमने उन लोगों को भोजन दिया। किन्तु वे लोग खाना पाकर भी बड़ी विपदा में पड़े। जो कुछ थोड़ा सा खाने को दिया वही, दीर्घ उपवास के बाद, उन लोगों के पेट में गुरुपाकी हो गया। यदि वे लोग अपनी अवस्था पर ध्यान न देकर अधिक खा बैठते तो बड़ी कठिनता होती। कितने ही लोग कङ्कालरूप हो गये थे, ठठरी मात्र बच रही थी। मैने सब को सावधान कर के थोड़ा थोड़ा खाने को कहा। कोई कोई तो दो एक कौर खाते ही वमन करने लगे। तब डाक्टर ने उन लोगों के भोजन में एक प्रकार की दवा मिला दी। इससे उन लोगों को कुछ आराम मिला। कोई खाने की वस्तु को बिना चबाये ही गट गट निगलने लगा। दो मनुष्यों ने इतना खाना खाया था कि अन्त में उनका पेट फटने पर हो गया।

इन लोगों का कष्ट और अवस्था देख कर मेरा हृदय दया से द्रवित हो उठा था। मैं अपने ऊपर की बीती बात सोचने लगा। जब मैं पहले पहल उस जन-शून्य द्वीप में जा पड़ा था तब मेरे पास एक मुट्ठी अन्न का भी कोई उपाय न था। यदि मुझे कुछ खाने को न मिलता तो मेरी भी ऐसी ही भयङ्कर और शोचनीय दशा होती।

जो लोग चलने में एक दम असमर्थ होगये थे उन लोगों के लिए उन्हीं के जहाज़ पर थाल भर पावरोटी और मांस [ २६० ] भेज दिया। डाक्टर ने मांस पकाने की व्यवस्था करके रसोईघर में इसलिए पहरा बैठा दिया कि कोई कच्चा ही मांस न खा ले। मांस का शोरवा तैयार हो जाने पर हर एक को थोड़ा थोड़ा देने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार सख्त ताकीद से डाक्टर साहब ने उनमें कई एक व्यक्तियों को मृत्यु के मुख से बचा लिया। नहीं तो चान्द्रायण व्रत के अनन्तर एकाएक अपरिमाण भोजन से विशूचिका का भयङ्कर आक्रमण हुए बिना न रहता।

उन उपेक्षित तथा अनाहत तीनों यात्रियों को मैं स्वयं उनके जहाज़ पर देखने गया था। जहाज़ के कितने ही क्षुधार्त व्यक्ति चूल्हे पर से कच्चा खाद्य लेने के लिए हल्ला मचा रहे थे। रसोईघर के पहरेदार उनको समझा बुझाकर रोकने में असमर्थ होकर बल से काम ले रहे थे। जबर्दस्ती हाथ पकड़ पकड़ कर उन्हें हटा रहे थे और बीच बीच में उन्हें थोड़ा सा बिस्कुट देकर शान्त भी किये जा रहे थे। नहीं तो वे लोग खाने के लिए प्राण तक देने को मुस्तैद थे। भूख ऐसी ही अदम्य राक्षसी है!

उनमें तीन मुसाफ़िरों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। उन लोगों के पास खाने की कुछ भो वस्तु न थी और न किसी से उन्हें कुछ सहायता ही मिली। छः सात दिन से वे लोग एकदम निराहार थे। इसके पूर्व भी कई दिनों से उन लोगों ने पेट भर कर न खाया था। माँ स्वयं न खा कर अपना अंश अपने बेटे को खिला दिया करती थी, इससे वह एकदम सेज में सट गई थी। यद्यपि वह अभी तक मरी नहीं है पर उसके मरने में अब कुछ देर नहीं है। मैंने चम्मच से थोड़ा सा झोल उसके मुँह में डाला। इस पर वह कुछ बोल [ २६१ ] तो न सकी पर इशारे से उसने जताया, कि मेरे मरने में अब विलम्ब नहीं है, यह सब चेष्टा वृथा होगी। उसने अपने बेटे को देखने की इच्छा प्रकट की। धन्य माता का हृदय! आप मृत्यु के मुख में पड़ी थी तो भी सन्तान की एकमात्र चिन्ता उसके मन में थी। उसी रात को उस स्त्री का देहान्त हो गया। अपनी स्नेहमयी माता के यत्न से युवक उतनी बुरी हालत में न था, उसकी दशा कुछ अच्छी थी फिर भी वह बिछौने पर बेहोश पड़ा था। उसके मुँह में चमड़े के दस्ताने का एक टुकड़ा था, उसीको वह धीरे धीरे चबा रहा था। कई चम्मच झोल पीने पर उसने आँखें खोलीं। माता की अपेक्षा उसकी चेष्टा कुछ अच्छी थी, इसीसे वह बच गया। फिर दो-तीन चम्मच शोरवा पिलाने से उसने तुरन्त कै कर डाली।

तब हम लोगों ने दासी की शुश्रूषा की ओर ध्यान दिया। वह अपनी स्वामिनी के पास पड़ी थी। मृगी का चक्कर आने पर जो हालत शरीर की होती है वही हालत उसके शरीर की थी। एक हाथ से वह कुरसी के पाये को ऐसे ज़ोर से पकड़े थी कि उसे हम लोग सहज ही छुड़ा नहीं सके। उसकी दशा देख कर हम लोगों ने समझा कि वह मृत्यु की यन्त्रणा से व्याकुल हो रही है, फिर भी उसके बचने का कुछ कुछ लक्षण दिखाई देता था। वह बेचारी भूख से तो कष्ट पा ही रही थी, इसके ऊपर मृत्यु के भय से और आँखों के सामने अपनी स्वामिनी को निराहार के कारण मरते देख कर उसके हृदय में शोक का भारी धक्का लगा था। डाक्टर की चिकित्सा से वह बच तो गई, पर उसका स्वभाव उन्मादिनी का सा होगया। [ २६२ ]स्थलयात्रा की तरह जलयात्रा नहीं होती कि काम पड़ने से एक जगह दस-बीस दिन ठहर गये और काम हो जाने पर फिर आगे बढ़ने लगे। हम लोग इन सबों की सहायता करते थे परन्तु एक जगह स्थिर होकर रहने का सुभीता न था। बिना मस्तूल के जहाज़ को साथ ले चलने के कारण हम लोग पाल नहीं तान सकते थे। इससे हम लोगों का जहाज़ भी ठिकाने के साथ न चल कर उसी टूटे जहाज़ के साथ लड़खड़ाता हुआ चला। इस अरसे में उन लोगों के जहाज़ के मस्तूलों को काम चलाने योग्य ठीकठाक करके और जितनी हो सकी उतनी खाद्य-वस्तु दे कर उन्हें बिदा कर दिया। केवल वह यात्री युवक और उसकी दासी दोनों अपनी चीज़-वस्तु लेकर हमारे जहाज़ पर चले आये।

युवक की उम्र सत्रह वर्ष से अधिक न थी। वह सुन्दर, शिष्ट, शान्त और बुद्धिमान् था। माता की मृत्यु से वह बेचारा एकदम सूख गया था। इसके कई महीने पूर्व उसके पिता का भी देहान्त हो गया था। वह अपने जहाज़ के लोगों पर बहुत ही रुष्ट था। वह कहा करता था कि उन लोगों ने मेरी माँ को भूखों मार डाला है। उन लोगों ने वास्तव में किया भी ऐसा ही था, पर उसके होश हवास में नहीं, उसकी निश्चेष्ट अवस्था में यह लीला हुई थी। वे लोग चाहते तो युवक की माँ को यत्किञ्चित् आहार दे कर उसके प्राणों को अब तक बचाये रह सकते थे। किन्तु लोगों के धर्म, ज्ञान और धैर्य को क्षुधा स्थिर रहने नहीं देती। लोगों का मन भूख से अत्यन्त चञ्चल और दुर्दमनीय हो उठता है। उस समय अपना पराया सब भूल जाता है; दया, धर्म, और नोति-अनोति का ज्ञान एकदम लुप्त हो जाता है। [ २६३ ]डाक्टर ने युवक को बतला दिया कि हम लोग श्रमुक देश को जा रहे हैं और यह भी समझा दिया कि हम लोगों के साथ जाने से आप अपने बन्धु-बान्धवों से एक बारगी बहुत दूर जा पड़ेंगे । युवक ने कहा,- यह हमें मंजूर है, परन्तु हम उन राक्षसों के जहाज़ में जा कर अपना प्राण गवाँना नहीं चाहते । उन लोगों से पिण्ड छुटाने ही में हम अपना कल्याण समझते हैं।

हमने युवक और उसकी दासी को अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया । युवक के साथ कई बोरे चीनी थी । हम लोग उस चीनी को अपने जहाज़ पर न ले सके । भग्न जहाज़ के कप्तान से चीनी की रसीद लेकर कह दिया कि यह माल ब्रिस्टल के रौज़र्स नामक सौदागर से रसीद ले कर उसके हवाले कर देना । किन्तु पीछे देश लौटने पर मालूम हुआ कि वह जहाज़ ब्रिस्टल में पहुंचा ही नहीं। अधिकतर सम्भावना उसके समुद्र में ही डूब जाने की थी।

दासी का चित्त कुछ स्वस्थ होने पर उसके साथ बात- चीत करते करते मैंने पूछा—"बेटी, क्या तुम हमको समझा सकती हो कि अनाहार से कैसे मृत्यु होती है ?" उसने कहा- "हाँ, मैं कोशिश करती हूं, शायद समझा सकूं। पहले कई दिन तक हम लोगों का बड़े कष्ट से भोजन चला । अल्प आहार से दिन दिन शरीर दुर्बल होने लगा। आख़िर हम लोगों के पास खाने को कुछ न रहा। केवल चीनी का शरबत पीकर हम लोग रहने लगीं। प्रथम उपवास के दिन सन्ध्या समय पेट बिल- कुल ख़ाली मालूम होने लगा । शरीर की सारी नसें सिकुड़ने लगीं, बार बार जम्हाई आने और आँखें झपने लगीं । मैं [ २६४ ] बिछौने पर जा कर लेट रही, लेटते ही नींद आ गई। तीन घंटे के बाद नींद टूटने पर कुछ श्राराम मालूम हुआ। फिर सोने की चेष्टा की, पर नींद न आई। पाँच बजे सबेरे तक जागती रही, तब बड़ी कमज़ोरी और क्लान्ति मालूम होने लगी। दूसरे दिन भी पहले तो बड़ी भूख लगी फिर उबकाई आने लगी। रात में सिर्फ थोड़ा सा पानी पीकर सो रही। नींद आने पर सपने में देखा कि मैं एक बाज़ार में गई हूँ। बाज़ार के दोनों ओर अनेक प्रकार के पकवानों की दूकानें लगी हैं। मैंने भाँति भाँति की खाने की चीज़ ख़रीद कर स्वामिनी को दी और मैंने भी पेट भर खाया। इसके बाद मेरा पेट खूब भरा हुआ सा मालूम होने लगा जैसे दूसरे के घर से भोज खाकर आई हूँ। जागने पर मैंने देखा कि मैं एकदम विह्वल हो गई हूँ। मैंने थोड़ा सा चीनी का शरबत बना कर पिया। रात में कितना ही भला-बुरा सपना देख कर जब सबेरे जाग उठी तब भूख से मेरे पेट में आग सी लग रही थी। राक्षसी क्षुधा ने मुझे बेहाल कर दिया था। मेरी गोद में यदि बच्चा होता तो उस समय उसे कच्चा ही खा डालती, ऐसी दुर्जय दुर्निवार क्षुधा व्याप रही थी। भूख के मारे मैं एकदम उन्मादिनी हो उठी। ऐसी उन्मादिनी कि गारद में रखने योग्य। मैं पागलपन करते करते, खाट के पाये पर गिर पड़ी जिससे नाक में बड़ी चोट लगी, नाक से खून गिरने लगा। कुछ लोहू बाहर निकल जाने से मुझे कुछ चैतन्य हो आया और फिर उबकाई आने लगी पर क़ै न हुई। होती क्या? जब कुछ पेट में रहे तब तो! कुछ देर के बाद मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। सभी ने समझा, मैं मर गई। मेरे पेट में एक अनिर्वचनीय यन्त्रणा होने लगी। अँतड़ियाँ ऐठने लगीं। [ २६५ ] भयानक भूख से प्राण आकुल-व्याकुल होने लगे। पुत्र-विच्छेद से स्नेहातुरा माँ जैसी विकल होती है वैसी ही विकल मैं भी हो गई थी। मैंने फिर ज़रा होश कर के चीनी का शरबत पिया। पर वह पचा नहीं, तुरन्त उल्टी हो गई। तब थोड़ा सा पानी पिया, वह पेट में ठहरा। इसके अनन्तर बिछौने पर लेट कर मैं एकाग्र मन से यो ईश्वर की प्रार्थना करने लगी-'हे ईश्वर, अब मुझे अपनी मृत्यु-तापहारिणी गोद में जगह दीजिए। इस प्रकार मुझे भूखो क्यों मार रहे हैं?' इस प्रकार प्रार्थना करने से चित्त को कुछ शान्ति मिली। मैं मृत्यु की दुराशा को हृदय मे रख कर सो गई। कुछ देर के बाद नींद टूट जाने पर सम्पूर्ण संसार शून्य सा दीखने लगा। मैं जीती हूँ या मर गई, इसका भी कुछ ज्ञान न रहा। मैं इस अवस्था को परमशान्तिमय मान कर अपने मन और आत्मा को ईश्वर के चरण-कमलों में समर्पित कर के मौन हो रही। मेरे मन में यह इच्छा होने लगी कि कोई मुझको समुद्र में फेंक कर सलिलसमाधि द्वारा मेरी जठराग्नि की ज्वाला को ठंडा कर दे।

"मेरी इस अवस्था तक मेरो स्वामिनी मेरे हो पास पड़ी थी और धीरे धीरे मृत्यु मुख की ओर अग्रसर हो रही थी। वह मेरी भाँति उतावली न हुई। वह शान्त भाव से प्रात्मत्याग कर के मृत्यु से मिलने के लिए हाथ पसार रही थी। वह अपने मुँह की रोटी अपने बेटे को खि ना कर आप निश्चिन्त थी।

"प्रातःकाल ज़रा मेरी आँखें लगीं। जागने पर मैं आपही आप न मालूम क्यों रोने लगी। मैं अपने रोदन को किसी प्रकार रोक़ नहीं सकती थी। उसके साथ साथ भूख की ज्वाला भी नहीं सही जाती थी। मैं हिंस्र पशु की भाँति [ २६६ ] लोलुपदृष्टि से चारों ओर ढूँढ़ने लगी। यदि मेरी स्वामिनी उस समय मर गई होती तो मैं उनका मांस नोच कर खाये बिना न रहती। उन पर मेरा असीम अनुराग था, इसीसे मैं रुक रही, नहीं तो उन्हें जीवित अवस्था ही में नोच खाती। दो-एक बार मैंने अपने ही सूखे हाथ का मांस दाँत से नोच कर खाने की चेष्टा की। उसी समय मेरी दृष्टि एकाएक उस लोहू पर जा पड़ी जो कल मेरी नाक से गिर कर जम गया था। मैं उसी घड़ी बड़ी आतुरता के साथ उसे मुँह में डाल कर जल्दी जल्दी निगलने लगी। मुझे इस बात का भय होने लगा कि शायद कोई देख ले तो कहीं छीन कर न ले जाय। उसके खाने से क्षुधा किञ्चित् शान्त हुई। थोड़ा सा पानी पीकर मैं कुछ देर के लिए स्थिर होगई। क्रमशः निराहार अवस्था में तीन दिन बीत गये, चौथा दिन आया, तब भी कुछ खाने को न मिला। रात में फिर वैसी ही भूख लगी; पेट में ज्वाला, वमन, तन्द्रा, हृत्कम्प, उन्माद और बेहोशी मालूम होने लगी। मैं बहुत देर तक रोई। फिर यह सोच कर, कि अब मरने ही में कुशल है, ज्यों त्यों कर पड़ रही।

"सारी रात बेचैनी में कटी। एक बार भी नींद न आई। क्षुधा के मारे पाकस्थली में बड़ी कठिन यन्त्रणा होने लगी। सबेरे मेरे नवयुवक सर्कार ने खूब ज़ोर से मुझे पुकार कर कहा-'सुसान, सुसान! देखो, देखो, मेरी माँ मर रही है।" मैंने ज़रा सिर उठा कर देखा, वह तब तक मरी न थी, पर उसके जीने का भी कोई लक्षण न था।

"मैं उदर की यन्त्रणा से न उठ सकी। इसी समय सब लोग चिल्ला उठे-'जहाज़ जहाज़!' तब सभी लोग मारे खुशी के शोर-गुल मचाते हुए उछलने-कूदने लगे। मैं पड़ी [ २६७ ] पड़ी सब सुनने लगी। इसके बाद आप हमारे उद्धार के लिए आ गये।"

मैंने भूख से मर जाने का ऐसा वर्णन आज तक न सुना था और न ऐसा भयङ्कर दृश्य ही इसके पूर्व कभी देखा था। उस युवक ने भी ऐसे ही अपने ऊपर बीती कितनी ही बाते कहीं, किन्तु उसे थोड़ा थोड़ा आहार मिलता गया था, इससे उसका वर्णन वैसा लोमहर्षण न हुआ जैसा उस दासी का था।