राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का स्थलमार्ग से स्वदेश को लौटना

राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३६८ से – ३८२ तक

 

क्रूसो का स्थलमार्ग से स्वदेश को लौटना

हम लोग फ़रवरी महीने के पहले ही पेकिन से रवाना हुए। हमारे साथ अठारह ऊँट और आठ घोड़े थे। रेशमी कपड़े, छींट, लवङ्ग, जायफल, ज़रीदार वस्त्र और चाय आदि अनेक प्रकार की सामग्री ऊँटों और घोड़ों पर लाद ली थी।

हम लोगों का दल एक छोटी मोटी फ़ौज के बराबर था। सब मिलाकर एक सौ बीस आदमी थे। तीन चार सौ घोड़े थे। और भी कुछ चौपाये थे, जिन पर चीजें लदी थीं और आदमी भी सवार थे। सभी लोग अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित थे। कोई भी हथियार से खाली न था। रास्ते में तातारी डाकुओं का बेहद भय था।

इस दल में सभी जातियों के मनुष्य थे। यूरोप के कई देशों के यहूदी, चीनी तथा और भी कितनी ही जातियों के लोग थे।

हम लोगों के साथ पाँच पथ-प्रदर्शक थे। सभी लोगों ने चन्दा कर के उनको कुछ रुपया दे दिया था। उसी रुपये से रास्ते में साईसों के लिये खाना और पशुओं के लिए दाना-घास खरीदी जाती थी। दल में एक व्यक्ति इसलिए प्रधान मुकर्रर किया गया था कि मार्ग में उसी की आज्ञा के अनुसार सबको चलना होगा।

रास्ते में दोनों तरफ़ कुम्हारों की बस्ती थी। वे लोग चीनी मिट्टी के बर्तन बनाते थे। रास्ते में एक मकान देखा। उसकी दीवार और छत आदि सभी चीनी मिट्टी की थी। प्रभातकालिक सूर्य की प्रभा में वह स्वच्छ तुषार की भाँति झकाझक कर रहा था। उस मकान की सफ़ेद दीवारों पर नीले रङ्ग की भाँति भाँति की तसवीरें अङ्कित थीं। इससे उसकी उग्र स्वच्छता कुछ कोमल हो गई थी। इस मकान की शोभा बड़ी विलक्षण थी। दल के मनुष्य रुके नहीं, नहीं तो मैं यहाँ कुछ दिन रह कर इस मकान को जी भर कर देख लेता। बाग़ के भीतर चीनी मिट्टी ही की मूर्तियाँ बनी थी। तालाब का घाट चीनी मिट्टी का बंधा था। चीनी मिट्टी का सफ़ेद हौज़ बना था। उसमें लाल रङ्ग की मछलियाँ थीं। सभी सुन्दर और सभी दर्शनीय थे।

इस मनोरम दृश्य को देखते देखते मैं दल से पीछे रह गया। दो घंटे बाद काफ़िले में आ मिला। इस भूल के कारण मुझे जुर्माना देना पड़ा और दलपति से क्षमा माँगनी पड़ी। यह भी अङ्गीकार करना पड़ा कि अब ऐसी भूल न करूँगा और सँभल कर रहूँगा।

दो दिन के बाद हम लोग चीन की प्रसिद्ध दीवार के पार हुए। तातार-देशीय डाकुओं के आक्रमण से देश को बचाने के लिए यह दीर्घ-दीवार बनाई गई थी। हमारे दल के लोग जितनी देर तक दीवार पार करते रहे उतनी देर तक मैं एक तरफ खड़ा होकर दीवार के चारों ओर जहाँ तक देख सका देखता रहा।

दीवार पार होते ही बीच बीच में अश्वारोही तातार डाकुओं के साथ भेट होने लगी। वे लोग निरे डाकू थे। मुसाफिरों का माल लूटना ही उनका काम था। उन लोगों के पास न कोई अच्छा अस्त्र-शस्त्र था, न वे लोग आक्रमण करने का ढङ्ग जानते थे। उन लोगों की पूँजी तीर-धनुष और टट्टू थे। वे लोग बीच बीच में हम लोगों पर आक्रमण करने लगे। किन्तु हम लोगों की बन्दूक़ के आगे उनकी एक न चली। वे भी तीर चलाने में बड़े दक्ष थे। उनके तीर का लक्ष्य प्रायः व्यर्थ न जाता था। भाग्यवश हम लोग किसी खतरे में न पड़े।

हम लोग नगरों से निकल कर मैदान में आ गये। जिधर दृष्टि जाती थी उधर मैदान ही मैदान देख पड़ता था। देखते ही जी घबरा उठता था। भय से हृदय काँप उठता था। हम लोग एक महीने तक इसी भाँति मैदान का सफ़र करते रहे। कभी कभी रास्ते में तातारों के छोटे छोटे दलों के साथ भेंट हो जाती थी, पर कोई कुछ बोलता न था। हम लोग भी उनकी ओर दृक्पात न कर के चुपचाप चले जाते थे।

मैदान पार कर के हम लोग एक गाँव में पहुँचे। वहाँ ऊँट और घोड़े बिकते थे। मुझे एक ऊँट मोल लेने का शौक़ हुआ। मैंने एक आदमी से एक ऊँट लाने को कहा। वह ले आता, किन्तु मेरे सभी कामों में उलझन लगी रहती थी, इससे मैं स्वयं गया। गाँव से दो मील पर मैदान के बीच ऊँटो और घोड़ों का बाज़ार था। मैं पगडंडी की राह से चला। साथ में वही वृद्ध पथ-दर्शक और एक चीनी मनुष्य था।

हम लोग एक ऊँट खरीद कर लौटे आ रहे थे। इसी समय पाँच तातारी घुड़सवार दौड़ कर आये। उनमें दो आदमी तो ऊँट छीन कर ले गये और तीन आदमियों ने आगे से आकर हम लोगों को घेर लिया। मेरे साथ सिर्फ़ एक तलवार थी और कोई अस्त्र न था। हम तीनों पैदल आदमी उन घुड़सवारों का कर ही क्या सकते थे? तथापि मुझको तलवार निकालते देख पहला तातारी ठिठक कर खड़ा हो रहा। वे लोग ऐसे भीरु थे। किन्तु दूसरे ने पीछे से आकर मेरे सिर पर लाठी मारी। मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। दैवयोग से वृद्ध के पाकेट में एक पिस्तौल थी। उन्होंने झट पिस्तौल निकाल गोली भर कर उस तातार डाकू को मार डाला, और जिस तातारी ने हम लोगों पर पहले आक्रमण किया था उस पर तलवार चलाई। तलवार उस तातारी को न लग कर घोड़े के कान को काटती हुई उसको गर्दन में घुस गई। इससे वह जख्मी होकर डर से हाँफता हुआ सवार को लेकर बड़े वेग से भाग चला। बहुत दूर जाकर उसने पिछली टाँगों के बल खड़े होकर सवार को गिरा दिया और आप भी उस पर गिर पड़ा। तीसरा तातारी डाकू अपने को असहाय देख वहाँ से भाग निकला।

इतनी देर बाद मुझे कुछ होश हुआ। जान पड़ा, जैसे गाढ़ी नींद से सोकर उठा हूँ। फिर सिर में वेदना मालूम होने पर मैंने हाथ से टटोल कर देखा तो हाथ में लोहू लग गया। तब मुझे सब बात याद हो आई। मैं झट उछल कर खड़ा हुआ और तलवार की मूठ पकड़ी, परन्तु तब वहाँ कोई शत्रु न था। मुझको खड़े होते देख वृद्ध पोर्चुगीज़ ने दौड़ कर मुझे छाती से लगा लिया। फिर वह देखने लगा कि मेरे सिर में कैसी चोट लगी है। चोट गहरी न थी। दो ही तीन दिन में ज़ख्म भर आया। ऊँट के बदले मुझे तातार का घोड़ा मिला। खैर, यही सही। धीरे धीरे हम लोग एक शहर में पहुँचे। वहाँ खबर मिली कि दस हज़ार तातारी लुटेरे चले आ रहे हैं। इसकी सूचना सभी बटोहियों को दी जा रही है। अब क्या उपाय किया जाय? शहर के अध्यक्ष ने हम लोगों के साथ पाँच सौ चीनी सैनिक कर दिये। वे हम लोगों को कुछ दूर तक पहुँचा कर लौट आवेंगे।

तीन सौ सैनिक आगे और दो सौ पीछे चले। हम लोग दोनों पार्श्वों में होकर, माल लदे हुए घोड़ों ओर ऊँटों को बीच में करके, रवाना हुए। अब हम लोग पन्द्रह-सोलह मील लम्बी चौड़ी मरुभूमि में आ गये। जिधर देखो उधर बालू का मैदान नज़र आता था। दूर तक धूल उड़ते देख कर हम लोगों ने ताड़ लिया कि शत्रु-दल समीप आ गया। चीनी सैनिक जो पहले अपनी बातूनी वीरता की झड़ी बाँध उछलकूद कर रहे थे वे शत्रु-दल को सामने आते देख बार बार पीछे की ओर घूम कर देखने लगे। सैनिकों के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है। यह पीठ दिखलाने का पूर्वरूप है। मैंने उनका लक्षण ठीक न देख कर अपने यूथनायक से जाकर कहा। तब हमीं लोग पचास पचास मनुष्यों की टोली बाँध कर उन सैनिकों के दहने-बाएँ जाकर उन्हें साहस देने लगे।

देखते देखते तातारी डाकू आँखों के सामने आ गये। वे लोग गिनती में दस हज़ार से कम न रहे होंगे। उनको निकट आते देख हम लोगों ने बन्दूक़ों से उनकी अभ्यर्थना की। वे लोग इसका कुछ उत्तर न देकर एक तरफ़ से रास्ता काट कर निकल गये। हम लोगों के साथ कुछ छेड़-छाड़ नहीं की। यह देख कर हम लोगों ने आराम से साँस ली। इतने लोगों के साथ युद्ध करने से निःसन्देह सर्वनाश होता।

देखते देखते तातारी डाकू आँखों के सामने आगये।......उनको निकट आते देख हम लोगों ने बन्दूक़ों से उनकी अभ्यर्थना की।—पृ॰ ३७२

हम लोगों ने आपस में चन्दा करके चीनी सैन्य को पुरस्कार देकर बिदा कर दिया। रास्ते में कई एक बड़ी बड़ी नदियाँ और बड़े बड़े बालू के मैदान पार करने पड़े। १३ वीं अपरैल को हम लोग रूस के राज्य में पहुँचे।

संसार में इतना बड़ा राज्य दूसरा नहीं है। इसके पूरब चीन सागर, उत्तर में ध्रुव महासागर, दक्षिण में भारत समुद्र और पच्छिम में बाल्टिक समुद्र है।

इस देश के लोग बड़े असभ्य होते हैं। एक जगह देखा कि गाँव के लोग बड़े समारोह से भगवान की पूजा कर रहे है। भगवान् एक पेड़ का तना काट कर बनाये गये थे। उस काष्ठनिर्मित मूर्ति को ही वे लोग भगवान् मान कर आराधना करते थे। मूर्ति भी सुन्दर नहीं, साक्षात् यमदूत सी भयङ्कर और भूत सी देखने में कुरूप थी। विचित्र आकार का मस्तक था। उसके दोनों तरफ़ भेड़े के सींग की तरह दो बड़े बड़े कान थे। करताल की तरह आँखे, खाँड़े के सदृश नाक और चौकोन मुँह के भीतर सुग्गे की चोंच की तरह टेढ़े दाँतो की पंक्ति थी। ऐसी शकल की मूर्ति देख कर किसे श्रद्धा उत्पन्न होगी? उस पर भी उसके हाथ पैर नहीं। सिर पर चमड़े की टोपी थी। उसमें दो सींग जड़े थे। सम्पूर्ण कलेवर चमड़े से ढका था। यही उनके आराध्यदेव थे। इसीका वे पूजोत्सव मना रहे थे।

यह जूजू नामक देवता गाँव के बाहर प्रतिष्ठित था। मैं इसे देखने गया। सोलह सत्रह स्त्री-पुरुष उस मूर्ति के सन्मुख धरती में पड़े थे। मुझको आते देख वे लोग कुत्ते की तरह भों भों करके मेरी ओर दौड़े। तीन पुरोहित क़साई की तरह हाथ में खड्ग लिये खड़े थे। कई एक बकरे और अन्य चौपाये पड़े थे जिनका सिर काट लिया गया था। बेचारे निर्दोष पशुओं को पकड़ पकड़ कर जूजू देवता के आगे बलिदान दिया गया है।

ईश्वर की सृष्टि में जितने प्राणी हैं उन सब में श्रेष्ठ मनुष्य ही है। ईश्वर ने उसको ज्ञान दिया है। उस ज्ञान का ऐसा कुव्यवहार देख कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ। अपने हाथ के बनाये एक अद्भुत आकार के पदार्थ को देवता समझ कर पूजना कैसी मूर्खता है? इस बात को सोचते सोचते मुझे अत्यन्त क्रोध हुआ। मैंने तलवार से उस मूर्ति के सिर पर की टोपी काट डाली, और मेरे साथी ने उसके बदन पर से चमड़े की ओढ़नी खींचली। जिन लोगों का वह देवता था वे लोग शोरो-गुल मचा कर रोने लगे। बड़ा हल्ला हुआ। देखते ही देखते तीन चार सौ आदमी धनुष-बाण लेकर वहाँ आ गये। लक्षण ठीक न देख कर हम लोग वहाँ से खिसक गये।

इस गाँव से चार मील पर हम लोगों के साथी वणिक डेरा डाले थे। तीन दिन वहाँ रह कर हम लोगों को कुछ घोड़े खरीदने थे। क्योंकि हम लोगों के अनेक घोड़े मार्गश्रम से बेकाम हो गये थे। समय का यह सुयोग पाकर हम तीनों ने सलाह की कि इस विचित्र देवता को किसी तरह ध्वंस करना चाहिए। एक काठ के कुन्दे को परमेश्वर मान कर पूजा करना परमेश्वर का अपमान करना है।

हम लोग तातारी का छद्मवेष धारण कर रात होने पर चुपचाप मूर्तिविध्वंस करने चले। ग्यारह बजे रात को हम लोग मूर्ति के पास पहुँचे। उसके समीप एक घर के भीतर वही तीनों पुजारी पाँच छः व्यक्तियों के साथ ग़प शप कर रहे थे। बाहर अंधेरा था। घर में एक चिराग टिमटिमा रहा था।

हमने निश्चय किया कि पहले इन लोगों को गिरफ्तार कर के तब काठ के कुन्दे में आग लगा कर उसे जला देंगे इसलिए हम ने किवाड़ में जाकर धक्का मारा। तब एक शख़्स किवाड़ खोल कर बाहर आया। उसको पकड़ कर हम लोगों ने झट उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और हाथ-पाँव बाँध एक तरफ़ डाल दिया। दूसरे व्यक्ति के निकलने की अपेक्षा से हम लोग देर तक बैठे रहे, पर कोई न निकला। यह देख कर हमने फिर किवाड़ों में धक्का दिया। दूसरे व्यक्ति के घर से बाहर होते ही वही व्यवहार किया गया जो पहले के साथ किया गया था। ऐसे ही हमने कई व्यक्तियों को बाँध लिया। बाको कई व्यक्ति कुछ भेद न समझ कर भय से ऐसे निस्तेज हो गये थे कि उन्होंने बिना कुछ कहे-सुने बन्धन स्वीकार कर लिया। हम लोग उन्हें उसी अवस्था में, उनके मुँह बन्द किये, उनके देवता के समीप ले आये और उनकी आँखों के सामने उस भयानक मूर्ति को अलकतरा, तेल और बारूद से पोत कर के उसमें आग लगा दी।

इस काम को इस तरह पूरा करके हम लोग रातोरात अपने दल में आ मिले और यात्रा का सामान दुरुस्त करने लगे जैसे हम लोग बड़ी शान्त-प्रकृति के मनुष्य हो, कुछ जानते ही नहीं। हम लोगों पर किसी ने कुछ सन्देह भी नहीं किया। किन्तु यह मामला थोड़े ही में न निबटा। दूसरे दिन ग्रामनिवासियों ने मिल कर रूस के हाकिम के पास जाकर नालिश की। ये लोग नाममात्र के लिए रूस के अधीन थे। ये बात की बात में बिगड़ बैठते थे। रूस के हाकिम ने पहले इन लोगों को मीठी मीठी बातों में भुलाने की चेष्टा की और दोषी को पकड़ कर पूरे तौर से दण्ड देने की बात कह कर उन्हें धैर्य दिया। ग्रामवासी लोग सूर्यमण्डलवर्ती चामचीथौङ्गु देवता के शोक में आर्तनाद करने लगे।

रूस के शासक ने हमारे दल में चुपचाप यह खबर भेज दी कि "तुम्हारे दल में यदि किसी ने यह अपकर्म किया हो तो वह शीघ्र यहाँ से भाग जाय"। हमारे दल में किसने यह काम किया है? यह मुँह देख कर परखना कुछ काम रखता था। जो हो, हम लोग दिन रात अविश्रान्त रूप से भाग चले। दो दिन के बाद देखा कि पीछे की ओर बेतरह धूल उड़ रही है। मालूम हुआ कि वे लोग हम सबों को पकड़ने आ रहे हैं। भाग्य से हम लोगों को सामने एक झील मिल गई। उसके चारों ओर परिक्रमा करके हम लोग उसके दक्खिन तरफ़ चले गये और हमारा पीछा करने वाले शत्रुगण झील के चारों ओर घूमघाम कर उत्तर ओर चले गये। हम लोग बेलाग बच गये।

तीसरे दिन वे लोग अपनी भूल समझ कर दक्खिन ओर लौट चले। उसी दिन सन्ध्या-समय वे हम लोगों के समीप आ गये; किन्तु हम पर कोई अत्याचार न कर के उन्होंने दूत भेज कर चामचीथौङ्ग देवता के अपमानकर्ता को पकड़ कर भेज देने का अनुरोध किया। उन्होंने कहलाया, यदि अपमान कारी को पकड़ कर भेज दिया तब तो अच्छा ही है, नहीं तो सबके सब मारे जाओगे। यह खबर सुन कर हम लोगों के दल में खलबली मच गई। सभी लोग परस्पर एक दूसरे का मुँह देखने लगे। दल में किसने ऐसा काम किया है? किसके चेहरे पर अपराध का चिह्न झलकता है? यह कौन जान सकता है?

हम लोगों के सर्दार ने कहला भेजा कि हमारे दल में किसीने ऐसा काम नहीं किया। इस बात से वे लोग सन्तुष्ट न होकर आक्रमण का उद्योग करने लगे।

हमारे दल का एक आदमी, रूस के शासनकर्ता के दूत का स्वाँग धारण कर, क्रुद्ध ग्रामवासियों के पास जाकर बोला-असली अपराधी का पता लग गया। वह पीछे की ओर भाग गया है।

उसकी बात पर विश्वास करके ग्रामवासी पीछे की ओर दौड़ पड़े। हम लोग झगड़े से बच कर आगे बढ़ चले।

रास्ते में एक लम्बा चौड़ा बालू का मैदान मिला। उसके पार होने में पूरे तेईस दिन लगे। इस मरुभूमि में पेड़-पौधे, और पानी कहीं कुछ नहीं था। गाड़ी पर पानी लाद लिया गया था। इसीसे लोगों के प्राण बचे।

हम लोग क्रमशः यूरोप के निकटवर्ती होने लगे। इन देशों में भी कितने ही लोग देखने में आये। पर सभ्यता उन लोगों में भी न थी। वे लोग भी मूर्तिपूजक थे, चमड़े की पोशाक पहनते थे। पोशाक देखकर कोई नहीं समझ सकता था कि उनमें कौन पुरुष है और कौन स्त्री। स्त्रियों के चेहरे पर ज़रा भी लावण्य था कोमलता नहीं झलकती थी। देश जब बर्फ से ढक जाता था तब ये लोग मिट्टी के नीचे गुफा बनाकर रहते थे। तातार देश के प्रायः हरेक गाँव में चामचीथोंगु देवता ही प्रधान है। यहाँ रहने वालों के घर घर में मूर्ति-पूजा होती है। इसके सिवा वे लोग सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, जल, वायु और बर्फ़ आदि समस्त प्राकृतिक पदार्थों को पूजते थे मानों प्रकृति ही उनकी देवी-देवता है। सम्पूर्ण प्रकृतिमयी सृष्टि में एक ईश्वर ही की शक्ति का विकाश है, इसका ज्ञान उन लोगों को कुछ भी नहीं है। वे लोग अविद्या के गाढ़ अन्धकार में पड़कर सभी को भिन्न भिन्न मानकर पूजते हैं।

सब आया इस एक में झाड़-पात फल-फूल।
कबिरा पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जिन मूल॥

क्रमशः हम लोग टोबालस्क नगर में उपस्थित हुए। हम लोग सात महीने से बराबर रास्ता चल रहे थे। अब पाला पड़ने लगा। जाड़े की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हम लोग चिन्तित हो उठे। किन्तु रूसी लोग उत्साह देकर कहने लगे कि चलने का मज़ा तो शीतकाल ही में है। सफ़र शीतकाल ही का अच्छा। जब जल, थल, पहाड़ और मैदान सभी स्थान कठिन बर्फ़ से ढँककर एक से चिकने हो जाते हैं तब उनके ऊपर बल्गा हरिण की बेपहिये की गाड़ी में बैठ कर दिन-रात चलने में बड़ा आनन्द और आराम मिलता है।

तुम लोगों का आनन्द और आराम तुम्हें मुबारिक हो। बर्फ से आच्छादित देश में मुझे तो विशेष सुख का अनुभव न होता था। हाय! इस समय मुझे वह अपना टापू स्मरण हो आया। वहाँ बराबर वसन्त ही बना रहता था। देह पर कपड़ा डालने की भी प्रायः आवश्यकता न पड़ती थी; और यहाँ यह दुरन्त दारुण शीतकाल की कठिन विभीषिका! कितना ही बदन में कपड़ा लपेटो तो भी बदन गरम न हो। इसी शीतप्रधान दारुण देश में रूस के क़ैदी निर्वासित किये जाते हैं। यहाँ रूसी सरकार के रोष से दण्डित तथा निर्वासित कितने ही भद्र नर-नारियों को हम लोगों ने देखा। बहुतों के साथ बात चीत की। उनमें प्रायः सभी बड़े शिक्षित और धार्मिक थे। वे लोग और कुछ अपराध तो नहीं, केवल सच्ची भक्ति और श्रद्धा से देशसेवा करते हैं। ऐसा करना राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण हुआ। इसी कारण वे लोग दण्डित हुए हैं। एक युवक ने अपने धर्मज्ञान के द्वारा मुझे ख़ूब ही मुग्ध किया था। उनका सिद्धान्त यही था कि "अपने आत्मा को जीतना ही वास्तविक महत्व है। राजप्रासाद की अपेक्षा यह निर्वासन मेरे लिए कहीं बढ़कर सुखद है। इन्द्रिय और चित्तवृत्ति को रोक कर सब अवस्थाओं में प्रसन्न रहना ही मनुष्यज्ञान की चरम सार्थकता है। बाहरी यन्त्रणाओं को सह करके मन की शान्ति और सन्तोष को अव्याहत रखना ही धीरता है।" जब वे पहले निर्वासित हुए थे तब निष्फल क्रोध और अकारण क्षोभ से अपने हाथ से अपने सिर के बाल नोचते थे। किन्तु कुछ ही दिन के सोच-विचार और तत्त्व-चिन्ता से वे समझ गये कि संसार में सुख-दुःख केवल मन की अवस्था है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" चित्त की गति स्थिर हो तो सभी अवस्थाओं में सुख है। चित्तवृत्ति के निरोध ही का नाम योग है। यथार्थ में दुःख कुछ हई नहीं। संसार में यदि दुःख कुछ है तो अज्ञानता मात्र; जिसमें जितना ही अज्ञानता का भाग अधिक है वह उतना ही अधिक दुखी रहता है। ज्ञान का उदय होते ही दुःख का फिर कहीं नाम-निशान नहीं रहता। अहङ्कार, लोभ और इन्द्रियवशता त्याग देने पर धन, सम्पत्ति, सम्मान, और यश आदि सभी सुखोत्पादक विषय तुच्छ जान पड़ते हैं। सूर्य-चन्द्र का प्रकाश, वायु, मीठा जल और एक मुट्ठी अन्न तथा शारीरिक स्वास्थ्य ही प्राणियों के परममित्र हैं। इतनी वस्तुएँ मिल जाय तो शरीर यात्रा के लिए और कुछ दरकार नहीं। धर्म ही मनुष्य को सभी यन्त्रणाएँ सहने, प्रकृत महत्त्व प्राप्त करने, दुःख में सुख पाने और सांसारिक वासनाओं को जीतने की शिक्षा देता है। जो सर्वश्रेष्ठ सुखों के निधान आनन्द स्वरूप है उनका साक्षात् परिचय होने से तुच्छ वस्तुओं की ममता नहीं रहने पाती। परम आनन्द पाकर दुःख के समीप कौन जाना चाहेगा?

उनका यह आध्यात्मिक भाषण सुन कर मैंने निश्चय किया कि इस तरह की मानसिक अवस्था ही प्रकृत राजत्व है। जिसका मन ऐसा है वहीं सम्राट है। वही महाराजों का महाराज है।

चाह घटी चिन्ता गई मनुआँ बे परवाह।
जाको कछू न चाह है सो शाहनपति शाह॥

इन धार्मिक नर-नारियों की सङ्गति में हम लोगों के आठ महीने बड़े सुख से कटे। जाड़ा भी बीत चला। अब ज़रा ज़रा दिन का प्रकाश भी दिखाई देने लगा। मैं मई महीने में यात्रा का ठीकठाक करने लगा। मैंने उन ज्ञानोपदेशक महाशय से कहा, "यदि आप चाहें तो मैं आपको छिपाकर किसी अच्छी जगह पहुँचा सकता हूँ।" उन्होंने इसके लिए मुझको धन्यवाद देकर कहा-महाशय, अब आप़ मुझको ऐसा प्रलोभन न दें। मन बड़ा ही दुर्बल होता है। इतने दिनों की साधना एक ही घड़ी में खो बैठूँगा। मैं जहाँ हूँ वहीं रहूँगा। एक जगह स्थिर होकर रहने ही में सुख है। हाँ, यदि आप अनुग्रह करना चाहते है तो मेरे पुत्र को इस देश से मुक्त कर दें। यह मुझ पर ही एहसान होगा। इससे मै विशेष उपकृत हूँगा।

जून का प्रारम्भ होते ही मैं रवाना हुआ। मेरे साथ कुल बतीस ऊँट-घोड़े थे। और सब साथी, जो जहाँ के थे, क्रम क्रम से चले गये। उतने बड़े दल में एक में ही यात्री बच रहा था। छद्मवेशी रूसो सज्जन और उनका नौकर हमारे नये साथी हुए। हम लोग रेगिस्तान पार हुए। तदनन्तर हम प्रधान-पथ छोड़ कर टेढ़े मेढ़े रास्ते से चलने लगे। किसी शहर में जाते भी न थे। क्या जाने, मेरे साथी छद्मवेशी भद्र महाशय को कोई पहचान ले।

क्रमानुगत हम लोगों ने यूरोप देश में प्रवेश किया। एक जंगल के भीतर होकर जाते समय हम लोगों का जीवन-धन सब लुटेरों के हाथ जाते जाते बचा। ये लोग भी तातारी घुड़सवार लुटेरे थे। गिनती में पच्चीस से कम न थे। वे हम लोगों पर आक्रमण करने की घात में लगे। किन्तु वे लोग जिस तरफ़ जाते थे उसी तरफ़ हम लोग भी जाते थे। इस तरह हम लोगों ने बड़ी देर तक उन्हें घुमा-फिरा कर हैरान किया। रात होने पर वे लोग चले गये । हम लोगों ने भी एक झाड़ी की आड़ में जाकर आश्रय लिया।

कुछ ही देर बाद हम ने देखा कि क़रीब अस्सी डाकू हम लोगों का माल-असबाब लूटने के लिए चले आ रहे हैं। निकट आते ही उनको हम लोगों ने गोली मारी। उससे बहुत लोग मरे और घायल हुए। और लोग डर कर वहाँ से दूर भाग गये। हम लोग उनके कई घोड़े पकड़ लाये। सारी रात जागते रह कर हम लोग प्रातःकाल की प्रतीक्षा करते रहे । सुबह होते होते देखा कि शत्रुओं की संख्या बहुत बढ़ गई है । किनारे आकर जहाज़ उलटना चाहता है ! सब जगह से बच कर अन्त में यह क्या आफत आई !

हम लोग दिन भर चुपचाप बैठे रहे । डाकुओं ने हमारे साथ कोई छेड़छाड़ न की । हम लोगों ने भो उनसे कुछ न कहा। साँझ होने पर हम लोगों ने भागने का विचार करके उन्हें धोखा देने के लिए खूब आग प्रज्वलित की और ऐसा प्रबन्ध किया जिसमें सारी रात आग धधकती रहे। इसके बाद हम लोग अँधेरी रात में घोड़ों और ऊंटों को साथ ले जंगल के भीतर ही भीतर चुपचाप भाग चले । आग को धधकते देख लुटेरे निश्चिन्त बैठे थे । उन्हें यह धारणा थी कि हम लोग वहीं उनके हाथ से मरने के लिए बैठे हैं ।

हम लोग एक वर्ष पाँच महीने चल कर अन्त में, सब विघ्न बाधाओं से बचकर, समुद्र के तट पर पहुंच गये । रूसी सजन ' जो मेरे साथ आये थे वे, यहाँ से जर्मनी चले गये ।

१७०५ ईसवी के जनवरी महीने की १० वीं तारीख को लगभग ३५ हज़ार रुपया ले कर दस वर्ष नौ महीने के अनन्तर मैं अपने देश इंग्लैंड को लौट आया । में अब बहत्तर साल का हुआ। इतने बड़े जीवन में देशाटन के अनेक उपद्रवो को झेल कर अब मे परलाक की दीर्घयात्रा के लिए शान्तिमय के पथ का पथिक होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।

ईश्वर ने जल-थल में जैसे राबिन्सन क्रूसो की रक्षा की वैसे ही सबकी रक्षा करें। शान्ति: ! शान्तिः !! शान्तिः !!!