राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का भागना।
क्रूसो का भागना।
एक बहुत बड़ी डोगी मेरे अधीन हुई । उसे छोटा मोटा जहाज़ ही कहना चाहिए । मेरे लिए यह कुछ सामान्य सुयोग न था । जब मेरे मालिक चले गये तब मैं मछली पकड़ने का बहाना करके भागने का उद्योग करने लगा ।
किन्तु भाग कर किस ओर कहाँ जाऊँगा इसका कुछ ठीक न
था; केवल वहाँँ से किसी तरह भाग निकलना ही मेरा
उद्देश्य था ।
मैंने जलयात्रा के लिए कुछ अधिक परिमाण में खाद्य सामग्री लेने के अभिप्राय से छल करके मूर से कहा—- "मालिक के लिए जो खाने की चीज़े लाकर रक्खी हैं, वे हम लोग खा लें, यह ठीक नहीं; हम लोग अपने लिए कुछ खाद्य अलग ले लें" । उसने भी मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर कहा, "हाँ, यह बात सही है ।" फिर वह बड़ी फुरती से एक बहुत बड़े टोकरे में खाने की सामग्री और तीन घड़ों में मीठा जल भर कर ले आया । मूर जब खाद्य वस्तु लाने गया था । तब मौका पा कर मैंने भी कुछ खाने-पीने की वस्तुएँ ला कर इस ढंग से वहाँ रख दीं कि जिसके देखने से मालूम हो कि वह पहले ही से मालिक के लिए लाकर रक्खी गई हैं । खाने-पीने की वस्तुओं के अतिरिक्त मैंने बीस-पच्चीस सेर मोम,थोड़ा सूत,एक कुल्हाड़ी, एक कुदाल और एक हथौड़ी चुपचाप छिपा कर नाव में रख ली थी । इन सब सामग्रियों से मेरा यथेष्ट उपकार हुआ था । विशेष करके मोमबत्ती बनाने से मुझे बड़ी सहायता मिली थी। मैंने मूर को एक बार और ठगा । उससे कहा, “मालिक की बन्दूक तो नाव में है ही, कुछ गोली-बारूद पास रहती तो हम लोग चिड़ियों का भी शिकार कर सकते।" यह सुन कर मूर ने उसी समय कुछ छर्रे, बारूद और गोली आदि ला कर मेरे हवाले किया । मैंने उन चीज़ो को अपने पहले के लाये हुए सामान के साथ रख दिया । इस प्रकार भागने का सब सामान ठीक करके हम लोग रवाना हुए । बन्दर के सामने जो किला था, उसके पहरेदार हमारे परिचित थे । इसलिए उन लोगों ने मुझ पर विशेष लक्ष्य न किया । हम लोग बन्दर से डेढ़ दो मील पर जा कर, नाव का पाल गिरा कर, मछली पकड़ने लगे । उस समय हवा मेरी इच्छा के विरुद्ध बह रही थी । उत्तरीय वायु बहने से मैं स्पेन के उपकूल या केडिज उपसागर में जा पहुँचता । किन्तु हवा जैसी चाहे बहे, मैं इस कुत्सित स्थान को त्याग कर ज़रूर जाऊँगा—यह मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया था । पीछे जो भाग्य में बदा होगा, होगा । भविष्य की चिन्ता भविष्य में की जायगी, अभी जिस तरह हो यहाँ से रफूचक्कर होना ही ठीक है ।
हम लोग बड़ी देर तक बनसी डाले बैठे रहे, पर एक भी
मछली नहीं पकड़ सके; कारण यह कि मछली मेरी बनसी
को निगल भी जाती थी तो भी मैं लग्गी को नहीं खींचता
था । मैंने मूर से कहा—यहाँ मछली पकड़ने की सुविधा न
होगी, ज़रा गहरे पानी में चलो । वह राज़ी होगया । वह नाव
के अग्र भाग की ओर था, उसने पाल तान दिया । मेरे हाथ
में नाव खेने का लग्गा था । मैं धीरे धीरे नाव को खेकर
किनारे से एक डेढ़ मील दूर ले गाया । तब मैंने मछली
पकड़ने का बहाना करके नाव को ठहराया और उस बालक
के हाथ में लग्गा देकर मैंने नौका के सम्मुख की ओर गया ।
वहाँ ज़ाकर, मानो मैं कोई चीज़ खोज रहा हूँ इस तरह का
भाव दिखा कर, मैं मूर के पीछे गया और एकाएक उसकी
कमर पकड़ कर खूब ज़ोर से उसे उठा कर पानी में फेंक
दिया । वह समुद्र में गिर कर सूखी लकड़ी की तरह तैरने
लगा । वह नाव पर बिठा लेने के लिए विनती करके कहने
लगा कि चाहे जितनी दूर चलो, मैं बिना कुछ उज्र किये तुम्हारे
साथ चलूँगा । वह तैरने में अत्यन्त कुलश था । वह मेरी नाव
के पीछे पीछे बड़े वेग से तैर कर आने लगा । उस समय हवा
का उतना ज़ोर न था । इससे आशंका होने लगी कि वह नाव
को शीघ्र ही पकड़ लेगा । तब मैं झट बजरे की कोठरी में से
बन्दूक ले आया, और उस (मूर) की ओर लक्ष्य कर के कहा
"देखो, मैं तुम पर प्रहार करना नहीं चाहता और यदि तुम
गोलमाल न करोगे तो तुम पर अस्त्र प्रहार करूगा भो नहीं;
तुम तो तैरना खूब जानते हो, अभो समुद्र भी शान्त है ।
इसलिए तैर कर समुद्र के किनारे चले जाओ । यदि तुम मेरे
पास आओगे तो समझ रक्खो, मैं इसी बन्दूक से तुम्हारी
खोपड़ी उड़ा दूँगा । जिस तरह भी हो, मैं स्वतन्त्र होने
का संकल्प कर चुका हूँ ।" यह सुन कर वह मुँह
फिरा कर किनारे की ओर जाने लगा । वह जैसा तैराक था
उससे वह निःसन्देह बिना किसी क्लेश के किनारे पहुँच
गया होगा।
इकजूरी लड़के को डुबा कर मैं मूर का साथ ले लेता तो मुझे बहुत सुभीता होता; किन्तु उस पर विश्वास न था । मूर के चले जाने पर मैं उस छोकरे की ओर घूम कर बोला–“क्यों रे लड़के ! तू मेरा विश्वासपात्र होकर रहेगा न ? नहीं तो तुझे भी समुद्र में डाल दूँगा ।" उसने मेरे मुँह की ओर ताक कर ऐसे सरलभाव से हँस कर शपथ की कि मैं उस पर अविश्वांस न कर सका ।
मूर जब तक तैरता हुआ दिखाई दिया था तब तक मैंने नाव की माँगी को समुद्र की ही ओ घुमा रक्खा था, राबिन्सन क्रूसो
मानो मैं जिब्राल्टर मुहाने की ही ओर जा रहा हूँ । जिसके
हृदय में किञ्चित् भी बुद्धि का लेश होता वह इसी तरह सोचता, क्योंकि कौन ऐसा होगा जो अपनी खुशी से असभ्य देश में रह कर नरशत्रु काफ़िर या हिंस्त्र जन्तु के मुँह में पड़ने की इच्छा करेगा ?
मैं सायंकाल के अन्धकार में अन्तर्हित होने की इच्छा से
नाव की गति को घुमा फिरा कर किनारे के आस पास से
होकर दक्खिन और पूरब की ओर जाने लगा । उस समय
हवा खूव ठिकाने से बह रही थी, समुद्र भी स्थिर था; मेरी
नाव पाल के सहारे चल पड़ी । दूसरे दिन पिछले पहर जब
मैंने समुद्र का तट देखा तब मैं शैली बन्दर से क़रीब
डे़ढ़ सौ मील दक्खिन ओर जा पड़ा था । वहाँ एक भी
मनुष्य मेरे दृग्गोचर न हुआ । इससे जान पड़ा कि मैं मरक्को
के सुलतान या निकटवर्ती ऐसे ही किसी राजा के राज्य से
बाहर निकल आया हूँ । मैं किस मुल्क में आ पहुँचा,
इसका कुछ ठिकाना नहीं । मूर लोगों के हाथों फिर बन्दी
हो जाने का भय मेरे हृदय में यहाँ तक प्रबल था कि कहीं पर
रुकने या स्थल में ठहरने की मेरी हिम्मत न पड़ती थी ।
वायु का क्रम पाँच दिन तक बहुत अच्छा था । मैं भी पाँच
दिन तक बराबर चलता ही रहा । नाव का पाल भी इस
बीच में कहीं नहीं उतारा । पाँच दिन के बाद हवा प्रतिकूल
होकर दखनही बहने लगी । तब मैंने निश्चय किया कि यदि
कोई जहाज़ मेरे पकड़ने के लिए पीछे आता भी होगा तो
प्रतिकूल वायु के कारण उसकी गति रुद्ध होगी वा उसे सन्तोष
करके लौट जाना पड़ेगा । अतएव अब लंगर डालने में कोई
क्षति नहीं । यह सोच कर मैंने एक छोटी नदी के मुहाने में
लंगर डाला । वह नदी कहाँ से निकल कर किस देश से होती हुई समुद्र में आ मिली हैं, या उसका नाम क्या है, इन बातों
का कुछ भी ठीक पता न लगा; न वहाँ किसी आदमी को ही
मैंने देखा । देखने की लालसा भी न थी । उस समय मेरे
मन में यदि कुछ इच्छा थी तो केवल सुस्वादु जल की । मैं इस
मुहाने में सन्ध्या समय पहुँचा; अन्धकार होते न होते हम
लोगों ने जंगली जानवरों की इतनी अद्भुत भंयकर गुर्राहट
और चीत्कार सुना जिससे भय के मारे हमारे प्राण सूख गये ।
वे कौन पशु थे और कैसे थे, यह हम लोग न जान सके । हम
सारी रात भय विह्वल दशा में पड़े रहे, एक बार भी नींद न
आई । बड़े बड़े वन्य पशु समुद्र के जल में प्रवेश कर रात भर
स्नान, क्रीड़ा और भीषण चीत्कार करते रहे ।
आखिर हमने उन जन्तुओं में से एक को नाव की ओर तैर कर आते देखा । उसकी गुर्राहट और श्वास निश्वास के प्रक्षेप से जान पड़ा कि वह बहुत ही बड़ा हिंस्त्रजन्तु होगा । इकजूरी ने कहा-“वह सिंह है ।" मैं सिंह के सम्बन्ध में जो कुछ जानता था उससे मैंने भी वही निश्चय किया । बिचारा इकजूरी भय से मृतप्राय होकर, लंगर उठाकर नाव खोल देने के लिए, मुझ से अनुरोध करने लगा । मैंने कहा--- "नहीं, लंगर उठाने की कोई ज़रूरत नहीं, यदि ज़रूरत होगी तो लंगर की रस्सी को बढ़ा दूँगा । इससे नाव इतनी दूर चली जायगी कि फिर कोई जानवर पास न जा सकेगा ।" इतने में देखा कि वह पशु नाव से करीब दो लग्गी के फासले पर आ गया । मैंने अचम्भे में आकर झट कमरे के भीतर बन्दूक लाकर उस पर गोली चला दी । बन्दूक की आवाज़ सुनते ही वह तुरन्त तैरता हुआ किनारे की ओर लोट चला । बन्दूक की आवाज़ होते ही समुद्र के तट पर और ऊपर स्थल भाग में ऐसा भयानक चीत्कार, हुंकार और कोलाहल होने लगा जिससे स्पष्ट मालूम हुआ कि उन जन्तुओं ने कभी बन्दूक की आवाज़ न सुनी थी । उनका भीषण नाद सुनकर मेरे मन में बड़ी चिन्ता हुई । अब कैसे किनारे उतरूँगा ? बाघ, सिंह आदि हिंस्त्र पशु या तत्तुल्य असभ्य मनुष्य इन दोनों में जिस किसी के पंजे में पड़ेंगे, फल हम लोगों के लिए एक सा ही होगा ।
जो हो, हम लोगों को पानी के लिए स्थल पर कहीं न कहीं उतरना ही होगा । क्योंकि हमारे पास कण्ठ भिगोने को भी थोड़ा सा जल न बच रहा था । इकजूरी ने कहा-—यदि तुम मुझको किनारे उतार दो तो मैं पीने का पानी खोज कर ला सकता हूँ । मैंने कहा--तुम क्यों जाओगे ? क्या मैं जाने लायक़ नहीं हूँ ?
इकजूरी–“नहीं, नहीं, तुम मत जाओ; यदि कोई हिंस्त्र जंगली जानवर आवेगा तो मुझी को खायगा, तुम तो भाग कर प्राण बचा सकोगे ।" उसने इस बात को ऐसे कोमल स्वर में कहा कि मैं मुग्ध होगया । मैंने कहा-- "अच्छा, तो हम तुम दोनों साथ साथ चलेंगे । यदि हिंस्त्र जन्तु हम लोगों को खाने दौड़ेगा तो उसे मार डालेंगे ।" निदान हम लोग जहाँ कत संभव था, नाव को किनारे की . ओर ले गये और दो घड़े तथा बन्दूक लेकर कुछ दूर तक पानी में उतर कर सूखी जमीन पर आये ।
नाव छोड़ कर मैं बहुत दूर तक जाने का साहस न
कर सका । क्या जानें, जगली लोग यदि जलपथ से आकर
हमारी नाव को जब्त कर लें । इकजूरी करीब एक मील
पर एक ढालू जगह देख कर उसी ओर गया । थोड़ी ही
देर बाद देखा, वह दौड़ा हुआ आ रहा है । मैंने समझा,
शायद किसी दुष्ट नरघाती मनुष्य ने उसका पीछा किया
है, या किसी हिंस्र को देखकर वह डर से भागा आ रहा है ।
मैं उसकी ओर दौड़ कर गया । उसके समीप जाकर मैंने
देखा, वह खरगोश के मानिन्द एक जानवर को मार कर
पीठ पर लटकाये लिये आ रहा है, यह देख कर मैं बहुत
खुश हुआ । मैंने उसका मांस चख कर देखा, अच्छा,
सुस्वादु था । विशेष आनन्द मुझे इस बात से हुआ कि
इकजूरी को मीठा पानी मिल गया और किसी जंगली
आदमी ने उस पर आक्रमण नहीं किया । इससे वह भी
बहुत प्रसन्न था ।
पानी के लिए हम लोगों को विशेष कष्ट न उठाना पड़ा । क्योंकि नदी का जल, भाटे के समय, मुहाने से कुछ ही दूर पर बहुत बढ़िया सुस्वादु था, ज़रा भी खारी न था । हम वहीं से अपनी कलसी भर लाये और खरगोश का मांस पका कर हम ने खाया-पिया । उस देश में कहीं आदमी का नाम निशान तक न देख कर हम फिर बहाँ से चलने को प्रस्तुत हुए ।
इसके पूर्व एक बार हम इस देश में वाणिज्य करने
आये थे । हम अटकल से इस बात का अनुभव कर रहे थे कि
यहाँ से कनेरी और केपवार्ड द्वीप-समूह बहुत दूर न होगा ।
हमारे मन में इस बात की आशा होने लगी कि अँगरेज़ लोग
जहाँ तिजारत करते हैं वहाँ पहुँचने से, संभव है, उन लोगों
का कोई जहाज़ देख पड़े और वे लोग हमारा उद्धार करें
यह प्रदेश बिलकुल जनशून्य था । मूर जाति के भय से
हबशी लोग इस देश को छोड़ कर दक्खिन ओर चले गये हैं ।
इस देश को ऊसर और हिंस्त्र जन्तुओं से भरा जान कर मूर
लोग भी इस पर अपना अधिकार नहीं जमाते । इसलिए
यह देश मनुष्यों से बिलकुल खाली पड़ा था ।
हम लोग यहाँ से बिदा होकर पानी लेने के लिए कई बार किनारे की सूखी भूमि में उतरे थे । एक दिन सवेरे एक जगह नाव लगा कर देखा, एक बहुत बड़ा सिंह एक पहाड़ की गुफा में पड़ा सो रहा है । हमारे साथ तीन बन्दूक़ें थीं । हमने तीनों में अच्छी तरह गोली बारूद भर दी । तदनन्तर सिंह के मस्तक को लक्ष्य करके गोली चलाई । सिंह अगले पाँघ का पंजा मुंह पर रक्खे सो रहा था । इससे गोली उसके माथे में नहीं पाँव में लगी । सिंह गरज कर जाग उठा और दौड़ कर ज्यों ही चलना चाहा त्यों ही लड़खड़ा कर गिर पड़ा । उसके घुटने की हड्डी टूट गई थी । वह तीन पाँवों के बल से फिर सँभल कर उठा । भयंकर गर्जन कर के उसने भागना चाहा । हमने दूसरी बन्दूक़ उठा कर उसके सिर को लक्ष्य कर फिर गोली चलाई । गोली की चोट खाते ही वह आर्तनाद कर के गिर पड़ा । और चटपटाने लगा । यह देखकर मैं खुश हुआ । इकजूरी साहस कर के, हाथ में बन्दूक़ लेकर, नाव से उतर गया । उसने सिंह के पास जाकर उसके माथे पर बन्दूक की नली रखकर गोली दाग दी । सिंह मर कर स्थिर हो गया ।
यह एक भारी शिकार हाथ लगा, इस में सन्देह नहीं ।
किन्तु यह खाद्य न था । निष्प्रयोजन तीन आवाजों की गोली-बारूद खर्च करने से हमारा मन बहुत उदास हो गया । हम
लोगों ने दिन भर परिश्रम करके सिंह का चमड़ा उतार लिया
और उसे नाव की छपरी पर सूखने को फैला दिया । वह दो
दिन की धूप लगने से अच्छी तरह सूख गया । फिर हम
उस पर सोने लगे ।
इसके अनन्तर लगातार दस बारह दिन तक हम दक्षिण दिशा की ओर चले; पानी की आवश्यकता न होने पर हम किनारे की भूमि पर न उतरते थे । हम लोगों की खाद्य सामग्री समाप्त हो चली, इसलिए हम बहुत थोड़ा थोड़ा खाने लगे ।
हम इस ताक में थे कि गैम्बिया या सेनिगल नदी के निकट जा पहुँचेंगे तो वहाँ गिनी, और ब्रेज़िल प्रभृति देश का वाणिज्य व्यवसायी कोई न कोई यूरोपीय जहाज़ मिल ही जायगा । यदि जहाज़ न मिलेगा तो हबशियों के हाथ में पड़कर मर मिटेंगे ।
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