राबिन्सन-क्रूसो/उपनिवेश में समाज और धर्म-संस्थापन

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उपनिवेश में समाज और धर्म-संस्थापन

इन अनेक घटनाओं के बाद इस टापू में मेरा आकस्मिक आगमन मेरे उपनिवेश-वासियों के लिए ईश्वर-प्रेरित आशीर्वाद ही की तरह सुखद हुआ था। मैंने इस टापू में आकर उन लोगों के सभी प्रकार के प्रभावों को दूर कर दिया। वे लोग मुझसे छुरी, कैची, कुदाल, खनती, और कुल्हाड़ी आदि उपयोगी औज़ार पाकर अपने अपने घर बनाने लग गये। विल एटकिंस पहले जैसा आलसी था वैसा ही अब ब्याह करने पर परिश्रमी हुआ। उसने अत्यन्त सुन्दर सुदृढ़ घर बनाया। उसमें चटाइयाँ बुन कर लगाईं। घर के चारों ओर खूब गोल घेरा बना दिया। उसके बीच में उसका घर अष्टदल कमल की भाँति शोभायमान हो रहा था। उसके प्रत्येक कोने में उसने खुब मज़बूत खम्भे की टेक लगा रक्खी थी। उसने अपनी ही बुद्धि से काठ की धोंकनी तथा लोहे की हथौड़ी और नेहाई बना कर काम चलाने लायक लोहे की कितनी ही चीज़ें तैयार कर ली थीं। [ ३०६ ]एटकिंस के घर में आँगन, दालान, चबूतरा और बरांडा सभी ऐसे सुन्दर थे और सर्वत्र ऐसी सफाई थी कि जो देखते ही बन आवे। एटकिंस के घर सा सुहावना घर मैंने और कहीं नहीं देखा। इस घर में एटकिंस और उसके दो साथियों के कुटुम्बी लोग रहते थे। जो व्यक्ति असभ्यों के हाथ लड़ाई में मारा गया था उसकी विधवा स्त्री अपने तीन बच्चों को लेकर यहीं रहती थी। और भी सन्तान सहित दो विधवाओं का वह प्रतिपालन करता था।

वे स्त्रियाँ भी गृह-कार्य में बड़ी चतुर थीं। उन्होंने अँगरेज़ पति पाकर अँगरेज़ी बोलना सीख लिया था। उनके लड़के भी अँगरेज़ी बोलते थे। मैंने उन सब बच्चों को जाकर देखा । सब से बड़े बच्चे की उम्र छः वर्ष की थी।

मैंने देखा, इस समय स्पेनियर्डों और अँगरेज़ों के बीच किसी तरह की अनबन न थी। दोनों मिल जुल कर अपना अपना काम करते थे। मैंने एक भोज देकर सबको सम्मानित किया। मेरे जहाज़ के रसोइये ने भोजन बना कर सब को खिलाया-पिलाया। बहुत दिनों बाद स्वादिष्ठ भोजन पा कर सभी लोग अपनी रसना को परितृप्त कर के प्रसन्न हुए।

भोज का जलसा समाप्त होने पर मैंने जहाज़ पर से वे चीज़ उठवा मँगाईं जो उन लोगों के लिए अपने साथ लाया था। उन लोगों में वे चीज़ मैंने इस हिसाब से बाँट दी कि जिसमें उन लोगों में पीछे से आपस में, समान भाग न मिलने के कारण, तकरार न हो। मैंने उन सौगाती चीज़ों को बराबर बराबर बाँट दिया।

मैं उन लोगों का यहाँ तक हितचिन्तक था, यह देखकर उन लोगों का हृदय प्रेम से पसीज उठा और सारा शरीर [ ३०७ ]पुलकित हो गया। उनकी आँखों से आँसू बह चले। उन लोगों ने एक वाक्य से स्वीकार किया कि वे लोग मुझको अपने पिता के तुल्य समझते हैं; वे लोग आजीवन मेरी अधीनता स्वीकार करके इसी द्वीप में मेरी प्रजा बन कर रहेंगे। बिना मेरी आज्ञा पाये कोई इस टापू का त्याग न करेगा।

वस्तु-वितरण के अनन्तर मैंने दर्जी, लुहार, बढ़ई आदि मिस्त्रियों को उन लोगों के सिपुर्द कर दिया। दर्ज़ी ने हर एक को एक एक कुर्ता सी दिया और स्त्रियों को सिलाई के कामों में खुब निपुण कर दिया। बढ़ई ने हम लोगों की बनाई टेबुल, कुर्सी आदि वस्तुओं को एक ही घड़ी में सुन्दर और सुडौल बना दिया।

इसके बाद मैंने अपनी प्रजा को खेती के उपयुक्त हथियार बाँट दिये। हरएक को एक एक कुदाल, खुरपी और खनती दी। बढ़ई के उपयुक्त हथियार विभक्त न करके एक बढ़ई रख दिया। मैं छुरी, कैंची और लोहे की छड़ें आदि बहुतायत से लाया था। वे वस्तुएँ साधारण भण्डार में रख दी गई। जिसे जब जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, उसे मिलेगी। उन लोगों के लिए मैं लोहा इसलिए बहुत लाया था, कि लुहार उससे उनके प्रयोजन की वस्तु बना देंगे।

इसके बाद मैंने हरएक को एक एक बन्दूक़ और बहुत सी गोली-बारूद दी। उन्हें पाकर वे लोग बहुत खुश हुए। अब वे हज़ारों असभ्यों का मुकाबला कर सकेंगे।

जिस युवक को और उसकी दासी को मैंने भूखों मरने से बचाया था, वे मेरे पास आकर कहने लगे कि "हम अब भारतवर्ष क्या करने जायँगे। आपकी आज्ञा हो तो हम इसी [ ३०८ ] टापू में रह जायँ।" मैंने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करके उन्हें भी अपनी प्रजा में सम्मिलित कर लिया। एटकिंस के घर के समीप ठीक उसी के घर के नक्शे का एक घर बनवा कर उस नवयुवक को रहने के लिए दे दिया।

मेरे साथ जो पुरोहित आये थे वे बड़े धार्मिक, शिष्ट और साम्प्रदायिक विषय में खूब पहुँचे हुए थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा-देखिए साहब, आपकी अँगरेज़ प्रजा असभ्य जाति की स्त्रियों से पति-पत्नी का सम्बन्ध जोड़कर निवास कर रही है। परन्तु इन लोगों ने सामाजिक प्रथा या कानून के अनुसार ब्याह नहीं किया है। ऐसी अवस्था में संभव है कि जब ये लोग चाहेंगे तब इन निराश्रया रमणियों को छोड़ देंगे। इसलिए, इस दोषोद्धार के हेतु, उनका उन स्त्रियों से विधिपूर्वक ब्याह करा देना चाहिए। विवाह बन्धन कुछ साधारण सम्पर्क नहीं है कि जब चाहे उससे अलग हो जायँ। जब आप उन लोगों के नेता हैं तब उन लोगों के सम्पत्ति-सम्बन्धी शुभाशुभ के आप जैसे भागी हैं वैसे ही उनके नैतिक शुभाशुभ के भी। आपको उचित है कि उनको यथाविधि ब्याह दें।

मैंने उनकी धर्मनिष्ठा देख प्रसन्न होकर कहा-मुझे इतना समय कहाँ? मैं दूसरे के जहाज़ का एक यात्री मात्र हूँ। यहाँ रहने के लिए मैंने बारह दिन की छुट्टी ली है। इसके बाद जितने दिन विलम्ब करूँगा उतने दिनों के लिए पचास रुपये रोज़ के हिसाब से हर्जाना देना होगा। यहाँ मुझको आज तेरह दिन हो गये। अधिक विलम्ब करने से मुझे भी इसी टापू में रहना होगा। इस बुढ़ापे में फिर निर्वासन का, दुःख भोगने की इच्छा नहीं होती। [ ३०९ ]पुरोहित ने कहा-तो मुझे आप यहाँ छोड़ते जायँ। मैं इन लोगों को धार्मिक शिक्षा दूँगा और इन लोगों के हृदय में ईश्वर की भक्ति स्थापित करने की चेष्टा करके अपने को धन्य मानूँगा।

उनके मुख की उज्वल शोभा और उत्साह देखकर मैं दङ्ग हो रहा। आख़िर मैंने पूछा-"क्या आपने इस बात को भली भाँति सोच लिया है कि इस निर्जन टापू में रहना कितना कष्टकर है? और यहाँ से इस जीवन में देश लौट जाने की संभावना भी नहीं है। हो सकता है, इसी टापू में जीवन-लीला समाप्त हो।" ये बातें जानकर भी वे इस टापू में रहने को राजी हुए। उन्होंने कहा-इन धर्महीन नरनारियों के मन में परमेश्वर की महिमा और दयाभाव का ज्ञान उपजाकर यदि इन्हें सत्पथ पर ला सकूँगा तो मैं अपने जीवन को सफल समझूँगा। तब मेरा यह द्वीपान्तरवास भी परमसुख का कारण होगा। हाँ, यदि आप कृपा करके अपने सेवक फ़्राइडे को यहाँ छोड़ जायँ तो मेरा विशेष उपकार हो। यह मेरा दुभाषिया बनकर मुझे इस काम में यथेष्ट सहायता देगा।

फ़्राइडे को मैं अपने पास से जुदा नहीं कर सकता था। उससे बिलग होने की बात सुनकर मैं अधीर हो उठा। ऐसे आज्ञाकारी निष्कपट भृत्य को प्राण रहते क्या कोई अपनी आँखों के सामने से हटा सकता है? मैंने पुरोहित से कहा- "फ़्राइडे को छोड़ना मेरे लिए नितान्त कष्टकर है। किन्तु आप जिस काम में अपने जीवन का उत्सर्ग कर रहे हैं उस काम की सहायता के लिए मुझे भृत्य-विच्छेद का कष्ट स्वीकार करना [ ३१० ] लाज़िमी है। परन्तु बात यह है कि मैं किसी तरह फ्राइडे को छोड़ भी दूँ तो वह मुझे न छोड़ेगा।

यह सुन कर पुरोहित चिन्तित हुए। वे बेचारे फ्रांसीसी थे। वे किसीकी भाषा नहीं समझते थे और न कोई दूसरा ही उनकी बोली समझ सकता था। तब उपाय क्या? तो क्या भगवान् की महिमा के प्रचार का कोई उपाय न होगा? मैंने उनसे कहा-फ़्राइडे के पिता ने स्पेनिश भाषा सीखी है और आप भी कुछ कुछ स्पेनिश भाषा जानते हैं, इसलिए उसी के द्वारा आपका काम निकल जायगा।

यह बातचीत होने के पीछे मैंने अँगरेज़ों को बुला कर उनसे विधिपूर्वक ब्याह करने की बात कही। वे सभी इस प्रस्ताव पर सम्मत हुए। एटकिन्स ने अगुवा होकर कहा कि "हम लोग अपने पुत्र-कलत्र को इतना प्यार करते हैं कि उन्हें छोड़ हम लोग राजपद पाना भी सुखकर नहीं समझते।" स्त्रियों को विवाह का अर्थ अच्छी तरह समझा देने पर वे भी सन्तुष्ट हुईं।

दूसरे दिन ब्याह की तैयारी हुई। किन्तु पुरोहित ने एक उज्र पेश किया कि स्त्रियों को धर्म-दीक्षित किये बिना ब्याह कैसे होगा? मैंने उन सब को पुरोहित के उज्र की बात समझा दी। सभी ने स्वीकार किया कि उन लोगों ने अपनी स्त्रियों को कभी कुछ धर्मशिक्षा नहीं दी है। वे लोग स्वयं धर्मज्ञान से वञ्चित थे तो दूसरे को क्या उपदेश देते? कभी कभी ईश्वर के नाम से जो उन लोगों को सौगन्द खाने की बुरी आदत थी, इसीसे वे लोग इतना जानते थे कि ईश्वर कोई होवा। किन्तु उनका नाम केवल शपथ के लिए ही वे [ ३११ ] उपयुक्त समझ बैठे थे। परन्तु वास्तव में ईश्वर किसे कहते है यह समझ उन लोगों को न थी। ईश्वर की अलौकिक शक्ति और विचित्र लीला की ओर उन का ध्यान कभी नहीं जाता था। तब हमने उन लोगों से कहा,-"तुम लोग पहले ईश्वर की महिमा भली भाँति जान लो फिर स्त्रियों को ईश्वर पर विश्वास उत्पन्न करा कर उन्हें दीक्षित करो।" एटकिंस ने लम्बी साँस लेकर कहा-"हा भगवन्! मैं तो अत्यन्त दुराचारी और पापिष्ठ हूँ। मैं ईश्वर की महिमा के प्रचार करने का उपयुक्त पात्र नहीं।" मैने कहा-"सबकी अपेक्षा तुम्हीं विशेष उपयुक्त हो। दुष्कर्मी और पापियों को ईश्वर अनुताप के द्वारा पवित्र कर के उनपर अपनी दया और महत्व का प्रकाश करते हैं।" एटकिन्स ने गम्भीरतापूर्वक मेरी बात सुनी और वहाँ से उठ कर वह धीरे धीरे स्त्री के पास गया।

हम लोगों ने बड़ी देर तक उसके लौट आने की प्रतीक्षा को। इसके बाद उसे पुकारने जाकर देखा कि वे स्त्री-पुरुष एकत्र हो ईश्वर की उपासना कर रहे हैं। यह देख कर हम लोगों का हृदय हर्ष से उच्छ्वसित हो उठा। पुरोहित तो यह दृश्य देख कर अपनी आँखों के आनन्दाश्रु को न रोक सके। वे रोने लगे। उपासकों को उसी अवस्था में छोड़ कर हम चले आये। हमने जो उनको उपासना करते देखा था वह बात गुप्त ही रही। किसीसे हम लोगों ने कही नहीं।

कुछ देर बाद एटकिंस के लौट आने पर मैंने उससे बात ही बात में पूछा-एटकिंस, तुमने कहाँ तक लिखना-पढ़ना सीखा था? तुम्हारे पिता कौन थे?

एटकिंस-मेरे पिता पादरी थे। [ ३१२ ]मैं-उन्होंने तुमको क्या शिक्षा दी थी?

एटकिंस-उन्होंने मुझको शिक्षा देने में कोई त्रुटि नहीं की किन्तु मैंने उनका एक भी उपदेश ग्रहण नहीं किया। मैं बड़ा पापिष्ठ था। मैंही अपने पिता की मृत्यु का कारण हुआ।

मैं-तो क्या तुमने अपने बाप को मार डाला?

एटकिंस-मैंने अपने हाथ से उनका गला नहीं काटा, किन्तु अपने विरुद्धाचरण से उनके हृदय को सन्तप्त कर के मैं ही उनकी असमय-मृत्यु का कारण हुआ था।

मैं-अच्छा एटकिंस, इन बातों को जाने दो। बीती हुई बातों की आलोचना से क्या फल? इस बात की चर्चा से तुम्हें कष्ट तो नहीं हो रहा है?

एटकिंस-क्या कष्ट कुछ ऐसा वैसा है? वह मैं आपसे क्या कहूँ!

मैं-कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। तुम्हारे कष्ट का अनुभव स्वयं मेरे मन में हो रहा है। इस टापू के प्रत्येक वृक्ष, लता, गुफा और पहाड़ मेरी अकृतज्ञता के साक्षी हैं। मैं भी अपने बुरे आचरण के द्वारा अपने पिता की मृत्यु का कारण हुआ था। तुममें और मुझमें भेद इतना ही है कि तुम मेरी अपेक्षा अधिक अनुतप्त हुए हो। पर यह तो बतलाओ कि ऐसा भाव तुम्हारे मन में क्योंकर उत्पन्न हुआ?

एटकिंस-मैं अभी पहले पहल अपनी स्त्री को ईश्वर विषयक ज्ञान सिखलाने की चेष्टा कर रहा था। पर मैं उसे क्या सिखलाऊँगा; मैं ही उसके पास से धर्मतत्त्व की शिक्षा प्राप्त कर आया हूँ। [ ३१३ ]मैं-अच्छा एटकिंस, यह तो कहो कि तुमने स्त्री को क्या समझाया?

एटकिंस अपने और अपनी स्त्री के कथोपकथन का वर्णन करने लगा।

एटकिंस ने पहले स्त्री को यह समझा दिया कि ब्याह क्या है। इसके बाद उसने क्रम क्रम से ईश्वर का महत्व और उनकी अतुल दया की बात समझाई वह इतना बड़ा पापिष्ठ था तब भी भगवान् ने उसके अनेकानेक अपराधों को भुला कर उसे स्वास्थ्य, आनन्द, भोजन, पान और प्रणय का सुख प्रदान कर उसे सुरक्षित कर रक्खा है। इसके लिए उन्हें एक बार भी अब तक इस मुँह से धन्यवाद तक नहीं मिला। वे अपनी मूर्ख सन्तान को सत्यधर्म के पथ पर लाने की चेष्टा करते हैं। जो उस पथ पर आता है उसे वे असीम आनन्द देते हैं और उनकी कृपा से वह कृतकृत्य होता है। यह सुन कर उसकी स्त्री ने कहा-यदि ईश्वर सत्य और न्याय-परायण है, यदि वे सर्वशक्तिमान् और सृष्टि के विधायक हैं, यदि वे धर्म के बन्धु और पाप के शत्रु हैं तो मैं कभी उनकी आज्ञा के प्रतिकूल काम न करूँगी और न तुम्हींको बुरा काम करने दूँगी। वे दिन दिन हम लोगों के भले की कामना करते हैं। हम लोग अपनी चित्तवृत्ति के वशीभूत हो कर अपने आप अशुभ मार्ग पर जाकर धर्मभ्रष्ट होती हैं। हम अब बुरे मार्ग से बच कर चलेंगी। वही दीनबन्धु परमेश्वर हम लोगों को अशुभ प्रवृत्ति के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य देंगे और उन्हीं की कृपा से हम लोग उस पर विजय प्राप्त कर के सुखी होंगे। मैं तुम्हारे साथ नित्य शाम-सबेरे उनका गुण [ ३१४ ] गाऊँगी और उनसे अपने अपराध की क्षमा माँगूँगी। वह संसार के परिचालक एक अद्वितीय हैं।

स्त्री की यह बात सुन कर एटकिंस स्थिर नहीं रह सका। वह अपनी स्त्री को साथ ले कर ईश्वर की उपासना करने लगा। इसी अवस्था में हम लोगों ने उनको देखा था।

मेरे टापू में धर्म की स्थापना हुई। किन्तु वह धर्म, हृदय के आग्रह से, आप ही उत्तेजित हुआ था। इससे सम्प्रदाय की संकीर्णता इस धर्म में न थी। किसी तरह की खुशामद या आडम्बर की आवश्यकता न थी।

धार्मिक दीक्षा के बाद उन लोगों का फिर से विधिवत् ब्याह हुआ। उस दिन के ऐसा आनन्द और उत्सव मैंने अपनी ज़िन्दगी में प्रायः कभी न मनाया था।

उन स्त्री-पुरुषों को धर्म-दीक्षित कर के ही पुरोहित सन्तुष्ट न हुए, प्रत्युत टापू में जो ३७ असभ्य थे उनको धर्म-शिक्षा देने के लिए वे व्यग्र हो उठे।

मैं इस प्रकार टापू में सामाजिक और धार्मिक शिक्षा का सूत्रपात करके जब जहाज़ पर सवार होने की तैयारी कर रहा था तब उस नव-युवक ने, जिसे निराहार के कष्ट से मैंने बचाया था, आकर मुझसे कहा-महाशय, आपने सबका ब्याह तो विधिपूर्वक करा दिया, एक और ब्याह करा कर तब आप जायँ।

उसकी बात सुन कर मैं दङ्ग होगया। क्या यह छोकरा इस अधेड़ दासी के साथ ब्याह करना चाहता है? मैं उसे समझा कर कहने लगा-"देखो भैया, कोई काम एकाएक कर डालना [ ३१५ ] ठीक नहीं। तुम अच्छे घराने के मालूम होते हो। तुम्हारा शीलस्वभाव भी अच्छा है। देश में तुम्हारे स्वजनवर्ग भी हैं। ऐसी अवस्था में एक दासी के साथ ब्याह करना क्या तुम्हें अच्छा जान पड़ता है? फिर वह दासी भी तो तुम्हारे योग्य पात्री नहीं है। एक तो वह तुम्हारी टहलनी है, दूसरे तुमसे वह नौ दस वर्ष उम्र में बड़ी है। तुम अधिक से अधिक सत्रह-अठारह वर्ष के होगे और दासी की उम्र २६-२७ साल से कम न होगी। मैं तुमको इस द्वीप से तुम्हारे देश पहुँचा दूँगा। तब तुम ज़रूर इस हठकारिता के लिए अनुतप्त होगे और तुम दोनो का जीवन शोचनीय हो उठेगा।" मैं असम ब्याह के अनेक दोषों के सम्बन्ध में एक लम्बी वक्तृता देने चला था, किन्तु उसने मुसकुरा कर बड़ी नम्रता से मेरे व्याख्यान में बाधा डाल कर कहा-महाशय, आपने मेरी बात समझी नहीं। मेरा वह मतलब नहीं जो आपने समझा है। मैं दासी के साथ ब्याह करना नहीं चाहता। आपके लाये हुए मिस्त्री के साथ वह ब्याह करना चाहती है।

यह सुन कर मैं प्रसन्न हुआ। वह दासी जैसी शान्त-स्वभावा, शिष्ट और सुशीला थी वैसा ही उसने अपने लिए वर भी चुना था। मैने उसी दिन उस दासी का ब्याह कर दिया। उन वधू-वरों को मैंने यौतुक-स्वरूप कुछ ज़मीन दी और उस नव-युवक को भी थोड़ी सी ज़मीन दी। पीछे ये लोग आपस में जगह-ज़मीन के लिए लड़ाई-झगड़ा न करें, इसलिए सबके रहन-सहन, खेत-खलिहान आदि के योग्य ज़मीन के चारों ओर की सीमा निर्दिष्ट कर के पट्टा लिख दिया और उन लोगों से क़बूलियत लिखा ली। पट्टे पर मैंने अपनी मुहर कर दी और क़बूलियत पर उन लोगों का हस्ताक्षर करा कर गवाहों से भी [ ३१६ ] दस्तखत करा लिये। मैंने पट्टे में यह शर्त लिख दी कि इस ज़मीन की पैदावर पुश्त दरपुश्त तुम सुख से उपभोग कर सकोगे और यह ज़मीन बराबर तुम्हारे क़ब्ज़े में रहेगी। इसमें कभी किसीको किसी प्रकार का उज्र न होगा। यदि कोई किसीकी सम्पत्ति पर दावा करेगा तो वह दावा अनुचित समझा जायगा।

यदि आपस में किसी तरह का कोई झगड़ा छिड़ जाय तो वे लोग आपस में ही पञ्चों के द्वारा तसफ़िया कर लें। उन लोगों का समाज साधारण-तन्त्र-प्रणाली के अन्तर्गत रहे। कोई किसी के ऊपर हुकूमत न कर सकेगा और न कोई प्रधान बन कर ही कोई काम कर सकेगा। सब लोग आपस में मिल जुल कर काम करेंगे। ३७ असभ्यों को भी इस समाज के अन्तर्गत कर लेना होगा। वे लोग मज़दूरी कर के अपना गुज़ारा करेंगे। किन्तु वे लोग एक दम खरीदे हुए दास न समझे जायँ। उन लोगों को इतनी स्वाधीनता अवश्य रहेगी कि वे जहाँ चाहे कमा खायें। किसी का उनपर जोर नहीं रहेगा। मैंने इस प्रकार की व्यवस्था कर दी जिससे कोई किसीके साथ मेरे परोक्ष में विवाद न करे। असभ्यों में प्रायः सभी ने मज़दूरी करना स्वीकार किया; उनमें सिर्फ चार-पाँच व्यक्तियों ने खुद खेती करके जीवन निर्वाह करने की इच्छा प्रकट की। उन्हें भी मैंने थोड़ी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दी। वे असभ्य लोग अब सभ्यमण्डली में आने से शिक्षा-दीक्षा के उपयुक्त-पात्र समझे गये।

दासी सचमुच ही बड़ी धर्म-शीला थी। उसने सब स्त्रियों को धर्मोपदेश देकर सबके हृदय में धर्म-निष्ठा जागृत [ ३१७ ] कर दी। विल एटकिंस पुरुषों में धर्म का प्रचार करने लगा। अहा! ईश्वर की बड़ी विचित्र महिमा है! जो व्यक्ति दो दिन पहले उनका नाम न लेता था वही आज उनकी महिमा का सर्वश्रेष्ठ प्रचारक बन बैठा। मैंने इन लोगो को अपनी बाइबिल दी। एटकिंस ने उस ग्रन्थ को देख कर बड़े आग्रह से दोनों हाथों से उठा लिया और मारे खुशी के उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने अपनी स्त्री को पुकार कर कहा-देखो, देखो, जिस ग्रन्थ के लिए मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था वह ग्रन्थ आज अनायास मुझे मिल गया। यह ग्रन्थ हम लोगों की अज्ञता का निवारक, धर्म-पथ का शिक्षक, विपद में सहायक और शोक के समय धैर्यदायक होगा।

एटकिंस की स्त्री ने समझा कि स्वयं ईश्वर ने हम लोगों के उपकारार्थ यह ग्रन्थ भेज दिया है। मैंने उन लोगों को समझा दिया कि ईश्वर अप्रत्यक्ष-कारण होने पर भी वे मनवाणी के अगोचर है। वे जो कुछ करते है अप्रकट रूप से ही करते हैं। उनका अलौकिक कार्य ही उनके कारण होने का पूरा प्रमाण है। धूर्त पुरोहितगण इसी विषय को लेकर अनेक सम्प्रदाय कल्पित करके उन्हें विविध-भ्रान्त-धारणाओं में उलझा रखते हैं। किन्तु मेरी इच्छा थी कि मेरे टापू में बुद्धिविचार से ही धर्म की प्रतिष्ठा हो।

मैं इन लोगों के लिए जलक्रीड़ा करने के उपयुक्त नाव और तोप लाया था। वे दोनों चीज़ मैंने इन लोगों को न दीं। कारण यह कि ये लोग जो इतने दिनों से आपस में लड़ते झगड़ते आये हैं, सो कौन जाने मेरे परोक्ष में ये लोग फिर वैसे ही झगड़ने लग जायँ तब तो सर्वनाश ही होगा। [ ३१८ ]मैं इन लोगों से बिदा हो छठी मई को जहाज़ पर सवार हुआ। आज कल करते करते टापू में पच्चीस दिन बीत गये। इँगलैन्ड से मैं जो पशु लाया था वे रास्ते ही में मर गये थे। इसलिए द्वीप-निवासियों से मैंने चलते समय कहा कि हो सकेगा तो ब्रेज़िल से कुछ पशु भेज दूँगा। दूसरे दिन पाँच बार तोप की आवाज़ के द्वारा रवानगी का संकेत कर के मैं जहाज़ पर चढ़ा।